(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि 5 अगस्त, 2019 को जम्मू और कश्मीर का संवैधानिक दर्जा रद्द करने के एक साल बाद भारत सरकार ने राज्य के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में कठोर और भेदभावपूर्ण प्रतिबंधों को जारी रखा है. कोविड-19 महामारी ने सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार, और सूचना, स्वास्थ्य देखभाल तथा शिक्षा तक पहुंच पर लगाए गए अनुचित प्रतिबंधों को और घनीभूत किया है. 3 अगस्त, 2020 को सरकार ने संवैधानिक स्वायत्तता रद्द करने के पिछले साल के फैसले के खिलाफ “हिंसक विरोध” रोकने के लिए आवाजाही पर दो दिनों के प्रतिबंध का आदेश जारी किया है.
जम्मू-कश्मीर की स्वायत्त संवैधानिक स्थिति रद्द करने और इसे दो केंद्र शासित राज्यों में विभाजित करने के बाद अशांति का पूर्वानुमान लगाते हुए, भारत सरकार ने आवाजाही की आज़ादी पर व्यापक प्रतिबंध लगाए, सार्वजनिक बैठकों पर रोक लगा दी, दूरसंचार सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों को बंद कर दिया और हजारों लोगों को हिरासत में लिया. हालांकि, बाद के महीनों में सरकार ने प्रतिबंधों में थोड़ी ढील दी, लेकिन अभी भी सैकड़ों लोग बिना किसी आरोप के हिरासत में हैं, सरकार के आलोचकों को गिरफ़्तारी की धमकी दी जाती है और इंटरनेट तक पहुंच सीमित कर दी गई है.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “जम्मू और कश्मीर की संवैधानिक स्थिति रद्द करने के एक साल बाद भारत सरकार का यह दावा खोखला साबित हुआ है कि वह कश्मीरियों की ज़िन्दगी बेहतर बनाने के लिए कृत संकल्प है. इसके बजाय, सरकार ने कश्मीरियों के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन करते हुए उन पर सख्त प्रतिबंधों को बनाए रखा है.”
विरोध प्रदर्शनों की रोकथाम के लिए हिरासत में लिए गए हजारों लोगों में तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत सभी प्रमुख राजनीतिक नेता शामिल थे. पुलिस ने अदालतों को बताया कि 144 बच्चों को भी हिरासत में लिया गया था. हालांकि गिरफ्तार किए गए अधिकांश लोगों को रिहा कर दिया गया है, लेकिन जम्मू कश्मीर कोएलिशन ऑफ़ सिविल सोसायटी ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं के आधार पर बताया कि 400 से अधिक लोग अब भी कठोर जन सुरक्षा कानून के तहत हिरासत में हैं. यह कानून बगैर सुनवाई के दो साल तक लोगों को हिरासत में रखने की अनुमति देता है.
सुरक्षा बलों द्वारा नई गिरफ्तारियां, यातना और दुर्व्यवहार के कई आरोप भी सामने आए हैं. सरकार ने शांतिपूर्ण आलोचनाओं को दबाने के लिए कठोर आतंकवाद निरोधी और राष्ट्रद्रोह कानूनों का भी इस्तेमाल किया है. 29 जून, 2020 को सरकार ने व्यवसायी मुबीन शाह पर राजद्रोह का मामला दर्ज किया क्योंकि उन्होंने निवास की अनुमति संबंधी प्रतिबंधों को हटाकर जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम-बहुल जनसांख्यिकीय स्थिति बदलने की सरकारी कोशिशों की आलोचना की थी.
अप्रैल में, पुलिस ने पत्रकार गौहर गिलानी और पीरज़ादा आशिक एवं फोटो जर्नलिस्ट, मसरत ज़हरा के खिलाफ यह दावा करते हुए आपराधिक जांच शुरू की कि उनके सोशल मीडिया पोस्ट्स या रिपोर्टिंग “राष्ट्र-विरोधी” हैं. 31 जुलाई को, पूर्व में जन सुरक्षा कानून के तहत कैद रह चुके संपादक काज़ी शिबली से पूछताछ कर उन्हें हिरासत में ले लिया गया.
जून में, सरकार ने जम्मू और कश्मीर के लिए नई मीडिया नीति घोषित की जिसमें सरकार को “फेक न्यूज़, साहित्यिक चोरी और अनैतिक या देशविरोधी गतिविधियां” तय करने और मीडिया संस्थानों, पत्रकारों तथा संपादकों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने का अधिकार दिया गया है.
