नयी दिल्ली, भारत में पुलिस अधिकारी, जनवरी 2016  भारत में पुलिस पर अक्सर उत्पीड़न की जवाबदेही से अपने साथियों को बचाने का इल्जाम लगाया जाता है.

“भाईचारे में बंधे”

पुलिस हिरासत में हत्याएं रोकने में भारत असफल

नयी दिल्ली, भारत में पुलिस अधिकारी, जनवरी 2016  भारत में पुलिस पर अक्सर उत्पीड़न की जवाबदेही से अपने साथियों को बचाने का इल्जाम लगाया जाता है. © 2016 रायटर्स

सारांश

कथित अभियुक्त के शरीर पर चोटों के बारे में मुझे यह कहना है. क्योंकि वह एक दुर्दांत अपराधी था, उसने जानकारी देने से इनकार कर दिया. यह ज़रूरी था कि उससे जानकारी हासिल की जाये, इसलिए.... (पुलिस ने) “सच उगलवाने” वाले बेल्ट का इस्तेमाल किया और मेरे सामने ही उसकी पिटाई कर दी. मार के बाद वह इतना कमज़ोर हो गया था कि जब वह पानी पीने के लिए उठा, तो दर्द से चक्कर खाकर खिड़की पर ढेर हो गया, जिससे उसका निचला जबड़ा टूट गया.


–जुल्फर शेख की हिरासत में मौत की जांच के दौरान पुलिस कांस्टेबल का बयान, मुंबई, मार्च 2013.

राजकीय जांच एजेंसी द्वारा की गयी पूरी जांच, पूरा-का-पूरा घबराहट में उठाया गया एक ऐसा कदम है जो नुक्सान के दायरे को सीमित करने का प्रयास प्रतीत होता है, ताकि पुलिस के आला अफसरों पर कोई आंच न आये.


–प्रतिम कुमार सिंघा रे बनाम भारतीय संघ और अन्य, पुलिस हिरासत में मौत के मामले में कलकत्ता उच्च की टिप्पणी, मई, 2013.

भारत में पुलिस हिरासत में अपराधिक अभियुक्तों की अक्सर मौत हो जाती है. इस दीर्घकालिक समस्या के समाधान के लिए, भारतीय अधिकारियों ने, जिनमें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग शामिल है, ऐसी विस्तृत नियमावली बनाई है जो पुलिस द्वारा यातना और दुर्व्यवहार को रोकने में कारगर हो सके, और साथ ही दोषी पुलिसकर्मियों को सज़ा मिल सके. लेकिन, भारतीय पुलिस अभी भी संदिग्धों को सजा देने, उनसे जानकारी हासिल करने या अपराध कबूल करवाने के लिए उन्हें यातना देती है.

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार, सन 2010 से 2015 के बीच पुलिस हिरासत में 591 लोगों की मौत हुई. इनमें से अधिकांश मौतों को पुलिस आत्महत्या, बीमारी या प्राकृतिक कारण बताती है. उदाहरण के लिए, सन 2015 में भारतीय अधिकारियों के अनुसार कुल 97 हिरासत में मौतें हुईं. पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक इनमें मात्र 6 मौतें पुलिस द्वारा शारीरिक प्रताड़ना के कारण हुईं, 34 मौतें आत्महत्या के कारण, 11 बीमारी ही वजह से, 9 प्राकृतिक मौत और 12 मौतें इलाज के दौरान या अस्पताल में हुईं. हालाँकि इनमें से बहुत से मामलों में परिजनों ने आरोप लगाया कि यह मौतें यातना के कारण हुई थीं.

यद्यपि कुछ मामलों में अदालतों, मानवाधिकार आयोगों या अन्य प्राधिकारों ने जांच के आदेश दिए, ह्यूमन राइट्स वाच ने सन 2010 से 2015 के बीच पुलिस हिरासत में मौत का एक भी मामला ऐसा नहीं पाया जहाँ पुलिस अधिकारी को सज़ा दी गयी हो. सन 2016 में मुंबई में 4 पुलिसकर्मियों को बीस वर्षीय अभियुक्त की सन 2013 में हिरासत में मौत के लिए सज़ा दी गयी.

यह रिपोर्ट भारत में हिरासत में मौतों के मामलों में लगातार दंडमुक्ति के कारणों को भी बारीकी से जांचती है, और ऐसे उपाय सुझाती है जिन पर अधिकारीगण अमल कर सकते हैं, और उन्हें अमल में लाना चाहिए ताकि इस समस्या पर विराम लगाया जा सके. इस रिपोर्ट में समस्या के दायरे को समझने के लिए सन 2009 से 2015 के बीच हिरासत में 17 मौतों की ह्यूमन राइट्स वाच द्वारा गहन जांच-पड़ताल के विवरण, भारतीय संगठनों के शोध और पीड़ित परिजनों, गवाह, न्याय विशेषज्ञ और पुलिस अफसरों के 70 से अधिक साक्षात्कार शामिल हैं जो ह्यूमन राइट्स वाच द्वारा लिए गए हैं.

आखिरकार, पुलिस द्वारा दुर्व्यवहार यह दर्शाते हैं कि भारत की केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारें जवाबदेही के तंत्र को लागू करने में असफल रही हैं. स्पष्ट नियमावली के बावजूद, सख्ती से जांच करने में अधिकारीगण आम तौर पर असफल रहे हैं, और गिरफ्तार व्यक्ति के साथ यातना और दुर्व्यवहार में लिप्त पुलिस अफसरों के खिलाफ मुकदमा चलाने में भी असफल रहते हैं.

पुलिस जांच दल केवल लिप्त पुलिस अफसरों के बयान के आधार पर ही अक्सर इन मामलों को बंद कर देते हैं. दिल्ली स्थित मानवाधिकार संगठन कामनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव, जो लम्बे समय से पुलिस सुधारों के लिए अभियान चलाता रहा है, की कार्यकारी निदेशक माजा दारूवाला का कहना है कि हालांकि पुलिस इस बात से इंकार करती है कि वह दुर्व्यवहार में शामिल पुलिस अफसरों को बचाने का प्रयास करती है, फिर भी जवाबदेही और निगरानी दोनों के ही बीच बड़ी खाई है: “एक संगठन के रूप में पुलिस को यह तय करना है कि पुलिस की करतूतों, गैर-कानूनी कार्रवाइयों और हत्या जैसी वारदात को ढंकना ही क्या उनकी कार्यकुशलता है.

इस रिपोर्ट में दर्ज किये गए अधिकाँश मामले ऐसे हैं जहाँ परिजनों ने वकीलों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की मदद से न्याय की अपेक्षा की है, और जिन मामलों में पुलिस और मेडिकल रिकॉर्ड और अन्य सम्बंधित दस्तावेज़ सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं इनमें से कई मामले अभी भी न्यायालयों में लंबित हैं. इनमें से कई मामलों में न्यायालयों द्वारा स्वतंत्र जांच के आदेश दिए गए, और जिनमें शारीरिक दुर्व्यवहार के अकाट्य सबूतों के अलावा निर्धारित प्रक्रिया के गंभीर उल्लंघन स्पष्ट रूप से उजागर हुए.

सभी 17 मामलों में, पुलिस ने गिरफ्तारी के सही नियमों का पालन नहीं कियाजिसमें गिरफ़्तारी का दस्तावेज़ीकरण, परिजनों को सूचित करना, मेडिकल परीक्षण कराना, या 24 घंटों के भीतर अभियुक्त को दंडाधिकारी के समक्ष पेश करना शामिल हैंजिसके कारण दुर्व्यवहार झेलने के लिए अभियुक्त और भी असुरक्षित हो गया, और इसके चलते ही शायद पुलिस को यकीन हो गया कि किसी भी दुर्व्यवहार को ढंका जा सकता है. इनमें से अधिकांश मामलों में, जांच अधिकारी, खासकर पुलिस, ऐसे कदम उठाने में विफल रही जिनसे इन मौतों की जवाबदेही सुनिश्चित करने में मदद मिलती.

गिरफ्तारी की उचित प्रक्रिया के पालन में पुलिस की विफलता

आमतौर पर यातना की सम्भावना अभियुक्त को पहली बार हिरासत में लेने के समय ही बनती है, इसीलिए यातना और मौत को रोकने के लिए गिरफ्तारी सम्बंधित प्रक्रिया का पालन करना अहम् है. उदाहरण के लिए, हैदराबाद में पुलिस ने बी. जनार्धन को 2 अगस्त, 2009 को हिरासत में लेने के बाद रजिस्टर में उसकी गिरफ्तारी दर्ज नहीं की. परिजनों का कहना है कि उन्होनें जनार्धन को 3 अगस्त को पुलिस हिरासत में देखा था जब चार पुलिसकर्मी उसे कुछ समय के लिए उसके घर लेकर आये थे; उसे हथकड़ी लगी हुई थी, और अफसर उसे लगातार पीट रहे थे. 4 अगस्त, 2009 को पुलिस हिरासत में जनार्धन की मौत हो गयी. पुलिस ने किसी भी गलत काम से साफ़ इनकार कर दिया, और परिजनों से कहा कि हम क्या कर सकते थे? वह तो ह्रदयगति रूकने से मर गया. लेकिन जनार्धन के भाई सदानंद ने कहा कि उसके शरीर पर चोटों के निशान थे जो स्पष्ट रूप से पुलिस की पिटाई के कारण थे. पुलिस ने पहले तो इनकार किया कि जनार्धन दो दिनों तक गैरकानूनी तौर से हिरासत में था, लेकिन विरोध के चलते, पुलिस मुखिया ने स्वीकार किया कि अफसरों द्वारा लापरवाही हुई है, और जनार्धन को पुलिस थाने में लाया जाना चाहिए था, और उसकी गिरफ्तारी को कानूनन दर्ज किया जाना चाहिए था, ना कि उसे तलाशी अभियान में लेकर जाना चाहिए था.

जैसा कि जनार्धन के मामले में हुआ, भारतीय पुलिस अक्सर दो दशक पहले सन 1997 के डी. के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल मुक़दमे में हिरासत में दुर्व्यवहार को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी नियमावली को नज़रंदाज़ करती है. अब जबकि इस नियमावली को संशोधित आपराधिक दंड संहिता में शामिल कर लिया गया है, किसी को भी हिरासत में लेते समय पुलिस को नियमानुसार अपनी पहचान बतानी होगी; एक मेमो बनाना होगा जिसमें हिरासत में लिए जाने की तारीख और समय दर्ज हो, जिस पर एक स्वतंत्र गवाह द्वारा दस्तखत किया जायेगा और हिरासत में लिए जाने वाले व्यक्ति का प्रतिहस्ताक्षर भी होना ज़रूरी है; और यह सूनिश्चित करना होगा की उसके नजदीकी परिजन को गिरफ्तारी के बारे में और हिरासत में रखे जाने के स्थान की जानकारी मिले.

नियमानुसार, हिरासत में लेने के बाद गिरफ्तार व्यक्तियों का मेडिकल परीक्षण करवाना होगा, जिसमें डॉक्टर को पहले से लगी चोटों का विवरण देना होगा -ताकि नयी चोटों से हिरासत में पुलिस दुर्व्यवहार का पता लग जाये. पुलिस दुर्व्यवहार से बचने के लिए यह प्रावधान है कि गिरफ्तार व्यक्ति को अगले 24 घंटों के भीतर एक दंडाधिकारी के समक्ष पेश किया जाए. दंडाधिकारियों का यह कर्तव्य बनता है कि वे पुलिस को अपने अधिकार क्षेत्र लांघने से रोकें, इसके लिए उन्हें गिरफ्तारी से सम्बंधित दस्तावेजों का बारीकी से मुयायना करना चाहिए, और अभियुक्त के कुशल-क्षेम को सुनिश्चित करते हुए उससे सीधे-सीधे सवाल-जवाब करना चाहिए.

व्यवहार में इन सुरक्षा कवचों के ज़रिये हिरासत में क्रूर यातनाओं को नहीं रोका जा सका है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, सन 2015 में हिरासत में 97 मौतों में से 67 मामलों में पुलिस अभियुक्त को कानून के अनुसार 24 घंटों के अन्दर दंडाधिकारी के समक्ष पेश करने में या तो विफल रही है या गिरफ्तारी के बाद 24 घंटों के भीतर ही अभियुक्त के मौत हो गई है.

अप्रैल 2014 में एग्नेलो वल्दारिस और तीन सह-अभियुक्तों से पुलिस ने मुंबई में मारपीट की ताकि वे सामान चोरी के इलज़ाम को कबूल कर लें. हालांकि अभियुक्तों ने बताया कि उन्हें आगाह किया गया था कि वे मेडिकल परीक्षण के दौरान कुछ भी न बताएं, फिर भी उसकी मेडिकल रिपोर्ट में यह रिकॉर्ड मौजूद है कि एग्नेलो वल्दारिस ने डॉक्टर को बताया था कि उसके जख्म पुलिस प्रताड़ना के नतीजे हैं. इसके पहले कि उसे दंडाधिकारी के सामने पेश किया जाए, पुलिस ने बताया कि वल्दारिस एक ट्रेन से टकराकर मर गया जब वह भागने कि कोशिश कर रहा था – एक ऐसा निष्कर्ष जिस पर उसके सह-अभियुक्तों को कतई यकीन नहीं था क्योंकि उसकी शारीरिक दशा ऐसी नहीं थी कि वह भाग सके. वल्दारिस के पिता ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि “पुलिस कर्मियों ने ही मेरे बेटे को मार डाला, क्योंकि वह भयभीत थे कि वह दंडाधिकारी से पुलिस यातना की शिकायत करेगा.

लेकिन आंकड़े यह भी बताते हैं कि नियमों का पालन कर दंडाधिकारी के समक्ष अभियुक्त को पेश करने और मेडिकल परीक्षण कराने से भी यह ज़रूरी नहीं है कि अभियुक्त को यातना नहीं दी जाएगी. अभियुक्त यह कहने से डरते हैं कि उनके साथ दुर्व्यवहार हुआ और कि चिकित्सा कर्मियों ने पेशेवर या निष्पक्ष तरीके अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं किया. पुलिस अक्सर यह स्पष्टीकरण देती है कि गिरफ्तार व्यक्ति या तो भागने की या फरार होने की कोशिश कर रहा था, और उसी दौरान वह घायल हो गया. यहाँ तक कि अभियुक्त भी कुछ बताना नहीं चाहता क्यूंकि उसे लगता है कि वापस उसे पुलिस हिरासत में भेज दिया जा सकता है: जैसा कि एक दंडाधिकारी ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया.

गिरफ्तारी और हिरासत सम्बन्धी नियमों के पालन में पुलिस की विफलता के चलते अभियुक्त के साथ दुर्व्यवहार का खतरा बढ़ जाता है. हिरासत सम्बन्धी नियमों को धता बताने के लिए पुलिस कई हथकंडे अपनाती है. तमिलनाडु में एक दंडाधिकारी ने बताया: पुलिस के पास पुलिस प्रक्रिया से सम्बंधित खुद की नियमावली है. वे आपराधिक दंड संहिता का पालन नहीं करते हैं.

हिरासत में मौतों के लिए पुलिस को जवाबदेह ठहराने में विफलता

भारतीय कानून के अनुसार यह ज़रूरी है कि हिरासत में हरेक मौत की जांच एक न्यायिक दंडाधिकारी करे. पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज करना ज़रूरी है, और इसकी जांच ऐसे थाना या एजेंसी द्वारा की जाएगी जो इस घटना में संलिप्त न हो. हिरासत में मौत के हरेक मामले की रिपोर्ट राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को देनी पड़ती है. दंडाधिकारी के जांच के निष्कर्ष और पोस्ट- माॅर्टम रिपोर्ट को भी पुलिस द्वारा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को सौंपना ज़रूरी है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के नियमानुसार शव-परीक्षा कि वीडियोग्राफी करनी होगी, और एक मॉडल प्रपत्र में शव-परीक्षण कि रिपोर्ट तैयार करनी होगी.

ह्यूमन राइट्स वाच के शोध, अदालती फैसले और मीडिया के ख़बरें दर्शाती हैं कि इन कदम को अक्सर नज़रंदाज़ किया जाता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, सन 2015 में हिरासत में हुई कुल 97 मौतों में से मात्र 31 में ही न्यायिक जांच की गयी थी. इनमें से 26 मामलों में मृतक का शव-परीक्षण तक नहीं किया गया था. कुछ राज्यों में, कार्यकारी दंडाधिकारी द्वारा जांच कराई गई न कि न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा, कार्यकारी दंडाधिकारी पुलिस की तरह ही सरकार के कार्यपालिका का अंग होता है, और इसलिए वह स्वतन्त्र नहीं होता और उस पर पक्षपातपूर्ण काम करने का दवाब ज्यादा रहता है.

ऐसे गलत कामों की आन्तरिक विभागीय जांचों में बमुश्किल पुलिस को दोषी पाया जाता है. पुलिस भी संलिप्त पुलिस अधिकारियों के खिलाफ शिकायतें दर्ज करने में या तो देरी कर सकती है या उसका विरोध. सन 2015 में हिरासत में कुल 97 मौतों में से केवल 33 में ही पुलिस ने अपने सह-पुलिस अफसरों के खिलाफ शिकायतें दर्ज कीं. 2014 तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य रहे सत्यब्रत पाल के अनुसार:

पुलिस द्वारा आन्तरिक जांच का पूरा मद्सद लीपा-पोती होता है, इसलिए वे जानबूझकर ऐसे तथ्यों को नज़रंदाज़ करते हैं जिनसे सच्चाई का पता लग सकता है... पुलिस जांच की कीमत मात्र उस कागज़ के पन्ने कि तरह होती है जिस पर उसे लिखा जाता है.

15 अप्रैल, 2012 में उत्तर प्रदेश राज्य में जब श्यामू सिंह कि पुलिस हिरासत में मौत हो गयी, तो पुलिस ने उसे आत्महत्या करार दिया. लेकिन उसके भाई ने बताया, जो उसी के साथ गिरफ्तार हुआ था, कि हिरासत में लेने के बाद अंडरवियर को छोड़ उन दोनों के सभी कपडे उतार दिए गए थे और उन्हें यातना दी गयी थी:

श्यामू सिंह की अस्पताल में मौत हो गयी. एक सरसरी आन्तरिक जांच के बाद पुलिस ने यातना से उसकी मौत होने के इलज़ाम को ख़ारिज कर दिया. राज्य के अपराधिक अनुसंधान विभाग (सी.आई. डी.) ने एक प्राथमिक जांच की और सन 2014 में निष्कर्ष दिया कि श्यामू को यातना देने और उसे ज़हर देकर मारने के लिए सात पुलिस अफसर ज़िम्मेदार थे. हालांकि, एक साल बाद सौंपी गयी एक अंतिम जांच रिपोर्ट ने उन सभी सातों को बरी कर दिया गया.

सरकारी डाक्टरों द्वारा पुलिस के दावों का समर्थन करने की प्रवृति हिरासत में हुई मौतों की जिम्मेदारी तय करने की एक बड़ी चुनौती है. शव-परीक्षा और फोरेंसिक रिपोर्ट्स प्रायः उन मामलों में भी पुलिस के पक्ष का समर्थन करती हैं जहां इसका कोई सुस्पष्ट आधार नहीं होता. 35 साल के जुल्फर शेख की 2 दिसंबर, 2012 में मुंबई के एक पुलिस थाने में मौत हो गई. शव-परीक्षा में 21 बाह्य चोटें पाई गयीं फिर भी रिपोर्ट में बताया गया कि ये चोटें ‘‘मौत के लिए पर्याप्त कारण’’ नहीं थे. डाक्टरों के एक दल ने मौत का कारण मेनिंजाइटिस और ‘‘मस्तिष्क के रक्त-स्राव’’ बताया. हालांकि जब सीबीआई ने इस मामले की नई जांच-पड़ताल में महाराष्ट्र के बाहर विशेषज्ञ चिकित्सीय मत लिया तो उसके अनुसार कठोर आघात एवं शारीरिक यातना के फलस्वरुप पक्षाघात के कारण मौत हुई थी. “हिरासत में मौतों के अभियोजन की समस्या यह है कि जैसे ही चिकित्सीय रिपोर्ट आपके खिलाफ चली जाती है, आप मुकदमा हार जाते हैं.” शेख के वकील युगमोहित चौधरी ने बताया, “आपके जीतने की उम्मीद तभी रहती है जब चिकित्सीय रिपोर्ट आपका समर्थन करती हो.”

भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने हिरासत में किये गए अपराधों के बारे में बार-बार यह कहा है कि पुलिस के खिलाफ सबूत पेश करना इसलिए कठिन है क्योंकि पुलिस यह मानती है कि वे भाईचारे में बंधे हैं.”

सरकारों और न्यायालयों को ज़िम्मेदार लोगों को बचाने की पुलिस की इस प्रवृति से सख्ती से निपटना होगा.

राष्ट्रीय और राज्य के मानवाधिकार आयोग हिरासत में मौतों के मामलों में अपनी मुखर भूमिका निभाने में विफल रहे हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को यह अधिकार प्राप्त है कि वह गवाहों को समन जारी कर सके, सबूतों को पेश करने के आदेश जारी करे, और अफसरों के अभियोजन शुरू करने के लिए सरकार से सिफारिश करे. लेकिन, व्यवहारिक तौर पर इसकी सिफारिशें अधिकतर सरकारों को मुआवजा देने या अंतरिम राहत देने तक ही सीमित रही हैं. अप्रैल 2012 से जून 2015 के बीच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास पुलिस हिरासत में हुई कुल 432 मौतें के मामले आए. आयोग ने कुल 2 करोड़ 29 लाख 10 हज़ार (यानी कि 3,43,400 अमरीकी डॉलर) मुआवजे की सिफारिश दी, लेकिन मात्र तीन मामलों में ही अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए कहा  और अभियोजन की सिफारिश किसी एक भी मामले में नहीं की.

पीड़ित परिवारों और गवाहों को डराना-धमकाना 

पुलिस हिरासत में मौत के मामलों में, न्याय मांगने वाले पीड़ित परिवार को अक्सर धमकी का सामना करना पड़ता है. इनमें से अधिकतर परिवार गरीब और सामाजिक तौर पर हाशिये पर हैं, जो ऐसी परेशानी के प्रति खासतौर पर और भी असुरक्षित होते हैं. एग्नेलो वल्दारिस की मौत के मामले में पुलिस कर्मियों के अभियोजन के दौरान सितम्बर 2005 में बॉम्बे उच्च न्यायलय की टिप्पणी की:

यह आम जानकारी की बात है कि पुलिस हिरासत में जिन लोगों कि मौत हुई है वे समाज के निचले तबके के और अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य होते हैं, और इन लोगों को राज्य की नीति की कोई समझ नहीं है कि वे एक वकील नियुक्त कर सकते हैं ताकि अदालत में उनका पक्ष उचित तरीके से पेश किया जा सके.

21 वर्षीय सब्जी विक्रेता रजीब मोल्ला को 15 फरवरी, 2014 को पश्चिम बंगाल राज्य में गिरफ्तार किया गया और उसी दिन पुलिस हिरासत में उसकी मौत हो गयी. पुलिस ने बताया कि उसने आत्महत्या की थी, लेकिन उसकी पत्नी ने आरोप लगाया कि उसकी मौत यातना देने से हुई थी. मोल्ला कि पत्नी ने बताया कि जिस समय से उसने इस मामले में न्यायिक हस्तक्षेप की मांग की, उसी दिन से उस इलाके के दबंग लोग उसे अपनी शिकायत वापस लेने के लिए धमकाने लगे थे. एक गैर-सरकारी संगठन बांग्लार मानवाधिकार सुरक्षा मंच (मासूम), जो उसे सहयोग दे रहा था, ने भी रपट की कि उन्हें भी धमकी मिल रही थी और उनके एक कर्मचारी को हिरासत में लेकर उसके साथ भी मार-पीट की गयी.

भारत ने नागरिक और राजनैतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय संधि का समर्थन किया है, और यातना और अन्य क्रूरता, अमानवीय या निकृष्ट व्यवहार के खिलाफ कन्वेंशन पर भी हस्ताक्षर किये हैं. ये दोनों ही यातना और क्रूरता, अमानवीय तथा निकृष्ट व्यवहार या सजा को प्रतिबंधित करते हैं. इन संधियों में प्रावधान है कि अधिकारीगण ज़िम्मेदार अफसरों के खिलाफ अभियोजन की कार्रवाई कर सकते हैं. इस तरह कि प्रतिबद्धता भारत के केन्द्रीय और राज्य के कानूनों में भी दर्शाई गयी है, जो यातना कि निंदा करते हैं, और उसके खिलाफ कुछेक प्रक्रियागत सुरक्षा उपाय भी सुझाते हैं.

सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वतंत्रता और मानव गरिमा के संवैधानिक अधिकार को परिभाषित करते हुए कहा है कि ये “राज्य तथा राज्य के कर्ताओं द्वारा यातना और हमले के खिलाफ निहित गारंटी हैं.

कई मामलों के विवरण जो इस रिपोर्ट में दिए गए हैं, उनमें हिरासत में मौतों को रोका जा सकता था यदि पुलिस उन नियमों का पालन करती जो इस तरह के दुर्व्यवहार को रोकने के लिए बनाये गए हैं. और यदि पूरे भारत में ऐसी पुलिस जिन पर अभियुक्तों के साथ दुर्व्यवहार के लिए इलज़ाम लगाया गया था, उन्हें तत्काल और उचित तरीके से कानूनी दायरे में न्याय की प्रक्रिया में लाया जाता तो शायद पुलिस हिरासत में मौतों और यातना को हमेशा-हमेशा के लिए रोका जा सकता है.

 

मुख्य सिफारिशें

  • आपराधिक दंड संहिता में गिरफ्तारी और हिरासत सम्बन्धी कानूनों और दिशा-निर्देशों का सख्ती से अनुपालन करना और डी.के. बासु के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले, खास तौर से हिरासत की रिकॉर्डिंग करने, परिजनों को सूचित करने, संदिग्ध को दंडाधिकारी के समक्ष पेश करने और मेडिकल परीक्षण करवाने सम्बन्धी दिशा-निर्देशों का पालन.
  • यह सुनिश्चित करना कि यातना और दुर्व्यवहार में संलिप्त पुलिस अफसरों, चाहें वह किसी भी पद पर क्यों न हों, पर उपयुक्त अनुशासनात्मक कार्रवाई करना या उन पर मुकदमा चलाया जाये.
  • यातना के खिलाफ कन्वेंशन की अभिपुष्टि करें और इनके प्रावधानों को घरेलू कानूनों में समाहित करें.
  • एक पर्याप्त रूप से वित्त पोषित तथा कारगर उत्पीडित और गवाह सुरक्षा कानून बनायें.

 

 

पद्धति

यह रिपोर्ट अप्रैल 2015 से अप्रैल 2016 के बीच ह्यूमन राइट्स वाच द्वारा भारत में किये फील्ड रिसर्च और साक्षात्कार पर आधारित है. ह्यूमन राइट्स वाच ने 45 गवाहों तथा हिरासत में मौतों के शिकार व्यक्तियों के परिजनों और साक्षात्कार लिया. इसके आलावा, ह्यूमन राइट्स वाच ने वैसे 25 से अधिक वकीलों, सिविल सोसाइटी कार्यकर्ताओं, और पत्रकारों से बात-चीत की जो पुलिस यातना के शिकार व्यक्तियों को न्याय दिलाने के लिए सन्दर्भों और बाधाओं को समझने के लिए पुलिस यातना और उत्पीडन पर काम करते हैं. ह्यूमन राइट्स वाच ने चार ऐसे लोगों का साक्षात्कार लिया, जो वर्तमान में पुलिस सेवा में हैं या अवकाशप्राप्त पुलिस अधिकारी और दंडाधिकारी हैं. इसके अलावा एक अवकाशप्राप्त न्यायाधीश का भी साक्षात्कार लिया गया.

ये साक्षात्कार भारत के कई जगहों पर लिए गए जिसमें पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, तेलंगाना  और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य और नई दिल्ली और मुंबई शहर शामिल हैं.

यह रिपोर्ट ह्यूमन राइट्स वाच द्वारा सन 2009 में जारी रिपोर्ट - ब्रोकन सिस्टम: डिसफंक्शन, एब्यूज, एंड इम्पुनिटी इन इंडियन पुलिस - जिसमें भारतीय पुलिस द्वारा आम तौर पर मानवाधिकारों के हनन के मामलों पर चर्चा की गयी है, का अनुसरण करती है. सन 2009 की इस रिपोर्ट में पुलिस द्वारा व्यक्तियों के खिलाफ किये गए दुर्व्यवहार की जांच की गयी है, और उन परिस्थितियों को समझने का प्रयास किया गया है जिनसे पुलिस को इस तरह का दुर्व्यवहार करने में प्रोत्साहन और सहूलियत मिली. ह्यूमन राइट्स वाच ने पाया कि पुलिस दुर्व्यवहार संस्थागत प्रणाली में गहराई से जड़ पकडे हुए है, ह्यूमन राइट्स वाच ने पाया कि पुलिस दुर्व्यवहार की जड़ संस्थागत तौर-तरीकों में ही अन्दर तक धंसी हुई है, और निरंतर पनप रही है क्योंकि संघीय और राज्य सरकारें दुरूपयोग करने वालों को जवाबदेह ठहराने में और ऐसे ढांचों और व्यवहारों को सुधारने में विफल साबित हुई हैं, जो ऐसे दुर्व्यवहार के तौर-तरीकों को पनपने देते हैं.

इस रिपोर्ट में दर्ज हाल ही के मामले यह दर्शाते हैं कि कानून और नियमावली में बदलाव, और सन 1997 से लगातार पुलिस सुधार के वायदे के बावजूद  पुलिस दुर्व्यवहार लगातार होते रहे हैं. हालांकि यह मशहूर है कि कथित आतंकवाद के मामलों के अभियुक्तों के खिलाफ पुलिस मानवाधिकारों का हनन करती है, और विद्रोह-प्रभावित क्षेत्रों में पर्याप्त सुरक्षा कवचों के साथ  गैर-न्यायिक हत्याएं करती है. यह रिपोर्ट हिरासत में मौतों के केवल उन मामलोंपर केन्द्रित है जो रोज़मर्रा के पुलिस ऑपरेशन के दौरान घटित हुए हैं.

इसमें वर्णित 17 मामलों में अधिकांश ऐसे मामले हैं जिनमें परिजनों ने वकीलों या मानवाधिकार अधिवक्ताओं के सहयोग से न्याय की गुहार लगाई. इससे हमें पुलिस और मेडिकल रिकार्ड्स और अन्य दस्तावेजों को पाने में आसानी हुई जिनमें पुलिस दुर्व्यवहार और लापरवाही के ठोस सबूत मिले. ह्यूमन राइट्स वाच ने पीड़ित के परिवार, गवाह या उनके वकील की सहमति से इन प्रासंगिक दस्तावेजों की प्रतिलिपि प्राप्त कर उन्हें अपने पास रखा है.

ह्यूमन राइट्स वाच ने जिनका भी साक्षात्कार किया है उन्हें किसी तरह का मेहनताना या लालच नहीं दिया है. कुछेक मामलों में, गवाहों के साक्षात्कार के दौरान भोजन और यात्रा पर होने वाले खर्च के लिए धनराशि उपलब्ध करायी गयी. अधिकाँश साक्षात्कार हिंदी या अंग्रेजी में लिए गए. तमिलनाडु में कुछ साक्षात्कार एक स्वतंत्र दुभाषिये की मदद से तमिल भाषा में लिए गए. पश्चिम बंगाल में  कुछ साक्षात्कार एक दुभाषिये की मदद से बंगाली भाषा में लिए गए.

ह्यूमन राइट्स वाच ने रिपोर्ट में दर्शाए गए सभी लंबित मामलों में सूचना के अधिकारके तहत आवेदन तैयार किये ताकि पुलिस से यह जानकारी प्राप्त की जा सके कि उन्होनें पीड़ित को हिरासत में लेने के दौरान गिरफ्तारी और मौत की जांच के लिए बनाए गए नियमों और प्रक्रियाओं का पालन किया या नहीं. ह्यूमन राइट्स वाच ने दिल्ली स्थित कामनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव नामक संस्था में वेंकटेश नायक से परामर्श कर और उनके मार्गदर्शन में एक मॉडल विकसित किया. स्थानीय गैर-सरकारी संगठनों ने सूचना के अधिकार के तहत सूचना प्राप्त करने ले लिए सम्बंधित जिला और राज्य पुलिस अधिकारियों और राष्ट्रीय एवं राज्य मानवाधिकार आयोगों को आवेदन दिया. इस रिपोर्ट के परिशिष्ट में सूचना के अधिकार के तहत मॉडल आवेदनों का प्रारूप संलग्न है. इसी तरह ऐसे सभी आवेदनों कि सूची और उनके जवाब जो रपट छपने के समय प्राप्त हुए,  इस रपट के परिशिष्ट में संलग्न हैं.

 

I.  भारत में जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार

क्या गिरफ्तारी और हिरासत सम्बंधित डी.के. बासु नियमावली का पालन करना व्यवहारिक है? यह तभी संभव है जब एक आदर्श समाज बन जाए. जिस माहौल में हम काम करते हैं उसमें तो यह कभी संभव नहीं.


- उत्त्तर प्रदेश का एक सब-इंस्पेक्टर, अगस्त 2015

भारतीय पुलिस आम तौर से गिरफ्तारी और हिरासत की समुचित प्रक्रियाओं को दिशा निर्देशित करने वाले घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करती है. कानून लागू करने वाले अधिकतर अधिकारी यह मानते हैं कि जुर्म कबूल करवाने और जानकारी हासिल करने के लिए बलप्रयोग अपराध के अनुसन्धान और कानून लागू करने के लिए स्वीकार और जरुरी तरीका है.

