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भारत: जम्मू और कश्मीर में दमन जारी

संवैधानिक स्वायत्तता रद्द किए जाने के तीन साल बाद भी अधिकारों पर प्रतिबंध

जम्मू और कश्मीर में अपनी सहकर्मी रजनी बाला की हत्या के विरोध में प्रदर्शन करते जम्मू और कश्मीर शिक्षक संघ के कर्मचारी, भारत, 2 जून, 2022.   © 2022 एपी फोटो/चन्नी

(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारतीय सरकारी तंत्र जम्मू और कश्मीर की विशेष स्वायत्त स्थिति रद्द करने के तीन साल बाद इस क्षेत्र में स्वतंत्र अभिव्यक्ति, शांतिपूर्ण सभा और अन्य बुनियादी अधिकारों पर प्रतिबंध लगा रहा है. सरकार की दमनकारी नीतियों और सुरक्षा बलों के कथित उत्पीड़न की जांच एवं अभियोजन में विफलता ने कश्मीरियों में असुरक्षा बढ़ा दी है.

5 अगस्त, 2019 को भारत सरकार ने सुरक्षा और सुधार का वादा करते हुए, जम्मू और कश्मीर की संवैधानिक स्वायत्तता रद्द कर दी और राज्य को दो केंद्रशासित क्षेत्रों में बांट दिया. सरकार ने इस कार्रवाई के साथ अधिकारों का गंभीर उल्लंघन किया जिनमें सैकड़ों लोगों को मनमानी हिरासत, संचार सेवाओं पर पूरी तरह रोक और स्वतंत्र आवाजाही एवं शांतिपूर्ण सभा पर कड़े प्रतिबंध शामिल थे. तब से, सरकारी तंत्र ने अनेक बंदियों को रिहा किया और इंटरनेट सेवा बहाल की है, लेकिन आतंकवाद-निरोधी और जन सुरक्षा कानूनों का बारम्बार इस्तेमाल करते हुए मीडिया और नागरिक समाज समूहों पर अपनी कार्रवाई तेज कर दी है.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति रद्द करने के तीन साल बाद, भारतीय सरकारी तंत्र अधिकार और जवाबदेही सुनिश्चित करने के मुकाबले सामान्य स्थिति की छवि पेश करने को लेकर अधिक चिंतित मालूम पड़ता है. सरकार को मूलभूत स्वतंत्रता पर हमले ख़त्म करने चाहिए और जोखिमों से घिरे अल्पसंख्यक समूहों को सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए.”

सरकारी तंत्र ने छापे मारने और पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और राजनीतिक नेताओं को सबूत एवं समुचित न्यायिक समीक्षा के बगैर मनमाने ढंग से हिरासत में लेने के लिए जम्मू और कश्मीर जन सुरक्षा कानून का इस्तेमाल किया और साथ ही उनपर आतंकवाद के आरोप मढ़े हैं. सरकार ने बिना कारण बताए कई प्रमुख कश्मीरियों की विदेश यात्रा पर रोक लगा दी है. अगस्त 2019 से, उग्रवादियों ने अल्पसंख्यक हिंदू और सिख समुदायों के 21 लोगों समेत कम-से-कम 118 नागरिकों की हत्या की है.

नवंबर 2021 में, सरकार ने प्रमुख कश्मीरी मानवाधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज को राजनीति से प्रेरित आरोपों में दमनकारी आतंकवाद निरोधी कानून, गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत गिरफ्तार किया. 44 साल के परवेज जम्मू एंड कश्मीर कोलिशन ऑफ सिविल सोसाइटी के कार्यक्रम समन्वयक हैं और एशियन फेडरेशन अगेंस्ट इनवोलंटरी डिसअपीयरेंस के अध्यक्ष हैं. उन्होंने कश्मीर में जबरन गायब होने के मामलों का दस्तावेजीकरण किया है और अचिह्नित कब्रों की जांच की है, और इसके नतीज़े के तौर पर, भारतीय सरकारी तंत्र ने उनके मानवाधिकार कार्यों के लिए उन्हें बार-बार निशाना बनाया है.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने उनकी तत्काल रिहाई का मांग करते हुए कहा, “यह खेदजनक है कि सरकार नागरिक समाज, मीडिया और मानवाधिकार रक्षकों की मौलिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने के लिए यूएपीए का इस्तेमाल जबरन दवाब बनाने के लिए कर रही है.”

कश्मीर में पत्रकारों को आतंकवाद के आरोपों में छापेमारी और मनमानी गिरफ्तारी सहित सुरक्षा बलों के अधिकाधिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है. भारतीय सरकारी तंत्र ने दुनिया में किसी भी जगह के मुकाबले इंटरनेट पर सबसे ज्यादा प्रतिबंध लगाए गए हैं. ऐसे ज्यादातर प्रतिबंध कश्मीर में लगाए गए हैं जहां इनका इस्तेमाल विरोध प्रदर्शनों को दबाने और सूचनाओं तक पहुंच को रोकने के लिए किया गया है.