इस नीति में ऐसे अस्पष्ट और अनिर्दिष्ट प्रावधान हैं जिनका दुरुपयोग हो सकता है और ये कानूनी रूप से संरक्षित अभिव्यक्ति की आजादी को अनावश्यक रूप से प्रतिबंधित और दंडित कर सकते हैं. अंतर्राष्ट्रीय कानून के मुताबिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य या दूसरों के अधिकारों की रक्षा जैसे किसी न्यायसंगत उद्देश्य के लिए लगाया जाना चाहिए, और इसे पूरी तरह इस उद्देश्य की प्राप्ति के अनुरूप होना चाहिए.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि सरकार की कठोर कार्रवाई से आजीविका, विशेषकर कश्मीर घाटी के पर्यटन उद्योग पर निर्भर आजीविका पर प्रतिकूल असर पड़ा है. कश्मीर चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के अनुमान के मुताबिक अगस्त 2019 के बाद विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए पहले तीन माह में लगाए गए प्रतिबंधों से अर्थव्यवस्था को 2.4 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ, जिसकी भरपाई के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया. मार्च में कोविड-19 के प्रसार को काबू करने के लिए सरकार द्वारा लागू किए गए नए प्रतिबंधों के बाद नुकसान लगभग दोगुना हो गया है.
महामारी ने सूचना, संचार, शिक्षा और व्यापार के लिए इंटरनेट तक पहुंच को महत्वपूर्ण बना दिया है. हालांकि, सरकार ने इंटरनेट तक पहुंच को मौलिक अधिकार बताने वाले सुप्रीम कोर्ट द्वारा जनवरी में दिए गए आदेशों पर नाममात्र पालन किया है और केवल धीमी गति वाली 2G मोबाइल इंटरनेट सेवाओं की अनुमति दी है.
डॉक्टरों ने शिकायत की है कि इंटरनेट की कमी कोविड-19 के इलाज़ में बाधा पहुंचा रही है. एक डॉक्टर ने कहा, “यह एक नया वायरस है. अनुसंधान, अध्ययन, दिशानिर्देश और अपडेट हर दूसरे दिन बदल रहे हैं. इंटरनेट दुनिया भर के विकास क्रमों पर नज़र रखने में डॉक्टरों की मदद करता है, लेकिन हम हाई स्पीड इंटरनेट के अभाव में वीडियो लेक्चर या अन्य जानकारी तक नहीं पहुंच पाते हैं.”
आवाजाही पर प्रतिबंध हटते ही कक्षाओं में छात्रों के लौटने के तुरंत बाद, सरकार ने कोविड-19 लॉकडाउन की घोषणा कर दी. पर्याप्त इंटरनेट के बिना, छात्र अक्सर ऑनलाइन कक्षाएं नहीं कर पाते हैं. ह्यूमन राइट्स फोरम फॉर जम्मू और कश्मीर ने अगस्त 2019 के बाद मानवाधिकार उल्लंघन संबंधी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि शिक्षा पर खास तौर से गंभीर प्रभाव पड़ा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि “कोविड-19 को नियंत्रित करने हेतु लॉकडाउन के बाद, नेटवर्क को 2G तक सीमित करने से पर्याप्त तौर पर ऑनलाइन कक्षाओं का संचालन असंभव हो गया है. स्नातक के छात्र और शिक्षक कांफ्रेंस में भाग नहीं ले पा रहे रहे हैं और न ही उनके पेपर प्रकाशित हो रहे हैं, जिससे उनके करियर को सुविचारित तरीके से नुकसान पहुंचाया जा रहा है और उनके शिक्षा अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है.”
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बेशलेत ने जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघनों पर बार-बार चिंता व्यक्त की है.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत सरकार को अधिकारों की रक्षा के लिए राजनीतिक बंदियों को रिहा करने; पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के खिलाफ मामले वापस लेने समेत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कायम रखने; इंटरनेट तक पहुंच पूरी तरह बहाल करने; और मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की जवाबदेही तय करने जैसे तत्काल कदम उठाने चाहिए.
गांगुली ने कहा, “जहां महामारी दुनिया को भेदभाव और असमानता दूर करने के लिए मजबूर कर रही है, भारत सरकार कश्मीरी मुसलमानों का दमन जारी रखे हुई है. सरकार को अपनी दमनकारी नीतियां वापस लेनी चाहिए और उन लोगों के कष्टों को दूर करने के लिए काम करने चाहिए जिनके अधिकारों का उल्लंघन किया गया है.”