सन 2009 में ह्यूमन राइट्स वाच की रिपोर्ट ब्रोकन सिस्टम: डिसफंक्शन, एब्यूज, एंड इम्पुनिटी इन इंडियन पुलिस  में दर्शाया गया है कि अपराधिक अभियुक्तों का पुलिस द्वारा दुर्व्यवहार गहराई से और लगातार इसलिए होता है कि न केवल उनमें जवाबदेही का अभाव है बल्कि उन ढांचों और प्रक्रियाओं को भी ऊपर से नीचे तक सुधारा नहीं गया जिनके कारण अधिकारों का हनन होता है[1]. इसके साथ ही, काम करने की बुरी दशा और आधुनिक सबूत-आधारित जांच के लिए उचित प्रशिक्षण का अभाव पुलिस को यातना देने और बलप्रयोग पर ही निर्भर होने के लिए प्रेरित करती है. एक पुलिस कर्मी ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया:

किसी को भी यातना देने का अधिकार नहीं है, लेकिन यह अधिकतर इसलिए होता है जब हम किसी अपराध की गुत्थी सुलझाने में जानकारी हासिल करने का प्रयास करते हैं. पुलिस बहुत दबाव में रहती है, और इसलिए हम शॉर्टकट अपनाते हैं क्योंकि अगर आप अभियुक्त से पूछेंगे तो वह सिर्फ यही कहेगा कि वह निर्दोष है.[2]

जांच के दौरान जानकारी हासिल करने के लिए अभियुक्त से शारीरिक तौर पर दुर्व्यवहार के अलावा, सज़ा के तौर पर भी पुलिस अभियुक्त के साथ मार-पीट करती है और यातना देती है. इस तरह वह अदालत में सजा दिलाने हेतु सबूत जमा करने जैसे जरुरी काम की बजाए खुद ही अपराधी को सजा देने का रास्ता अपनाती है.

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार, सन 2010 और 2015 के बीच पुलिस हिरासत में कुल 591 लोगों की मौत हुई.[3] इनमें मौत के प्राय: सभी कारण दर्शाए गए हैं, जिनमें यातना शामिल है. लेकिन, इन आंकड़ों से यातना के वास्तविक पैमाने का पता नहीं चलता क्योंकि इनमें पुलिस हिरासत में यातना और दुर्व्यहार के ज्यादातर ऐसे मामले शामिल नहीं हैं जिनमें मौत नहीं होती है.

भारतीय कानूनों में यातना पर पूरी तरह निषेध है. भारतीय संविधान में सभी को मौलिक मानवाधिकार कि गारंटी है, जिसमें जीने और आजादी का अधिकार शामिल है. सर्वोच्च न्यायालय ने वर्षों से यह सुनिश्चित किया है कि इन मौलिक अधिकारों का पालन हो, और इसके लिए राज्य के सभी कार्यों का न्यायसंगत, उचित और तर्कसंगत होना ज़रूरी हैं.[4] सन 1981 के एक फैसले में न्यायालय ने कहा:

इस तरह की यातना और क्रूरता, अमानवीय या निकृष्ट व्यवहार के लिए यदि कोई भी कानून अधिकृत है या कोई भी प्रक्रिया इसे बढ़ावा देती है, तो वह कभी भी तार्किकता और गैर-निरंकुशता के मापदंड पर खरी नहीं उतरेगी. वह स्पष्ट तौर पर गैर-संवैधानिक और अमान्य होगी जिसे अनुच्छेद 14 और 21 का उल्लंघन माना जायेगा.[5]

सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई फैसलों में कानून लागू करने वाली मशीनरी के लिए निर्देश जारी किये हैं जो पुलिस के काम के विभिन्न पहलुओं से सम्बंधित हैं, जिनमें मुकदमा दर्ज करना, गिरफ्तार व्यक्तियों के साथ व्यवहार, और पूछ-ताछ शामिल हैं.[6] इनमें से अधिकांश दिशा-निर्देशों को तब से अपराधिक दंड संहिता में शामिल कर लिया गया है जो कि अपराधिक नियत प्रक्रिया का कानूनी आधार प्रदान करती है.[7] न्यायालयों ने महिलाओं, गरीबों और वंचितों के अधिकारों की सुरक्षा के मुद्दों पर भी पुलिस को दिशा-निर्देश दिए हैं.[8]

भारत ने भी नागरिक और राजनैतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय संधि की भी अभिपुष्टि की है, और यातना के खिलाफ कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किये हैं, ये दोनों ही यातना और क्रूरता, अमानवीय और निकृष्ट व्यवहारों का निषेध करते हैं.[9] भारत ने बलपूर्वक लापता होने के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय संधि पर भी हस्ताक्षर किये हैं, लेकिन उसका अनुमोदन अभी तक नहीं किया है, जो यातना और अन्य घातक दुर्व्यवहारों को रोकने का प्रयास करती है.[10]

इन कानूनों के बावजूद, भारत में हिरासत में यातना देना एक गंभीर समस्या है. भारतीय मानवाधिकार संगठनों ने व्यापक पुलिस यातनाओं का दस्तावेजीकरण किया है.[11] पिछले दो दशकों में, भारतीय न्यायालयों ने कई मौकों पर टिपण्णी की है किहिरासत में अमानवीय यातना, बलप्रयोग और मौतइतनीव्यापकहैं जिनसेकानून के राज और अपराधिक न्याय प्रशासन की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं”.[12]

हिरासत में यातना और दुर्व्यवहार का जारी रहना

फॉरेंसिक जांच के वैज्ञानिक तौर-तरीकों के संसाधनों और प्रशिक्षण के अभाव में ही पूछ-ताछ के दौरान यातना देने का प्रचलन है. फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं में या तो कर्मचारियों की कमी है और या तो उनके पास पिछले मामलों का अम्बार लगा रहता है.[13]

एन. रामचंद्रन, पूर्व पुलिस महानिदेशक और वर्तमान में इंडियन पुलिस फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं, जो एक स्वतंत्र, गैर-सरकारी संगठन है, उन्होंने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि पुलिस हिरासत में यातना को रोकने के लिए जांच की संस्कृति में बदलाव लाना होगा:

आज भी, भारत में, हम फोरेंसिक पर उस स्तर तक निर्भर नहीं हैं जो हमारे लिए ज़रूरी है. इसको आवश्कता से कहीं कम इस्तेमाल किया जाता है, इसके विपरीत पुलिस, खासकर जूनियर स्तर के पुलिस अफसर, थर्ड-डिग्री तरीकों का इस्तेमाल कर अपराध कबूल करवाने में ज्यादा भरोसा रखते हैं. घटनाओं में कमी आई है, लेकिन आज भी ऐसा ही हो रहा है. फोरेंसिक के उपयोग के लिए न तो पुलिस प्रशिक्षित है और न ही उससे सुसज्जित है. देश में अधिकाँश फॉरेंसिक प्रयोगशालाओं में कर्मचारियों की कमी है. फॉरेंसिक परिणामों के अभाव में सैकड़ों-हज़ारों मामलों लंबित हैं.[14]

सन २००० में, सरकार द्वारा पुलिस सुधार पर नियुक्त पद्नाभैया समिति ने कहा था:

अधिकतर लोग यह यकीन करते हैं कि अगर पुलिस समाज के असामाजिक तत्वों और अपराधियों के खिलाफ बलप्रयोग जैसे हथकंडे न अपनाए तो पुलिस न तो अपने काम में असरदार हो सकती है और न ही परिणाम दे सकेगी. और इन लोगों में भारत का राजनैतिक वर्ग, नौकरशाही, और बड़ी संख्या में उच्च और मध्यम वर्गीय लोग शामिल हैं........अपनी समझ में, पुलिसकर्मी महसूस करते हैं कि वे अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं. यातना का सहारा वे अपनी “पेशेवर लक्ष्यों” की प्राप्ति के लिए करते हैं - जानकारी हासिल करना या जुर्म कबूल करवाना उनके लिए एक मामले को सुलझाने कि दिशा में उठाया गया कदम है.[15]

हिरासत में हिंसा के खिलाफ कानूनी सुरक्षा

भारत दंड संहिता में हिरासत में हिंसा को निषेध करने के कई प्रावधान हैं. उदाहरण के लिए, संहिता की धारा 330 के तहत जुर्म कबूल करवाने के लिए या फिर चुराई गयी सम्पति की वापसी के लिए किसी को जान बूझकर चोट पहुँचाने के लिए सात साल तक की कैद और जुर्माने की सज़ा का प्रावधान है.[16] यह प्रावधान उन पुलिस अफसरों पर भी लागू होता है जो चोरी की संपत्ति के बारे में जानकारी हासिल करने या जुर्म कबूल करवाने के लिए यातना देते हैं. यदि चोट घातक है, तो सज़ा को 10 साल तक की कैद में बदला जा सकता है.[17] सरकारी मुलाजिम जो किसी व्यक्ति को चोट पहुंचाने की नियत से इस कानून का उल्लंघन करते हैं वे भी एक साल तक के लिए जेल जा सकते हैं.[18] लेकिन, इन प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले पुलिस अफसरों के खिलाफ कोई भी आरोप शायद ही लगाया जाता है.[19]

सन 1985 में, भारत के विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि भारतीय साक्ष्य कानून, 1972 को संशोधित कर यह प्रावधान जोड़ा जाए कि यदि पुलिस हिरासत में किसी भी व्यक्ति को शारीरिक चोट पंहुची है तो न्यायालय यह मान लेगा कि चोट उस पुलिस अफसर द्वारा ही पहुंचाई गयी है जिसकी हिरासत में वह व्यक्ति था.[20]

वर्तमान कानूनों की अपर्याप्तता के मद्देनज़र, सर्वोच्च न्यायालय ने डी.के.बासु के फैसले में पुलिस हिरासत तथा पूछ-ताछ से सम्बंधित अनिवार्य प्रक्रिया के बारे में कुछ दिशा-निर्देश जारी किये थे.[21] सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले में यहाँ तक कहा है कि यदि कोई पुलिसकर्मी डी.के.बसु नियमावली का उल्लंघन करता है तो उसके खिलाफ न्यायालय की अवमानना का मुकदमा चलाया जा सकता है, और उसके अलावा विभागीय कार्रवाई कर भी उसे सज़ा भी दी जा सकती है. क्योंकि भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में इस नियमावली को समाहित कर लिया गया है, इसलिए इनका पालन न करने से भारतीय दंड संहिता के अनेक प्रावधानों के अंतर्गत भी सज़ा दी जा सकती है.[22] त्रिदीप पैस नामक वकील का मानना है कि पुलिस हिरासत में दुर्व्यवहार रोकने में यह नियमावली बहुत महत्वपूर्ण हैं. : डी.के.बसु केवल अभियुक्त की सेहत को बनाये रखने के बारे में ही नहीं है, लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए भी कि सबूत के साथ न तो कोई छेड़-छाड़ हुई है और न ही उसे झूठ के आधार पर पैदा किया गया है, समयकाल को नज़रंदाज़ किया गया है, और यातना भी नहीं दी गयी है.[23]

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत, पुलिस जांच के अलावा, पुलिस हिरासत में मौत, बलपूर्वक लापता होने, और कथित बलात्कार कि घटनाओं में न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा जांच कानूनन ज़रूरी है.[24] लेकिन, एन.एच.आर.सी. ने इस कानून को परिभाषित कर यह अर्थ निकाला है कि सभी मामलों में न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा जांच कानूनन ज़रूरी नहीं है. अप्रैल 2010 में एन.एच.आर.सी. ने सभी राज्यों को एक नोटिस जारी कर कहा कि हिरासत में मौतों के उन मामलों में ही न्यायिक जांच ज़रूरी है जहाँ गलत काम किये जाने के लिए पर्याप्त शंका है या एक अपराध घटित होने के मज़बूत आरोप हैं. हिरासत में मौत के बाकी सभी मामले जहाँ मृत्य प्राकृतिक कारणों से या किसी बीमारी से हुई हो तो उनकी जांच एक कार्यपालिका दंडाधिकारी कर सकता है.[25]

एन.एच.आर.सी. ने यह निर्देश जारी किया है कि हिरासत में मौत के हरेक मामले की रिपोर्ट पुलिस द्वारा 24 घंटे के अन्दर आयोग को भेजी जाएगी, और हर मौत के मामले की जांच एक दंडाधिकारी करेगा, जिसे तीन माह के भीतर पूरा किया जाना चाहिए.[26] उचित और निष्पक्ष जांच सुनिश्चित करने के लिए, जब भी हिरासत में मौत का आरोप लगाया जाता है तो पुलिस को प्रथम सूचना रपट दर्ज करनी चाहिए, और ऐसे मामले की जांच ऐसे किसी पुलिस थाना या एजेंसी द्वारा की जानी चाहिए जो इसमें संलिप्त न हो. इसके अलावा, एन.एच.आर.सी. के अनुसार हिरासत में हुई मौतों में पोस्ट-माॅर्टम को फिल्माया जाना चाहिए और शव-परीक्षण रिपोर्ट आयोग के मॉडल प्रपत्र में तैयार करना चाहिए.[27] पुलिस के लिए यह भी ज़रूरी है की वह एन.एच.आर.सी. को ऐसे सभी मामलों में दूसरी रिपोर्ट जमा करे जिसमें मौत से सम्बंधित पोस्ट-माॅर्टम रिपोर्ट और दंडाधिकारी या विभागीय जांच के निष्कर्ष शामिल हों.

इन निष्कर्षों के आधार पर, एन.एच.आर.सी. मुआवजे की सिफारिश कर सकता है, लेकिन जवाबदेही का मुद्दा एक चुनौती बना हुआ है. आपराधिक दंड संहिता की धारा 197 के तहत सभी सरकारी अफसरों को अभियोजन से सुरक्षा मिली हुई है, जब तक कि सरकार उनके खिलाफ मुकदमा चलाने कि अनुमति न दे.[28] केन्द्रीय और राज्य सरकारें इस प्रावधान का इस्तेमाल कर पुलिस अफसरों के खिलाफ मुकदमा चलाने से इंकार कर देती हैं.[29]

जनवरी 2016 में, एक महत्वपूर्ण और असाधारण मामले में, मुंबई में सत्र न्यायालय ने पुलिस के चार सिपाहियों को हत्या का दोषी मानते हुए सज़ा सुनाई, जिन पर अनिकेत खिच्ची नामक एक 20-वर्षीय अभियुक्त को हिरासत में पीट-पीट कर मार डालने का आरोप था.[30] ये सिपाही अब सात साल की सज़ा काट रहे हैं. महत्व की बात यह है, कि फैसला सुनाते समय न्यायाधीश एस.एम.भोसले ने इस बिंदु को नोट किया कि पुलिस इस मृत्यु में असरदार जांच करने में असफल रही. न्यायाधीश ने कहा कि जांच अधिकारी ने किसी विशेषज्ञ से क्लोज-सर्किट-टेलीविज़न फिल्म की जांच नहीं कराई, घटना के समय मौजूद स्टेशन हाउस ऑफिसर का बयान दर्ज नहीं किया, मृत्य के तत्काल बाद लाश का परीक्षण नहीं किया, और तुरंत पोस्ट-माॅर्टम परीक्षण का आदेश नहीं दिया.[31]

अगस्त 2014 में बॉम्बे उच्च न्यायालय की दो-सदस्यीय पीठ ने हिरासत में मौतों को रोकने के लिए महाराष्ट्र की राज्य सरकार और पुलिस को कुछ निर्देश जारी किये थे, जिसमें क्लोज्ड-सर्किट कैमरा को कानूनन लगाने का आदेश था.[32] अक्टूबर 2015 में, उसी दो-सदस्यीय पीठ ने महाराष्ट्र सरकार से तीन-सदस्यीय समिति के गठन के लिए कहा जो हिरासत में मौतों को रोकने के लिए दीर्घकालिक योजना सुझाएगी.[33] इस समिति ने अप्रैल 2016 में उच्च न्यायालय को अपनी रिपोर्ट पेश की. हालाँकि इस रिपोर्ट को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है, अखबारों की ख़बरों से पता लगता है कि समिति ने 40 से अधिक सिफारिशें सुझाई हैं, जिनमें क्लोज्ड सर्किट टेलीविज़न के व्यापक उपयोग शामिल हैं, और गिरफ्तार व्यक्ति के स्वास्थ्य और मेडिकल ज़रूरतों को आंकने के उपाय शामिल हैं.[34]

राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय मानवाधिकार संस्थान

सन 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) कि स्थापना हुई, जो मानव अधिकारों की सुरक्षा कानून, 1993 पर आधारित है.[35] एन.एच.आर.सी. को अभियोजन सम्बन्धी का अधिकार नहीं है, लेकिन यह सिफारिश कर सकती है कि सरकार अफसरों के खिलाफ मुकदमा दायर करे, या सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय को इस मुद्दे पर निर्देश या आदेश जारी करने के लिए प्रस्ताव पेश कर सकती है. इसके पास मानवाधिकारों के लिए सुरक्षा उपायों को असरदार तरीके से लागू करने के उपाय सुझाने और उनकी समीक्षा करने का भी अधिकार है, और यह भी सिफारिश कर सकती है कि सरकार पीड़ितों को तत्काल अंतरिम राहत प्रदान करे, जो मुआवजा धनराशि के रूप में दिया जाए.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा गिरफ्तारी और हिरासत के लिए नियमावली तय की गयी है.[36] दिसंबर, 1993 में एन.एच.आर.सी. ने यह भी निर्देश दिया कि हिरासत में मौतों और बलात्कार के सभी मामलों की रिपोर्ट घटना के 24 घंटे के भीतर उन्हें दी जानी चाहिए, ऐसा न होने पर एन.एच.आर.सी. इसके प्रतिकूल निष्कर्ष निकालेगा.[37] अगस्त, 1995 में एन.एच.आर.सी. ने एक कदम और आगे बढ़कर प्रत्येक राज्य के मुख्यमंत्रियों से अनुरोध किया कि सभी हिरासत में मौतों के शव-परीक्षण को फिल्माया जाये.[38] मार्च, 1997 में, मुख्यमंत्रियों से यह भी अनुरोध किया गया कि एन.एच.आर.सी. द्वारा शव-परिक्षण के लिए तैयार एक मॉडल प्रारूप को अपनाया जाये.[39]

हिरासत में हुई मौतों के मामलों की समीक्षा करने के लिए एन.एच.आर.सी. के जांच विभाग को ज़िम्मेदार दी गई है. मानवाधिकार समूह आम तौर से संदेह की निगाह से देखते हैं क्योंकि इस विभाग में सेवारत पुलिस अफसर ही पदस्थ हैं; उन्हें मानवाधिकारों पर अतिरिक्त प्रशिक्षण नहीं दिया गया है, और व्यवहारिक तौर पर वे अपने सहकर्मियों की रक्षा करने में ही जुटे रहते हैं. एन.एच.आर.सी. के एक वर्तमान अधिकारी ने कहा कि हमारे अधिकाँश कर्मचारी पुलिस और अर्ध-सैनिक बलों से आते हैं, जिन्हें हिरासत में मौतों के लिए पुलिस दुर्व्यवहार की जांच करने में कोई विशेष रूचि नहीं होती है. कई मामलों में तो पुलिस अपने साथी पुलिसकर्मी की सहायता ही करना चाहते हैं.[40]

एन.एच.आर.सी. ने एक उच्च-स्तरीय सलाहकार समिति का गठन किया और सन 2000 में केंद्र सरकार को कई सिफारिशें भेजीं, जिसके तहत उन्होंने आयोग के कामों को और अधिक अधिकार और बल प्रदान करने के लिए मनावाधिकारों संरक्षण कानून में संशोधन सुझाये.

सन 2006 में कानून को संशोधित किया गया, लेकिन अहम् समस्याएं वैसी ही बनी हुई हैं. संशोधन में एन.एच.आर.सी. को कई शिकायतें राज्य मानवाधिकार आयोगों को हस्तांतरित करने की इजाज़त दी गई है, इससे शिकायतकर्ताओं की स्वाधीनता सीमित हो जाती है जो विशेषज्ञता और अधिक संसाधनों को देखते हुए अपने दावों को एन.एच.आर.सी. के जरिए ही निपटाना चाहते हैं.[41] यह अपनी रिपोर्ट और निष्कर्षों को स्वतंत्र रूप से सार्वजनिक नहीं कर सकती जब तक कि सरकार इन रिपोर्ट्स को संसद में पहले पेश न कर दे. संशोधन में एन.एच.आर.सी. जांचकर्ताओं पर एक वर्ष की क़ानूनी- समय सीमा को भी नहीं बदला गया, जो समय सीमा बिल्कुल व्यवहारिक नहीं है, क्योंकि कई पीड़ितों को तमाम समस्याओं का सामना करना पड़ता है जैसे कि वकील न मिलना और कानून के अंतर्गत अपने अधिकारों के प्रति सीमित जागरूकता.

एन.एच.आर.सी. को अभी भी सशस्त्र बलों द्वारा मानवाधिकारों के हनन की शिकायतों की जांच करने का अधिकार है, जिनमें सीमा सुरक्षा बल और केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल शामिल हैं.[42]

राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार संस्थानों के बीच काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों और व्यक्तियों के अखिल भारतीय नेटवर्क की सन 2011 में प्रकाशित रिपोर्ट में एन.एच.आर.सी. की स्वतंत्रता के स्पष्ट अभाव पर भी चिंता ज़ाहिर कि गयी है. इसमें बताया गया है कि एन.एच.आर.सी. को भारत सरकार द्वारा वित्तीय तौर पर बांधकर संचालित किया जाता है, और उसे गृह मंत्रालय को जवाब देना होता है, जो सरकारी विभाग आन्तरिक सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार है, जिसमें पुलिस और अन्य कानून व्यवस्था के अफसर शामिल हैं, इस प्रकार एन.एच.आर.सी.  की स्वाधीनता को सीमित कर दिया जाता है.

भारत की शीर्ष मानवाधिकार संस्था को, जो मानवाधिकारों के उल्लंघन करने वालों को जवाबदेह ठहराने के लिए ज़िम्मेदार हो, उसी विभाग के तहत रखना जो पुलिस और कानून लागू करने वाले अधिकारियों की निगरानी करता है, और जिसके खिलाफ काफी संख्या में शिकायतें की जाती हैं, इसमें कोई शक नहीं कि यह स्थिति आयोग की स्वाधीनता और उसकी कार्यक्षमता को कमज़ोर करती है.[43]

पुलिस सुधार का अभाव

सन 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रकाश सिंह बनाम भारतीय संघ के मामले में एक एतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें पुलिस सुधारों को शुरू करने के लिए केन्द्रीय और राज्य सरकारों पर छह बाध्यकारी दिशा-निर्देश जारी किये.[44] न्यायालय का फैसला राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने में सरकार की विफलता के कारण सुनाया गया, जिनमें पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए व्यापक कदम, पुलिस द्वारा जनता को प्रताड़ित करने में कमी लाने की मार्गदर्शिका, और पूछ-ताछ के थर्ड डिग्री के तौर-तरीकों को कम करना आदि शामिल हैं.[45]

सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश पुलिस की क्रियाशील स्वायत्तता को बढाने के लिए दिए गए थे, इन दिशा-निर्देशों में उनके कार्यकाल की सुरक्षा, नियुक्ति और तबादले की प्रकिया को सरल और कारगर बनाने, सरकारी हस्तक्षेप और प्रभाव से पुलिस को सुरक्षा प्रदान करने, और पुलिस की जवाबदेही को बढाने की बात कही गई थी.[46] दिशा-निर्देशों में राज्य सुरक्षा आयोगों को यह हिदायत दी गयी थी कि वे सुनिश्चित करें कि राज्य सरकारें पुलिस पर अनावश्यक प्रभाव और  दबाव नहीं डालें; पुलिस द्वारा जांच और कानून व्यवस्था के कामों को एक दूसरे से अलग करें; पुलिस स्थापना बोर्ड का गठन करें जो तबादलों, नियुक्तियों, पदोन्नति, और सेवा-सम्बन्धी दूसरे मसलों पर निर्णय लें; और पुलिस शिकायत प्राधिकार की स्थापना करें जो पुलिस अफसरों के खिलाफ जनता की शिकायतों की जांच करे, ख़ास कर गंभीर दुर्व्यवहार के मामलों में, जिनमें पुलिस हिरासत में मौत, घातक चोट, और बलात्कार शामिल हैं. 

शुरुआत में सर्वोच्च न्यायालय ने खुद इसके अनुपालन पर निगरानी रखी, लेकिन सन 2008 में सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति के.टी. थॉमस की अध्यक्षता वाली एक तीन-सदस्यीय मॉनिटरिंग समिति का गठन किया, जिसका कार्यकाल दो वर्ष का था. इस समिति की जिम्मेवारी थी कि वो राज्यों द्वारा इस दिशानिर्देश के अनुपालन की जांच करे और समय-समय पर इसकी रपट सर्वोच्च न्यायालय को सौंपे.

अगस्त 2010 में इस समिति ने सर्वोच्च न्यायालय को अपनी अंतिम रिपोर्ट सौंपी जिसमें उसने राज्यों द्वारा पुलिस सुधारों के प्रति उदासीन रवैये पर निराशा जाहिर की: व्यवहारिक तौर पर किसी भी राज्य ने इन दिशा-निर्देशों का अभी तक पालन नहीं किया है, जबकि मूल फैसले की तारीख से आज लगभग चार वर्ष बीत चुके हैं. जिन राज्यों में नए पुलिस कानून नहीं बनाये गए हैं, वहां कार्यपालिका आदेश जारी कर इन निर्देशों का पालन करने की कोशिश की गई है, लेकिन ये कार्यपालिका आदेश स्पष्ट तौर पर अदालत के दिशा-निर्देशों के सारतत्व को अलग-अलग स्तरों पर विलोपित करते हैं भले ही उपरी तौर पर जैसा भी दिखे.[47]

निगरानी समिति की रिपोर्ट के आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय ने नवम्बर, 2010 में इन दिशा-निर्देशों का अनुपालन न करने के लिए चार राज्यों; महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, और कर्णाटक, को नोटिस जारी किया.[48] मार्च, 2013 में सर्वोच्च न्यायालय की एक अन्य पीठ ने पंजाब और बिहार में पुलिस क्रूरता की दो घटनाओं कि सुनवाई के दौरान सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया कि वे हलफनामे के साथ यह बताएं कि सन 2007 में प्रकाश सिंह के फैसले में दर्शाए गए दिशा-निर्देशों का उन्होनें पालन किया या नहीं.[49]

उस फैसले के दस साल बाद भी न्यायालय के दिशा-निर्देशों के अनुपालन का स्तर बहुत निम्न है. सन 2015 में, प्रकाश सिंह ने इस मामले के याचिकाकर्ता के रूप में यह नोट किया: पिछले आठ वर्षों में पुलिस सुधार की कहानी सर्वोच्च न्यायालय की अवज्ञा की एक दास्तान है, कानूनों का अधिनियमन न्यायालय के दिशा-निर्देश का माखौल उडाता है, और अधिक-से-अधिक उसके अनुपालन में बेईमानी दर्शाता है.[50]

पुलिस की जवाबदेही को बढ़ावा देने की दिशा में जारी दिशा-निर्देश भी लंबित हैं. कामनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव की एक रिपोर्ट, जो दिसंबर 2012 में प्रकाशित हुई, में दर्शाया गया है कि केवल 6 राज्य और 4 केंद्र शासित प्रदेश ऐसे हैं जहाँ ज़मीनी स्तर पर पुलिस शिकायत प्राधिकार कार्यरत हैं. केरल ही मात्र एक राज्य है जहाँ यह राज्य और जिला स्तर पर सक्रिय है. रिपोर्ट में यह भी उजागर हुआ कि जहाँ कहीं भी यह प्राधिकार मौजूद हैं, वहां यह सेवारत और अवकाशप्राप्त नौकरशाहों और पुलिसकर्मियों से भरे पड़े हैं और इनमें समुदाय और नागरिक समाज के प्रतिनिधि बहुत कम हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में स्वतंत्र पुलिस निरीक्षण के विकास के लिए यह एक अच्छा लक्षण नहीं है. खासकर, निर्णय देने वाले सदस्यों के रूप में सेवारत अफसरों की मौजूदगी एक परेशानी पैदा करने वाली प्रवृति है.[51]

स्वायत्तता सुनिश्चित करने की नीयत से राज्य सुरक्षा आयोगों की स्थापना सम्बन्धी अदालत के प्रथम निर्देश का रिपोर्ट कार्ड भी बेहतर नहीं है. कामनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के 2014 के एक अध्ययन के अनुसार, 26 भारतीय राज्यों और 3 केंद्र शासित प्रदेशों ने आधिकारिक रूप से राज्य सुरक्षा आयोगों की स्थापना कर ली थी, इनमें से केवल 14 राज्यों में ही यह सक्रिय थे.  और इनमें से किसी एक ने भी न्यायालय द्वारा सुझाए प्रारूप का पालन नहीं किया था.[52]

यातना रोकने का कानून

मई 2010 में, भारतीय संसद की निम्न सदन लोक सभा ने यातना रोकने का बिल पास किया, जिसमें यातना को परिभाषित किया गया है, और इसमें उन परिस्थितियों का वर्णन किया गया है जिनके तहत यातना देने के लिए सज़ा दी जा सकती है.[53] बिल को इसलिए भी प्रस्तुत किया गया ताकि भारत यातना के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन की अभिपुष्टि कर सके जिस पर भारत ने केवल हस्ताक्षर ही किये हैं.

हालांकि यह बिल सही दिशा में लिया गया एक कदम था, लेकिन इसमें काफी खामियां रह गयीं और विशेषज्ञों ने इसकी बहुत आलोचना की.[54]

अगस्त 2010 में, संसद के उच्च सदन राज्य सभा ने इस बिल को एक प्रवर समिति को टिपण्णी और सुझावों के लिए प्रेषित कर दिया. प्रवर समिति ने दिसंबर 2010 में अपनी रिपोर्ट पेश कर दी, जिसमें इस बिल में पाई जाने वाली तमाम कमियों और खामियों को दर्शाते हुए संशोधन के लिए सुझाव दिए गए.[55] भारत के अधिकार समूहों और कानूनी विशेषज्ञों ने प्रवर समिति द्वारा दिए गए सुझावों की आम तौर से तारीफ की.  लेकिन सरकार द्वारा आगे कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाया गया जिससे इस बिल को सुधार कर कानून बनाया जा सके. मई 2016 में गृह मंत्री ने संसद को सूचित किया कि यह बिल सन 2014 में समाप्त हो गया है, और कि सरकार अब भारतीय दंड संहिता की धारा 330 और 331 को संशोधित करने के प्रस्ताव पर विचार कर रही है, जो धाराएँ जुर्म कबूल करवाने या चुराई सम्पति को वापस मंगवाने के लिए संदिग्धों को जान-बूझ कर चोट पहुंचाने से सम्बंधित है.[56]

 

II.  गैरकानूनी गिरफ्तारी और हिरासत

भारत में कई नियम और प्रक्रिया ऐसी हैं, जो हिरासत में यातना और मौत से सुरक्षा प्रदान करती है. जिन 17 हिरासत में मौत के मामलों का विस्तार से दस्तावेजीकरण ह्यूमन राइट्स वाच ने किया है उनमें से ज्यादातर मौत, संदिग्ध को हिरासत में लेने के 24 घंटो के भीतर हुई है, और इससे यह पता चलता है कि पुलिस अक्सर गिरफ़्तारी और हिरासत से सम्बंधित भारतीय और अंतरराष्ट्रीय कानूनों और दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करती है. इस खंड में हमारे द्वारा जाँच किये गए मामलों के माध्यम से हम निम्नलिखित क्षेत्रों में कमियों पर ध्यान आकर्षित करेंगे: पुलिस द्वारा गिरफ्तारी नियमों का पालन न करना, गिरफ्तारी के बारे में परिवार के सदस्यों को सूचना न देना, संदिग्धों को दंडाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत न करना, दंडाधिकारी के द्वारा अपनी जिम्मेदारियों का पालन न करना, और पुलिस के द्वारा हिरासत में लिए गए व्यक्ति की चिकित्सकीय जाँच नहीं करवाना जो भारतीय कानून के हिसाब से संभावित उत्पीडन की पहचान के लिए अनिवार्य है.

गिरफ्तारी सम्बंधित नियमों का पालन न करना

भारत के गिरफ़्तारी सम्बंधित नियम के अनुसार गिरफ्तारी करने जाने वाले सभी पुलिसकर्मियों को सही, स्पष्ट दिखने वाला बैच या अन्य कोई पहचान-पत्र लगाना चाहिए, जिन पर उनका नाम और पद स्पष्ट नज़र आना चाहिए.[57] गिरफ्तारी करने वाले पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तारी मेमो तैयार करना चाहिए, जिसमे गिरफ्तारी का समय और तारीख का उल्लेख होना चाहिए, और इस मेमो में एक स्वतन्त्र गवाह का हस्ताक्षर और गिरफ्तार व्यक्ति का प्रति-हस्ताक्षर होना चाहिए.[58] इसके अलावा पुलिस को गिरफ्तार व्यक्ति को उसके अधिकारों के बारे में तुरंत जानकारी देनी चाहिए कि वह किसी को भी अपनी गिरफ्तारी और गिरफ्तारी की जगह के बारे में सूचित कर सकता है.[59] पुलिस द्वारा जान-बूझ कर या अनजाने में गिरफ़्तारी के नियमों का पालन नहीं करने के कारण ही अभियुक्तों के साथ शोषण और यातना की संभावना बढ़ जाती है.     

उत्तम मल, पश्चिम बंगाल

1 सितम्बर, 2010 को पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिला के झरुआ गाँव के एक 26 वर्षीय प्रवासी मजदूर उत्तम मल को पुलिस द्वारा दुर्गापुर के एक पार्क से गिरफ्तार किया गया. इस मामले में परिवार वाले और गवाहों ने पुलिस पर यह आरोप लगाया कि पुलिस ने गिरफ़्तारी के नियमों की अनदेखी करते हुए गिरफ्तारी के समय अपनी पहचान छुपाई, और गिरफ़्तारी मेमो भी तैयार नहीं किया था.[60] मल की मौत 48 घंटो के भीतर गंभीर चोटों के कारण हिरासत में हुयी थी.