अगस्त 2019 के बाद, कश्मीर में कम-से-कम 35 पत्रकारों को अपनी रिपोर्टिंग के लिए पुलिस पूछताछ, छापेमारी, धमकी, हमलों, आवाजाही की आज़ादी पर प्रतिबंधों या मनगढ़ंत आपराधिक मामलों का सामना करना पड़ा है. जून 2020 में, सरकार ने नई मीडिया नीति घोषित की, जिसने इस क्षेत्र में अधिकारियों के लिए समाचारों को सेंसर करना आसान बना दिया है. 2022 में, सरकार ने जन सुरक्षा कानून के तहत फहद शाह, आसिफ सुल्तान और सज्जाद गुल को फिर से तब गिरफ्तार कर लिया, जब उन्हें उनकी पत्रकारिता के खिलाफ दायर अन्य मामलों में जमानत दे दी गई थी. 
2019 के बाद, सुरक्षा बल जांच-चौकियों पर नियमित रूप से हैरान-परेशान करने और दुर्व्यवहार, मनमाने ढंग से हिरासत में लेने और गैर-न्यायिक हत्याओं सहित कई प्रकार के उत्पीड़न में संलिप्त रहे हैं. मार्च में, संयुक्त राष्ट्र के पांच विशेषज्ञों ने भारत सरकार को पत्र लिखकर कश्मीरी राजनेता वहीद पारा की नजरबंदी; दुकानदार इरफान अहमद डार की हिरासत में कथित हत्या; और शोपियां जिले के निवासी नसीर अहमद वानी के जबरन गायब होने के बारे में जानकारी मांगी. उन्होंने “दमनकारी कार्रवाइयों और स्थानीय आबादी के मौलिक अधिकारों के सुनियोजित उल्लंघन के व्यापक तौर-तरीकों के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा बलों द्वारा धमकी, तलाशी और जब्ती पर चिंता जताई.”

सुरक्षा बल के हाथों हुईं इन हालिया कथित गैर-न्यायिक हत्याओं या उनके द्वारा पूर्व में की गई हत्याओं और उत्पीड़नों के लिए कोई जवाबदेही तय नहीं है. आंशिक रूप से ऐसा सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (अफ्स्पा) के कारण है जो सुरक्षा बलों को अभियोजन से प्रभावी प्रतिरक्षा प्रदान करता है. 1990 में जम्मू और कश्मीर में यह कानून लागू होने के बाद, भारत सरकार ने नागरिक अदालतों में किसी भी सुरक्षा बल कर्मी के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाज़त नहीं दी है. अधिकार समूहों ने लंबे समय से तथ्य और आंकड़ों के संकलन के जरिए बताया है कि यह कानून राज्य के उत्पीड़न, दमन और भेदभाव का हथियार बन गया है, और उन्होंने इसे निरस्त करने की मांग की है. इस कानून से प्रभावित निवासियों, कार्यकर्ताओं, सरकार द्वारा नियुक्त समितियों, राजनीतिक नेताओं और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार निकायों ने भी कानून की आलोचना की है.

1989-90 में उग्रवादी समूहों द्वारा एक-के-बाद-एक हमलों के बाद लाखों कश्मीरी - उनमें से ज्यादातर हिंदू थे, जिन्हें पंडित के रूप में जाना जाता है - मुस्लिम-बहुल कश्मीर घाटी से विस्थापित हुए. सरकार उनकी सुरक्षित वापसी में विफल रही है. मई 2022 में बडगाम जिले में कश्मीरी पंडित सरकारी कर्मचारी राहुल भट की उनके कार्यालय में गोली मार कर हत्या कर दी गई. इस घटना के बाद कश्मीर घाटी में सरकारी नौकरियों में कार्यरत कश्मीरी पंडित अपने तबादले की मांग को लेकर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर हैं.

सरकार का दावा है कि उसने कश्मीर घाटी में 5,502 कश्मीरी पंडितों को सरकारी नौकरी दी है और 2019 के बाद किसी कश्मीरी पंडित का इस क्षेत्र से पलायन नहीं हुआ है. हालांकि, 1 जून को इस क्षेत्र की अल्पसंख्यक आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले समूह कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति ने इस क्षेत्र के मुख्य न्यायाधीश को अपनी सुरक्षा के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए पत्र लिखा जिसमें उन्होंने सरकार पर उनका पुनर्स्थापन रोकने का आरोप लगाया है और उच्च न्यायालय से हस्तक्षेप की मांग की गई है.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि मानवाधिकार संबंधी चिंताएं दूर करने के बजाय, भारतीय अधिकारियों ने विकास कार्यों का हवाला देने की कोशिश की है. एक साल पहले, विदेश मंत्री ने कहा था कि सरकारी नीतियों ने कश्मीर में सही मायने में “लोकतंत्र, विकास, सुशासन और सशक्तीकरण” का मार्ग प्रशस्त किया है. जुलाई में, कश्मीर की एक यात्रा के दौरान गृह मंत्री ने कहा कि “कश्मीर में एक नए युग की शुरूआत हुई” है और यह “शांति और विकास के पथ” पर अग्रसर है.

गांगुली ने कहा, “कश्मीर में सुरक्षा बलों की छापेमारी और उग्रवादियों द्वारा लक्षित हमले हिंसा  के अंतहीन चक्र की डरावनी यादों को ताजा करते हैं जो भारत सरकार की दमनकारी नीतियों और उत्पीड़नकारी सुरक्षा बलों की जवाबदेही तय करने में विफलता से जुड़ी हैं. भारतीय सरकारी तंत्र को चाहिए कि सुरक्षा बल के उत्पीड़न के लिए न्याय सुनिश्चित करे और कश्मीरी लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाली नीतियों का अंत करे.”

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