न्यायिक जाँच के दौरान पुलिस ने मल को लगी गंभीर चोटों के बारे में दावा किया कि मल को यह चोटें पुलिस अधिकारी की मोटर साइकिल से कूद कर भागते समय लगी थी. हालाँकि अक्टूबर, 2016 में सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी जानकारी के अनुसार पुलिस ने कहा है कि मल की मौत हिरासत में नहीं हुयी थी, क्योंकि “न तो उसे गिरफ्तार किया गया था और ना ही उसे किसी पुलिस अधिकारी ने हिरासत में लिया था.”[61]

दुर्गापुर पुलिस स्टेशन को रिपोर्ट करने वाली पुलिस चौकी के सिविक पुलिस वालंटियर फ़ोर्स के दो अफसरों ने मल से जब संपर्क किया और पूछताछ की, तब वह अपने दो रिश्तेदारों, भानुमल और सुर्जोधन मल, के साथ था.[62] भानुमल ने बताया कि पुलिस जब हमारे साथ गाली-गलौच और मार-पीट कर रही थी, वह और सुर्जोधन वहां से भाग खड़े हुए, लेकिन उत्तम को पुलिस ने दबोच लिया था.[63]

सिविक पुलिस वालंटियर फ़ोर्स के राहुल कुमार बरुआ उन दो में से एक पुलिस कर्मी हैं जिन्होंने मल को गिरफ्तार किया था, और उन्होंने जुलाई 2013 को दुर्गापुर में मामले की न्यायिक जाँच के दौरान चल रही कार्यवाही में अतिरिक्त मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के सामने कहा था कि उसे यह शिकायत मिली थी कि कुछ युवा शराब पीकर उपद्रव कर रहे है.[64] बरुआ ने यह भी कहा कि मल ने शराब नहीं पीने की बात कही लेकिन उसके पास से एक थैला भर शराब की बोतलें मिलीं, तो बरुआ ने मल को मेडिकल जाँच के लिए ले जाने का फैसला किया, यह तय करने के लिए कि वह सार्वजनिक स्थान में शराब पी रहा था या नहीं. बरुआ ने अपने बयान में आगे कहा कि उसने अपने साथी कर्मचारी लम्बोदर महतो को कहा था कि तुम मल को मेडिकल जाँच के लिए अपनी मोटर साईकिल पर बैठा कर ले चलो, और मैं अपनी मोटर साईकिल में तुम्हारे पीछे-पीछे आऊंगा. बरुआ द्वारा न्यायलय में दिए गए बयान के अनुसार उसने मल को मोटर साईकिल से कूदते और सड़क के किनारे गिरते हुए देखा था.[65] हालाँकि अदालत में जिरह के दौरान बरुआ ने यह कहा कि मैंने स्वयं पीड़ित को मोटर साईकिल से कूदते हुए नहीं देखा था.[66]

यह रिपोर्ट लिखने तक न्यायिक जाँच पूरी नहीं हुयी थी, लेकिन आसानसोल-दुर्गापुर(पूर्व) के अतिरिक्त पुलिस आयुक्त द्वारा की गयी आतंरिक विभागीय जाँच में यह निष्कर्ष निकाला गया कि मल की मौत पुलिस हिरासत में नहीं हुयी थी.[67] रपट में पुलिस के द्वारा की गयी प्रक्रियात्मक विफलताओं पर चर्चा नहीं की गयी.

पुलिस के दवारा गिरफ़्तारी का कोई भी मेमो तैयार किया गया हो, ऐसा कोई सबूत नहीं है: मल के परिजनों को न्याय दिलाने में मदद कर रहे एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ डेमोक्रेटिक राइट्स के दिलीप दासगुप्ता ने बताया कि अदालत में (न्यायायिक दंडाधिकारी जांच) पुलिस दवारा गिरफ़्तारी का कोई मेमो नहीं दिखाया गया.[68]

गिरफ़्तारी के गवाहों में से एक, भानु मल, ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि पुलिस कर्मियों ने अपने नाम और वे कौन सी पुलिस चौकी से हैं, इनके बारे में कोई भी जानकारी उनको नहीं दी थी. उन्होंने हमें यह नहीं बताया कि वे हमें क्यों हिरासत में ले रहे हैं. उन्होंने बस इतना कहा कि हम कुछ गलत इरादा रखते हैं, और इतना कहकर हमें पीटने लगे. उन्होंने कोई सवाल पूछने का हमें अवसर ही नहीं दिया.[69]

बी. जनार्धन, तेलंगाना

29 वर्षीय बी. जनार्धन हैदराबाद शहर में एक निजी सुरक्षा कंपनी में सुपरवाईज़र का काम करता था. 4 अगस्त 2009 को पुलिस हिरासत में जनार्धन की मौत हो गयी थी. जनार्धन के परिवार का कहना है कि पुलिस ने उसे गैरकानूनी रूप से गिरफ्तार किया था, और पुलिस यातना के कारण उसकी मौत हो गयी थी. जनार्धन के बड़े भाई बी. सदानंद के अनुसार शुरू में 2 अगस्त को जब सदानंद को गिरफ्तार किया गया, तो हमें यह पता ही नहीं चला कि गिरफ्तार करने वाले पुलिसकर्मी हैं, क्यूंकि वे सादे कपड़ों में थे, और उन्होंने अपनी पहचान भी नहीं बतायी थी. सदानंद ने बताया:

मैं पड़ोस वाले घर में ही रहता हूँ. मेरी बहन ने आकर मुझे यह कहते हुए उठाया कि वे हमारे भाई को पकड़ कर ले जा रहे है. जब तक मैं वहां पहुँचता वे उसे ले जा चुके थे. किसी को भी पता नहीं चला कि कौन आया था और उसे पकड़ कर कहाँ ले गए हैं. उस समय तक हमें पता ही नहीं था कि वे पुलिसकर्मी थे. हम बस इतना ही जानते थे कि कुछ लोगो ने जनार्धन का अपहरण कर लिया है.[70]

दूसरे दिन सुबह 3 अगस्त को सदानंद सबसे पास की पुलिस चौकी, गोलकुंडा में गया, और गुमशुदा होने की शिकायत दर्ज कराई. पुलिस ने उसको बताया कि उन्होंने सभी पुलिस थानों को यह सन्देश वायरलेस पर भेज दिया है, लेकिन वे उसके भाई को खोज नहीं पाए. सदानंद के अनुसार, 4 अगस्त की सुबह गोलकुंडा पुलिस थाने से एक उप-निरीक्षक आया और उसने जानकारी दी की उसका भाई एल.बी. नगर पुलिस थाने में हो सकता है. सदानंद ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि जब वह एल.बी. नगर पुलिस थाने गया, तो उसने जनार्धन को वहां भी नहीं पाया.[71]

परिवार के सदस्यों ने बताया कि सदानंद जब एल.बी. नगर पुलिस चौकी में ही था, चार पुलिस वाले सादे कपडे में जनार्धन को थोड़ी देर के लिए उसके घर ले कर आए. परिवार वालों का आरोप है कि जनार्धन को हथकड़ी लगी हुयी थी और पुलिसवाले उसे लगातार मार रहे थे.

सदानंद ने पुलिस पर आरोप लगाया कि पुलिसवालों ने परिवार से टेलीविज़न सेट, सोने की अंगूठी और चेन जब्त कर ली, लेकिन बाद में उन्होंने टेलीविज़न सेट लौटा दिया. 4 अगस्त की शाम को जनार्धन के परिवार वालों को समाचार के प्रसारण से पता चला कि जनार्धन की मौत  हो चुकी है. सदानंद ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि:

समाचार में यह बताया गया कि जनार्धन की मौत  एल.बी. नगर पुलिस चौकी में हृदय घात की वजह से हुई. तो फिर हम एल.बी. नगर पुलिस चौकी गए. मिडिया के बहुत से लोग वहां पर थे. तीन घंटे तक पुलिस लगातार हमें यह कहती रही कि हम तुम्हें न्याय देंगे. हम क्या कर सकते थे उसकी मौत हृदय घात से हुई है.[72]
 

सदानंद ने आरोप लगाया है कि जनार्धन के पैरों, तलवों और गुप्तांगों पर पुलिस द्वारा पिटाई से हुए चोटों के निशान थे और गिरफ्तारी के बाद बुरी तरह से पिटाई के कारण ही उसकी मौत हुई.

पुलिस ने बताया कि जनार्धन पर चोरी का आरोप था, और 4 अगस्त को सुबह-सुबह इसी मामले  में दूसरे अभियुक्त को पकड़ने के लिए जनार्धन को घर से उठाया गया था. एक वरिष्ठ पुलिस कर्मी के अनुसार जनार्धन शायद घबराहट महूसस कर रहा था और वह सीने में दर्द के कारण गिर गया.[73] पुलिस उपायुक्त बी.वी. रमन्ना कुमार ने मीडिया के सामने यह बात स्वीकार किया कि पुलिस निरीक्षक महेंद्र ने इस जाँच के बारे में अपने वरिष्ठ अधिकारयों को सूचित नहीं किया था, और उसने अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाही बरती थी. कुमार ने कहा: जनार्धन को पुलिस चौकी लाकर महेंद्र को उसका इकबालिया बयान दर्ज करना चाहिए था. पुलिस की दूसरी टीम को अन्य अभियुक्त की तलाश के लिए जाना चाहिए था.[74]

पुलिस ने इस मामले में गिरफ़्तारी से जुड़े तमाम नियमों का उलंघन किया है, जिसमें से बहुत से संविधान में लिखे हुए है, जैसे कि पुलिस जब किसी को बिना वारंट के गिरफ्तार करती है, तो उसे अभियुक्त को गिरफ्तारी की वजह, और उसके जमानत के अधिकार को बताना चाहिए.[75] जनार्धन के परिजनों के अनुसार पुलिस ने जनार्धन को गैरकानूनी रूप से गिरफ्तार किया, अपनी पहचान छुपायी, और परिजनों को यह भी नहीं बताया कि वे उसे कहा ले कर जा रहे हैं.

सेंथिल कुमार, तमिलनाडु

33 वर्षीय सेंथिल कुमार के परिवार ने यह आरोप लगाया कि सेंथिल की मौत तमिलनाडु राज्य के डिंडीगुल जिले के वाडामदुरै पुलिस चौकी में पुलिस की मार की वजह से हुई थी. पुलिस का यह कहना है कि कुमार की मौत 5 अप्रैल, 2010 को गिरफ़्तारी के कुछ घंटों बाद रात को ह्रदय आघात की वजह से हुई थी.

पुलिस ने बताया कि स्थानीय वार्ड पार्षद के बेटे द्वारा कुमार के ख़िलाफ़ धमकी और रंगदारी की शिकायत दर्ज कराई गयी थी, जिसके आधार पर कुमार को गिरफ्तार किया गया. प्रथम सूचना रपट के अनुसार पुलिस को 5 अप्रैल, 2010 की रात को एक बजे शिकायत मिली, और सेंथिल कुमार को रात को लगभग साढ़े तीन बजे गिरफ्तार किया गया.[76] पुलिस ने बताया कि उनके द्वारा गिरफ़्तारी से संबंधित सभी नियमों का पालन किया गया था. कुमार के रिश्तेदारों ने पुलिस के विवरण को गलत बताया, जिसे बाद में न्यायिक जाँच में भी सही पाया गया.

कुमार की माँ और भाई ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि उन्होंने 4 अप्रैल को छह पुलिस कर्मियों, जिनमें से आधे तो यूनिफार्म में थे, कुमार को गिरफ्तार करते हुए देखा. उस समय एक स्थानीय मंदिर में त्यौहार मनाया जा रहा था और तब रात के 11 बज रहे थे न कि एक बज रहा था, जैसा कि पुलिस दावा कर रही है. कुमार के भाई शशि कुमार ने बताया कि पुलिस के पास कोई गिरफ़्तारी वारंट नहीं था, और जब वारंट दिखाने की मांग की गई तो उल्टा उसके भाई को पीटा गया.[77] परिवार वाले वाडामदुरै पुलिस चौकी तक पुलिस के पीछे-पीछे गए, लेकिन पुलिस ने उन्हें अन्दर जाने नहीं दिया. कुमार की माँ, सरस्वती, ने बताया कि उसे अन्दर से अपने बेटे की दर्द से चीखने की आवाज़ सुनाई दे रही थी.

“सरस्वती ने कहा कि मैंने डीएसपी महेश्वरन से दर्द से चिल्लाने की आवाज के बारे में पूछा, तो उन्होंने खिड़की की ग्रिल से जवाब दिया कि ‘घबराओ नहीं यह तुम्हारे बेटे की आवाज़ नहीं है. तुम जाओ, तुम्हारा बेटा सुबह घर पहुँच जाएगा’.[78] कुमार के परिजन उस रात वापस घर लौट गए, लेकिन अगले दिन उन्हें एक दोस्त से सूचना मिली कि पुलिस सेंथिल कुमार को सरकारी अस्पातल ले कर गयी थी, जहाँ उसकी मौत हो गयी.

पुलिस नियमों का पालन करने में विफल रही और गिरफ़्तारी के तुरंत बाद कुमार को मेडिकल चेक-अप के लिए नहीं ले गयी. कुमार की मौत की प्रथम सूचना रपट में गिरफ़्तारी के समय कुमार के नशे में होने की बात कही गई, लेकिन गिरफ़्तारी रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी नहीं लिखा हुआ था.[79] 24 अप्रैल, 2010 को राजस्व अनुमंडल अधिकारी, जिन्होंने इस मामले में कार्यकारी दंडाधिकारी की भूमिका निभाते हुए जाँच रिपोर्ट जमा की है, जिसमें उन्होंने उल्लेख किया है कि अगर अभियुक्त नशे में था तो पुलिस को उसे अस्पताल ले जाना चाहिए था न कि न्यायिक हिरासत में.[80]

जुल्फर शेख, महाराष्ट्र

एक गवाह के अनुसार 28 नवम्बर, 2012 को 35 वर्षीय जुल्फर शेख को पुलिस द्वारा गैरकानूनी रूप से हिरासत में लिया गया.[81] पुलिस ने नियमों की अनदेखी करते हुए 24 घंटे के भीतर पेश करने के कानूनी प्रावधान के काफी बाद जुल्फर को 30 नवम्बर को दंडाधिकारी के सामने प्रस्तुत किया. 2 दिसम्बर, 2012 को शेख की मौत हो गई. परिजनों ने पुलिस पर आरोप लगाया कि मुंबई की धारावी पुलुस चौकी में पुलिस यातनाओं के दौरान लगी चोटों के कारण जुल्फर की मौत हुई. पुलिस ने बताया किया कि शेख की मौत हृदय घात की वजह से हुयी थी.  

अपने नियोक्ता के लिए एक डिलीवरी लाने के लिए 28 नवम्बर को इनामुल शेख (कोई रिश्ता नहीं) की टैक्सी जुल्फर शेख ने बान्द्रा रेलवे स्टेशन जाने के लिए किराये पर ली थी. इनामुल शेख के अनुसार मोटर साईकिल में सादे कपड़े पहने दो व्यक्तियों द्वारा उन्हें रोका गया और उन्होंने उन पर हमला किया और गाली-गलौज की.[82] इसके बाद हाथापाई हुई, तब बाद में दोनों लोगों अपने को पुलिसकर्मी बताया, और दोनों को धारावी पुलिस चौकी ले गए. इनामुल शेख ने आगे बताया कि पुलिस वालों ने हम दोनों को दो पुलिसवालों के साथ बदतमीजी करने के लिए थप्पड़ मारे और पीटा.

जुल्फर शेख के परिजनों ने बताया कि पुलिस ने हमें जुल्फर की गिरफ़्तारी की सूचना नहीं दी, बल्कि उस शाम को हमें हमारे एक रिश्तेदार ने बताया कि जुल्फर को पकड़कर पुलिस थाने ले गई है. अगले दिन सुबह उन्होंने एक वकील, अभय भोईर को इस बात की सूचना दी.[83] भोईर ने बताया कि कानून के अनुसार जुल्फर को दंडाधिकारी के समक्ष पेश किया जायेगा, यह सोच कर वह बांद्रा न्यायलय  गया. लेकिन न्यायालय क्लर्क के पास गिरफ़्तारी से सम्बंधित कोई रिकोर्ड नहीं था.[84] भोईर ने कहा की उसे शक हुआ कि जुल्फर को गैरकानूनी रूप से हिरासत में रखा गया है, ऐसा सोचकर वे फिर से अगले दिन 30 नवम्बर को न्यायालय वापस गए. उस दिन दोपहर को शेख को दंडाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया गया, लेकिन भोईर ने बताया कि मुझे यह देख कर बहुत आश्चर्य हुआ कि पुलिस ने गिरफ़्तारी की तारीख 29 नवम्बर दिखाई थी.[85]

धारावी पुलिस के अनुसार 29 नवम्बर को जाली नोटों के साथ जुल्फर शेख और इनामुल शेख को पकड़ने के लिए एक जाल बिछाकर उन्हें गिरफ्तार किया गया था. लेकिन, उच्च न्यायालय में एक याचिका में जुल्फर शेख के चचेरे भाई ने बताया कि पुलिस गलत आरोप लगा रही थी और पुलिस ने जुल्फर शेख के बैग की तलाशी ली और उसमें से 32,500 रुपए (US$ 320) जब्त किये.

इस मामले में पुलिस ने शेख को कथित तौर पर अवैध रूप से हिरासत में रखा, परिवार को उसकी गिरफ़्तारी की सूचना नहीं दी, और गिरफ़्तारी के एक दिन बाद तक कोई अधिकारिक रिकॉर्ड नहीं बनाया, और कानून के अनुसार 24 घंटे हे भीतर दंडाधिकारी के समक्ष पेश नहीं किया गया, जैसा कि कानूनन ज़रूरी है.

राजीब मोल्ला, पश्चिम बंगाल

15 फरवरी, 2014 को पश्चिम बंगाल राज्य के मुर्शिदाबाद जिले के रानीनगर से पुलिस ने 21 वर्षीय राजीब मोल्ला को गिरफ्तार किया था. उसी दिन उसकी मौत भी हो गयी थी. पुलिस ने यह दावा किया है कि उसने आत्महत्या की थी, जबकि उनकी पत्नी, रेबा बीबी ने यह आरोप लगाया है कि राजीब की मौत पुलिस यातना के कारण हुई थी.

रेबा बीबी ने बताया कि 15 फरवरी की सुबह लगभग 5 पुलिस अफसर सादे कपड़े में उनके घर आए थे. पुलिस अधिकारियों ने बताया कि उनके पास गिरफ़्तारी का वारंट था लेकिन उन्होंने परिवार को नहीं दिखालाया. रेबा ने आगे बताया कि पुलिस ने गिरफ़्तारी का कोई मेमो तैयार नहीं किया था और परिवार वालों को यह भी नहीं बताया गया कि राजीब क्यों गिरफ्तार किये जा रहे हैं और कि वे उसे कहाँ ले जा रहे हैं. रेबा और उसकी सास उसी शाम मोल्ला को देखने रानीनगर पुलिस चौकी गए, लेकिन उन्हें राजीब से मिलने नहीं दिया गया. रेबा ने बताया कि उसने एक पुलिसकर्मी से पूछा कि क्या आप लोगों ने उन्हें पीटा है, तो उनमें से एक पुलिस वाले ने रेबा को जवाब दिया पूरा नहीं. आने वाले दिनों में हम उसकी जमकर पिटाई करेंगे.[86] रेबा ने बताया कि हमने खिड़की से झांककर देखा कि चार पुलिस वाले मोल्ला की पिटाई कर रहे थे: हम देख सकते थे कि उसके हाथ पीछे की तरफ बंधे हुए थे, और उसकी पिटाई की जा रही थी. वे उसे जूते और थप्पड़ से मार रहे थे. वे उसे डंडे से भी मार रहे थे.[87]

रेबा और उसकी सास को मोल्ला की मौत की खबर सबसे पहले शाम को गाँव वालों से मिली, जिन्होंने बताया कि उन्होंने यह खबर टी.वी. पर स्थानीय समाचार में सुनी है. वे इस बात का पता करने पुलिस चौकी गए जहाँ उन्हें बताया गया कि मोल्ला को गोधानपारा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में भर्ती किया गया है. लेकिन जब वे वहां पहुंचे तो मोल्ला उन्हें वहां नहीं मिला. इसी बीच मोल्ला की मौत की खबर सुनकर पुलिस चौकी में उसके शव को लेने गाँववाले इकट्ठा हो गए थे. आखिर में गाँव के मुखिया ने परिजनों को सूचित किया कि वे मोल्ला का शव बेहरामपुर जिला अस्पताल से ले लें. वहां जाकर उन्हें उसका शव, शवगृह के बाहर, एक पेड़ के नीचे तिरपाल से ढंका हुआ मिला. मोल्ला की पत्नी ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि मेरे पति के शव में गर्दन पर एक खरोंच थी, और उनकी पीठ और तलवों पर चोट के निशान थे. उसने बताया कि उनकी आँखे सूजी हुयी थीं, और उनके कपड़ों पर दाग थे.[88] मोल्ला की पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में निष्कर्ष निकला कि उसकी मौत फंदे पर झूलने की वजह से हुई है और गले को छोड़ शरीर के किसी भी बाहरी हिस्से में कोई चोट नहीं पाई गयी है.[89]

अब्दुल अज़ीज़, उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश राज्य के अलीगढ़ शहर में 8 मई, 2011 को रात के लगभग साढ़े दस बजे सिविल लाईन पुलिस चौकी के चार पुलिसकर्मी 59 वर्षीय अब्दुल अज़ीज़ को उनके घर से उठाकर अपने साथ ले गए थे.

परिजनों ने यह आरोप लगाया है कि पुलिस ने गिरफ़्तारी वारंट दिखाने से या अज़ीज़ को क्यों गिरफ्तार कर रहे हैं और कहाँ ले जा रहे हैं, यह सब जानकारी देने से मना कर दिया था.[90] अज़ीज़ के परिजन जब पुलिस चौकी पहुंचे तो उन्हें बताया गया कि अज़ीज़ की तबीयत ख़राब हो गयी है इसलिए उसे जे.एन. मेडिकल कालेज ले जाया गया है. अज़ीज़ के बेटे जमशेद ने अस्पताल में मुख्य चिकित्सा अधिकारी से जब यह पूछा कि उसके पिता का किस बीमारी के लिए इलाज किया जा रहा है, तो डॉक्टर ने बताया कि अज़ीज़ को तो यहाँ लाते ही मृत घोषित कर दिया गया था.[91]

पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में अज़ीज़ की मौत का कारण ह्रदय घात बताया, लेकिन परिजनों को यह विश्वास है कि अज़ीज़ की मौत दुर्व्यवहार के कारण हुयी थी. अस्पताल की मेडिकल रिपोर्ट भी पुलिस रिपोर्ट का समर्थन करती थी जिसमें यह बताया गया कि यह पुलिस हिरासत में ह्रदय गति रुकने का मामला है, लेकिन पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट में गर्दन में खरोंच का उल्लेख किया गया और निष्कर्ष यह निकाला गया की मौत गला दबने से दम घुटने की वजह से हुई है.[92]

एग्नेलो वल्दारिस, महाराष्ट्र

18 अप्रैल, 2014 की सुबह 25 वर्षीय एग्नेलो वल्दारिस की मौत पुलिस की गिरफ्तारी के तीन दिन बाद हुई. मुंबई के वडाला रेलवे पुलिस चौकी के पुलिस अधिकारीयों ने बताया कि एग्नेलो वल्दारिस की मौत ट्रेन से टकराने से हुई जब वह हिरासत से भागने की कोशिश कर रहा था. उसके परिजनों और उसके साथ हिरासत में जो अन्य लोग थे उनके अनुसार उसकी मौत का कारण पुलिस यातना है.

वल्दारिस, सुफियान मोहम्मद खान, 23 वर्ष, इरफ़ान हजाम, 19 वर्ष और एक 15 वर्षीय लड़के को पुलिस ने डकैती के शक में 15 अप्रैल को रात 11 बजे और 16 अप्रैल को रात 2 बजे अलग-अलग स्थानों से उठाया था. सुफियान और वह लड़का चचेरे भाई थे, और एक दूसरे को जानते थे; पुलिस उस लड़के को वल्दारिस के घर की पहचान के लिए अपने साथ ले गयी थी. पुलिस द्वारा गिरफ्तारी का कोई मेमो तैयार नहीं किया गया था और न ही उनकी गिरफ़्तारी का पुलिस चौकी में कोई रिकॉर्ड रखा गया था. वल्दारिस के मामले में भी, पुलिस ने बिना वारंट के उसके घर की तलाशी ली थी.[93] बाद में केन्द्रीय जाँच ब्यूरो की जाँच में यह पाया गया कि पुलिस द्वारा गैरकानूनी रूप से उन्हें हिरासत में रखा गया था, और बाद में गलत रिकॉर्ड तैयार किया गया था.

गिरफ़्तारी के दौरान, पुलिसकर्मियों ने उन्हें मारा और हथकड़ी लगायी. सुफियान मोहम्मद खान ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि जब उसने पुलिस से पूछा कि हमें हथकड़ी क्यों लगा रहे हो, हमने क्या अपराध किया है, तो एक पुलिस वाले ने उसे और हजाम को थप्पड़ मारा.[94]

पुलिस उन तीनों को रे रोड रेलवे स्टेशन के केबिन में ले गई जहाँ पुलिस ने उन्हें डंडे और बेल्ट से मारा. उसके बाद पुलिस ने वल्दारिस को उसके दादा-दादी के घर से उठाया. वल्दारिस और तीनों संदिग्धों को पुलिस ने शुरू में वडाला पुलिस चौकी में हिरासत में रखा. किशोर न्याय कानून के अनुसार बच्चे को विशेष किशोर पुलिस ईकाइ या निर्दिष्ट बाल कल्याण अधिकारी के पास रखना चाहिए था, उसे पुलिस हिरासत में नहीं रखा जाना चाहिए था.[95] लेकिन पुलिस ने गैरकानूनी रूप से उस बच्चे को वयस्कों के साथ लॉक-अप में रखा.[96]

पुलिस अधिकारियों द्वारा चारों संदिग्धों को डकैती का जुर्म कबूल करने के लिए कथित तौर पर पीटा गया और यौन दुर्व्यवहार भी किया गया. हजाम के कपड़े उतार लिए गए थे, और उसे बिना कपड़ों के टेबल पर जबरन लिटा दिया गया, और उसकी इतनी पिटाई की गई कि वह बेहोश हो गया. उसके बाद एक दूसरा पुलिस अधिकारी कमरे में आया और उसने एक बाल्टी पानी उसके ऊपर डाल दिया, साथ ही उसपर बेहोशी का नाटक करने का इल्जाम लगाया. हजाम ने जुलाई 2014 को केन्द्रीय जाँच ब्यूरो को बयान देते हुए बताया था कि:

पुलिसकर्मी ने सुफियान, (बच्चे के असली नाम को छुपा लिया गया है), और रिची (एग्नेलो वल्दारिस का उपनाम) को हवालात से बाहर लाया, और उन्हें अपना पेंट उतारने के लिए मजबूर किया. उन्होंने मुझे उनके साथ ऑरल-सेक्स (मुख-मैथुन) करने को कहा. मैंने मना कर दिया, लेकिन उन्होंने मुझे ऐसा नहीं करने पर और पीटने की धमकी दी.[97]

हजाम ने बताया कि उसका हाथ बंधा हुआ था, और उसे उल्टा लटका दिया गया था, जबकि उसके हाथ और पैर के बीच एक लोहे की छड़ डाल दी गयी थी. उसके बाद उसे लकड़ी के डंडे और बेल्ट से मारा गया. उसके बाद कथित तौर पर पुलिस अधिकारियों ने हजाम के मलद्वार में लकड़ी का डंडा डालने की कोशिश की, लेकिन डंडा मोटा होने की वजह से अन्दर नहीं गया तो उन्होंने उसके गुप्तांग में मिटटी तेल डालने की धमकी दी. हजाम बहुत डर गया था और उसने डर कर डकैती का जुर्म स्वीकार कर लिया.[98]

यातना से बचने के लिए सुफियान, इरफ़ान और उस लड़के ने बाद में पुलिस को बताया कि चोरी की संपत्ति को वल्दारिस ने छुपाया है.[99] गवाहों ने बताया कि 16 अप्रैल को पुलिस अधिकारियों  ने वल्दारिस का हाथ-पैर बांध कर उल्टा लटकाया, और डंडे और बेल्ट से मारा. वे उसके छाती पर लात से भी लगातार वार कर रहे थे.

वल्दारिस के पिता, लियोनार्ड वल्दारिस ने बताया कि 18 अप्रैल को जब उन्होंने एक पुलिस अधिकारी को फोन किया तो उन्हें सायन अस्पताल जाने को कहा गया. जब वे अस्पताल पहुंचे तो एक पुलिस अधिकारी ने उन्हें बताया कि हिरासत से भागने की कोशिश में उसकी ट्रेन से टकराने से मौत हो गयी. लियोनार्ड ने बताया, “मैंने देखा कि उसकी दायें तरफ की पसली में एक छेद था. बाएं हाथ से मांस बहार आ गया था और शरीर के ऊपर का हिस्सा खून से सना हुआ था.”[100]

पोस्टमार्टम रिपोर्ट में यह निर्धारित किया गया कि वल्दारिस की मौत सामूहिक चोटों की वजह से हुई है. उसके सिर और चेहरे, बाँह, बाएँ कंधे, छाती, पेट और दोनों पैरों में कई तरह की और ताज़ा चोटें लगी थीं. पसलियाँ टूटी हुईं थीं, और फेफड़ो में अंदरूनी चोटें लगी थीं. रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि उसके पीठ, दोनों पैर और बाँह और कलाई में लगी चोटें एक दिन पुरानी थीं, जो यह इंगित करती हैं कि इनमें से कुछ चोटें उसे पुलिस हिरासत के दौरान लगी होंगी. [101]

अल्ताफ शेख, महाराष्ट्र

11 सितम्बर, 2009 को घाटकोपर पुलिस चौकी में 22 वर्षीय अल्ताफ कादिर शेख की मौत हिरासत में हुई. पुलिस यह दावा करती है कि उसकी मौत नशीली दवाएं लेने की वजह से हुई थी. पुलिस के अनुसार जब उन्होंने उसे गिरफ्तार किया तो वह बहुत नशे में था, और उन्होंने उसे पुलिस चौकी में सोने दिया. लेकिन जब वह सुबह होने पर भी नहीं उठा, तो वे उसे अस्पातल ले कर गए जहाँ उसे ले जाते ही मृत घोषित कर दिया गया.[102] उसकी माँ मेहरूनिशा शेख यह आरोप लगाती है कि उसके बेटे की मौत हिरासत में पुलिस दवारा उसके साथ की गयी यातना के कारण हुयी है.

मेहरूननिशा शेख ने बताया कि 11 सितम्बर की सुबह-सुबह घाटकोपर पुलिस स्टेशन से चार  पुलिसकर्मी सादे कपड़ों में, बिना कोई पहचान पत्र के, उसके घर आए और उसके बेटे अल्ताफ के बारे में पुछा. अल्ताफ की माँ ने बताया की उसने पहचान लिया कि वे पुलिस वाले है क्यूंकि इससे पहले भी वे उसके बेटे को गिरफ्तार करने आए थे. मेहरूनिशा के अनुसार पुलिस ने उसके बेटे को पकड़ कर घर के बाहर घसीटकर पीटा और मुक्के मारे, और घसीटते हुए पास के ऑटो रिक्शा में बैठा कर ले गए. उन्होंने मेहरूनिशा को अगले दिन सुबह पुलिस चौकी आने को कहा.[103]

केन्द्रीय जाँच ब्यूरो द्वारा की गयी जाँच में बाद में यह पुष्टि की गयी कि पुलिस ने गिरफ़्तारी का कोई मेमो तैयार नहीं किया था, और शेख को गैरकानूनी रूप से हिरासत में रखा गया था.[104] अगले दिन सुबह दो पुलिस वाले मेहरूनिशा के घर आये, लेकिन मेहरूनिशा काम पर गयी हुईं थी, तो उन्होंने उसकी बेटी को कहा कि अल्ताफ घायल हो गया है, वह अस्पताल में भर्ती है, अपनी माँ को राजावाड़ी अस्पताल भेज देना. मेहरूनिशा ने बताया कि जब वह अस्पातल पहुंची तो उसे बताया गया कि उसके बेटे की मौत हो गयी है. मेहरूनिशा के मुताबिक उसका बेटा उस समय केवल शर्ट और अंडरवियर पहने हुए था, और उसके शरीर पर बहुत सारी चोटें थी. उन्होंने बताया कि पुलिस उन्हें और उनके परिजनों पर दबाव डाल रही थे कि वे उसके शव को जल्दी से ले जायें, और दफ़ना दें.[105]

एक दंडाधिकारी की मौजूदगी में पुलिस द्वारा की गयी जाँच के अनुसार शेख के शरीर पर कोई बाहरी चोट नहीं पायी गई. हालाँकि पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट में शेख के शरीर पर आठ बाहरी चोट और सिर पर भी चोट के निशान थे. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का अंतिम कारण न बताते हुए उसे सुरक्षित रखा गया, फिर भी उसमें कहा गया कि सिर पर भी चोट लगने और नाक से रक्त स्त्राव होना मौत का एक कारण हो सकता है.[106]

बॉम्बे उच्च न्यायलय ने इस मामले में अपना फैसला देते हुए यह कहा कि पुलिस इस मामले को रफा-दफा करने की कोशिश कर रही थी, और प्रथम दृष्टया सबूत है कि शेख की मौत पुलिस यातना का परिणाम था.[107]

गिरफ्तारी और बलपूर्वक लापता के मामलों में परिजनों को सूचित करने में विफलता

अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत सरकार के लिए यह अनिवार्य है कि परिवार के सदस्यों को सूचित करे कि उनके सम्बन्धी को हिरासत में लिया गया है. सरकार द्वारा राजकीय हिरासत में लिए गए किसी भी व्यक्ति के बारे में सूचना न देना बलपूर्वक लापता होना माना जायेगा. बलपूर्वक लापता करना एक गंभीर अपराध है, जिसके चलते अन्य गंभीर स्तर के मानवाधिकार सम्बन्धी उल्लंघन होते हैं जिनमें यातना और गैर-न्यायायिक हत्या शामिल है.[108]

हिरासत की जगह पर, गिरफ्तारी के सम्बन्ध में पुलिस डायरी में एक प्रविष्टि की जानी  चाहिए. जिस व्यक्ति को गिरफ्तारी के सम्बन्ध में सूचना दी गयी है, और उन पुलिस अफसरों के नाम और पद जिसकी हिरासत में गिरफ्तार व्यक्ति है; के बारे में डायरी में प्रविष्टि होनी चाहिए.[109] गिरफ्तार व्यक्ति को जिस दंडाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि इन प्रकियाओं का अनुपालन हुआ है.[110]

हर जिले और राज्य मुख्यालय में एक पुलिस कंट्रोल रूम होना चाहिए जहाँ पर गिरफ्तार व्यक्तियों के नाम और पते, और गिरफ्तार करने वाले पुलिस अफसर का नाम और पद प्रमुख रूप से प्रदर्शित होना चाहिए. राज्य पुलिस मुख्यालय को पुलिस द्वारा गिरफ्तार व्यक्तियों की संपूर्ण जानकारी इकठ्ठा कर एक डेटाबेस तैयार करना ज़रूरी है ताकि यह जानकारी आम जनता के लिए आसानी से उपलब्ध रहे.[111] सन् 2015 में सर्वोच्च नयायालय ने हिरासत में यातना  रोकने के लिए केंद्रीय और राज्य सरकारों को आदेश दिया किया कि सभी पुलिस थानों और जेलों में क्लोज्ड सर्किट टेलीविज़न कैमरा लगाये.[112]

ह्यूमन राइट्स वाच द्वारा जिन मामलों का दस्तावेजीकरण किया गया है उनमें से कई मामलों में पुलिस द्वारा परिवार के सदस्यों को गिरफ्तारी के बारे में और गिरफ्तार व्यक्ति को कहाँ रखा गया, इनके बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी. इनमें कई ऐसे मामले हैं जिनमें पुलिस द्वारा परिवार के सदस्यों को जानकारी नहीं दी गयी, इनके विस्तृत उदहारण इस रिपोर्ट में ऊपर वर्णित हैं. जैसे उत्तम मल के मामले में पुलिस ने परिवार के सदस्यों को तब सूचित किया जब उसे अस्पताल में चोटों के साथ भर्ती किया गया.[113] जुल्फर शेख के मामले में, मुंबई के धारावी में पुलिस ने पूरे एक दिन तक उसे हिरासत में रखने के बाद उसकी गिरफ्तारी दर्ज की, और गिरफ्तारी दर्ज करने के बाद भी उसके परिजनों को सूचित नहीं किया.[114] बी. जनार्धन के मामले में पुलिस का यह दावा है कि उन्होंने जनार्धन को 4 अगस्त 2009 को उठाया था, जिस दिन उसकी मौत हुई थी, जबकि परिवार वालों का कहना है कि पुलिस ने उसे 2 अगस्त को उठाया था, और उसकी मौत पुलिस की मार से हुई थी. जनार्धन के भाई सदानंद ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि वह पुलिस थाने में गुमशुदा व्यक्ति के बारे में रपट लिखवाने गया था, लेकिन उसे कोई सूचना नहीं मिली.[115]

काज़ी नसरुद्दीन, पश्चिम बंगाल

18 जनवरी 2013, को पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस के 35 वर्षीय एक स्थानीय नेता को हिरासत में लिया गया था. उसके परिवार का यह आरोप है कि उनकी गिरफ्तारी और उसको कहाँ रखा है, इसकी कोई सूचना पुलिस ने नहीं दी थी. नसीरुद्दीन की पत्नी मांजा बीबी ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि उसे तब जाकर  पता चला जब उनके पडोसी जमशेद, जो गिरफ्तारी का गवाह था, ने उन्हें इस गिरफ्तारी बारे में बताया.[116]

उस दिन रात के लगभग साढ़े दस बजे पुलिस ने नसीरुद्दीन को हिरासत में लिया था, दूसरे गाँव के एक आदमी ने उनके परिवार वालों को यह सूचना दी कि पुलिस वाले नसीरुद्दीन को धनिअखाली पुलिस थाने में पीट रहे हैं. मांजा बीबी ने बताया कि जब उनके भाई शमसुद्दीन पुलिस थाने गए तो उन्हें बताया गया कि नसीरुद्दीन को अस्पताल ले जाया गया है, और जब वे अस्पताल पहुंचे तो उन्हें बताया गया कि नसीरुद्दीन की मौत हो चुकी है. परिवार के विरोध के बावजूद पुलिस वाले बिना परिवार वालों को बताये ही कि वे उसे कहाँ ले जा रहे हैं, नसीरुद्दीन के शव को पोस्ट मार्टम के लिए ले गए.[117]

अगले दिन सुबह गाँव वालों ने पुलिस स्टेशन के सामने इकट्ठा होकर पुलिस के ख़िलाफ़ धरना प्रदर्शन किया, और उसी दौरान नसीरुद्दीन की पत्नी ने चुरचुरा न्यायलय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की. आखिर में पुलिस ने नसीरुद्दीन के शव को चुरचुरा मुर्दाघर को सौंपा. उस समय मौजूद और इस मामले में मदद कर रहे वकील सुमन चक्रवर्ती ने बताया कि नसीरुद्दीन का चेहरा चोट से सूजा हुआ था, और एक हाथ क्षत-विक्षत था.[118]

मई 2013, में जब याचिका पर सुनवाई करते हुए नसीरुद्दीन का मामला स्वतन्त्र जाँच के लिए केन्द्रीय जाँच ब्यूरो को हस्तांतरित किया गया,  तब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने जोर देकर कहा कि पुलिस ने इस मामले में गिरफ्तारी के नियमों की क़ानूनी प्रक्रियाओं का उल्लंघन किया था. न्यायधीशों ने उल्लेख किया कि इस मामले में गिरफ़्तारी के सम्बन्ध में डी.के. बसु मामले में दिए गए दिशा निर्देशों का उल्लंघन किया गया है, जिसमें गिरफ्तार व्यक्ति के गिरफ्तारी मेमो में ऐसे व्यक्ति के हस्ताक्षर लिए गए है जो ना तो उसका दोस्त है ना ही कोई रिश्तेदार, और पुलिस अभियुक्त के परिवार या दोस्त को सूचना देने में विफल रही है.[119]

ओबैदुर रहमान, पश्चिम बंगाल

पश्चिम बंगाल के माल्दा जिले के सोनाकुल गाँव के 52 वर्षीय किसान ओबैदुर रहमान को उसके पड़ोसी के साथ चल रहे भूमि विवाद के अपराधिक मामले में पुलिस तलाश कर रही थी. रहमान के परिवार का यह आरोप है कि 21 जनवरी, 2015 को रहमान को गिरफ्तार किया गया और 24 घंटे के भीतर पुलिस की यातना से उनकी मौत हो गयी. हालाँकि पुलिस ने रहमान को हिरासत में लिए जाने की बात से इंकार करते हुए कहा कि पुलिस थाने के बाहर ही उसकी तबीयत ख़राब हो गयी थी और पुलिस सिर्फ उसको अस्पताल लेकर गई थी.

रहमान के परिजनों के अनुसार पुलिस ने रहमान को 21 जनवरी, 2015 को बालुपुर गाँव से उसकी बेटी के घर से रात को 8:30 बजे गिरफ्तार किया. परिजनों का आरोप है कि पुलिस वाले रहमान को गिरफ्तारी के दौरान मार रहे थे. रहमान की पत्नी सनोआरा बेगम ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि पुलिस के पास कोई गिरफ़्तारी वारंट नहीं था, और उन्होंने मेरे पति को कहाँ और क्यों ले जा रहे हैं, इसकी कोई जानकारी नहीं दी.[120] उन्होंने बताया कि उस समय मेरे साथ जो परिवार के सदस्य थे उन्होंने पहचान कर बताया कि यह हरिश्चंद्रपुर की पुलिस है, और यह भी बताया कि रहमान को शायद वहीं लेकर गए होंगे. उसी दिन आधी रात को रहमान की बेटी के पास पुलिस ने यह बताने के लिए फोन किया कि रहमान की तबीयत बहुत ख़राब हो गयी है, उसे देखने माल्दा अस्पताल चले आओ.

पुलिस ने बताया कि करीब रात के 10:15 बजे रहमान की तबीयत हरिश्चंद्रपुर पुलिस थाने के बाहर ख़राब हो गयी थी, अतः वे उसे हरिश्चंद्रपुर अस्पताल ले गए. अस्पताल में डॉक्टर ने उसे माल्दा मेडिकल कालेज रेफर कर दिया और पुलिस उसे वहां ले गयी.



 

उनके परिवार के एक सदस्य, जो माल्दा अस्पताल गए थे, ने बताया:

हम लोग लगभग सुबह 4:30 बजे अस्पताल पहुंचे जहाँ हमने देखा कि रहमान की लुंगी घुटने से नीचे उतरी हुयी थी, और उल्टी, पेशाब और मल से भीगी हुयी थी. उसके शर्ट के बटन खुले हुए थे और उस पर भी उल्टी के दाग थे. उसके चेहरे पर कीचड़ लगा हुआ था और माथे पर पसीना था. मैंने उसके घुटनों में खून जमा हुआ और नाक के छेद में खून की कुछ बूँदें देखीं. वह बेहोश था और मुँह से साँस ले रहा था.[121]

परिवार वालों ने यह आरोप लगाया कि जब रहमान की तबीयत बिगड़ने लगी तो माल्दा के डॉक्टरों ने रहमान को कोलकाता के अस्पताल ले जाने कहा, लेकिन पुलिस वालों ने मना कर दिया. तो फिर रहमान के परिवार वालों ने उनके आगे के इलाज के लिए कोलकाता के अस्पताल ले जाने के लिए पुलिस अधीक्षक को आवेदन दिया. पुलिस अधीक्षक को दिए गए आवेदन के चलते पुलिस वाले स्वयं रहमान को कोलकाता के बांगुर न्यूरो साइंस संस्थान ले कर गई, जहाँ ले जाते ही रहमान को मृत घोषित कर दिया गया. पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट में कोई भी आतंरिक और बाहरी चोट नहीं पायी गयी, और यह बताया गया कि रहमान की मौत सर में अंदरूनी या बाहरी चोट/दुर्घटना के चलते दिमाग की कोशिकाएं फटने की वजह से हुई है, जिसे चिकित्सीय शब्दों में रक्तघात कहते हैं.[122]

के.स्ईद मोहम्मद, तमिलनाडु

14 अक्टूबर, 2014 को रामनाथपुरम जिले के एस.पी. पत्तिनाम गाँव के 23 वर्षीय के. सईद मोहम्मद को एस.पी. पत्तिनाम पुलिस थाने के सामने स्थित मोटर साइकिल मरम्मत की दुकान के मालिक के साथ कथित तौर पर हुए विवाद के कारण उठाया गया था. मोहम्मद को गिरफ़्तारी के कुछ ही घंटो बाद 3 से 5 बजे के बीच पुलिस थाने में पुलिस उप-निरीक्षक काॅलिडोस ने  गोली मार कर मोहम्मद की हत्या कर दी. मोहम्मद के परिवार का कहना है कि पुलिस ने हमें गिरफ़्तारी के बारे में कोई जानकारी नहीं दी, हमें तो घटना के बारे में एक दोस्त से पता चला जिसने बताया कि उसने पुलिस के साथ मोहम्मद को एम्बुलेंस में जाते देखा.[123]

काॅलिडोस ने यह बताया कि मोहम्मद ने मुझ पर पूछ-ताछ के दौरान चाकू से हमला किया था तो मैंने आत्मरक्षा में उस पर गोली चलाई.[124] हालांकि परिवार के सदस्यों का यह आरोप है कि पुलिस ने मोहम्मद को हिरासत में जाने के बाद बहुत पीटा और फिर मौत के कारण को छुपाने के लिए उसे गोली मार दी.[125] पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट में कुल चार गोली के घाव का उल्लेख किया गया; बाईं हंसली, छाती, बाई बांह में ऊपर और दायीं हाथ में कलाई के करीब. रिपोर्ट में दस अन्य चोटों का भी ज़िक्र है, जैसे दायीं और बायीं जांघ, बाएँ और दाएँ घुटने पर, दाएँ कंधे और दाहिनी जांघ के पीछे खरोच एवं सूजन के निशान थे.[126]

सफीकुल हक़, पश्चिम बंगाल

7 दिसंबर, 2012 को पश्चिम बंगाल के मुर्शीदाबाद जिले के 51 वर्षीय सफीकुल हक़ को पुलिस ने एक पूर्व राजनेता की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया था. गिरफ़्तारी के एक माह बाद 7 जनवरी, 2013 को न्यायिक हिरासत में सफीकुल की मौत हो गई. सफीकुल की पत्नी सकीना बेगम ने यह आरोप लगाया कि पुलिस मुझे या मेरे परिवार के किसी सदस्य को यह बताने में विफल रही कि वे उन्हें कहाँ ले जा रहे हैं.[127] सकीना बीबी ने बताया कि पुलिसकर्मियों ने मेरे पति को बिल्बारी गाँव में मस्जिद के सामने से सुबह 5 बजे गिरफ्तार किया, और गिरफ़्तारी के दौरान वे उन्हें पीट रहे थे:

वे उन्हें लाठी और जूतों से मार रहे थे. वे जूतों से उनके कूल्हों पर मार रहे थे. वे मेरे भतीजों को भी मार रहे थे. वहां पर बहुत सारे पुलिसकर्मी थे. मेरे पति ने पानी माँगा तो पुलिसवाले ने कहा कि “तुम्हें पानी चाहिए, मैं तुम्हे जहर दूंगा. हम तुम्हें वातानुकूलित कमरे (शवगृह) में रखेंगे”.[128]

हक़ की पत्नी ने बताया कि वहां कुछ पुलिस वाले नबाग्राम पुलिस थाने से थे तो उसने सोचा कि उसके पति को नबाग्राम पुलिस थाने ले जाया गया गोगा लेकिन जब वह वहां एक घंटे बाद पहुंची तो पुलिस ने कहा की वह यहाँ नहीं है. उसके एक घंटे के बाद वह बहरामपुर पुलिस चौकी गई, वहां भी पुलिस ने कहा कि हक़ यहाँ नहीं है. उसके बाद वह यह सोचकर कि बहरामपुर मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के पास गई कि पुलिस हक़ को वहां पेश करेगी, लेकिन हक़ उसे वहां भी नहीं मिला.

सकीना बीबी ने बताया कि अगली सुबह उसे एक गुमनाम फोन आया कि हक़ को लालबाग अतिरिक्त मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के न्यायलय में ले जाया जाएगा. इस जानकारी के बाद सकीना और उसके कुछ परिजन लालबाग न्यायालय गए, और हक़ उन्हें न्यायालय की लॉक-अप में मिला. सकीना के अनुसार हक़ ने उसे बताया कि पुलिस उसे भगवानगोला पुलिस चौकी ले कर गई थे, और वहां उसे 5 घंटे तक लगातार पीटा गया.[129]

हक़ के रिश्तेदारों का यह विश्वास है कि हक़ की मौत पुलिस हिरासत में घायल होने और उसके बाद पर्याप्त इलाज नहीं होने की वजह से हुई है. कार्यपालिका दंडाधिकारी द्वारा जांच रिपोर्ट में उसकी बाईं कलाई, बाएं घुटने और बाएं पैर में घाव के निशान पाए गए थे.[130] पोस्ट-मार्टम की रिपोर्ट में बताया गया कि शरीर पर कोई ताज़ा चोट नहीं लगी है, लेकिन बायें घुटने और सामने की ऊँगली में ठीक हो चुकी चोटों और बायें पैर के अंगूठे पर ठीक हो रहे जख्म का निशान पाया गया.[131]

अप्पू, उत्तर प्रदेश

9 दिसंबर, 2013 को उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में 27 वर्षीय अप्पू की हिरासत में मौत हुई थी. अप्पू की माँ सरला देवी के अनुसार पुलिस ने अप्पू की गिरफ़्तारी की सूचना उन्हें नहीं दी थी, और अप्पू की मौत के बारे में पुलिस द्वारा अलग-अलग समय में अलग-अलग स्पष्टीकरण दिया जा रहा था. 9 दिसंबर को लगभग 3 बजे पुलिस उनके घर आई और उन्हें बताया कि  अप्पू को ह्रदय घात हुआ है. उसके एक घंटे बाद कुछ और पुलिस वाले आए और उन्होंने बताया कि जहर खाने से अप्पू की मौत हो गयी है.[132] लेकिन, पुलिस की अधिकारिक रिपोर्ट में बताया गया कि उसने छत की कड़ी से लटककर फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली.

पुलिस ने अप्पू को 7 दिसंबर, 2013 को गिरफ्तार किया था, और दौराला पुलिस थाने की  हवालात में रखा था. अप्पू की माँ ने बताया कि उन्हें अप्पू की गिरफ़्तारी की सूचना पुलिस से नहीं बल्कि उनके मकान मालिक से उसी दिन मिली, और उसके बाद वह उससे मिलने 8 दिसंबर को गयी थी.[133] उसने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि वह पुलिस हवालात में था जहाँ उसके साथ अन्य तीन और आदमी थे. उसने मुझे देखकर हाथ हिलाया. मैं उसके पास गयी. वह स्वस्थ दिख रहा था, यहाँ तक कि उसने मुझसे पुछा कि क्या मैं अपनी दवा ले रही हूँ.[134]

9 दिसंबर की सुबह लगभग 3 बजे दो पुलिसकर्मी उनके घर आए और उसे बताया कि अप्पू यहाँ पास के प्यारे लाल अस्पताल में है. सरला देवी ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि पुलिस वाले ने अप्पू की ख़राब तबीयत का जिम्मेदार मुझे ठहराते हुए कहा कि तुमने उसे ऐसा क्या कहा था? ”  एक पुलिस वाले ने कहा कि “उसे ह्रदयघात हुआ है[135] और उसे देखने जाने के लिए कहने लगे. सरला देवी ने उन्हें कहा कि मैं कल सुबह जाउंगी, अभी बहुत रात हो गयी है. लेकिन करीब एक घंटे बाद चार और पुलिसवाले उसके दरवाज़े के पास आए, सरला देवी ने कहा कि वे बहुत परेशान दिख रहे थे. उन्होंने बताया कि अप्पू को पास के सरदार वल्लभ भाई अस्पताल ले जाया गया, जहाँ उसकी मौत हो गयी.

दूसरे दिन सुबह पड़ोस के लोग इकठ्ठा हुए और उन्होंने पुलिसकर्मियों का घेराव किया, और अप्पू की मौत के विरोध में प्रदर्शन किया. सरला देवी और उनका बड़ा बेटा चंदन एक स्थानीय राजनेता के साथ अस्पताल गए. चंदन के अनुसार पुलिस ने तब हमें बताया कि अप्पू ने फांसी लगा ली थी. चन्दन ने बताया कि अप्पू के गले में रस्सी के निशान के आलावा शरीर पर और कोई बाहरी चोट के निशान नहीं दिख रहे थे. पुलिस ने कहा कि उसने अपने कम्बल को फाड़ा और उसे छत में बांध कर आत्महत्या कर ली.[136]

श्यामू सिंह, उत्तर प्रदेश

15 अप्रैल, 2012 को उत्तर प्रदेश के अलीगढ जिले के कवार्सी पुलिस थाने में श्यामू सिंह की हिरासत में मौत हुई थी. इस मामले में पुलिस श्यामू की गिरफ़्तारी के कारणों को परिवार को सूचित करने में विफल रही, और साथ ही इस मामले में पुलिस द्वारा सुरक्षा से जुड़ी बहुत सी प्रक्रियाओं का उल्लंघन किया गया.

सात पुलिसकर्मियों की एक टीम, जो एक एलीट विशेष कार्य समूह का अंग थी, ने एक अपराधिक मामले में रामू सिंह को गिरफ्तार किया. पुलिस ने उनके भाई श्यामू सिंह को भी गिरफ्तार किया क्यूंकि दोनों जुड़वाँ भाइयों के चेहरे मिलते-जुलते थे. पुलिस ने कहा कि शुरू में सही भाई की पहचान के लिए उन्होंने दोनों भाइयों को हिरासत में लिया है क्यूंकि दोनों अपनी पहचान नहीं बता रहे थे. पुलिस ने आगे दावा किया कि कवार्सी पुलिस थाने पहुँचने के पहले उन्होंने रामू की पहचान कर ली और श्यामू को छोड़ दिया, लेकिन श्यामू ने अपनी मर्जी से उनका पीछा किया.

रामू ने पुलिस विवरण के हर पहलू को नकारा: उसने बताया कि दोनों भाइयों के जन्म में एक साल का अंतर था, और दोनों एक जैसे कतई नहीं दिखते थे.[137] और उन्हें कवार्सी थाने, जहाँ उनका केस दर्ज किया गया था, न ले जाकर उन्हें सीधे तलान्गरी पुलिस थाने ले जाया गया था. रामू और उसके परिवार के अनुसार गिरफ़्तारी के समय पुलिस ने परिवार को यह खुलासा नहीं किया कि वे दोनों भाइयों को कहाँ ले जा रहे है.

तलान्गरी थाना एकदम सुनसान इलाके में है, जहाँ आस-पास कोई घर नहीं है. रामू और अन्य गाँव वालों के अनुआर इस थाने की यह पहचान है कि यहाँ पुलिस अभियुक्त को पीटने के लिए ले कर जाती है. रामू ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि पुलिस ने तलाशी के लिए उनके कपड़े उतारे और उन्हें अन्डरवियर में रखकर उनकी तलाशी ली.

उसने बताया कि उन्होंने [पुलिसकर्मियों ने] हमें फर्श पर लिटा दिया. चार लोगों ने मुझे नीचे पकड़ कर रखा था और एक आदमी मेरी नाक में लगातार पानी डाल रहा था. मैं साँस नहीं ले पा रहा था. जैसे ही वे मेरे साथ यह अत्याचार बंद करते थे, वे श्यामू के साथ यही करना चालू कर देते थे. श्यामू बेहोश हो गया जिससे वे परेशान हो गए और आपस में बातें करने लगे कि लगता है यह तो मर जाएगा. उनमें से एक आदमी ने एक छोटा सी पुडिया अपनी पॉकेट से निकाली, और उसके अन्दर जो था उसे श्यामू के मुंह में डाल दिया. उस समय हमारे परिवार के लोग पुलिस चौकी के बाहर खड़े थे, और गिरफ़्तारी का विरोध कर रहे थे.[138]

रामू ने बताया कि जब श्यामू की हालत बिगड़ने लगी तो पुलिस हम दोनों भाइयों को कवार्सी पुलिस चौकी ले गई. रामू को जहाँ थाने में बंद कर रखा गया था, श्यामू को अस्पातल ले जाया गया जहाँ उसकी मौत हो गयी. पुलिस ने परिवार वालों को बताया कि श्यामू ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली.

सचिन धगे, महाराष्ट्र

ट्रोम्बे पुलिस ने बताया कि 14 फरवरी 2014 को महाराष्ट्र मद्यनिषेध अधिनियम के तहत 27 वर्षीय सचिन धगे को 6 बोतल शराब रखने के जुर्म में दोपहर 3:55 बजे गिरफ्तार किया गया था. 20 फरवरी, 2014 को उसकी हिरासत में मौत हुई थी.

पुलिस ने इस बात पर जोर दिया कि धगे की मौत ज्यादा शराब पीने की वजह से हुई थी. उन्होंने बताया कि वे धगे को मेडिकल जाँच के लिए रात 11:45 बजे ले कर गए थे, और उसके बाद 15 फरवरी को 1 बजे सुबह ट्रोम्बे पुलिस थाने में हवालात की सुविधा नहीं होने की वजह से आर.सी.एफ. पुलिस थाने के हवालात ले गए.[139]

हालाँकि, उसके परिजनों का आरोप है कि धगे की मौत पुलिस की पिटाई से हुई है.[140] उन्होंने बताया कि धगे एक स्थानीय व्यक्ति, सचिन श्रीसाथ से मिलने गया था जो कि उस क्षेत्र में गैरकानूनी शराब बेचता था, और उसने उसके साथ थोड़ी शराब पी थी. उसके बाद श्रीसाथ यह कह कर धगे को अपने साथ पुलिस थाने ले कर गया कि उसे एक पुलिस अधिकारी से कुछ बात करनी है, और कि वह कुछ ही देर में लौट आएगा. लेकिन परिवार वालों का कहना है कि पुलिस ने धगे को हिरासत में रख लिया और श्रीसाथ को घर जाने दिया. उन्होंने बताया कि पुलिस ने उन्हें धगे की गिरफ़्तारी के बारे में नहीं बताया था.[141]

धगे की माँ, शारदा धगे कहती हैं कि उसे अपने बेटे का अता-पता अगले दिन 15 फरवरी की शाम को श्रीसाथ से पता चला, जिसने उन्हें बताया कि उनका बेटा सायन अस्पताल में है.[142] गिरफ़्तारी रिकॉर्ड के आधार पर शारदा धगे को उनके बेटे की गिरफ़्तारी की सूचना देने का दावा पुलिस करती है. जबकि गिरफ़्तारी की सूचना के दस्तावेज में सूचित रिश्तेदारों की सूची में शारदा देवी का नाम तो है, लेकिन उसमें सूचना देने की तारिख और समय दर्ज नहीं है, और ना ही धगे के हस्ताक्षर हैं, और किसी तरह का और कोई भी निशान नहीं है जिससे पता चले कि शारदा धगे को गिरफ़्तारी की सूचना दी गयी थी.[143]

पुलिस ने बताया कि वे सचिन धगे को 15 फरवरी को इसलिए अस्पातल ले कर गए थे क्यूंकि वह बेहोशी की हालत में था, और बेहोश होकर गिर गया था. जब उसकी हालत और ख़राब हुई तो उसके रिश्तेदार उसे 19 फरवरी को निजी अस्पताल ले गए, जहाँ अगले दिन उसकी मौत हो गयी.

मृत्यु प्रमाण पत्र में मौत का कारण “lobar pneumonia with pulmonary hemorrhages with extensive fatty liver with hepato spleeenomegaly with focal subarachnoid haemorrhage with cerebral and pulmonary edema बताया गया है.[144] कुछ डॉक्टर के अनुसार ‘Subarachnoid hemorrhage or fatty liver’ के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन ‘hemorrhaging contusion with pulmonary oedema’ से यह पता चलता है कि यह फेफड़ों में किसी प्रकार की चोट हो सकती है. इसके अतिरिक्त, पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट में पांच चोटों का जिक्र है जो किसी ठोस वस्तु से लगी है.[145]

दंडाधिकारी के समक्ष अभियुक्त को पेश करने में विफलता

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में दंडाधिकारी के आदेश के बिना किसी व्यक्ति को भी 24 घंटे से अधिक हिरासत में रखना प्रतिबंधित है.[146] दंडाधिकारी के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को भी इस कानून में परिभाषित किया गया है, जिसमें पुलिस की शक्तियों पर भी जरुरी अंकुश लगाने की आशा की जाती है. गिरफ्तारी सम्बंधित सभी दस्तावेज़, जिसमें गिरफ्तारी मेमो शामिल है, उस इलाके के दंडाधिकारी के पास भेजा जाना चाहिए.[147] अन्तराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के अनुसार अपराधिक आरोप में गिरफ्तार या हिरासत में लिए गए व्यक्ति को एक न्यायाधीश या अन्य न्यायिक अफसर के समक्ष तत्काल पेश करना ज़रूरी है.[148]

व्यवहारिक तौर पर पुलिस ऐसे आदेश प्राप्ति के पहले ही कभी-कभी संदिग्धों को लम्बे समय के लिए हिरासत में रखती है, ताकि दंडाधिकारी के समक्ष पेश करने से पहले वह लम्बे समय तक पूछ-ताछ कर सके. उन्हें पेश करने में विफलता के कुछ उदाहरण उन मामलों में शामिल किये गए हैं जिनका विवरण ऊपर दिया गया है. उदाहरण के लिए, तेलंगाना में बी. जनार्धन के परिजनों ने आरोप लगाया कि पुलिस ने जनार्धन को बिना दंडाधिकारी के समक्ष पेश किये ही दो दिनों तक हिरासत में रखा था, और कि इसके पहले कि दंडाधिकारी को उसकी गिरफ्तारी की जानकारी मिलती, तीसरे दिन उसकी मौत हो गयी.

एग्नेलो वल्दारिस की गिरफ्तारी के बारे में किसी दंडाधिकारी को जानकारी नहीं मिली. एग्नेलो वल्दारिस के पिता लियोनार्ड वल्दारिस के अनुसार, एग्नेलो को 16 अप्रैल, 2014 की रात 2 बजे गिरफ्तार किया गया, लेकिन पुलिस ने 36 घंटों बाद औपचारिक रूप से रिकॉर्ड में उसकी गिरफ्तारी 17 अप्रैल को दोपहर 3:45 बजे की दर्ज की.[149] जब पुलिस ने उसे 16 अप्रैल को पूरे दिन दंडाधिकारी के समक्ष पेश नहीं किया तो लियोनार्ड वल्दारिस ने मुंबई के पुलिस कमिश्नर को उसी शाम ख़त लिख कर अपने बेटे की हिरासत की जानकारी दी. उसने लिखा कि अभी तक पुलिस ने मुंबई के किसी भी न्यायालय में उसे पेश नहीं किया है. मुझे नहीं मालूम कि वह कहाँ है.[150] दूसरे दिन, 17 अप्रैल को, लियोनार्ड वल्दारिस ने मेट्रोपोलिटन दंडाधिकारी, सेंट्रल रेलवे के न्यायालय में एक अर्जी लगा कर अनुरोध किया कि वडाला रेलवे पुलिस को न्यायालय निर्देश दे कि उसके बेटे को अदालत में पेश करे.[151] न्यायालय ने आदेश दिया कि एग्नेलो वल्दारिस को तत्काल न्यायालय में पेश किया जाए.[152] लेकिन, पुलिस इन आदेशों का पालन करने में असमर्थ रही, और उन्होंने बताया कि वल्दारिस की मौत 18 अप्रैल, 2014 को हो गयी थी, जब वह हिरासत से भागने का प्रयास कर रहा था.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने हिरासत में मौत के जिन मामलों का दस्तावेजीकरण किया है उनमें से ज्यादातर मामलों में जिन व्यक्तिओं को गिरफ्तार किया उनकी मौत हिरासत में रहते हुए कुछ ही घंटो में हो गयी थी, इसलिए उनको दंडाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के 2010 से 2015 के आंकड़े बताते हैं कि पुलिस हिरासत में मौत के 591 मामलों में से 416 मामले में मौत पुलिस के द्वारा दंडाधिकारी से आदेश प्राप्त होने से पहले हुई.[153]

नियम इसलिए बांये गए हैं कि पुलिस पूछताछ न्यायसंगत हो और किसी भी प्रकार के बल प्रयोग से स्वन्त्र हो. गिरफ्तार व्यक्ति से हिरासत में पूछताछ करने वाले सभी पुलिसकर्मियों की जानकारी एक रजिस्टर में दर्ज होनी चाहिए.[154] पूछताछ के दौरान गिरफ्तार व्यक्ति अपने पसंद के वकील से मुलाकात कर सकता है, हालांकि पूछताछ के दौरान पूरे समय वकील उपस्थित नहीं रह सकता है.[155]

एक मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि पुलिस आमतौर पर गिरफ्तार व्यक्ति को अदालत में पेश करने से पहले यातना देती है. उनका यह मानना है कि न्यायलय द्वारा रिमांड करने के बाद पुलिस बहुत कम मौके पर आरोपी को यातना देती है, क्योंकि आरोपी का उसके बाद अनिवार्य मेडिकल चेक-अप होता है. उन्होंने आगे कहा कि दंडाधिकारियों के लिए यह तय करना बड़ा मुश्किल होता है कि पुलिस ने अदालत में पेश होने करने से पहले आरोपी को यातना दी है या नहीं. इस दंडाधिकारी ने कहा कि पुलिस अक्सर यह स्पष्टीकरण देती है कि गिरफ्तार व्यक्ति फरार होने या भागने की कोशिश कर रहा था, और उसी दौरान वह घायल हो गया. आरोपी भी कुछ नहीं कहता क्योंकि उसे मालूम है कि उसे वापस पुलिस हिरासत में भेजा जा सकता है.[156]

ह्यूमन राइट्स वाच ने उन मामलों का दस्तावेजीकरण भी किया है जिनमें पुलिस ने इससे इंकार किया है कि उन्होंने पीड़ित को हिरासत में लिया था, जिसके कारण उन्हें पीडित को दंडाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करने की कोई जरुरत ही नहीं थी. जैसे ओबैद-उर-रहमान के परिवार वालों का आरोप है कि पुलिस वालों ने उसे उसकी बेटी के घर से जबरन बिना वारंट के पकड़ा था, लेकिन पुलिस का दावा है कि रहमान की तबीयत पुलिस स्टेशन के ठीक सामने ख़राब हो गयी, इसलिए वह उसे अस्पताल ले कर गए. 

दंडाधिकारी की विफलताएं

डी.के. बसु नियमावली के अनुसार भारत में न्यायिक दंडाधिकारी को गिरफ्तारी मेमो और पुलिस के द्वारा भेजे अन्य सभी दस्तावेजों का निरीक्षण करना जरूरी है यह सुनिचित करने के लिए कि वे सही हैं. दंडाधिकारी को नोट करना चाहिए कि डी.के. बसु मामले में दिए गए सभी दिशा-निर्देशों का पालन हुआ है की नहीं.[157]

दंडाधिकारी अक्सर अपनी इन जिमेदारियों का पूरी तरह पालन करने में असफल रहते हैं, उन मामलों में भी जहाँ गिरफ्तार व्यक्ति की मौत हो गयी होती है. एक दंडाधिकारी, जिन्होंने पुलिस हिरासत में मौत के मामलों की सुनवाई की है, ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि दंडाधिकारी पुलिस यातना को रोकने में असफल रहते है.[158]

कुछ दंडाधिकारी अभियुक्त को न्यायालय में प्रस्तुत करने के लिए कदम नहीं उठा पाते हैं. अधिकार समूहों और वकीलों का कहना है कि जिस समय वकील दंडाधिकारी के समक्ष दस्तावेज प्रस्तुत कर रहे होते हैं, अभियुक्त प्रायः कोर्ट लॉक-अप में बंद रहते हैं. अगर दंडाधिकारी अभियुक्त से मिलने पर जोर नहीं देता है तो अभियुक्त के पास यातना या दुराचार की शिकायत करने का कोई मौका नहीं मिलता है, और दंडाधिकारी दुराचार के शारीरिक सबूत भी नहीं देख पाते हैं.

पश्चिम बंगाल के सफीकुल हक़ को गिरफ़्तारी के बाद कथित तौर पर यातना दी गयी, और उसे मेडिकल सुविधा भी नहीं प्रदान की गई; उसकी पत्नी का आरोप है कि कोर्ट सफीकुल का इस कारण पता नहीं लगा सका क्यूंकि वह कोर्ट लॉक-अप में बंद था और उसे लालबाग के अतिरिक्त न्यायिक दंडाधिकारी के समक्ष सशरीर प्रस्तुत नहीं किया गया था.[159] कलकत्ता उच्च न्यायालय में जून 2013 में दायर याचिका में ह्यूमन राईट लॉ नेटवर्क से जुड़े और हक़ के वकील देबाशीष बनर्जी ने ह्यूमन राइट्स वाच  को बताया:

जब तक वकील अभियुक्त की सशरीर उपस्थिति पर जोर नहीं देता है, तब तक दंडाधिकारी उसे नहीं बुलाता है. अगर अभियुक्त का न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का अधिकार छीन लिया जाता है, तो उनके सभी अधिकार शुरुआत में ही छीन लिए जाते हैं. इसके बिना गिरफ्तार व्यक्ति को अपने केस के बारे में कोई जानकारी नहीं होती है, अक्सर वह अपने वकील को नहीं जानते हैं, और उन्होंने अपने वकील को देखा भी नहीं होता है. जब आरोपी व्यक्तिगत रूप से न्यायालय में मौजूद होता है तब केस में सुनवाई के दौरान वकील द्वारा पेश तर्क सुन सकता है, और दंडाधिकारी से बातचीत कर सकता है, और उन्हें अपनी मेडिकल स्थिति के बारे में बता सकता है.[160]

पर्याप्त चिकित्सीय देखभाल की कमी

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के तहत गिरफ्तारी के बाद सभी गिरफ्तार व्यक्तियों की डॉक्टर द्वारा जाँच होनी चाहिए और सभी मौजूदा चोटों को रिपोर्ट में दर्ज करना चाहिए. रिपोर्ट में गिरफ्तार व्यक्ति और गिरफ्तारी करने वाले पुलिस अफसर के हस्ताक्षर होने चाहिए और रिपोर्ट की एक प्रति गिरफ्तार व्यक्ति को प्रदान करनी चाहिए.[161] इसके बाद गिरफ्तार व्यक्ति की हर 48 घंटो में राज्य के स्वास्थ्य विभाग द्वारा अनुमोदित एक प्रशिक्षित चिकित्सक से मेडिकल जाँच होनी चाहिए. [162] बहुत से मामलों में गिरफ्तारी के तुरंत बाद मेडिकल जाँच नहीं करवाई गई. वकीलों और पीड़ितों के परिवारों ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि डॉक्टर चोटों के निशान और यातना के सबूतों को दर्ज नहीं करते हैं. अन्य मामलों में गिरफ्तार व्यक्ति द्वारा दर्द और बेचैनी की शिकायत करने के बावजूद पुलिस द्वारा डॉक्टर को नहीं बुलाया जाता है.

जुल्फर शेख, महाराष्ट्र

ऊपर वर्णित मामलों में धारावी, मुंबई पुलिस ने कथित तौर पर जुल्फर शेख को 28 नवम्बर, 2012 की शाम को गिरफ्तार किया, लेकिन उसे मेडिकल जाँच के लिए गिरफ्तारी के 34 घंटो के बाद 30 नवम्बर की सुबह 4 बजे ले गए.[163] इस दौरान पुलिस ने कथित तौर पर उसके साथ मार-पीट की जिसकी वजह से उसकी मौत हो गयी.[164]

जुल्फर शेख की मौत की जाँच के दौरान पुलिस थाने के हेड कांस्टेबल आत्माराम गुराव ने बयान दिया कि सहायक पुलिस निरीक्षक इरफ़ान शेख और पुलिस नायक (हेड कांस्टेबल से एक छोटा पद) चंद्रकांत शिरकर ने 29 नवम्बर को जुल्फर शेख को सत्यशोधक बेल्ट से मारा था.[165] दो अन्य पुलिस कांस्टेबलों ने कहा कि सहायक पुलिस निरीक्षक इरफ़ान शेख और कांस्टेबल शिरकर ने जुल्फर शेख और सह-आरोपी इनामुल शेख को बेल्ट और मुक्कों से मारा था, क्योंकि जुल्फर उन्हें वो जानकारी नहीं दे रहा था जो वे चाहते थे.[166]

इनामुल शेख ने अपने बयान में बताया कि अस्पताल के रास्ते में एक कांस्टेबल ने उसे चेतावनी दी थी कि डॉक्टर के सामने मारपीट का कोई जिक्र नहीं करना.[167] मेडिकल रिपोर्ट में किसी भी चोट या मारपीट के निशान के बारे जिक्र नहीं है.[168] हालांकि, जुल्फर के चाचा ने कहा था कि जब वह 30 नवम्बर को जुल्फर से मिलने बांद्रा न्यायालय गए थे, जहाँ उसे एक दंडाधिकारी के समक्ष रिमांड के लिए प्रस्तुत किया गया था, तब उसके हाथ और पैर साफ तौर पर सूजे थे.[169]

एग्नेलो वल्दारिस, महाराष्ट्र

एक मामले में जैसा ऊपर बताया गया है कि 15-16 अप्रैल, 2014 की रात को वडाला रेलवे थाना के पुलिस कर्मियों दवारा एग्नेलो वल्दारिस, सुफियान मोहम्मद खान, इरफ़ान हाजम और एक 15 साल के लड़के को गिरफ्तार किया गया था. उन्हें नियमानुसार अनिवार्य रूप से की जाने वाली मेडिकल जाँच के लिए 24 घंटे के बाद भी नहीं ले जाया गया था.[170]

वल्दारिस के साथ गिरफ्तार किये गए तीनो संदिग्धों के अनुसार वल्दारिस को पुलिस द्वारा जब लगातार लातों से छाती पर मारा गया, और बेल्ट और डंडे से मारा गया तो उस समय वल्दारिस ने छाती में दर्द होने की शिकायत की थी.[171] उन्होंने बताया कि उन्होंने पुलिस से गुहार की कि वे वल्दारिस को कोई दवा दें या फिर अस्पताल ले जाएँ, लेकिन पुलिस ने उनकी बात नहीं सुनी. और जब वल्दारिस के मुँह से झाग निकलने लगा तो एक पुलिस वाले ने उसके मुँह के पास प्याज़ और चप्पल रख दिया, और उसे चाटने के लिए कहा.[172]

तीनों संदिग्धों ने बताया कि पुलिस ने उन्हें धमकाया था कि मेडिकल जाँच के दौरान किसी को भी पुलिस के अत्याचार के बारे में नहीं बताना है नहीं तो वे उनकी और पिटाई करेंगे, इस कारण वे चुप रहे.[173]

हालाँकि वल्दारिस को अन्य तीनों की जाँच के बाद मेडिकल जाँच के लिए तब ले जाया गया जब उसने जाँच कर रहे डॉक्टर से यह शिकायत की थी कि पुलिस ने उसके साथ मारपीट की है. वल्दारिस की जाँच कर रहे डॉक्टर ने उसकी मेडिकल रिपोर्ट में इस बात को नोट किया और यह भी लिखा कि मरीज़ ने छाती में बहुत ज्यादा दर्द की शिकायत की है.[174] वल्दारिस की मौत के सम्बन्ध में केन्द्रीय जाँच ब्यूरो द्वारा की जा रही जाँच के दौरान डॉक्टर एजाज़ ने बताया कि उन्हें जाँच में चोंटे नज़र आई और उन्होंने छाती का एक्स-रे कराने की सलाह दी थी. डाक्टर हुसैन ने बताया कि लेकिन पुलिस ने उनकी सलाह नहीं मानी. डॉक्टर हुसैन ने आगे बताया कि जो पुलिस वाले वल्दारिस को जाँच के लिए ले कर आए थे, वे उन पर दबाव डाल रहे थे कि मेडिकल रिपोर्ट उनके पक्ष में बनायें, और उसकी चोटों को स्वयं से लगी चोटें बताई जाएँ. उन्होंने बताया की जब मैंने उनकी बात मानने से इंकार किया तो वे वल्दारिस के पिता, लियोनार्ड वल्दारिस को अस्पताल ले आए.[175]

वल्दारिस के पिता, लियोनार्ड वल्दारिस ने अस्पताल को लिखित बयान में बताया कि उसके बेटे को जो चोट लगी है वह खुद की चोटें हैं जो किसी ठोस वस्तु से लगी हैं.[176] लियोनार्ड वल्दारिस ने बाद में बताया कि उसने यह बयान पुलिस के डर में आकर दिया जो उसे अस्पताल ले गए थे और उन्हें पुलिस ने धमकी दी थी कि अगर उसके बेटे द्वारा अपने ऊपर हुए अत्याचार के बारे में दिए गए बयान को वापस नहीं लिया गया तो वे उसके बेटे को न्यायालय में पेश नहीं करेंगे. अपने बेटे की सुरक्षा के लिए, अपने बेटे को पुलिस से बचाने के लिए लियोनार्ड वल्दारिस ने अपने बेटे की इच्छा के विरुद्ध एक ऐसा बयान दिया जिससे पुलिस पर कोई आंच नहीं आए.[177] सी.बी.आई. को दिए गए हुसैन के बयान से इसकी पुष्टि होती है. मरीज (श्री) एग्नेलो लियोनार्ड वल्दारिस अपने पिता को ओ.पी.डी. पेपर में कुछ भी गलत लिखने से बार-बार मना कर रहा था लेकिन श्री लियोनार्ड वल्दारिस ने पुलिस के दबाव में आकर उसमें वही लिखा जो वडाला रेलवे पुलिस वाले चाहते थे.[178]

बाद में एग्नेलो की गंभीर चोटों की वजह से मौत हो गयी लेकिन पुलिस ने यह दावा किया कि वल्दारिस की मौत पुलिस के अत्याचार से नहीं बल्कि हिरासत से भागने के दौरान ट्रेन से टकराने की वजह से हुई है.

सफीकुल हक़, पश्चिम बंगाल

ऊपर वर्णित तीसरे मामले में दिसम्बर, 2012 को पश्चिम बंगाल पुलिस द्वारा सफीकुल हक़ को गिरफ्तार किया गया था, और पुलिस हिरासत में कथित तौर पर उनकी डंडे और लातों से पिटाई की गई थी और पुलिस हिरासत के दौरान उसने रीढ़ की हड्डी और छाती में दर्द और साँस फूलने की शिकायत की थी. हक़ की पत्नी ने बताया कि उसके पति की 5 दिन तक कोई चिकित्सीय देखभाल नहीं दी गयी. उन्होंने बताया:

वे खड़े नहीं हो पा रहे थे. वह मुझसे [हवालात में] नीचे बैठकर ही बात करते थे. उन्होंने बताया कि वह खाना नहीं खा पा रहे हैं, सिर्फ पानी के सहारे खाना निगल पा रहे हैं. उन्हें सिरदर्द, पेटदर्द हो रहा था, लेकिन पुलिस वाले मुझे कोई दवा उन्हें देने नहीं दे रहे थे.[179]

हक़ को जब 12 दिसंबर, 2012 को न्यायिक हिरासत में लिया गया तो न्यायाधीश ने हक़ को जेल के अस्पताल से चिकित्सीय सहायता दिए जाने का आदेश दिया. उनकी पत्नी ने बताया कि हालाँकि उनकी सेहत लगातार गिर रही थी.[180] 7 जनवरी, 2013 को हक़ को बहरामपुर अस्पताल जाँच और इलाज के लिए ले जाया गया, जहाँ उसी दिन शाम को उसकी मौत हो गयी. हक़ की पत्नी ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि मैंने अस्पताल में उन्हें दर्द से तड़पते देखा था:

जब मैं उनके पास गयी तो उन्होंने मुझे अपने लिए दुआ करने और पुलिस अधीक्षक को बददुआ दी. उन्होंने कहा कि मुझे घुटन हो रही है, मै साँस नहीं ले पा रहा हूँ. उन्हें बहुत बुरी तरह से पीटा गया था. जब उन्होंने अपनी शर्ट उतारी तो मैंने लाठी [भारी डंडे] से लगी गहरी/नीली चोटों के निशान देखे. उनकी पूरी छाती गहरी/नीली चोटों से भरी पड़ी थी, और मैंने उनकी जांघों और पैर पर भी चोटों के निशान देखे. जब मैंने उनसे छाती पर चोटों के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया कि ये चोंटे पुलिस के बूटों से लगी हैं.[181]

न्यायिक जाँच में यह पाया गया कि हक़ की मौत साँस लेने में तकलीफ के कारण ह्रदय घात से हुई थी, और जांच में यह भी उल्लेख किया गया कि जेल अधिकारियों द्वारा उन्हें अस्पताल ले जाने में देरी की गई, हालाँकि जान-बूझकर ऐसा नहीं किया गया. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने यह कहा कि दंडाधिकारी की रिपोर्ट यह बताती है कि जेल प्रशासन ने हक़ को समय पर चिकित्सीय सुविधा नहीं दिलायी.[182]

शेख हैदर, तेलंगाना

तेलंगाना के निज़ामाबाद जिले के नगराम गाँव के 25 वर्षीय शेख हैदर को पुलिस ने 21 मार्च 2015 को साइकिल चोरी के इलज़ाम में गिरफ्तार किया गया. उसी दिन पुलिस हिरासत में उसकी मौत हो गयी. पुलिस का कहना है कि उसकी मौत पुलिस हिरासत से भागने के दौरान चोट लगने से हुई थी. हैदर के परिजनों का कहना है कि उसकी मौत पुलिस की क्रूर पिटाई की वजह के हुई.[183] उनका कहना है कि पुलिस ने शेख को अस्पताल ले जाने की अनुमति देने से पहले उसे वक़्त पर चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं करवाई, वो घंटो पुलिस थाने में ज़ख़्मी पड़ा रहा.

पुलिस द्वारा हैदर के खिलाफ दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट के अनुसार उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 379 और 511 के अंतर्गत जुर्म दर्ज किया गया था, जब उसके खिलाफ चोरी की शिकायत 21 मार्च को डेढ़ बजे दर्ज की गयी थी.[184] निज़ामाबाद टाउन-वन पुलिस स्टेशन में पुलिस ने हैदर के खिलाफ दूसरा प्रथम सूचना रिपोर्ट करीब दोपहर 3 बजे दर्ज किया जिसमें उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 224 लगाई गयी थी, जो कानूनी गिरफ्तारी के प्रतिरोध से सम्बंधित है. दुसरे प्रथम सूचना रिपोर्ट के अनुसार यह घटना पौने दो बजे दोपहर की है.[185]

उसके रिश्तेदार पुलिस द्वारा बताए घटनाक्रम को झूठा मानते हैं. उनके अनुसार पुलिस ने उन्हें करीब दोपहर एक बजे हैदर की गिरफ्तारी की सूचना दी. हैदर के छोटे भाई और बहन करीब 2 बजे जब पुलिस स्टेशन पहुंचे तब उन्हें करीब एक घंटे तक इंतजार करना पड़ा, और उसके बाद उन्हें पुलिस स्टेशन के पीछे ले जाया गया, जहाँ पर हैदर जमीन पर बेहोश पड़ा था, और उसका शरीर तिरपाल से ढंका हुआ था. उनका यह मानना है कि दूसरी प्रथम सूचना रिपोर्ट पुलिस यातना से हुई हैदर की मौत पर पर्दा डालने के लिए दर्ज की गयी थी.[186] उसकी बहन अजमेरी बेगम ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि:

हम वहां गए और पूछा कि वो कहाँ है. उन्होंने [पुलिसवालों] ने हमें एक घंटे तक बाहर खड़ा रखा. वो अपने मोबाइल फ़ोन पर गेम खेल रहे थे और हंस रहे थे. उन्होंने मुझे पुलिस स्टेशन से धक्का मार कर बाहर निकाल दिया. वो मेरे छोटे भाई को पुलिस स्टेशन के पीछे ले गए जहां वो (हैदर) पेड़ के नीचे लगभग बेहोश पड़ा था.[187]

हैदर  की गंभीर चोटों के बावजूद पुलिस उसे अस्पताल नहीं लेकर गई. उन्होंने हैदर को एक ऑटो रिक्शा में बिठाया और उसके भाई और बहन को कहा कि उसे नजदीक के अस्पताल लेकर जाएँ. अस्पताल में दो घंटे के बाद वहां के डाक्टरों ने परिजनों से कहा कि वो हैदर को हैदराबाद शहर के किसी अस्पताल में बेहतर इलाज के लिए लेकर जाएँ. पुलिस ने हैदर को हैदराबाद जाने के लिए एक एम्बुलेंस कर दी, जहाँ पहुँचने पर उसे मृत घोषित कर दिया गया. पोस्ट-मार्टम रपट रिपोर्ट के अनुसार हैदर की मौत उसके बायें पैर के तलवे में किसी गहरे ज़ख़्म और उससे उत्पन समस्यों से हुई. रिपोर्ट में यह बताया गया है कि यह चोट चीनी मिट्टी से बने किसी तेज़ नुकीले टुकड़े से हुई थी.[188] यह पुलिस के द्वारा बताई गयी घटनाक्रम से मेल खाता है, जिसके अनुसार हैदर को पुलिस स्टेशन परिसर की दीवार से कूदने के दौरान चोट लगी थी.     

 

III.   जवाबदेही का अभाव

भाईचारे में बंधे होने के कारण, यह सबको मालूम है कि अपने सहकर्मियों को बचाने के लिए पुलिसकर्मी चुप्पी साधे रहना पसंद करते हैं और बहुदा सत्य को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं.


- मुंशी सिंह गौतम (डी) और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य भारत का सर्वोच्च न्यायालय, 16 नवम्बर, 2004.

ह्यूमन राइट्स वाच ने जिन मामलों का दस्तावेजीकरण किया है उनमें से अधिकांश में हिरासत में मौतों की जांच के लिए बनाई गयी प्रक्रिया का पालन करने में पुलिस विफल रही है. इस खंड में हम जांच पर आधारित निष्कर्षों के आधार पर उदहारण देंगे कि पुलिस को लगातार दंडमुक्ति मिलने के मूल कारण क्या हैं, जिनमें लचर या पूर्वाग्रहों से ग्रसित पुलिस जांच, पुलिस के खिलाफ एफ.आई.आर. दायर करने का विरोध, सबूतों के साथ छेड़–छाड़, और कभी-कभी दंडाधिकारियों द्वारा गिरफ्तारी के शुरूआती दौर में अभियुक्त को व्यक्तिगत रूप से देखने का आग्रह करने में चूक शामिल हैं. इस खंड में मेडिकल अधिकारियों द्वारा सख्ती से स्वतन्त्र पोस्ट-मॉर्टम परीक्षण करने में कोताही बरतना, पीड़ितों के परिजनों और गवाहों को पुलिस द्वारा डराना-धमकाना, और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा जवाबदेही निर्धारित करने की भूमिका भी बारीकी से जांच की गई है.

पुलिस को दंडमुक्ति

आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 में प्रावधान है कि सभी सरकारी अफसरों को अपनी सरकारी ड्यूटी को अंजाम देने के दौरान किये गए कामों से दंडमुक्ति मिलेगी जब तक कि सरकार उनपर मुकदमा चलाने कि अनुमति न दे. इस प्रावधान का मूल मकसद यह है कि सरकारी अफसर अपनी ड्यूटी बिना किसी दुर्भावपूर्ण अभियोजन के भय से मुक्त होकर करने में सक्षम रहें. हालांकि, न्यायालयों ने यह स्पष्ट किया है कि पूर्व अनुमति तभी ज़रूरी है जब पुलिस अपनी सरकारी ड्यूटी करने के दौरान इस तरह के काम करती है, और इस ओर इंगित किया है कि गैर-कानूनी हिरासत या प्रहार या लॉक-अप में किसी को जान से मारना उनकी ड्यूटी का हिस्सा नहीं है.

उदाहरण के लिए पी.पी. उन्नीकृष्णन बनाम पुत्तियोत्तिल अल्लिकुट्टी के मामले में (जहाँ दो पुलिस अफसरों के खिलाफ यह आरोप था कि उन्होंने शिकायतकर्ता को कई दिनों तक गैर-कानूनी हिरासत में रखकर यातना दी) सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया:

क्रियाकलाप और सरकारी ड्यूटी के निर्वाह के बीच तर्कसंगत सम्बन्ध होना चाहिए; क्रियाकलाप का ऐसा रिश्ता ड्यूटी के साथ होना चाहिए कि अभियुक्त एक तर्कसंगत दावा कर सके न कि मनगठंत और काल्पनिक दावा, कि उसने ऐसा अपनी ड्यूटी को अंजाम देने के दौरान ही किया था.[189]

लेकिन, न्यायालयों द्वारा तय सीमाओं को अधिकारीगण अक्सर नज़रंदाज़ करते हैं, और इसके बजाए धारा 197 के तहत दंडमुक्ति के प्रावधान का इस्तेमाल पुलिसकर्मियों के खिलाफ शिकायत दर्ज न करने और मुकदमा चलाने में देरी करने में करते हैं. ह्यूमन राइट्स वाच को एक अधिवक्ता त्रिदीप पायस ने बताया कि धारा 197 के प्रावधानों का सहारा लेकर राज्य द्वारा पुलिस अफसरों को बचाया जाता है. वे सभी-के-सभी एक ही पाले में हैं.[190]

राज्य के अधिकारीगण उन पुलिस कर्मियों को अन्य तरीकों से भी सहयोग देते हैं जिन पर गलत काम करने का आरोप लगाया गया है. उदाहरण के लिए, सरकारी वकील, जो न्यायालय के अफसर हैं और राज्य का प्रतिनिधत्व करते हैं, अक्सर उस पुलिस के पक्ष में अपने पूर्वाग्रह दर्शाते हैं जिस पर गलत काम करने का आरोप लगा है. यह इस परिस्थिति इसके बावजूद है कि न्यायालय ने कई फैसलों में यह स्पष्ट किया है कि सरकारी वकील की भूमिका पुलिस के प्रभाव से स्वतंत्र है, और उसकी भूमिका है कि वह यह सुनिश्चित करे कि सभी तथ्य रिकॉर्ड पर लाये जाएँ ताकि न्याय की हत्या की गुंजाईश न रहे.[191]

 

राजीब मोल्ला, पश्चिम बंगाल

रजीब मोल्ला का मामला, जिसका ज़िक्र ऊपर किया जा चुका है, इसका एक उदाहरण है. 15 फरवरी, 2014 को पुलिस ने आत्महत्या के कारण अप्राकृतिक मौत का केस दर्ज किया. मोल्ला कि पत्नी, रेबा बीबी ने मुर्शीदाबाद जिला के पुलिस अधीक्षक के यहाँ लिखित शिकायत दर्ज की कि पुलिस हिरासत में मोल्ला की हत्या की गयी है, लेकिन कोई भी कार्रवाई नहीं की गयी.

रेबा बीबी ने इसके बाद अप्रैल 2014 में मुर्शीदाबाद जिला के लालबाग में दंडाधिकारी की अदालत में एक याचिका दायर की, जिसमें उसने रानीनगर पुलिस स्टेशन के चार पुलिस अधिकारियों पर हिरासत में अपने पति कि हत्या का आरोप लगाया. न्यायालय ने चार गवाहों के बयान रिकॉर्ड करने के बाद आरोपी पुलिसकर्मियों के खिलाफ गैर-इरादतन हत्या के लिए प्रथम दृष्टया सबूत पाया, और उनको सम्मन जारी किये.[192] लेकिन आरोपी पुलिस अफसरों ने लालबाग़ के सत्र न्यायलय में आपराधिक पुनर्निरीक्षण याचिका दायर कर इस आदेश को चुनौती दी.[193] जनवरी, 2016 में पुनर्निरीक्षण याचिका पर सुनवाई के दौरान सरकारी वकील, शौकत अली ने यह तर्क दिया कि दंड प्रक्रिया संहिता कि धारा 197 के तहत पुलिस के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए सरकार की अनुमति ज़रूरी थी. 

रेबा बीबी के वकील ने यह तर्क पेश किया कि सरकारी वकील को अभियुक्त की तरफ से पेश नहीं होना था क्योंकि ऐसा करना विधि नैतिकता का उल्लंघन है. मानवाधिकार समूह, बांग्लार मानबाधिकार सुरक्षा मंच (मासूम) के सचिव, कीर्ति रॉय के अनुसार, इस मामले में सरकारी वकील की भूमिका यह दर्शाती है कि अभियुक्त पुलिसकर्मियों को आधिकारिक सत्ता से मदद मिल रही थी और सरकारी मशीनरी भी उसके साथ थी.[194] 1 फ़रवरी, 2016 को सत्र न्यायालय ने आपराधिक पुनर्निरीक्षण अर्जी को स्वीकार कर लिया और अप्रैल, 2014 के आदेश को ख़ारिज कर दंडाधिकारी न्यायालय को मोल्ला कि मौत से सम्बंधित प्रासंगिक तथ्यों को पुनः जांच करने के लिए कहा.[195] इस रपट के लिखे जाने तक जांच लंबित थी.

अनिकेत खिच्ची, महाराष्ट्र

मुंबई में पुलिस हिरासत में 20 वर्षीय अनिकेत खिच्ची की मौत का मामला, अभियोजन का एक विरला उदाहरण है, जिसमें पुलिस अफसरों को दोषी करार दिया गया है, एक ऐसा फैसला जो कुछ हद तक न्यायालय के द्वारा नियमित सरकारी वकील को दरकिनार करने से सामने आया. जनवरी 2016 में मुंबई के एक न्यायालय ने चार पुलिस कांस्टेबलों को गैर-इरादतन हत्या और जुर्म कबूलवाने के लिए जान-बूझ कर चोट पहुंचाने के इलज़ाम के लिए सज़ा सुनाई. हरेक को सात-सात साल की सज़ा सुनाई गयी.[196] खिच्ची के वकील मिहिर देसाई ने बताया कि यह सजा कई कारणों का परिणाम है. इसमें सब से अहम था कि न्यायालय ने एक विशेष सरकारी वकील नियुक्त किया जब देसाई ने कहा कि उन्हें सरकारी वकीलों पर भरोसा नहीं. देसाई ने तर्क दिया कि अगर हमें एक विशेष सरकारी वकील नहीं दिया जाता तो हमें शक है कि इसमें सजा होती. पुलिस का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि आधे-से-अधिक समय तो सरकारी वकील उन लोगों से हिदायत लेता रहता है जो अभी अभियुक्त हैं.[197]

26 अक्टूबर, 2013 को खिच्ची और रतन वाणी दोनों को कथित चोरी के लिए मुंबई के वनराई पुलिस थाने में हिरासत में रखा गया था. गिरफ्तारी की रात को ही खिच्ची कि मौत हो गयी. पुलिस ने खिच्ची के परिजनों को न तो उसकी गिरफ्तारी और न ही उसकी मौत कि खबर दी. मौत के बाद पुलिस ने कहा कि खिच्ची भागने का प्रयास कर रहा था, और उसी समय वह गिर गया, और गुस्साई भीड़ ने उसके साथ मार-पीट की, जिसके फलस्वरूप गंभीर चोटों के कारण उसकी मौत हो गई. [198] उसके परिजनों ने इल्जाम लगाया कि उसकी मौत पुलिस की मार-पीट से हुई है. खुच्ची कि पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में 56 चोटों का ज़िक्र है, और मौत का अंतिम कारण सिर में कई तरह की चोटें हैं.[199] रिपोर्ट के अनुसार, सभी चोटें किसी सख्त और भोथरी वस्तु द्वारा पहुंचाई गयी हैं.[200]

सर्वप्रथम, पुलिस ने दुर्घटना में हुई मौत का मामला दर्ज किया, लेकिन बाद में परिजनों द्वारा विरोध करने और मीडिया के दबाव में पुलिस ने हत्या और जान-बूझ कर चोट पहुंचाने का मुकदमा दर्ज किया, यह मुकदमा भीड़ में अज्ञात लोगों के खिलाफ दर्ज किया गया जिन्होंने खिच्ची पर कथित तौर पर हमला किया था. खिच्ची के परिजनों ने पुलिस कमिश्नर से अनुरोध किया कि इस मामले की जांच किसी स्वतंत्र एजेंसी से करवाई जाए और अक्टूबर 2013 में इसे राज्य के आपराधिक जांच विभाग की क्राइम ब्रांच को सौंप दिया गया. एक महीने के बाद, क्राइम ब्रांच ने आरोप दर्ज किये और चारों पुलिस अफसरों को हत्या के इल्जाम में गिरफ्तार कर लिया. मामले कि सुनवाई सत्र न्यायालय में हुई, जहाँ खिच्ची के वकील न्यायालय द्वारा एक विशेष सरकारी वकील को नियुक्त कराने में सफल रहे. 

न्यायालय ने गिरफ्तारी के समय प्रक्रिया सम्बन्धी कई उल्लंघनों को उल्लेख किया. गिरफ्तारी के रिकॉर्ड में तारीख 26 अक्टूबर और समय दोपहर 2:40 दर्ज किया गया था, लेकिन जिन पुलिसकर्मियों ने उसे हिरासत में लिया था उन्होंने रजिस्टर में एफ.आई.आर. या रात के 8 बजे तक पुलिस स्टेशन की डायरी में कोई भी प्रविष्टि दर्ज नहीं की थी जो कि कानून के हिसाब से जरुरी था. उस समय तक, खिच्ची और वाणी पुलिस स्टेशन में गैरकानूनी तौर पर हिरासत में थे और उनसे पूछ-ताछ की जा रही थी. न्यायालय ने यह भी कहा कि हालाँकि आरोपित पुलिस अफसरों ने दावा किया है कि खिच्ची पर भीड़ ने हमला किया था और उन्होंने उसे करीब 60-70 लोगों के चंगुल से छुड़ाया था, फिर भी पुलिस कर्मी उसे मेडिकल जांच के लिए नहीं ले गए.[201]

विशेष सरकारी वकील रति अमरोलिया ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि उसे अहम् चुनौतियों का सामना करना पड़ा, क्योंकि पुलिस ने मामले की जांच निष्पक्ष तरीके से नहीं की थी. उन्होंने बताया कि हमारे सामने सबसे बड़ा रोड़ा था कि क्राइम ब्रांच ने इसकी जांच बहुत ही लचर तरीके से की थी. उसी क्राइम ब्रांच की यूनिट द्वारा जांच संचालित हुई जिसके अंतर्गत वह पुलिस स्टेशन आता है. एक तरीके से तो वे अपने सहकर्मियों को बचाने की पूरी कोशिश कर रहे थे न कि निष्पक्ष जांच.[202] अमरोलिया ने कहा कि पुलिस स्टेशन में यातना के गवाह मिलना कठिन है जो बयान दे सकें:

यह सत्य कि पुलिसकर्मी स्वयं ही महत्वपूर्ण गवाह होते हैं, वे अभियोजन मामले के किसी भी पहलू का समर्थन कभी नहीं करते. सभी पुलिस गवाह जो हमारे लिए महत्वपूर्ण थे विरोधी हो गए. केवल एक या दो ही आपको कुछ हद तक सहयोग देंगे. यहाँ तक कि स्वतंत्र गवाह भी विरोधी हो जाते हैं क्योंकि पुलिस उन्हें डराती-धमकाती है.[203]

अमरोलिया ने कहा कि वे इसलिए सौभाग्यशाली रहे कि खुच्ची के साथ गिरफ्तार वाणी इस मामले में चश्मदीद गवाह था.[204] आरोपी पुलिस अफसरों को सजा दिलाने में वाणी की गवाही निर्णायक साबित हुई.

पक्षपातपूर्ण और कमज़ोर जांच

आरोपी पुलिसकर्मियों के बयान पर पूर्णत: निर्भर होकर पुलिस जांचकर्ता अक्सर मामले को बंद कर देते हैं. नीचे वर्णित मामलों में वकीलों या कार्यकर्ताओं की मदद से परिजन न्यायालय में इन मामलों को आगे बढाया.

क़ाज़ी नसीरुद्दीन, पश्चिम बंगाल:

क़ाज़ी नसीरुद्दीन का मामला, जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है, एक सटीक उदाहरण है और स्पष्ट तौर से दर्शाता है कि कैसे खामियों से भरी पुलिस जांच दंडमुक्ति में मदद करती है. हालांकि पुलिस कहती है कि नसीरुद्दीन की मौत उन चोटों के कारण हुई जब वह धनियाखाली पुलिस स्टेशन में शौचालय में गिर गया था, लेकिन नसीरुद्दीन कि पत्नी मनाज़ा बीबी ने आरोप लगाया कि उसके पति की मौत वहां मार-पीट के कारण हुई थी.

मनाज़ा बीबी ने धनियाखाली पुलिस स्टेशन के प्रभारी अफसर के पास शिकायत दर्ज की और आरोप लगाया कि पुलिस स्टेशन में पुलिस अत्याचार के कारण ही उसके पति की मौत हुई थी. लेकिन हत्या का मामला न दर्ज कर, पुलिस ने धारा 304 के तहत गैर-इरादतन हत्या का मामला दर्ज किया.[205]

मनाज़ा बीबी ने एक स्वतंत्र जांच हेतु राज्यपाल को लिखा, और इसके बाद ही इस मामले को पश्चिम बंगाल राज्य के आपराधिक जांच विभाग (सी.आई.डी.) को सौंपा गया. राज्य पुलिस के अंग होने के नाते सी.आई.डी. अफसर भी पुलिसकर्मियों द्वारा गिरफ्तारी सम्बन्धी नियमों के उल्लंघन की जांच करने में विफल रहे, जिन्होंने उसके परिजनों को नसीरुद्दीन की गिरफ्तारी कि जानकारी तब दी जब उसकी हिरासत में मौत हो गयी थी; वे भी नसीरुद्दीन कि मौत के बारे में पुलिस के बयान पर विश्वास करते रहे, इस तथ्य के बावजूद कि पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में उसके शरीर पर चोटों के स्पष्ट निशान दर्शाए गए थे, जो उसको गिरफ्तार करते समय गिरफ्तारी मेमो में दर्ज नहीं थीं.[206]

अधिवक्ता प्रतिमा सिंह रे ने कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका कर केन्द्रीय जांच ब्यूरो द्वारा स्वतंत्र जांच की मांग की. 13 मई, 2013 को उच्च न्यायालय ने कहा कि राज्य की जांच एजेंसी सी.आई.डी. न्यायोचित और निष्पक्ष जांच करने में असफल रही है, और आदेश दिया कि इस जांच को सी.बी.आई. को हस्तांतरित कर दिया जाए ताकि विश्वसनीयता और जनता का यकीन सुनिश्चित हो सके; न्यायालय ने यह भी कहा कि यह गिरफ्तारी के अधिकार का एक खुला दुरूपयोग है.[207]

न्यायाधीशों ने पाया कि सी.आई.डी. एक संभावित साजिश जांचने में विफल रही जो विधान सभा के एक स्थानीय सदस्य की मिलीभगत की ओर इंगित करता है, जिसका नसीरुद्दीन से पहले भी टकराव हो चुका था. फैसले में कहा गया है:

राज्य की जांच एजेंसी द्वारा पूरी-की-पूरी जांच डैमेज-कंट्रोल का एक हताशाजनक प्रयास प्रतीत होता है, यह सुनिश्चित करने के लिए कि पुलिस के आला अफसरों या स्थानीय विधायक को किसी तरह की परेशानी न हो, और पूरी जांच मशीनरी का अधिक-से-अधिक उपयोग इस मामले में उनकी सोची-समझी अपराधिक संलिप्तता को 'न्यायोचित' ठहराने में किया गया न कि इसे 'उजागर' करने में.[208]

सी.बी.आई. ने अपनी जांच पूरी कर सितम्बर 2014 में सात पुलिस अफसरों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता कि धारा 304 (ए) के तहत आरोप दाखिल किया, जिसके तहत वास्तव में लापरवाही में हुई मौत गैर-कानूनी है, जिसमें अधिकतम दो वर्षों की कैद की सज़ा दी जा सकती है.[209] इस रिपोर्ट के लिखे जाने के समय सभी अभियुक्त अफसर ज़मानत पर रिहा हो चुके थे, और मुकदमे की सुनवाई चुरचुरा के न्यायालय में चल रही थी.

अब्दुल अज़ीज़, उत्तर प्रदेश

9 मई, 2011 को अब्दुल अज़ीज़ के बेटे, जमशेद अज़ीज़ ने अपने पिता की हत्या के लिए आठ पुलिस कर्मियों के खिलाफ एक प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर की. दो पुलिस अधिकारी दो माह के लिए निलंबित कर दिए गए थे.[210] लेकिन जांच के बाद पुलिस ने अज़ीज़ की मौत को ह्रदयगति रूकने से हुई मौत बताते हुए मामला बंद कर दिया.[211] पुलिस ने दावा किया कि शव-परीक्षण उचित तरीके से नहीं किया गया था, जिसमें बताया गया था कि अज़ीज़ की मौत दम घुटने से हुई थी.[212]

सन 2012 में अलीगढ में परिजनों ने पुलिस द्वारा मामले को बंद करने के खिलाफ याचिका दायर की, लेकिन मुकदमा शुरू होने में समय लगा.[213] इसके बाद अज़ीज़ के परिजनों ने जुलाई 2015 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक अर्जी दाखिल की, जिस पर उच्च न्यायालय ने निचली अदालत को निर्देश दिया कि चार माह में इस मामले पर फैलसा सुनाये.[214] निचली अदालत ने इस मामले में फिर से नई जांच के आदेश दिए.

श्यामू सिंह, उत्तर प्रदेश

उत्तर प्रदेश के क्वार्सी पुलिस थाना में 15 अप्रैल 2012 को श्यामू सिंह की हिरासत में मौत हो गयी, जिसे पुलिस ने आत्महत्या करार दिया. सिंह के भाई मनवीर सिंह ने विशेष ऑपरेशन दल (एस.ओ.जी.), जो एक एलीट पुलिस दल है, के सात सदस्यों के खिलाफ उसकी मौत के ही दिन यह आरोप लगाते हुए एफ.आई.आर. दर्ज कराई कि श्यामू सिंह की मौत यातना के कारण हुई थी.[215] उस समय से पुलिस ने उसमें बाधा डालने का लगातार प्रयास किया ताकि जवाबदेही सुनिश्चित न हो सके.

एफ.आई.आर. के जवाब में सभी आरोपों को ख़ारिज करते हुए पुलिस ने अगस्त 2012 में मामला बंद कर दिया.[216] इसके बाद परिजनों ने मुख्य न्यायायिक दंडाधिकारी की अदालत में विरोध याचिका दायर की. 29 नवम्बर, 2013 को न्यायालय ने पुलिस की क्लोज़र रिपोर्ट को ख़ारिज कर दिया, और छह पुलिस अफसरों के खिलाफ प्रथम दृष्टय सबूत पाया, और उन्हें 20 दिसंबर, 2013 को न्यायालय के समक्ष पेश होने को कहा.[217] आरोपी पुलिस अफसरों में से चार ने इस आदेश के खिलाफ पुनर्निरीक्षण याचिका दायर की, लेकिन अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने 20 मई, 2015 को इसे भी ख़ारिज कर दिया. तब जनवरी, 2016 में आरोपियों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील दायर की, जिसे उच्च न्यायालय ने भी खारिज कर दिया. मार्च, 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी आरोपियों की अपील को ख़ारिज कर दिया.[218] लेकिन, इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक, सभी आरोपी पुलिस अफसर नयायालय के समक्ष पेश नहीं हुए थे.[219]

पुलिस और अन्य अधिकारियों ने जवाबदेही को सुनिश्चित करने के प्रयासों को लगातार कमज़ोर बनाने का काम किया है. श्यामू कि हत्या में प्राथमिक जांच एक कार्यकारी दंडाधिकारी ने की न कि एक न्यायिक दंडाधिकारी ने, जो आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 176 (1अ) का खुला उल्लंघन है. कार्यकारी दंडाधिकारी ने निष्कर्ष निकाला कि सिंह ने अपनी मर्ज़ी से ज़हर पी लिया था और कि उसकी मौत के लिए एस.ओ.जी. टीम का कोई भी सदस्य ज़िम्मेदार नहीं था.[220] बाद में, 12 फ़रवरी, 2014 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कि सिफारिश पर राज्य के अधिकारीयों ने आपराधिक जांच विभाग (सी.आई.डी.) की क्राइम ब्रांच से इसकी जांच कराने के आदेश दिए.[221]

सी.आई.डी. ने जांच कर 15 मई, 2014 के अपने निष्कर्ष में गैरकानूनी गिरफ्तारी के लिए एस.ओ.जी. के सदस्य को दोषी पाया; यातना के लिए भी, जिसमें सिंह की नाक के रास्ते बलपूर्वक पानी डालना शामिल है, जिसके फलस्वरूप वह बेहोश हो गया; और उसे ज़हर देने के लिए भी वे दोषी हैं, जिससे उसकी मौत हो गयी.[222] लेकिन इसके पहले कि एजेंसी न्यायालय में आरोप-पत्र दाखिल करे दिग्विजय सिंह नामक एक अभियुक्त की पत्नी ने जांच एजेंसी के प्रमुख को जांच को दोषपूर्ण बताते हुए आगरा ब्रांच का अलावा किसी और क्राइम ब्रांच से दुबारा जांच की मांग की.[223] आगरा ब्रांच के कमिश्नर ने दुबारा जांच कराने पर सहमति देते हुए आदेश दिए, लेकिन उसे किसी अन्य ब्रांच को हस्तांतरित नहीं किया. 16 अगस्त, 2014 को दूसरी जांच के निष्कर्ष सामने आये और नए आरोप भी लगाये गए.

लेकिन, 20 अगस्त को एक अन्य उप-निरीक्षक, प्रमोद कुमार, ने जांच एजेंसी के मुखिया को एक आवेदन देकर कहा कि दूसरी जांच भी उचित तरीके से नहीं संचालित की गयी थी, और कि जांच को आगरा ब्रांच से कहीं और किसी दूसरी क्राइम ब्रांच को सौंपा जाए.[224] आगरा क्राइम ब्रांच के कमिश्नर ने एक बार फिर से ऐसा आवेदन स्वीकार करते हुए तीसरी बार इसकी जांच के आदेश जारी किए. सितम्बर, 2014 को आपराधिक जांच विभाग की लखनऊ शाखा ने जांच का आदेश दिया.

2 मई, 2015 को जो अंतिम रपट पेश की गयी, उसने विशेष ऑपरेशन समूह के सभी सात आरोपियों को पूरी तौर से दोष-मुक्त कर दिया.[225]

जुल्फर शेख, महाराष्ट्र

35 वर्षीय जुल्फर शेख की 2 दिसंबर 2012 को धारावी पुलिस थाने में हिरासत में मौत हो गयी.[226]

पुलिस ने शेख की हिरासत में मौत के लिए कई विरोधाभासी स्पष्टीकरण पेश किये. उसकी मौत के बाद, पुलिस ने दुर्घटना के कारण मौत का मामला दर्ज किया और कहा कि जांच के दौरान शेख को सीने में दर्द उठा और उनकी सांस फूलने लगी और जब वे उसे अस्पताल ले जाये गए, तो वहां पहुँचने पर उन्हें मृत घोषित कर दिया गया.[227] पुलिस ने मीडिया को बताया कि शेख कि मृत्यु हृदय गति रूकने से हुई थी.[228] एक दिन बाद, शेख की मौत कि जांच कर रही क्राइम ब्रांच की पुलिस ने कहा कि शेख कि मौत शायद पीलिया (जौंडिस) के कारण हुई हो.[229]

शेख की मौत के लिए ज़िम्मेदार पुलिस अफसरों के खिलाफ पुलिस ने प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज नहीं की. 11 दिसंबर, 2012 को जुल्फर शेख के चचेरे भाई नुरुल शेख ने इस मामले में एफ.आई.आर. दर्ज  करने का पुलिस कमिश्नर को लिखित आवेदन दिया, लेकिन उसे कोई जवाब नहीं मिला.[230] 20 दिसंबर, 2012 को नुरुल शेख ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की.[231]

तीन माह बाद, 2013 में न्यायालय के आदेश पर राज्य सी.आई.डी. की आपराधिक अनुसंधान शाखा के सहायक आयुक्त प्रफुल भोसले ने एफ.आई.आर. दर्ज की. हत्या की जांच के बजाय एफ.आई.आर. में सब-पुलिस इंस्पेक्टर इरफ़ान शेख और उसके अधीनस्थ कर्मियों के खिलाफ जुर्म कबूलवाने के लिए सचेत रूप से चोट पहुंचाने के आरोप की जांच के लिए कहा गया.[232] अप्रैल में, भोसले ने न्यायालय में अपने हलफनामे में कहा कि उसने धारावी पुलिस द्वारा दुर्घटना से मौत की प्रारंभिक रिपोर्ट की जांच की थी, और पाया कि शेख की मौत प्राकृतिक कारणों से हुई थी. उसने यह भी कहा कि न तो सह-आरोपी इनामुल शेख और न ही किसी और गवाह ने हिरासत में जुल्फर शेख के साथ कथित दुर्व्यवहार का आरोप लगाया.[233] यह इनामुल द्वारा और लॉक-उप में अन्य गवाहों, और उस समय थाने में मौजूद तमाम निचले-पदों पर कार्यरत पुलिस अफसरों के बयानों के एकदम विपरीत था, जिन्होंने सी.आई.डी. की क्राइम ब्रांच के सहायक पुलिस कमिश्नर विजय मेरु के समक्ष अपने बयान दिए थे, जिन्हें अप्रैल में यह जांच सौंपी गयी थी. मेरु ने अपनी रिपोर्ट 20 मई, 2013 को सौंपी.[234]

लेकिन, मेरु ने भी सहायक पुलिस इंस्पेक्टर शेख और उसके अधीनीस्थों के खिलाफ सिर्फ सचेत रूप से चोट पहुंचाने का आरोप लगाया. इसके बावजूद कि तमाम गवाहों के बयानों में और उस वक़्त पुलिस थाने में मौजूद पुलिस अफसरों ने कहा था कि पुलिस ने जुल्फर शेख को घूंसों और सच उगलवाने वाले बेल्ट से पीटा था. गवाहों ने अपने बयान में यह भी कहा था कि जुल्फर और उसके साथ सह-अभियुक्त इनामुल शेख को एक रस्सी के लटका कर मारा गया था. कांस्टेबल आत्माराम गौरव गुरब के बयान के अनुसार:

उक्त अभियुक्त के शरीर पर चोटों के बारे में मुझे यह कहना है क्योंकि वह एक दुर्दांत अपराधी था इसलिए उसने जब्त जाली नोटों के स्रोत के बारे में जानकारी देने से इनकार कर दिया. लेकिन यह ज़रूरी था कि उससे इस जानकारी को हासिल किया जाये, इसलिए सहायक पुलिस इंस्पेक्टर शेख और पुलिस नायक शिरकर ने सच उगलवाने वाले बेल्ट का इस्तेमाल किया और मेरे सामने ही उसकी पिटाई कर दी. मार के बाद वह इतना कमज़ोर हो गया था कि जब वह पानी पीने के लिए उठा, तो दर्द से चक्कर खाकर खिड़की पर ढेर हो गया, जिससे उसका निचला जबड़ा टूट गया.[235]

मेरु द्वारा जो आरोप लगाये गए, उसमें पुलिस अफसरों द्वारा सबूत नष्ट करने के प्रयास का भी ज़िक्र है, झूठा रिकॉर्ड तैयार करने और पैसे ऐंठने का भी इलज़ाम है.[236] फिर भी मेरु ने अभियुक्त अफसरों के खिलाफ इन अपराधों के लिए आरोप दर्ज नहीं किये. तमाम पुलिस अफसरों ने बयान दिया कि वे इस यातना के गवाह थे, फिर भी उन्होंने इसकी रिपोर्ट नहीं की जबकि वे कानून के तहत ऐसा करने के लिए बाध्य हैं.[237] इसके बाद भी, उन्हें दंड संहिता की धारा 202 के तहत आरोपित नहीं किया गया था, जिसमें ऐसे व्यक्ति को अधिकतम छह माह की सज़ा सुनाने का प्रावधान है जो एक जुर्म घटित होने के बारे में जानकारी देने के लिए कानूनन बाध्य है, फिर भी वह जान-बूझकर ऐसा नहीं करता है.

मेरु द्वारा रिपोर्ट जमा करने के बाद, याचिकाकर्ताओं ने अगस्त, 2013 में पुन: जांच कराने के लिए आवेदन दिया, और न्यायालय ने पुलिस के डिप्टी कमिश्नर को नए सिरे से जांच के आदेश दिए. लेकिन, पुलिस के डिप्टी कमिश्नर ने अपनी रिपोर्ट पेश नहीं की, और जून, 2014 में न्यायालय ने केन्द्रीय जांच ब्यूरो को मौत के जांच के लिए कहा.[238] अखबारों कि ख़बरों के अनुसार, सी.बी.आई. ने जुलाई, 2015 में सहायक पुलिस इंस्पेक्टर शेख और पुलिस नायक शिरकर के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का आरोप फाइल किया.[239]

एग्नेलो वल्दारिस, महाराष्ट्र

पुलिस हिरासत में एग्नेलो वल्दारिस की मौत के बाद उसके पिता, लियोनार्ड वल्दारिस ने 30 अप्रैल, 2014 को पुलिस में शिकायत दर्ज की. मई महीने में पुलिस ने जांच को राज्य सी.आई.डी. के उप पुलिस अधीक्षक एस.डी.खेडेकर को सौंप दिया.[240] 12 मई को सुफियान मोहम्मद खान और इरफ़ान हजाम ने भी वडाला रेलवे पुलिस स्टेशन के 10 पुलिस अफसरों के खिलाफ अलग से शिकायत दर्ज की, जो दोनों भी वल्दारिस के साथ ही गिरफ्तार किये गये थे, और उन्हें भी कथित तौर पर यातना दी गयी थी. उनकी शिकायतें भी सी.आई.डी. को हस्तांतरित कर दी गयीं, जो इन आरोपों की जाँच कर रही थी कि वल्दारिस को पुलिस हिरासत में यातना दी गयी और उसे मार डाला गया.

सुफियान, इरफ़ान, एक 15 साल के लड़के और लियोनार्ड वल्दारिस ने वरीय पुलिस अफसरों को लिखा कि जांच अधिकारी उनको डराता-धमकाता है, और उनके बयान सही तौर से दर्ज नहीं करता है, और वह अभियुक्त पुलिस अफसरों को बचाने का काम करता है.[241] उदाहरण के लिए, हजाम ने लिखा कि वह मेरे साथ ऐसा व्यवहार करता है जैसे कि मैं इस मामले में अभियुक्त हूँ, और लगातार मेरे साथ गाली-गलौज करता और मेरी बेईज्ज़ती करता है, और उसने अनुरोध किया कि इस जांच अधिकारी को हटा कर किसी अन्य पुलिस अधिकारी को उसकी शिकायत रिकॉर्ड करने के लिए नियुक्त किया जाए.[242]

जब पुलिस ने उनकी शिकायतों पर कोई भी कदम नहीं उठाया, तो चारों ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की, और मांग की कि इस जांच को केन्द्रीय जांच ब्यूरो को सौंप दिया जाए. 17 जून, 2014 को उच्च न्यायालय ने पाया कि सी.आई.डी. ने इस जांच में घपलेबाजी की है, और क्लोज्ड सर्किट टेलीविज़न (सी.सी.टी.वी.) के फुटेज को जब्त करने में वे विफल रहे हैं, जो पुलिस के इस दावे को गलत साबित करने के लिए एक महत्वपूर्ण सबूत था कि पुलिस हिरासत से वल्दारिस भाग गया और एक ट्रेन से टकरा गया था. न्यायालय ने राज्य सी.आई.डी. या स्थानीय पुलिस की जांच की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर शंका ज़ाहिर की और सी.बी.आई. द्वारा नए सिरे से जांच के आदेश दिए.[243]

जून 2014 में सी.बी.आई. ने चार याचिकाकर्ताओं की शिकायत पर 10 पुलिस अफसरों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत हत्या, अपराधिक षडयंत्र, सबूत गढ़ना और उसे छुपाना, धार्मिक भावनाओं को जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण तरीके से आहत करना, सचेत होकर गहरी चोट पहुँचाना, गलत ढंग से हिरासत में रखना, अपहरण, अप्राकृतिक यौनाचार और अपराधिक तौर पर डरना-धमकाना; यौन हिंसा से बाल संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत नाबालिगों के साथ यौन अत्याचार तथा किशोर न्याय (बाल देखभाल एवं संरक्षण कानून) के तहत किशोरों के प्रति क्रूरता जैसे मामलों में मुक़दमे दर्ज किये गए.[244]

जनवरी 2016 में सी.बी.आई. ने आरोप-पत्र दाखिल किया, और फ़रवरी में, सरकार ने आठ आरोपित पुलिस अफसरों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी. (सी.बी.आई. ने यह भी पाया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में दो नाम ऐसे थे जो उन पुलिस अफसरों के उपनाम थे जो पहले से ही अभियुक्त हैं).[245] सी.बी.आई. ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में दर्शाया कि वडाला रेलवे पुलिस स्टेशन के पुलिस अफसरों ने एग्नेलो वल्दारिस और अन्य सह-अभियुक्तों को गैरकानूनी तौर से हिरासत में रखा और उन पर हमला किया, झूठा गिराफ्तारी मेमो तैयार कर कानूनी गिरफ्तारी दर्शाई, और खुद को बचाने की नीयत से पुलिस डायरी में झूठी प्रविष्टियाँ कीं.[246]

रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि पुलिस अफसरों ने अभियुक्तों को गिरफ्तारी के बाद मेडिकल चेक-अप के लिए ले जाने के पहले धमकी दी थी और उनसे कहा था कि उन्हें अपनी चोटों के बारे में बताना कि वे मोटर-साइकिल दुर्घटना के कारण लगी हैं. रिपोर्ट में यह भी उजागर किया गया था कि पुलिस ने वल्दारिस की जांच करने वाले डॉक्टर पर भी दबाव डाला कि वह यह रिपोर्ट बनाये कि वल्दारिस के शरीर की चोटें उसने खुद लगाईं हैं, और जब यह चाल भी नहीं सफल हुई तो पुलिस ने एग्नेलो के पिता, लियोनार्ड फल्दारिस, को धमकी दी कि वह उनके इन दावों का समर्थन करे. [247]

बहरहाल रिपोर्ट में यह बताया गया कि वल्दारिस की मौत ट्रेन की टक्कर से हुई है. केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आपराधिक षड़यंत्र, सबूतों को छुपाने, लापरवाही, सचेत रूप से चोट पहुँचाने तथा गलत ढंग से हिरासत में लेने और पुलिस अधिनियम के तहत ड्यूटी के दौरान लापरवाही बरतने का मामला दर्ज किया. जुलाई 2016 में एग्रेवेटेड पेनेट्रेटिव सैक्सुअल असाॅल्ट” की धारा 6, यौन हिंसा बाल संरक्षण अधिनियम की धारा 12 और किशोर न्याय (बाल देखभाल एवं संरक्षण कानून) की धारा 23 के तहत आरोप गठित किये. इन सभी कानूनों के तहत आपराधिक संदिग्ध बच्चों के खिलाफ मुक़दमे की कार्रवाई वयस्कों के साथ चलाना गैर-कानूनी है.

अल्ताफ शेख, महाराष्ट्र

बॉम्बे उच्च न्यायालय ने अक्टूबर, 2009 में केन्द्रीय जांच ब्यूरो को निर्देश दिया कि वह अल्ताफ शेख की मौत के मामले में हत्या, सबूत मिटाने, और जुर्म कबूलवाने के लिए स्वेच्छा से चोट पहुंचाने के मामले में मुकदमा दर्ज करे.[248] आरोपी पुलिस अफसरों ने सर्वोच्च न्यायालय में एक विशेष पुनर्विचार याचिका दायर की. 23 नवम्बर को सर्वोच्च न्यायालय ने सी.बी.आई. को निर्देश दिया कि वह बॉम्बे उच्च न्यायालय के अवलोकनों से प्रभावित हुए बगैर शेख कि मौत के मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करे और इसकी आगे जांच करे.[249]

उच्च न्यायालय ने सी.बी.आई. को जांच के इसलिए आदेश दिए क्योंकि उसने टिपण्णी में कहा कि पुलिस अपनी गलतियों को ढंकने का प्रयास कर रही थी, और दंडाधिकारी जांच और राज्य के आपराधिक जांच विभाग की जांच पर भरोसा नहीं किया जा सकता. [250] न्यायालय ने यह भी पाया कि जांच रिपोर्ट आरोपी पुलिस अफसरों की मदद के लिए तैयार की गयी थी. उच्च न्यायालय ने चिंता व्यक्त की कि आपराधिक जांच विभाग के क्राइम ब्रांच के सहायक पुलिस कमिश्नर, जो अभियुक्त पुलिस अफसरों की जांच कर रहे थे, ने न्यायालय में जवाबी हलफनामा पेश किया हालांकि वे इस मामले में प्रतिवादी नहीं थे. न्यायालय ने कहा कि उनके हलफनामे से ही यह प्रतीत होता है कि उन्होंने अपना मन पहले से ही बना लिया है और पुलिस अफसरों को क्लीन चिट दे दिया है. इसलिए, डी.सी.बी. (अपराध शाखा), सी.आई.डी. द्वारा जांच किया जाना निरर्थक है. न्यायालय ने यह भी पाया कि जिस दंडाधिकारी ने पहले जांच की थी वही फिर से जांच कर रहा है जिसकी पहली रिपोर्ट साफ़ तौर पर झूठी है.[251]

सितम्बर 2010 में सी.बी.आई. ने अपनी रिपोर्ट पेश की, जिसमें उसने आपराधिक षडयंत्र, सचेत रूप से चोट पहुंचाना, और गलत ढंग से हिरासत में रखने के मामले दर्ज किये.[252] सी.बी.आई. जांच में पाया गया कि मुंबई के घाटकोपर पुलिस स्टेशन के तीन पुलिस अफसरों ने 11 सितम्बर 2009  कि अहले-सुबह अल्ताफ शेख को गैरकानूनी तरह से हिरासत में लिया था.[253] सी.बी.आई. के अनुसार उन्होंने शेख को उसके घर से उठाया था, और उन्होंने उसको पीटा, थप्पड़ मारे और उसे लात से भी मारा, और कि लगातार मार-पीट और घूंसे मारने से उसको कई चोटें लगीं. सी.बी.आई. ने यह भी पाया कि पुलिस अफसरों ने कोई गिरफ्तारी मेमो तैयार नहीं किया था या स्टेशन डायरी में शेख की हिरासत के बारे में कोई प्रविष्टि दर्ज नहीं की थी.

लेकिन, सी.बी.आई. ने हालाँकि यह नोट किया था कि शव-परिक्षण में तमाम बाहरी चोटें दिखती हैं, उसने अभियुक्त पुलिस कर्मियों के खिलाफ हत्या का आरोप लगाने से इनकार कर दिया, यह कहकर कि अखिल भारतीय मेडिकल विज्ञान संस्थान के डाक्टरों ने निष्कर्ष निकाला कि मौत का कारण श्वासतंत्र की विफलता भी हो सकता है जो अल्प्रज़ोलम और एथिल अल्कोहल की विषाक्तता और फेफड़ों में न्यूमोनिया के मिले-जुले योगात्मक प्रभाव के कारण भी हो सकता है.[254] इस निष्कर्ष में महाराष्ट्र के तमाम डॉक्टरों कि राय को नज़रंदाज़ कर दिया, जिनमें फॉरेंसिक विज्ञान के कुछ विशेषज्ञ भी शामिल हैं, जिन्होंने सी.बी.आई. के समक्ष गवाही दी कि सर पर बाहरी चोटों के कारण हुआ अंदरूनी रक्त स्राव शेख की मौत का कारण हो सकती है.[255]

16 सितम्बर को अल्ताफ की माँ, मेहरूनिशा शैख़ ने एक विरोध याचिका दायर कर अनुरोध किया कि अभियुक्त पुलिस अफसरों के खिलाफ जुर्म कबूलवाने की नियत से हत्या और सचेत रूप  से चोट पहुँचाने के आरोप भी जोड़े जाएँ. 3 नवम्बर, 2014 को अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन दंडाधिकारी ने विरोध याचिका को मंज़ूरी देते हुए मामले को मुंबई के मानवाधिकार न्यायालय को सौंपते हुए कहा कि अभियुक्त की हत्या, गलत ढंग से हिरासत में लेने और जुर्म कबूल करवाने के लिए सचेत रूप से चोट पहुंचाने के आरोपों के लिए मुकदमा चलाया जाये.[256] इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक इस मामले कि सुनवाई शुरू नहीं हुई थी.

अभियुक्त पुलिसकर्मी के खिलाफ एफ.आई.आर. दायर करने में देरी और विरोध

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की दिशा-निर्देश के तहत जब कभी भी कथित गैर-इरादतन हत्या का आरोप लगता है तो पुलिस को प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करनी ही चाहिए, और इस मामले की जांच एक ऐसे पुलिस स्टेशन या एजेंसी द्वारा की जानी चाहिए जो इसमें संलिप्त न हो.[257] लेकिन पुलिस हिरासत में मौतों के तमाम मामले, जिनका दस्तावेजीकरण ह्यूमन राइट्स वाच ने किया है, में पुलिस ने अन्य पुलिसकर्मियों के खिलाफ एफ.आई.आर.दर्ज करने का प्रतिरोध किया या अनावश्यक देरी की थी. अक्सर, न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण ही कथित हिरासत में मौत में उचित जांच हुई है.

शेख हैदर, तेलंगाना 

21 मार्च, 2015 को तेलंगाना के निजामाबाद में पुलिस हिरासत में शेख हैदर की मौत हो गयी.[258] उसके परिजनों ने पुलिस दुर्व्यवहार का आरोप लगाया लेकिन पुलिस ने हैदर को गिरफ्तार कर यातना देने में शामिल पुलिसकर्मियों के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज नहीं की. हालाँकि पदाधिकारीयों ने तत्काल दो पुलिस कर्मियों को निलंबित कर दिया. हैदर के पिता ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया:

हमने जो हंगामा (शोर-गुल) किया, उसी के चलते ही यह निलंबन हुआ है. पुलिस ने तो लाश को हैदराबाद में ही दफना दिया होता, अगर मुसलमानों के राजनैतिक संगठन मजलिस बचाओ तहरीक के सदस्यों ने हैदराबाद अस्पताल आकर हैदर के शरीर के फोटो न लिए होते और मीडिया को बुलाकर इसके खिलाफ अपनी आवाज़ न बुलंद की होती.[259]

राज्य मानवाधिकार आयोग और अल्पसंख्यक आयोग दोनों ने ही इस मौत की जांच की, और परिजनों को मुआवजा देने के लिए राज्य सरकार से सिफारिश की.[260] लेकिन, इस रिपोर्ट के लिखे जाने के समय तक परिजनों को मुआवजा नहीं मिला था.

के. सैय्यद मोहम्मद, तमिलनाडु   

पुलिस सब-इंस्पेक्टर ए. काॅलीडोस ने कहा कि उसने 14 अक्टूबर, 2014 को एस.पी.पत्तिनाम पुलिस थाने  के अन्दर आत्मरक्षा में के. सैय्यद मोहम्मद की तब गोली मार कर हत्या कर दी, जब उसने पूछ-ताछ के दौरान चाकू से उस पर हमला कर दिया था.[261] काॅलीडोस को निलंबित कर दिया गया, और छह पुलिस कर्मियों का तबादला कर दिया गया जो गोली चलने के दौरान ड्यूटी पर मौजूद थे.[262] लेकिन, पुलिस ने न तो कोई केस दर्ज की और न ही सब-इंस्पेक्टर काॅलीडोस के खिलाफ मुकदमा दायर करने का प्रयास ही किया.

मोहम्मद के मामा, एस.साबुकर अली ने न्यायालय में याचिका दायर कर उचित जांच के लिए अनुरोध किया. याचिका में यह कहा गया कि एस.पी.पत्तिनाम पुलिस स्टेशन के अफसर काॅलीडोस की मदद कर महत्वपूर्ण सबूत नष्ट कर रहे थे और फर्जी गवाह तैयार कर रहे थे.[263] अक्टूबर 2014 को मद्रास उच्च न्यायालय कि मदुरै पीठ ने याचिकाकर्ता के पक्ष में आदेश दिया और राज्य आपराधिक जांच विभाग (सी.आई.डी.) की क्राइम ब्रांच को निर्देश दिया कि मोहम्मद की मौत में वह तुरंत जांच करे.[264] न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार को निर्देश किया कि वह पीड़ित के परिवार के मुआवजा राशि को बढ़ाये.[265] लेकिन, पीड़ित के परिवार ने कहा कि अधिकारियों ने मुआवजा के सम्बन्ध में न्यायालय के आदेश को नज़रंदाज़ कर दिया.

जून 2015 में दंडाधिकारी जांच ने काॅलीडोस के उस दावे को ख़ारिज कर दिया कि उसने आत्मरक्षा में मोहम्मद को गोली मारी थी.[266] जुलाई 2015 में सी.आर.डी. कि क्राइम ब्रांच ने हत्या, सचेतन रूप से चोट पहुँचाने, और गलत ढंग से हिरासत में रखने के मामले में काॅलीडोस के खिलाफ रामनाथपुरम के मुख्य जिला न्यायालय में मामला दर्ज किया. काॅलीडोस ने उसे वापस लेने की याचिका दायर की लेकिन न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया.[267] इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक काॅलीडोस के खिलाफ मामला न्यायालय में लंबित था.

सचिन धगे, महाराष्ट्र

सचिन धगे की हिरासत में मौत के तीन साल बाद भी ट्रोम्बे पुलिस ने दोषी पुलिस अफसरों के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज नहीं की थी. 14 फरवरी, 2014 को धगे को महाराष्ट्र मद्यनिषेध कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था, और 20 फरवरी, 2014 को पुलिस हिरासत में उसकी मौत हो गयी.[268] पुलिस का दावा था कि उसकी मौत अधिक शराब पीने के कारण हुई, जबकि परिजनों ने कहा कि उसकी मौत पुलिस की मार-पीट से हुई.

सचिन की माँ शारदा धगे ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में मार्च 2014 को एक याचिका दायर कर मांग की कि उसके बेटे कि गिरफ्तारी और कथित यातना में लिप्त पुलिस अफसरों के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज की जाये, और इस मामले की जांच केन्द्रीय जांच ब्यूरो द्वारा कराई जाए.[269] अगस्त 2014 में न्यायालय ने राज्य सरकार से कहा कि वह गिरफ्तारी के समय से लेकर पोस्ट-मॉर्टम तक के सभी दस्तावेज़ पेश करे.[270] लेकिन, इस रिपोर्ट के लिखे जाने के समय तक एफ.आई.आर. दर्ज नहीं हुई थी.

न्यायिक दंडाधिकारियों द्वारा जांच न करना

अपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 176 (1अ) के तहत हिरासत में मौतों के सभी मामलों में न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा जांच करना कानूनन अनिवार्य है. [271] संहिता में यह भी लिखा है कि जहाँ भी व्यवहारिक हो, दंडाधिकारी को “मृतक के रिश्तेदारों को सूचित करना चाहिए जिनके नाम व पतों की जानकारी है, और उन्हें जांच के दौरान मौजूद रहने की अनुमति देनी चाहिए.”[272] कुछ मामलों में, जिनकी ह्यूमन राइट्स वाच ने जांच की है, जांच एक कार्यकारी दंडाधिकारी द्वारा की जा रही थी न कि न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा. एक कार्यकारी दंडाधिकारी सरकार की कार्यपालिका का ही हिस्सा है, जैसे कि पुलिस है, और इसलिए उस पर दबाव होता है कि वह निष्पक्ष काम न करे.

उदाहरण के लिए श्यामू सिंह के मामले में, जिसकी चर्चा ऊपर इसी अध्याय में की गयी है, जांच एक कार्यकारी दंडाधिकारी द्वारा की गयी थी न कि न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा. कार्यकारी दंडाधिकारी ने निष्कर्ष दिया कि सिंह ने खुद ज़हर पी लिया था और पुलिस को दोषमुक्त कर दिया, जिस निष्कर्ष को अन्य जांचकर्ताओं ने गलत पाया.[273] मई 2015 में आपराधिक जांच विभाग ने टिपण्णी की थी कि दंडाधिकारी द्वारा जांच “लापरवाही और सुस्त” तरीके से की गयी थी, और कि अनुमंडल दंडाधिकारी इस घटना के पुलिस विवरण पर सवाल करने में विफल रहा.[274]

हिरासत में मौतों की जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए उचित न्यायिक जांच एक महत्वपूर्ण कदम है. उदाहरण के लिए, हालांकि अधिकारीगण अभी भी अपराध करने वालों को जवाबदेह ठहराने में कामयाब नहीं हुए हैं, अप्रैल 2010 में पुलिस हिरासत में सेंथिल कुमार की मौत की जांच यह दर्शाती है कि कैसे एक निष्पक्ष और सम्पूर्ण जांच पुलिस द्वारा प्रक्रियाओं का पालन करने में विफलता को उजागर कर सकती है, और कैसे जुर्म को ढंकने के लिए पुलिस द्वारा झूठे सबूत गढ़े जाने का प्रयास किया जाता है.[275]

कुमार के मामले में दंडाधिकारी जांच रिपोर्ट में यह पाया गया है कि गिरफ्तारी मेमो में गिरफ्तारी का सही समय नहीं दिया गया है, निष्कर्ष गवाहों के बयानों से मेल नहीं खाते हैं  और कि न्यायिक हिरासत रिपोर्ट पर सेंथिल कुमार के हस्ताक्षर भी संदेहास्पद लगते हैं, इन सब से यह शक पैदा होता है कि क्या सच-मच पुलिस ने कुमार को दंडाधिकारी के समक्ष पेश किया था. [276] दंडाधिकारी ने कहा कि किसी विशेषज्ञ का अभिमत लेना ज़रूरी है यह जानने के लिए कि क्या यह हस्ताक्षर कुमार के हैं या नहीं, और अगर नहीं, तो न्यायालय को धोखा देने के प्रयास की उचित जांच होनी चाहिए.[277]

प्रक्रिया के अन्य खुले उल्लंघन में, इस मामले में पुलिस ने प्रथम सूचना रिपोर्ट को आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 174 के तहत दायर किया, जो आत्महत्या या अप्राकृतिक मौत में जांच से सम्बंधित है न कि हत्या से, जैसा की परिजनों ने आरोप लगाया था. रिकार्ड्स में और भी खामियां नज़र आयीं. कुमार की मौत सम्बंधित एफ.आई.आर. में दर्शाया गया कि गिरफ्तारी के समय कुमार नशे में था, लेकिन पुलिस द्वारा तैयार गिरफ्तारी रिकॉर्ड में ऐसा कोई जिक्र नहीं है.[278] 24 अप्रैल, 2010 को एक अलग जांच रिपोर्ट राजस्व अनुमंडल पदाधिकारी ने जमा की. इस रिपोर्ट में स्पष्ट दर्शाया गया है कि पुलिस अफसरों ने रिकार्ड्स के साथ छेड़-छाड़ की है, और उसमें घटना के समय पुलिस स्टेशन में मौजूद पुलिस कर्मियों के खिलाफ विभागीय जांच की मांग की गई है.[279]

इसी तरह से, जैसा की ऊपर वर्णित है, परिजनों ने यह सुनिश्चित करने के लिए न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया कि सब-इंस्पेक्टर ए. काॅलीडोस (जो अभी फिलहाल के. सैय्यद मोहम्मद को हिरासत में गोली मारने के मामले में सिर्फ निलंबित है), के खिलाफ मुकदमा चलाया जाना चाहिए.[280] रामनाथपुरम के जिला कलेक्टर के. नंदकुमार के अनुसार, आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 176 (1अ) के तहत दंडाधिकारी जांच कराई गयी, जिन्होंने कहा कि पुलिस अधीक्षक द्वारा एक प्राथमिक जांच रिपोर्ट तैयार की गयी थी जो आगे जांच हेतु मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के यहाँ पेश की गयी.[281] जुलाई, 2015 में दंडाधिकारी जांच के बाद, क्राइम ब्रांच ने काॅलीडोस के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया.[282] इस रिपोर्ट लिखे जाने के समय तक यह मामला अभी भी लंबित है.

बी.जनार्धन, तेलंगाना

4 अगस्त, 2009 को पुलिस हिरासत में बी. जनार्धन की मौत हो गयी. हैदराबाद सिटी पुलिस ने कहा कि जनार्धन को चोरी के इलज़ाम में हिरासत में लिया गया था, और पुलिस द्वारा दूसरे अभियुक्त की तलाशी में शामिल होने के लिए उसे मजबूर किया गया, और वह सीने में दर्द उठने के बाद वह गिरकर मर गया. पुलिस ने यह कबूल किया कि गिरफ्तार करने वाले अफसर को जनार्धन को पुलिस स्टेशन लाना था, और उसका इकबालिया बयान रिकॉर्ड करना था, न कि उसे सीधा तलाशी अभियान में लेकर जाना था.

उत्तम मल, पश्चिम बंगाल

गवाहों ने पुलिस के उस दावे का खंडन किया है कि उत्तम मल की मौत उन चोटों से हुई जब वह एक मोटर साइकिल से कूद कर पुलिस हिरासत से भागने का प्रयास कर रहा था. उत्तम मल की मौत में लिप्त पुलिस अफसरों के खिलाफ जब पुलिस कोई मामला दायर करने में नाकाम रही तो उत्तम मल के नियोक्ता, सनौर एस.के. ने दुर्गापुर पुलिस स्टेशन में 4 सितम्बर, 2010 को बी.ज़ोन पुलिस चौकी के अज्ञात पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज किया. इस शिकायत के आधार पर पुलिस ने धारा 304 (गैर-इरादतन हत्या) के तहत का मामला दर्ज किया.[283]

उत्तम मल के साला दुलाल मल ने बताया कि हमें कोई भी अनुमान नहीं था कि उत्तम मल को किन पुलिस अफसरों ने गिरफ्तार किया, और यह मामला किस थाने के अधिकार क्षेत्र में आता है. जिन पुलिस अधिकारियों ने हमारे घर आकर सूचना दी वे सिविक पुलिस वालंटियर फ़ोर्स से नहीं थे (जिन्होंने मल को गिरफ्तार किया था), बल्कि दूसरे पुलिस स्टेशन के थे.[284]

अतिरिक्त डिप्टी पुलिस कमिश्नर ने इस मामले में एक आन्तरिक जांच की, और 7 दिसंबर, 2012 को अपनी रपट में निष्कर्ष दिया कि उत्तम मल की मौत दुर्घटना से हुई थी. उत्तम मल की मौत के बाद कोई भी न्यायिक दंडाधिकारी जांच नहीं की गयी.[285] आन्तरिक जांच रपट में इसको न्यायसंगत ठहराते हुए पुलिस ने कहा कि इसमें जांच करने की कोई ज़रुरत नहीं थी, क्योंकि मौत पुलिस हिरासत में नहीं हुई थी. [286] न्यायिक जांच के लिए एक अधिकार समूह बांग्लार मानबाधिकार सुरक्षा मंच (मासूम) के हस्तक्षेप की ज़रुरत पड़ी. मासूम ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पास शिकायत दर्ज की, जिसने न्यायिक दंडाधिकारी जांच के लिए कलकत्ता उच्च न्यायायलय को लिखा. उच्च न्यायालय ने दुर्गापुर के अतिरिक्त मुख्य न्यायायिक दंडाधिकारी को न्यायायिक जांच शुरू करने के लिए निर्देशित किया, जो 13, मई 2013 को शुरू हुई, और पिछले तीन वर्षों से अधिक समय से यह जांच चल रही है.

ओबैदुर रहमान, पश्चिम बंगाल

ओबैदुर रहमान कि बेटी हसन आरा बेगम ने मालदा जिला के पुलिस अधीक्षक के यहाँ शिकायत दर्ज की कि सब-इंस्पेक्टर बिकाश हलदर, दो पुलिस कर्मियों और चार ऐसे लोगों के साथ जिन्होंने रहमान के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कराया था, 21 जनवरी 2015 की रात 8:30 बजे बिना किसी वारंट के उनके घर में बलपूर्वक दाखिल हुआ.[287] शिकायत में हसन आरा ने बताया कि हलदर ने निर्दयता से ओबैदुर पर हमला किया, और डंडों और टोर्च लाइट से उसके सर पर और शरीर के अन्य अंगो पर भी प्रहार किया, जिससे वह बेहोश हो गया. उसके बाद उसे नजदीकी अस्पताल ले जाया गया.[288]

पुलिस अफसरों के खिलाफ पुलिस ने कोई भी शिकायत दर्ज करने से मना कर दिया और केवल अप्राकृतिक मौत का मामला दर्ज किया. उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया कि उन्होंने रहमान को हिरासत में लिया था, यह कहकर कि पुलिस स्टेशन के सामने रहमान बीमार हो गया, तो उसे सीधे ही अस्पताल ले जाया गया. कोई भी न्यायिक दंडाधिकारी जांच नहीं कराई गयी. एक कार्यकारी दंडाधिकारी ने जांच शुरू की और जनवरी 2015 में अपनी रिपोर्ट फाइल कर दी.[289]

सबूतों से छेड़-छाड़

हिरासत में मौतों के मामले में पुलिस द्वारा रिकॉर्ड, जैसे कि पुलिस डायरी, गिरफ्तारी मेमो और पुलिस लाग-बुक, के साथ छेड़-छाड़ एक अन्य गंभीर मुद्दा है. चूँकि इन रिकार्ड्स तक पुलिस की सीधी पहुँच होती है, उनके लिए प्रविष्टियों में हेर-फेर करना अपेक्षाकृत आसान होता है जिससे कि वे या तो खुद समुचित प्रक्रियाओं के अनुपालन को दिखा सकें या कोई दूसरा बहाना बना सकें.

एग्नेलो वल्दारिस, महाराष्ट्र

ऊपर चर्चित एग्नेलो वल्दारिस के मामले में, केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने जनवरी 2016 में 10 आरोपित पुलिस अफसरों के खिलाफ आपराधिक षडयंत्र और सबूतों के साथ छेड़-छाड़ के अलावा अन्य आरोप दाखिल किये. सी.बी.आई. ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में दर्शाया कि वडाला रेलवे पुलिस स्टेशन के पुलिस अफसरों ने झूठा गिरफ़्तारी मेमो तैयार किया था, यह दर्शाने के लिए कि गिरफ्तारी कानूनी थी, और पुलिस डायरी और आम डायरियों में झूठी प्रविष्टियाँ बनाई थीं.[290]

सहायक सब-इंस्पेक्टर ने वकील पठान ने, जो वडाला रेलवे पुलिस स्टेशन में उस रात ड्यूटी पर था जब वल्दारिस और तीन अन्य को गैरकानूनी तौर पर हिरासत में रखा गया था, सी.बी.आई. को बताया कि उसने वरीय अधिकारियों के निर्देश पर पुलिस की आम डायरी में जानबूझकर गलत प्रविष्टियाँ बनाई थीं. उसने कबूल किया कि थाने के पुलिस कर्मियों के मूवमेंट के बारे में भी पुलिस स्टेशन रिकार्ड्स में गलत प्रविष्टियाँ डालीं, जिससे कि गिरफ्तारी के सही तारीख़ और समय को छुपाया जा सके.[291] एग्नेलो वल्दारिस को कथित तौर पर 16 अप्रैल, 2014 की रात के 2 बजे उठाया गया था, लेकिन पुलिस ने 36 घंटे के बाद आधिकारिक तौर पर 17 अप्रैल को दोपहर पौने चार बजे उसकी गिरफ्तारी दर्ज की थी. 

सेंथिल कुमार, तमिलनाडु

5 अप्रैल, 2010 को संथिल कुमार की हिरासत में मौत की न्यायायिक जांच से यह बात सामने आई कि पुलिस ने इस घटना के बारे में झूठा दावा किया था और जुर्म ढंकने के लिए सबूत से खिलवाड़ किया था.लेकिन, अधिकारियों ने तत्काल प्रभाव से जिम्मेदार उप-निरीक्षक को निलंबित कर दिया लेकिन आरोपी पुलिस अफसरों के खिलाफ और कोई भी कार्यवाई नहीं की.[292]

सेंथिल कुमार की माँ ने मद्रास उच्च न्यायालय कि मदुरै पीठ में रिट याचिका दायर की और आपराधिक जांच विभाग की क्राइम ब्रांच द्वारा स्वतंत्र जांच की मांग की और कि उसके बेटे की मौत के लिए संदिग्ध अफसरों के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर की जाये.[293] उच्च न्यायालय ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया. नवम्बर 2015 में, क्राइम ब्रांच ने अपनी जांच पूरी कर ली और तीन पुलिस अफसरों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया जिसमें गलत ढंग से हिरासत में रखना, चोट पहुंचाने की नीयत से सरकारी रिकार्ड्स से छेड़-छाड़ करना, और गैर-इरादतन हत्या, जिसमें 10 वर्षों की अधिकतम कैद की सज़ा होती है; जैसे आरोप शामिल थे.[294]

जुल्फर शेख, महाराष्ट्र

जुल्फर शेख की मौत की 2 दिसंबर, 2012 को हुई जब वह मुंबई के धारावी पुलिस की हिरासत में था. जाँच में पता चला कि पुलिस ने सबूतों से छेड़-छाड़ की थी. सहायक पुलिस कमिश्नर ने जो आरोप पत्र दाखिल किया था वह जिम्मेदार अफसरों को बचाने के लिए ही था, इसके बावजूद उनमें पुलिस अफसरों द्वारा सबूत नष्ट करने और शेख कि गिरफ्तारी के झूठे रिकॉर्ड तैयार करने का ज़िक्र था. शेख को पुलिस ने गैरकानूनी तरीके से 28 नवम्बर, 2012 को हिरासत में लिया, लेकिन गिरफ्तारी-सम्बंधित दस्तावेजों में जालसाजी कर यह दिखाया कि उसे 29 नवम्बर को गिरफ्तार किया गया था.[295]

सच्चाई छुपाने में मेडिकल अधिकारियों की कथित मिली-भगत 

हिरासत में मौतों पर काम करने वाले नागरिक समाज समूहों और वकीलों का कहना है कि मेडिकल प्रोफेशनल अक्सर पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट्स लिखते हैं जो गलत तरीके से घटना के बारे में पुलिस के पक्ष को समर्थन देती हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी इसे एक गंभीर चिंता का विषय बताया है और इसे पीड़ित परिवार को न्याय मिलने में एक बाधा माना है.[296]

सन 1995 में एन.एच.आर.सी. के अध्यक्ष ने मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखा था:

पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट बहुत ही बहुमूल्य रिकॉर्ड माना जाता है और मौत के बारे में निष्कर्ष निकालने में इस दस्तावेज़ को विशेष महत्त्व दिया जाता है. आयोग का प्राथमिक तौर पर मानना है कि स्थानीय डॉक्टर पुलिस के दबाव में आकर तथ्यों को तोड़-मरोड़ देते हैं. आयोग चाहेगा कि पुलिस हिरासत में या जेलों में मौतों के सम्बन्ध में सभी पोस्ट-मॉर्टम परीक्षण का विडियो-फिल्म बनाया जाए, और उसके कैसेट पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट के साथ आयोग को भेजी जाएँ.[297]

हालांकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दिशा-निर्देश के अनुसार पोस्ट-मॉर्टम की विडियो रिकॉर्डिंग रिपोर्ट  के साथ-साथ जमा करनी है, लेकिन बहुत से राज्य इस दिशा-निर्देश का पालन नहीं करते हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के एक पूर्व सदस्य, सत्याब्रत पाल कहते हैं कि पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट्स की गुणवत्ता एक चिंता का विषय है. पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट अक्सर कहानी का पुलिस विवरण ही बताते हैं.[298] हालांकि रिपोर्ट्स कि गुणवत्ता अलग-अलग राज्यों और यहाँ तक कि जिलों में भी अलग-अलग स्तर की होती है. पाल ने बताया कि बहुत सारे मामलों में तो पोस्ट-मॉर्टम परीक्षण डॉक्टर द्वारा न करके तथा-कथित सफाई-कामगारों द्वारा किया जाता है, वे व्यक्ति जो मुर्दाघर में लाश की देख-भाल में सहयोग देते हैं. उनके अनुसार: यह अब थोडा ज्यादा ही कठिन होता जा रहा है क्योंकि एन.एच.आर.सी. ने अब वीडियो बनाने पर जोर दिया है. वीडियो इसमें बहुत ही सहायक सिद्ध होता है क्योंकि कभी-कभी हम यह महसूस करते हैं कि डॉक्टर जो शव-परीक्षण रिपोर्ट में दिखा रहा है वह उसकी कल्पनाशक्ति का ही एक फितूर है या कभी-कभी तो वह जो उससे दर्शाने को कहा जाता है.[299]

शव-परीक्षण रिपोर्ट की विश्वसनीयता न होने के कारण, एन.एच.आर.सी. को अक्सर फॉरेंसिक विशेषज्ञों पर निर्भर करना होता है. इससे जांच में देरी होती है और, क्योंकि आयोग की मृतक के शरीर तक पहुँच नहीं होती, तो इसके फॉरेंसिक विशेषज्ञ नया शव-परिक्षण नहीं कर सकते और इसके बजाय उन्हें फोटो और दूसरे स्तर के सबूत पर निर्भर करना होता है.

सेंथिल कुमार के मामले में, पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट ने पुलिस के विवरण का ही समर्थन किया था, यह कहकर कि मौत ह्रदय गति रूकने से हुई थी.[300] लेकिन राजस्व अनुमंडल पदाधिकारी द्वारा जो जांच की गयी उससे निष्कर्ष निकला कि कुमार के शरीर पर चोटों के ऐसे निशान थे जो किसी डंडे से पहुंचाए गए हों, जो पुलिस यातना को इंगित करते हैं.[301]

उचित तरीके से किये गए शव-परीक्षण और पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट्स हिरासत में पुलिस दुर्व्यवहार को साबित करने का एक सशक्त सबूत बन सकती हैं. उदाहरण के लिए, हालाँकि जे.एन.मेडिकल कॉलेज की रिपोर्ट, जहाँ अब्दुल अज़ीज़ को ले जाया गया था जब उसकी दशा बिगड़ी, ने पुलिस विवरण ही  पुष्टि की थी  कि उसकी मौत ह्रदय गति रूकने से हुई, पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट ने स्पष्ट किया कि वह गला घोटने के कारण दम घुटने से मरा.[302] पुलिस ने दावा किया कि पोस्ट-मॉर्टम उचित तरीके से नहीं किया गया था, और इस मामले को बंद कर दिया, लेकिन अज़ीज़ के परिजनों ने इस रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय में न्याय की गुहार लगाई.

क़ाज़ी नसीरुद्दीन के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले में इंगित किया गया कि पोस्ट-मॉर्टम रपट में नसीरुद्दीन के शरीर पर चोटों के निशान पाए गए थे, और मौत “सर पर चोट लगने के कारण हुई थी”. इसका मिलान गिरफ्तारी मेमो (जिसमें दर्शाया गया कि नसीरुद्दीन के शरीर पर उसकी गिरफ्तारी के समय कोई भी चोट के निशान नहीं दिखाई दे रहे थे) से करते हुए न्यायाधीशों ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि पुलिस हिरासत में ही नसीरुद्दीन को यह चोटें लगीं और, इसलिए, पुलिस को ही यह स्पष्टीकरण देना होगा कि नसीरुद्दीन को यह चोटें कैसे लगीं.[303]

जुल्फर शेख के मामले में, शव-परीक्षण में 21 बाहरी चोटें पाई गयीं, फिर भी रिपोर्ट में कहा गया कि ये चोटें इतनी पर्याप्त नहीं थीं जिससे कि किसी एक चोट या कई चोटों से मौत हुई हो.[304] लेकिन बॉम्बे उच्च न्यायालय ने शेख के परिवार की दलील को सच मानते हुए, इस मामले को केन्द्रीय जांच ब्यूरो को सौंप दिया, सी.बी.आई. ने महाराष्ट्र राज्य के बाहर के विशेषज्ञों का चिकित्सीय मत लिया. दिसंबर 2014 में चंडीगढ़ में एक मेडिकल विशेषज्ञों की टीम गठित की गयी जिनमें फॉरेंसिक विज्ञान और न्यूरोलॉजी के विशेषज्ञ शामिल थे, और 2015 में उन्होंने यह निष्कर्ष दिया कि शेख कि मौत का कारण अत्यधिक शारीरिक दुर्व्यवहार और तीव्र सदमे के कारण लगा न्यूरोजेनिक शॉक है. इस नए चिकित्सीय मत के आधार पर, सी.बी.आई. ने दो अभियुक्त पुलिस कर्मियों के खिलाफ गैर-इरादतन हत्या का मुकदमा दर्ज किया.[305]

जवाबदेही चाहने वाले पीड़ित के परिजनों और गवाहों को डराना-धमकाना

भारत में पीड़ित और गवाहों की सुरक्षा के कानून का अभाव है. कई ऐसे मामले सामने आए हैं जिनमें गवाहों ने अपराधियों, खास तौर से ताकतवर अपराधियों के धमकी के कारण अपने बयान वापस ले लिए या उससे मुकर गए.[306] हिरासत में मौतों के मामले में, अगर पीड़ित के परिजन गरीब और हाशिये पर हैं, तो वे और भी अधिक असुरक्षित हैं. परिजन बहुधा कहते हैं कि पुलिस उनपर झूठे और काल्पनिक आपराधिक दोष मढ़ देती है ताकि वे डर कर न्याय की मांग न करें. और राज्य के अधिकारी आदतन उन्हें जरुरी सुरक्षा देने में असफल सिद्ध होते हैं.

राजीब मोल्ला, पश्चिम बंगाल

राजीब मोल्ला कि पत्नी रेबा बीबी ने अधिकारियों को तमाम ख़त लिखे, जिसमें पुलिस अधीक्षक शामिल हैं, कि उसे मोल्ला का मामला आगे बढ़ाने के कारण लगातार धमकी मिल रही है, और उसने सुरक्षा की मांग की. 13 जुलाई, 2015 को पश्चिम बंगाल में कार्यरत मासूम नामक अधिकार समूह ने भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को शिकायत की कि रेबा बीबी को लगातार धमकी दी जा रही है और उसे डराया जा रहा है, लेकिन आयोग से उसे कोई भी जवाब नहीं मिला.[307]

जब रेबा बीबी और मासूम ने धमकियों के बावजूद पीछे हटने से इनकार कर दिया, तो मासूम ने बताया कि उनके जिला स्तरीय मानवाधिकार मॉनिटर, अजीमुद्दीन सरकार को उस इलाके के राजनैतिक रसूक रखने वाले लोगों ने धमकी दी.[308] मासूम ने कई बार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को हस्तक्षेप करने के लिए पत्र लिखा, लेकिन इनका कोई भी जवाब नहीं मिला. मासूम के अनुसार, सितम्बर 2015 में पुलिस ने धमकी देने और डराने से एक कदम आगे बढ़कर सरकार को हिरासत में ले लिया.[309]

सेंथिल कुमार, तमिलनाडु

सेंथिल कुमार के भाई शशि कुमार ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि उसे 5 अप्रैल, 2010 को डिंडीगुल तालुक पुलिस स्टेशन पर हिरासत में ले लिया गया, ताकि वह अपने भाई के लिए न्याय की मांग करने वाले प्रदर्शन में भाग न ले सके. कुमार ने बताया कि पुलिस ने अस्पताल ले जाकर उसके भाई का मृत शरीर दिखाने से पहले उसके साथ मारपीट की और उसका हाथ तोड़ दिया.[310] एक मेडिकल रिपोर्ट ने इसकी पुष्टि की है कि शशि कुमार के हाथ में हड्डी टूट गयी थी जो एक गंभीर चोट है.[311]

जैसे ही सेंथिल कुमार के परिजनों ने उसकी मौत की स्वतंत्र जांच की मांग को आगे बढाया, उनके अनुसार उनको पुलिस से धमकी मिलने लगी. सेंथिल कुमार की पत्नी, सिवागामी, ने राजस्व अनुमंडल पदाधिकारी को 22 अप्रैल, 2010 को पत्र लिखकर बताया कि उनको और उनकी सास को डिप्टी पुलिस अधीक्षक द्वारा धमकाया जा रहा है.[312]

सफीकुल हक़, पश्चिम बंगाल 

सफीकुल हक़ की पत्नी, सकीना बीबी ने आरोप लगाया कि पुलिस अफसरों ने फर्जी अपराधिक शिकायतों और अचानक किये जाने वाली तलाशी के ज़रिये उसे डराने, धमकाने और उसके परिवार को परेशान करने का प्रयास किया. सकीना बीबी के अनुसार, हक़ की मौत के बाद से 25 दिन तक जो तलाशी ली जाती रही, उस दौरान पुलिस ने कभी भी तलाशी वारंट नहीं दिखाया और न ही सर्च के ऐसे मौकों पर टीम में महिला पुलिस ही मौजूद होती थी. उसने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया: 

कई दिन ऐसे थे जब दिन में दो बार तलाशी ली जाती थी. हरेक तलाशी कोई घंटे तक चलती थी, और लगभग चार से दस लोग उसमें शामिल होते थे. हरेक बार जब पुलिस आती थी, तो (परिवार के) मर्द घर छोड़ कर चले जाते थे, इस डर से कि उन्हें झूठे मुकदमों में फंसा दिया जायेगा. रात में कोई भी मर्द घर के भीतर नहीं सोते थे. इसलिए हर बार जब भी पुलिस आई, घर में सिर्फ महिलाएं ही रहती थीं. वे मुझसे पूछते थे: “मर्द कहाँ हैं?”. वे मुझसे यह तक पूछते थे कि “तुम्हारा शौहर कहाँ हैं?” मैं कहती थी कि पुलिस ने उसे मार डाला. तो वे कहते थे “ओह” और आगे पूछते थे: “तुम्हारे बेटे कहाँ हैं?” उन्होंने हमारे घर का सामान तितर-बितर कर दिया, उन्होंने घर में निर्माण कार्य के लिए रखे बालू को फैला दिया और अलमीरा, बैग और ब्रीएफ़केस खोल डाले.  वे तकिया तक फाड़ कर उसके अन्दर की जांच करते थे. हम भयभीत रहते थे, हमें आतंकित किया गया.[313]

11 मई को, हक़ की मौत के तीन महीनों बाद, नबाग्राम पुलिस ने उसके 25 वर्षीय बेटे रफीकुल हक़ को गिरफ्तार किया, यह कहकर कि उसके खिलाफ लूट का एक मामला दर्ज है. सकीना बीबी ने बताया कि जब वह पुलिस स्टेशन गयी और यह कहा कि यह फर्जी केस है, तो पुलिस स्टेशन में प्रभारी अफसर ने ताना मारा कि क्या यह अच्छा होगा अगर हम उसके खिलाफ बड़ा इलज़ाम लगायें, जैसे कि हत्या या कुछ और?” इस रिपोर्ट के लिखे जाने के समय तक रफीकुल हक़ के खिलाफ मामले न्यायालय में लंबित थे. सकीना बीबी ने कहा कि इस तरह से परेशान किये जाने से उसका परिवार टूट गया था: हम कभी भी सुरक्षित महसूस नहीं करते हैं क्योंकि पुलिस कभी भी मेरे बेटों को फर्जी मुकदमों में फंसा देगी. वे घर के बाहर नहीं जा सकते और न ही आजादी से घूम सकते हैं, न ही उन्हें कोई रोज़गार मिलता है.[314]

अब्दुल अज़ीज़, उत्तर प्रदेश

अब्दुल अज़ीज़ के बेटे जमशेद ने जैसे ही अदालत में पुलिस के खिलाफ मामला दर्ज किया, उसे भी उत्तर प्रदेश के अधिकारियों ने फर्जी अपराधिक मुक़दमे में फंसा दिया. उस पर भारतीय दंड संहिता की धारा 323 और 504 के तहत पुलिस ने आरोप मढ़ दिए, ये आरोप शांति भंग करने के लिए चोट पहुँचाने और जान-बूझकर अपमानित करने से सम्बंधित हैं और बाद में उन पर उत्तर प्रदेश गुंडा कण्ट्रोल कानून के तहत भी मुकदमा दर्ज कर दिया गया. जमशेद ने बताया कि न्यायालय ने इन मामलों को ख़ारिज कर दिया, लेकिन उसे यकीन है कि स्पष्ट तौर पर इन्हें “उस पर दबाव बनाने के लिए लगाया गया था ताकि मैं अपने पिता के केस को आगे न ले जाऊं, ताकि मैं इसमें ही फंस कर रह जाऊं और उसके मामले को आगे बढ़ाने से मुझे रोका जा सके.”[315]

ओबैदुर रहमान, पश्चिम बंगाल:

पश्चिम बंगाल में ओबैदुर रहमान के परिजनों ने कहा कि उसकी मौत के बाद से ही उन्हें डराया-धमकाया  और परेशान किया जा रहा था. परिजनों को यकीन था कि रहमान को न्याय दिलाने के लिए वे आगे बढ़ रहे थे, पुलिस ने उस मामले को भी तेज़ी से आगे बढ़ाना शुरू किया जिसमें ओबैदुर रहमान और उसके साथ परिवार के 13 सदस्य अभियुक्त थे. मार्च, 2015 में उसके बेटे और भाई को गिरफ्तार कर लिया गया.[316]

श्यामू सिंह, उत्तर प्रदेश

श्यामू सिंह के भाई रामू ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि पुलिस ने उसे फ़ोन पर धमकी दी:

पुलिस मुझसे कहती थी कि मैं उनके लिए एक घाव बन गया हूँ जिसे काट कर निकाल देना है. “तुम हमारे लिए वही बन गए हो. होशियार रहो नहीं तो जैसा श्यामू के साथ हुआ तुम्हारे साथ भी हो सकता है.” पुलिस ने मेरी बहन को भी धमकाया.[317]

सन 2013 में रामू ने एक रिट याचिका दायर की जिसमें उसने परिवार को मिलने वाली धमकियों का ज़िक्र किया और सुरक्षा की मांग की. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वरीय पुलिस अधीक्षक को पत्र लिखकर कहा कि इस परिवार के साथ कोई भी अप्रिय घटना नहीं होनी चाहिए. रामू और उसके परिजन जब भी न्यायालय में हाज़िर होते थे तो उन्हें पुलिस सुरक्षा दी जाती थी, लेकिन इसके अलावा इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक अधिकारियों ने उन्हें सुरक्षा देने के लिए कोई और कदम नहीं उठाया था.[318]

रामू ने यह भी आरोप लगाया कि उसकी बहन का बेटा (भांजा), जिसके घर से रामू और श्यामू को गिरफ्तार किया था, उसे भी फर्जी आरोपों में फंसा दिया गया था. रामू ने कहा कि पुलिस हमें सिर्फ इसलिए परेशान कर रही है कि हम अपना मुकदमा वापस ले लें. उसने यह भी आरोप लगाया कि पुलिस ने हमें घूस भी देने की कोशिश की ताकि हम मुकदमा वापस ले लें.[319]

करुप्पी

पुलिस हिरासत में करुप्पी (उसका उपनाम नहीं) की मौत के बाद के न्याय का संघर्ष इसका एक ज्वलंत उदाहरण है कि अपराधियों से गवाहों को लगातार मिली धमकी या दवाबों के बीच यह प्रक्रिया कैसे सालों-साल तक खिंच सकती है. यह मामला यह भी दर्शाता है कि न्याय पाने का आपका फैसला कैसे इस बात पर निर्भर करता है कि क्या पीड़ित के परिजन किसी गैर-सरकारी संगठन से समर्थन प्राप्त करते हैं जो खर्च उठाने को तैयार है, एक वकील की व्यवस्था करता है, और मामले के पूरा होने तक आवश्यक समय देने को तैयार है. यह सब तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब पीड़ित परिवार गरीब और अनपढ़ है. अंत में, यह मामला दर्शाता है कि ऐसे समर्थन के बाद भी न्याय मिलना मुमकिन नहीं.

1 दिसंबर, 2002 को तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिला के परमकुदी पुलिस स्टेशन से दस मीटर दूर 50 वर्षीय करुप्पी का शव एक टेलीफोन के खम्बे से लटका हुआ मिला. करुप्पी एक घरेलू कामगार थी जिसे कथित तौर पर उसके नियोक्ता, डी. प्रेमा की शिकायत पर चोरी के शक में  पुलिस ने गैर-कानूनी तौर पर हिरासत में लेकर यातना दी थी.[320]

अनुमंडलीय दंडाधिकारी की प्राथमिक जांच में निष्कर्ष निकला कि पुलिस दुर्व्यहार की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है, और इसमें एक व्यापक जांच की सिफरिश की गयी.[321] इस मौत की जांच-पड़ताल में एक अपराधिक जुर्म की सम्भावना भी दर्शाई गयी और व्यापक जांच कि सिफारिश की गयी.[322] पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में उसकी बाँहों और पैरों पर कई चोटें पाई गयीं.[323] लेकिन, मौत के अंतिम कारण के रूप में मेडिकल रिपोर्ट में निष्कर्ष निकला कि करुप्पी की मौत फांसी के फंदे से लटकने से दम घुटने के कारण हुई.[324]

जिलाधीश द्वारा जनवरी 2003 में सौंपी गयी अंतिम जांच रिपोर्ट में पुलिस द्वारा कई प्रक्रिया सम्बन्धी कमियां पायी गयीं. करुप्पी को गैरकानूनी तरीके से हिरासत में लिया गया था, और उसे जांच के लिए “लगातार लम्बे समय” के लिए बिना किसी रिकॉर्ड के बार-बार पुलिस स्टेशन बुलाया जाता था और करुप्पी, उसकी बेटी, और उसकी ननद को महिला पुलिस की अनुपस्थिति में भी पूछ-ताछ के लिए बुलाया जाता था.[325] थिरु रवि, जो अक्सर करुप्पी के साथ पूछ-ताछ के लिए पुलिस स्टेशन आटा था, ने बयान दिया कि 30 नवम्बर, 2002 को रात 9 बजे वह पुलिस स्टेशन से चला गया था, और उस समय करुप्पी स्टेशन के भीतर ही मौजूद थी. अगले दिन सुबह करुप्पी को स्टेशन के पीछे टेलीफोन के खम्बे पर लटकता पाया गया.[326]

अखबार में छपे एक लेख के आधार पर, तमिलनाडु राज्य मानवाधिकार आयोग ने एक स्वतंत्र जांच कराई.  हालांकि इसने पुलिस द्वारा कुछ प्रक्रिया सम्बन्धी उल्लंघन का ज़िक्र किया, लेकिन संलिप्त पुलिसकर्मियों के खिलाफ कोई भी कार्रवाई की सिफारिश करने में यह विफल रहा.[327] तमिलनाडु राज्य महिला आयोग ने इस मामले में एक जन सुनवाई की. इस सुनवाई के दौरान, करुप्पी की ननद अर्रुमुगम और देवर क्रिश्तुदास ने दावा किया कि वे पुलिस स्टेशन में करुप्पी को यातना दिए जाने के चश्मदीद गवाह हैं, और उन्होंने यह भी कहा कि इस तथ्य को उन्होंने अनुमंडलीय दंडाधिकारी द्वारा जांच के दौरान इसलिए नहीं बताया क्योंकि उन्हें धमकाया गया था. उन्होनें दावा किया कि उनके बच्चों को रजा हुसैन नामक एक व्यक्ति ने अगवा कर लिया था, जो उनके कहे अनुसार इस मामले के मूल्य अभियुक्त पुलिस इंस्पेक्टर शाहुल हमीद का रिश्तेदार था.[328] सुनवाई में यह बात सामने आई कि यह विश्वास करने का पर्याप्त आधार है कि करुप्पी को पुलिस स्टेशन में छह दिनों तक रखा और उसे यातना दी गई. इसमें यह भी पाया गया कि “पुलिसकर्मियों के अनुचित प्रभाव से गवाहों को डराया गया और उन पर दवाब डाल गया.”[329]

अरुमुगम और क्रिश्तुदास ने बताया कि उन्हें हिरासत में लिया गया, परेशान किया गया, और कई मौकों पर पुलिस ने उनसे मार-पीट की.[330] करुप्पी के वकील, एस.जे. शेख इब्राहीम ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि उन्हें भी धमकी मिलीं. “तकरीबन सात से आठ बार हमारे दफ्तर की लैंडलाइन पर फ़ोन आये, जहाँ फ़ोन करने वाला कहता था, “इस मामले को नहीं लो. अगर तुम्हें पैसा चाहिए, तो हम तुम्हें पैसा देंगे.”[331]

सन 2006 में, जिला अधीक्षक की सिफारिश पर, सरकार ने चार आरोपी पुलिस अफसरों के खिलाफ गलत ढंग से हिरासत में रखने और यातना देने के लिए विभागीय कार्रवाई की, और इनमें से दो के खिलाफ अपराधिक मुकदमा दायर किया.[332] जिले के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी की अदालत में एक मामला दर्ज किया गया है. 

लेकिन, मदुरै में सक्रिय पीपुल्स वाच नामक एक गैर-सरकारी संगठन ने (जो इस परिवार को सहयोग दे रहा था) मद्रास उच्च नयायालय में एक याचिका दायर कर इस मामले को केन्द्रीय जांच ब्यूरो को हस्तांतरित करने की मांग की.[333] 2008 में उच्च न्यायालय ने आपराधिक जांच विभाग की मदुरै क्राइम ब्रांच को इस मामले की जांच का आदेश दिया, और राज्य सरकार को करुप्पी के परिवार को तीन लाख रुपये (4,500 अमरीकी डालर) मुआवजा देने को कहा.[334] क्राइम ब्रांच ने आठ पुलिस अफसरों के खिलाफ गलत ढंग से हिरासत में रखने, सचेत रूप से चोट पहुँचाने, आत्महत्या के लिए प्रेरित करने, जान-बूझकर झूठे सबूत देने, और एक अपराधकर्ता को बचाने की नीयत से सबूतों को छुपाने जैसे आरोप लगाए.[335]

करुप्पी कि मौत के ग्यारह वर्षों के बाद, सन 2013 में रामनाथपुरम जिला के अतिरिक्त जिला सत्र न्यायालय ने पुलिस कर्मियों को गलत ढंग से हिरासत में रखने, सचेत रूप से चोट पहुँचाने, आत्महत्या के लिए प्रेरित करने, जान-बूझकर झूठे सबूत देने, और एक अपराधकर्ता को बचाने की नीयत से सबूतों को छुपाने का दोषी ठहराया और उन्हें अलग-अलग सज़ा सुनाई, जिसमें अधिकतम सज़ा 10 सालों तक की कैद थी.[336]

लेकिन, फ़रवरी, 2014 में मद्रास उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के आदेश को पलट दिया और सभी आठ पुलिसकर्मियों को इस आधार पर रिहा कर दिया कि अभियोजन के लिए कोई भी मौखिक या प्रत्यक्ष सबूत अकाट्य नहीं था, और कि अपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत यह मामला यह मामला नहीं ठहरता था.[337] सन 2014 में पीपुल्स वाच ने सर्वोच्च न्यायालय में उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ एक याचिका दायर की.[338] इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक यह मामला लंबित है.

जवाबदेही सुनिश्चित करने में राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार आयोगों कि भूमिका

हिरासत में मौतों के मामलों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की अहम भूमिका है. हरेक ऐसी मौतों की रिपोर्ट पुलिस को 24 घंटों के अन्दर एन.एच.आर.सी. को देनी होती है और आयोग की ज़िम्मेदारी है कि मानवाधिकारों के हनन या लोक सेवकों द्वारा ऐसे हनन को रोकने में लापरवाही की सभी शिकायतों की वह जांच करे.[339] हालांकि एन.एच.आर.सी. ने हिरासत में मौतों की सख्त जांचों के लिए दवाब बनाने में कई मौकों पर एक सकारात्मक भूमिका निभाई है, लेकिन कई दूसरे मौकों पर हिरासत में मौत के मामलों में जवाबदेही को सुनिश्चित करने में वह विफल रही है.

पुलिस अफसरों के खिलाफ मुकदमा चलाने की सिफारिश करने में उदासीनता दिखाना एन.एच.आर.सी. की एक बड़ी कमजोरी रही है, यहाँ तक कि इसने ऐसे मामले में भी उदासीनता दिखलाई है जहाँ अधिकारीयों द्वारा अपराधिक कृत्यों के प्रथम दृष्टया सबूत मिले हैं. एन.एच.आर.सी. आम तौर पर पीड़ितों के लिए सिर्फ अंतरिम राहत या पीड़ित को मुआवजा देने की सिफारिश करती है. जांच में देरी, कम-साधनों से सुसज्जित राज्य मानवाधिकार आयोगों को मामलों को हस्तांतरित करना, और शिकायतकर्ताओं को मामले की समयानुसार जानकारी नहीं देना; कुछ अन्य चिंता के विषय हैं.

एन.एच.आर.सी. के एक अधिकारी ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि इसके जांच विभाग ने बिरले ही घटनास्थल पर जाकर जांचकी है या स्वतंत्र जांच की हो, इसकी जगह यह पुलिस या प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा भेजे गए दस्तावेजों की समीक्षा में ही जुटा रहता है.[340] एक्टिविस्ट एन.एच.आर.सी. द्वारा अप्रैल, 2010 में राज्य सरकारों को भेजी गई उस अधिसूचना को लेकर चिंतित हैं जिसमें ये कहा गया किया है कि हिरासत में मौतों के ऐसे मामलों में जिसमें किसी गड़बड़ी का आरोप नहीं लगा हो, न्यायायिक दंडाधिकारी से उसकी जांच कराना जरुरी नहीं है क्योंकि हिरासत में मौतों के मामले में पुलिस के पक्ष को पीड़ित परिवार अक्सर चुनौती नहीं दे पाते हैं.[341]

मामलों की जांच में देरी

गैर-सरकारी संगठनों ने रिपोर्ट की है कि यह एक आम बात है कि कुछ ख़ास तरह के मामलों में ठोस कदम उठाने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पीछे लगना पड़ता है और दवाब बनाये रखना होता है. उनके पास कर्मचारियों की कमी के चलते शिकायतों को निपटाने में बहुत देरी होती है. शिकायतकर्ताओं को अपने मामलों की अद्यतन जानकारी के लिए महीनों और यहाँ तक कि सालों तक इंतज़ार करना पड़ता है.

एग्नेलो वल्दारिस के मामले में, जिसकी मौत अप्रैल 2014 में हुई, एन.एच.आर.सी. ने सफलतापूर्वक दवाब बनाकर महाराष्ट्र राज्य अधिकारियों को उसकी मौत से सम्बंधित दस्तावेज भेजने को मजबूर किया, लेकिन उसकी मौत के दो साल बाद और आयोग को दस्तावेज़ मिलने के एक साल बाद भी इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक इस मामले में अंतिम आदेश पारित नहीं किया गया था.[342]

सन 2014 में सैयद मोहम्मद के मामले में, एन.एच.आर.सी. ने जांच महानिदेशक को तथ्य इकट्ठा करने और रिपोर्ट जमा करने के लिए आठ सप्ताह का समय दिया लेकिन आज दो वर्ष बीत जाने के बाद भी कोई अद्यतन जानकारी उपलब्ध नहीं है.[343]

इसी तरह से, ओबैदुर रहमान के जनवरी 2015 के मामले में, मासूम नामक अधिकार समूह से शिकायत मिलने के बाद एन.एच.आर.सी. ने अपने जांच विभाग को इस मामले में जांच करने को कहा लेकिन आज दो साल गुज़र जाने के बाद कोई भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.[344]

जून, 2015 में उत्तम मल की मौत के दो साल बाद एन.एच.आर.सी. ने यह उल्ल्लेख किया था अच्छा-खासा समय बीत गया जब उसने अधिकारियों को दंडाधिकारी जांच रिपोर्ट जमा करने को कहा था और इस रिपोर्ट को छह सप्ताह के भीतर माँगा था. [345] समय सीमा के १७ महीने बीत जाने के बाद भी इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक, कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं है.

अभियोजन के लिए सिफारिश करने में विफलता

एन.एच.आर.सी. ने आंध्र प्रदेश की सरकार से सिफारिश की थी कि बी.जनार्धन के नजदीकी रिश्तेदार को 5 लाख रुपये (8,300 अमरीकी डालर) का मुआवजा दे, लेकिन उसने अपराधकर्ताओं पर मुकदमा चलाने कि सिफारिश नहीं की.[346] इसी प्रकार, उसने सफीकुल हक़ की विधवा को तीन लाख रुपये (4,500 अमरीकी डॉलर) मुआवजा देने की सिफारिश की, और पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव को आदेश दिया कि न्यायिक जांच के निष्कर्षों के मद्देनज़र सुधारात्मक कदम उठाएं, लेकिन इसके बाद जनवरी 201 में आरोपी पुलिस अफसरों के खिलाफ मुकदमा चलाने की बिना किसी विशेष सिफारिश के उसने मामले को बंद कर दिया.[347] एन.एच.आर.सी. के पूर्व सदस्य सत्यब्रत पाल ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि मुआवजा के लिए सिफारिश करना और मुकदमा चलाने के लिए सिफारिश नहीं करना, आयोग के एक कठिन नैतिक दुविधा को दर्शाता है. जबकि एन.एच.आर.सी. की ज़िम्मेदारी है कि पीड़ित के परिवार को न्याय और राहत दोनों ही दिलाने की दिशा में सिफारिश करे कि अपराधकर्ताओं के खिलाफ मुकदमा चलाया जाए और पीड़ितों को मुआवजा मिले, पाल ने कहा कि मुकदमा चलाने की सिफारिश से प्रायः राहत की सम्भावना ख़त्म हो जाती है. दोनों को ही पूरी तरह से एक दूसरे के साथ-साथ चलना चाहिए था, लेकिन ये टकरा जाते हैं. पाल ने कहा, ज़्यादातर राज्य सीधे तौर पर सिफारिशों को मंज़ूर नहीं करेंगे और इसलिए, क्योंकि एन.एच.आर.सी. केवल सिफारशें कर सकता है कोई दवाब नहीं डाल सकता, हम न्याय और राहत दोनों को प्राप्त करने के लिए अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर पाएंगे.[348]

कुछ मामलों में, एन.एच.आर.सी. बिना मुआवजा की सिफारिश किये ही सही मामलों को भी बंद कर देता है, और मामले को अधिकारियों पर छोड़ देता है. उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में अप्पू के मामले में एन.एच.आर.सी. ने फ़रवरी, 2015 में मामले का निपटारा कर दिया. उसने सम्बद्ध अधिकारियों को सिर्फ यह निर्देश दिया कि आठ सप्ताह के भीतर उचित कार्रवाई करे.[349]

हालाँकि राज्य मानवाधिकार आयोग मानवाधिकार हनन से निपटने में अधिक सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन क्षमता के अभाव, मानवाधिकार प्रशिक्षण की अत्यधिक कमी और उन पर अत्यधिक स्थानीय दवाब का मतलब है कि वे घटनाओं के पुलिस पक्ष को शायद कम चुनौती दें और पीड़ितों को वास्तविक सहयोग भी कम ही दे पाएं.

 

IV. सिफारिशें

अपने कार्यकाल के पहले वर्ष में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सार्वजनिक तौर पर घोषणा की थी कि वे एक संवेदनशील, जवाबदेह, क्रियाशील, और बेहतर प्रशिक्षित पुलिस फ़ोर्स के समर्पित हैं.[350] हिरासत में मौतों के प्रति पुलिस की बढ़ी हुई सक्रियता प्रधानमंत्री की दावों की सफलता का एक महत्वपूर्ण मापदंड हो सकता है.

पुलिस हिरासत में मौतों से बेहतर तरीके से जूझने के लिए केन्द्रीय सरकार को राज्य सरकारों, पुलिस, नागरिक समाज संगठनों, विदेशी दानदाताओं, और आम जनता के साथ मिलकर नीचे दी गयी सिफारिशों को अमल में लाना चाहिए. (पुलिस सुधार के लिए दी गयी सिफारिशों की पूरी सूची देखने के लिए ह्यूमन राइट्स वाच कि सन 2009 की रिपोर्ट देखें: ब्रोकन सिस्टम: डिसफंक्शन, एब्यूज, एंड इम्पुनिटी इन द इंडियन पुलिस.)[351]

भारतीय संसद के लिए सिफारिशें

·       ‘यातना और अन्य क्रूरता, अमानवीय और निकृष्ट व्यवहार या सज़ा के खिलाफ कन्वेंशन’ की अभिपुष्टि करें और उसके प्रावधानों को घरेलु कानूनों में समाहित करें.’

·       बलपूर्वक लापता होने से सभी लोगों की सुरक्षा की अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन की अभिपुष्टि करें.

·       भारतीय दंड संहिता को संशोधित कर यातना और बलपूर्वक लापता होने जैसे अपराधिक कृत्यों को शामिल करें, जो यातना के खिलाफ कन्वेंशन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संधियों और मानकों के अनुरूप हों.

·       पीड़ित और गवाह की सुरक्षा के लिए पर्याप्त रूप से वित्तपोषित और कारगर कानून बनाएं.

·       दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 को सुधार कर यह स्पष्ट करें कि अभियोजकों को पुलिस के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त करना ऐसे मामलों में ज़रूरी न हो जहाँ कथित मनमानी हिरासत, यातना, न्यायेतर हत्याओं और अन्य अपराधों के आरोप लगे हों. धारा 197 में सुधार के पूर्व सरकारी ड्यूटी को सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के अनुरूप परिभाषित करें जिसमें मनमानी गिरफ्तारी, हिरासत में यातना और दुर्व्यवहार तथा गैर-न्यायिक हत्याओं को अलग रखने की बात कही गई है.

·       राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में जांच स्टाफ की संख्या में बढोत्तरी करने का समर्थन करना.

·       मानव अधिकार सुरक्षा (संशोधन) कानून, 2006 की धारा 36 को संशोधित कर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इज़ाज़त देना कि वह दूसरे आयोगों के पास लंबित हनन के मामलों में जांच कर सके या ऐसे मामले जो शिकायत दायर करने के एक साल पहले घटित हुए थे, ताकि अधिक-से-अधिक पीड़ितों को आयोग के पास जाने का अवसर मिले.

केन्द्रीय गृह मंत्रालय, केंद्र शासित राज्यों कि पुलिस, राज्य के गृह मंत्रालयों और राज्य पुलिस के लिए

गिरफ्तारी और हिरासत सम्बन्धी वर्तमान कानूनों को लागू करें:

·       गिरफ्तारी और हिरासत सम्बन्धी कानूनों और निर्देशों का सख्ती से पालन करें जो दंड प्रक्रिया संहिता और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा डी.के.बसु के फैसले में दिए गए हैं. प्रशिक्षण और व्यवहार में इन बातों पर जोर दें कि पुलिस सभी गिरफ्तारियों और हिरासतों को दर्ज करे, गिरफ्तार व्यक्तियों के नजदीकी रिश्तेदार को तुरंत जानकारी दे, 24 घंटों के भीतर आरोपी को दंडाधिकारी के समक्ष पेश करे, और हिरासत में आरोपी का ज़रूरी मेडिकल परीक्षण कराये.

·       यह सुनिश्चित करें की जो पुलिस अफसर यातना देने और दुर्व्यवहार में संलिप्त पाए गए हैं, चाहें वे किसी भी पद पर क्यों न हो, उन पर उपयुक्त अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाये या मुकदमा चलाया जाये.

·       राज्य के अफसर और उच्च-स्तर के पुलिस अधिकारियों को बयान जारी कर और कारगर कदम उठा कर साफ़-साफ़ और बिना किसी शंका के यह सन्देश देना है कि पुलिस हिरासत में यातना देना या दुर्व्यवहार बिलकुल मंज़ूर नहीं है, गैरकानूनी है, और ऐसा बर्दाश्त नहीं किया जाएगा.  अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप पुलिस नियमावली में पूछ-ताछ के स्वीकार्य तरीकों को साफ़ तौर से परिभाषित करें.

·       किसी भी संदिग्ध अपराधी की गिरफ्तारी के समय या किसी को भी अनौपचारिक हिरासत में लेने के समय, यह पुलिस की ड्यूटी है कि वह डी.के.बसु के फैसले और दंड प्रकिया संहिता के तहत दर्शाए गए आरोपी के मौलिक अधिकार पढ़कर सुनाये. बसु नियमावली को पढ़कर सुनाते समय यह जरुरी है कि संदिग्ध पर लगाये गए आरोपों के बारे उसे स्पष्ट जानकारी दी जाये और संदिग्ध को यह भी बताया जाये कि उसे किसी वकील से सलाह लेने, हिरासत के बारे में अन्य लोगों को जानकारी देने और मेडिकल परीक्षण का अधिकार है.

·       मानवाधिकार आयोगों और नागरिक समाज समूहों को हिरासत में सुविधाओं का स्वतंत्र निरीक्षण, जिसमें पुलिस स्टेशन लॉक-अप शामिल है, की अनुमति देनी चाहिए. हिरासत में लिए गए व्यक्ति को ऐसी निगरानी करने वाले स्वतंत्र संगठनों के प्रतिनिधियों से अलग से मिलने की अनुमति भी देनी चाहिए.

·       शहरों में पुलिस द्वारा पूछ-ताछ की वीडियोग्राफी करने के तरीके पर विचार करें, ख़ास कर हत्या और अन्य गंभीर अपराधों में मामलों में ताकि यातना और दुर्व्यवहार को रोका जा सके.

·       नागरिक समाज समूहों के साथ मिलकर पुलिस को हिरासत में महिलाओं, यौनिक अल्पसंख्यकों, और बच्चों से उचित व्यवहार करने में प्रशिक्षित किया जाए.

·       गिरफ्तारी के समय बलप्रयोग के लिए पुलिस कानूनों और नियम-पुस्तिका को संशोधित करें ताकि उनमें अन्तराष्ट्रीय कानूनी मापदंडों को प्रतिबिंबित किया जा सके, जिसमें कानून लागू करने वाले अफसरों के लिए बनी संयुक्त राष्ट्र की आचार-संहिता, और कानून लागू करने वाले अफसरों द्वारा बलप्रयोग और आग्नेय अस्त्रों के इस्तेमाल के लिए बने संयुक्त राष्ट्र के बुनियादी सिद्धान्त शामिल हैं. ख़ास कर, पुलिस द्वारा बलप्रयोग के पहले, जहाँ तक संभव हो, पुलिस के लिए ज़रूरी हो कि वह अहिंसक तरीकों का इस्तमाल करे, जुर्म की गंभीरता के मद्देनज़र उसी अनुपात में बलप्रयोग करे, और घातक हथियारों का उपयोग तभी करे जब वह जीवन की रक्षा के लिए बहुत ज़रूरी और न टालने वाला हो.

·       हरेक पुलिस स्टेशन के गलियारे, कमरे, और लॉक-अप में घुमावदार कैमरों के साथ क्लोज्ड सर्किट टेलीविज़न (सी.सी.टी.वी.) लगायें और उसे चालू बनाये रखें. सी.सी.टी.वी. के टेपों को एक वर्ष के लिए सुरक्षित रखना होगा, और पुलिस स्टेशन के वरिष्ठ अधिकारी, जिसको उसका अधिभार सौंपा गया है, यह सुनिश्चित करेगा कि सी.सी.टी.वी. पूरे समय चालू हालत में हों.

·       हिरासत में मौतों के मामलों में, राज्य सरकार को एक विशेष सरकारी वकील की नियुक्ति करनी चाहिए.

·       यह सुनिश्चित करना कि संदिग्धों को पुलिस स्टेशन के स्तर पर जितना जल्दी हो सके कानूनी सहायता प्राप्त करने के लिए वकील रखने का अधिकार है.

हिरासत की मौतों के बारे में प्रक्रियाएं लागू करें:

·       हिरासत में मौतों के सम्बन्ध में एन.एच.आर.सी. द्वारा संशोधित निर्देशिका को पुलिस नियमों और नियम-पुस्तिका में संहिताबद्ध करें, निर्धारित प्रकियाओं को लागू करें, और उसके अनुरूप पुलिस का प्रशिक्षण करें.  ख़ास तौर पर, हिरासत में किसी भी मौत के बारे एन.एच.आर.सी. और सम्बंधित राज्य मानवाधिकार आयोग को तुरंत सूचित करें.

हिरासत में मौत के सभी मामलों में, तुरंत और बिना किसी अपवाद के मृतक की लाश को पोस्ट-मॉर्टम परीक्षण के लिए भेजें. पोस्ट-मॉर्टम परीक्षण की लिखित प्रतिलिपि मृतक के परिजनों को परीक्षण के 24 घंटों के भीतर दें.

पुलिस के दुर्व्यवहार के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करें:    

·       यह सुनिश्चित करें कि सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों के अनुसार राज्य और जिला, दोनों ही स्तरों पर पुलिस शिकायत प्राधिकार (पीसीए) क्रियाशील हों. पीसीए में नागरिक समाज के प्रतिनिधि शामिल होने चाहिए, और उनमें अपने कार्यभारों की कारगर तरीके से प्रबंधन करने की जरुरी क्षमता होनी चाहिए. यदि पीसीए किसी अफसर के खिलाफ शिकायत कायम रखता है और उस अफसर को आन्तरिक तौर पर अनुशासित न किया गया हो, तो पुलिस को सार्वजनिक तौर पर इसका विस्तृत औचित्य बताना चाहिए.. पीसीए को मिली सभी शिकायतों को अपने आप ही एक स्थानीय अभियोजक को समीक्षा के लिए भेजना होगा.

·       जांच की स्थिति का पता लगाने के लिए हरेक शिकायतकर्ता स्पष्ट निर्देश, सरल प्रपत्र  और एक टेलीफोन संपर्क नंबर देना चाहिए. पीड़ितों और गवाहों तथा दुर्व्यवहार के समय मौजूद अन्य पुलिसकर्मियों के लिए एक शिकायत नंबर जारी करना चाहिए जिस पर वे बिना अपनी पहचन बताये पुलिस दुर्व्यवहार की रिपोर्ट दर्ज करा सकें.

राज्य स्तर पर एक यूनिट की स्थापना करें ताकि जांच की प्रक्रिया के दौरान पुलिस दुर्व्यवहार और हत्याओं के पीड़ितों की कानूनी, सामाजिक, मेडिकल और मनोवैज्ञानिक ज़रूरतों को पूरा किया जा सके.

 बाह्य जवाबदेही तंत्र को मज़बूत करना:

·       यह सुनिश्चित करें कि बाहरी एजेंसीयों जैसे कि राज्य मानवाधिकार आयोगों द्वारा जांच के आदेश को किसी भी परिस्थिति में उसी पुलिस स्टेशन के पुलिसकर्मियों को न सौंपाजाए जो इस शिकायत में संलिप्त हैं.

·       दुर्व्यवहार के आरोपित पुलिस का तबादला करने के चलन पर विराम लगायें; इस प्रथा से केवल अन्य जगह के निवासियों को खतरे में डाला जाता है. हिरासत में मौत के लिए किसी भी प्रथम सूचना रिपोर्ट में जब भी पुलिस अफसरों को चिन्हित किया जाता है, तो वे तब तक निलंबित रखे जायें जब तक कि उस घटना में जांच पूरी और उस मामले का समाधान न हो जाये.

एक मज़बूत आन्तरिक जवाबदेही तंत्र स्थापित करें:

·       राज्य स्तर पर एक स्वतंत्र आन्तरिक मामला या “पेशेवर जिम्मेदारी” इकाई स्थापित करें ताकि हिरासत में यातना और मौत, और सभी पुलिस गोलीकांडों के मामलों में एक वर्ष की अनिवार्य समय-सीमा के भीतर त्वरित और निष्पक्ष जांच हो सके. आन्तरिक जांच को बाह्य सरकारी एजेंसी जैसे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भेजी गई शिकायतों से शुरू करना चाहिए.

·       डी.के.बसु नियमावली और अपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता के समान प्रावधानों के पालन की निगरानी करें. राज्य स्तर पर एक स्वतंत्र आन्तरिक मामला या “पेशेवर जिम्मेदारी” इकाई को अधिकृत करें कि वह पुलिस लॉक-अप की यदा-कदा जांच करे और पुलिस द्वारा डी.के.बसु नियमावली के लगातार और बार-बार उल्लंघनों के आरोपों को देखें.

पुलिस की निगरानी की ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करें:

·       पुलिस अधीक्षकों यह सलाह देते हुए निर्देश जारी करें कि उनके अधीनस्थ पुलिस अफसरों द्वारा दुर्व्यवहार किये जाने को चिन्हित करना, रोकना, और जवाबदेही सुनिश्चित करना, तथा डी.के.बसु नियमावली का पालन और निगरानी करना उनकी जिम्मदारी है.

·       ऐसे वरीय अफसरों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करें या उन पर मुकदमा चलायें, जिन्हें यातना और हत्या के बारे में पता है या जिन्हें इसकी जानकारी होना चाहिए, और जो इसे रोकने में असफल रहे या हैं.

आन्तरिक अनुशासन को मज़बूत करें:

·       पुलिस अनुसाशनहीनता को परिभाषित करने और सजा देने की विस्तृत योजना को स्थापित करना, जैसे कि अनुशासन मैट्रिक्स या तालिका तैयार करना जिसमें सजा की श्रेणी परिभाषित हो जिसके तहत अफसरों को मालूम रहे, कि विभिन्न अपराधों के लिए उन्हें कौन सी सजा हो सकती है, ताकि विभिन्न थानों में अफसरों को अनुशासित करने के तौर-तरीकों में विषमताओं को कम किया जा सके. वर्तमान अनुशासनात्मक कार्रवाई या जांच की सार्वजनिक रिपोर्ट समय-समय पर जारी करते रहना चाहिए.

·       एक नीति निर्धारित कर यह स्पष्ट करना चाहिए कि किसी भी परिस्थिति में कोई भी समीक्षा एजेंसी या अफसर को शिकायतकर्ता को मना करने और डराने-धमकाने का प्रयास नहीं करना चाहिए, और जो ऐसा करते हैं उन्हें अनुसशानात्मक या अपराधिक दंड का सामना करना होगा.

·       पुलिस सुधार पर पद्मनाभन समिति की सन 2000 में दी गयी सिफारिशों के अनुरूप जांच अफसरों (उप-निरीक्षकों) के पदों की संख्या में बढ़ोत्तरी करें. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रकाश सिंह के केस में दिए गए निर्देशों का पालन करें और पुलिस के अंतर्गत जांच तथा कानून व्यवस्था के कार्यों को अलग-अलग कर दें और इसके लिए जांच कार्यों हेतु पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित अफसरों को तैनात करें.

वैज्ञानिक जांच पद्धति का प्रशिक्षण प्रदान करें

·       पुलिस एकेडमी में जांच अधिकारी का पाठ्यक्रम लागू करें. फोरेंसिक विज्ञान में प्रशिक्षित अनुदेशकों को आकर्षित करने के लिए कदम उठायें.

संदिग्ध और गवाहों से पूछ-ताछ और साक्षात्कार के लिए आधुनिक, बिना जोर-जबरदस्ती वाली तकनीक के बारे में जांच अधिकारीयों को प्रशिक्षित करें.

·       लागू होने वाले कानूनों और पुलिस के क़ानूनी कर्तव्यों के बारे में निर्देशों में वृद्धि करते हुए पुलिस एकेडमी में कांस्टेबलों के पाठ्यक्रम में सुधार करें. प्रशिक्षण में फॉरेंसिक विज्ञान का परिचय शामिल करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे भौतिक सबूत जमा करने और उसे सुरक्षित रखने में जांच अधिकारियों को सहयोग दे सकें.

हिरासत में हत्या के शिकार परिवारों और गवाहों की सुरक्षा दें

·       हिरासत में हत्याओं के पीड़ितों के परिजनों और गवाहों को किसी भी तरह से डराने-धमकाने, बलप्रयोग, प्रलोभन, हिंसा या हिंसा की धमकी से सुरक्षा की व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए.

·       जांच अधिकारी और हर पुलिस थाने में प्रभारी अफसर को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पीड़ितों के परिजनों और गवाहों द्वारा किसी भी तरह के डराने-धमकाने, बलप्रयोग, प्रलोभन, हिंसा या हिंसा की धमकी के बारे में शिकायतों को दर्ज किया जाए, चाहें वे मौखिक या लिखित में हो. शिकायतकर्ता को तत्काल प्रथम सूचना रिपोर्ट की फोटोकॉपी मुफ्त में उपलब्ध करानी चाहिए. 

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के लिए

·       पुलिस हिरासत में यातना को रोकने के लिए निर्देशिका जारी करें जो राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थानों के एशिया-पैसिफिक फोरम द्वारा विकसित न्यूनतम पूछ-ताछ मापदंडो पर आधारित हो.

·       हिरासत में यातना और मुठभेड़ों में मौतों पर निर्देशिका के लागू किये जाने पर निगरानी रखें.

·       स्पष्टीकरण दें कि पुलिस हिरासत में सभी मौतों की जांच एक न्यायिक दंडाधिकारी द्वारा करानी चाहिए जैसा कि अपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 176 (1अ) में प्रावधान है.

·       यह सुनिश्चित करना कि हिरासत में हुई हिंसा के हरेक मामले में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकार या राज्य विधिक सेवा प्राधिकार सहयोग करे. जिला और ब्लाक स्तर के कानूनी सेवा अधिकारी को हिरासत में मौत के हर मामले को देखना चाहिए, और मृतक परिवार की तरफ से तथ्यों का पता लगाने के लिए जांच करनी चाहिए. जांच की एक रिपोर्ट एन.एच.आर.सी. को और जिला के पुलिस शिकायत अधिकारी को प्रेषित करना चाहिए जहाँ जिला में ऐसा पद मौजूद है.

·       एन.एच.आर.सी. में दायर किये गए मामलों को राज्य मानवाधिकार आयोगों को हस्तांतरित करने के चलन को बंद करना चाहिए, जब तक कि इसके लिए शिकायतकर्ता ने अनुमति न दी हो, क्यूंकि हो सकता है कि एन.एच.आर.सी. में सुनवाई अधिक निष्पक्ष तरीके से हो.

·       एक जैसे मामलों के लिए कई शिकायतें दर्ज करने के चलन को भी समाप्त करें. हिरासत में हुई हिंसा और मौत के एक ही मामले की सभी शिकायतों को एक साथ जोड़ देना चाहिए, और उनका समान क्रमांक होना चाहिए ताकि उसकी वर्तमान स्थिति का पता आसानी से लगाया जा सके.

·       अधिकारों के हनन के पीड़ितों को अंतरिम मुआवजा देने के आदेश के बाद जांच को बंद करने के चलन को समाप्त करना चाहिए.

·       जांच के दौरान पुलिस हिंसा के पीड़ितों और उनके परिजनों की कानूनी, सामाजिक, चिकित्सीय और मनोवैज्ञानिक ज़रूरतों को ध्यान में रखना चाहिए.

·       फील्ड ऑफिस की स्थापना या एन.एच.आर.सी. के स्टाफ को राज्य मानवाधिकार आयोग के दफ्तरों में या उसके नज़दीक नियुक्त करने पर विचार करें ताकि एन.एच.आर.सी. की पहुँच को प्रभावित समुदायों के लिए और भी अधिक सुगम बनाया जा सके. 

अपने स्टाफ को प्रासंगिक अपराधिक प्रक्रिया के कानून और मानवाधिकारों के कानूनी मापदंडो के सम्बन्ध में प्रशिक्षण करें.

·       हिरासत में हुई मौतों के मामलों में स्वतंत्र जांच करें न कि दंडाधिकारी और पुलिस की जांच रिपोर्ट्स पर अधिक निर्भर करें.

·       सन 2011 से प्रकाशित सभी वार्षिक रिपोर्ट्स को सार्वजनिक करें. भविष्य में रिपोर्ट को उनके तैयार होने के एक वर्ष के भीतर सार्वजनिक करें.

राज्य मानवाधिकार आयोगों के लिए

·       पुलिस पर निगरानी हेतु एक यूनिट का गठन करें जो पुलिस थानों का भ्रमण कर लगातार होने वाले हनन की शिकायतों पर कार्रवाई करने के लिए अधिकृत हों.

·       प्राप्त और लंबित शिकायतों, की गई कार्रवाइयों और अन्य रिपोर्ट्स की संख्या के बारे में वार्षिक तौर पर सूचना सार्वजनिक करें.

·       शिकायतकर्ताओं को उनकी शिकायत के जवाब में पुलिस की प्रतिक्रिया की प्रतिलिपि उपलब्ध कराएँ और शिकायतकर्ताओं को उसके जवाब में प्रतिक्रिया देने का अवसर प्रदान करें.

·       अपने स्टाफ को प्रासंगिक अपराधिक प्रक्रिया के कानून और मानवाधिकारों के कानूनी मापदंडो के सम्बन्ध में प्रशिक्षण दें.

कानूनी सेवा अधिकारियों के लिए

·       उन सभी मामलों में जहाँ प्रतिवादी हिरासत में दुर्व्यवहार का आरोप लगाता है, उन सभी प्रतिवादियों और उनके परिजनों की सहायता के लिए एक अपराधिक वकील नियुक्त करें. जो कानूनी सलाहकार राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकार या राज्य विधिक सेवा प्राधिकार द्वारा नियुक्त किया जाता है वह एन.एच.आर.सी. के साथ संपर्क-सूत्र का काम कर सकता है ताकि मामलों के अद्यतन स्थिति की जानकारी दी जा सके.

·       पुलिस हिरासत में लोगों को तुरंत कानूनी सेवा सुनिश्चित करने के लिए निर्देशिका जारी करें.

विदेशी सरकारों और दानदाताओं के लिए

·       भारत सरकार से अनुरोध करें कि वह यह सुनिश्चित करे कि सभी व्यक्तियों के साथ पुलिस व्यवहार अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मापदंडो के अनुरूप हो.

·       आतंकवाद विरोधी प्रशिक्षण और सहयोग के वर्तमान कार्यक्रम के साथ-साथ मानवाधिकारों पर विशिष्ट पुलिस प्रशिक्षण को सहयोग दें.

·       मानवाधिकारों की निगरानी कर रहे और पुलिस दुर्व्यवहार के पीड़ितों को सीधी मदद कर रहे भारतीय नागरिक समाज संगठनों को सहयोग बढ़ाये.

·       सन 2017 में भारत में होने वाले सार्वभौमिक सावधिक समीक्षा में यातना के लगातार इस्तेमाल और पुलिस सुधार के अभाव के मुद्दों को उठायें.

·       भारत को प्रोत्साहित करें कि वह यातना और अन्य क्रूरता, अमानवीय या निकृष्ट व्यवहार या सजा पर संयक्त राष्ट्र के विशेष रिपोर्टर को तथ्य अन्वेषण यात्रा के लिए निमंत्रण दे.

 

आभार

जयश्री बाजोरिया, ह्यूमन राइट्स वाच के एशिया डिवीज़न की शोध सलाहकार, ने इस रिपोर्ट के लिए शोध किया और इसे तैयार किया. इसका सम्पादन किया है - मीनाक्षी गांगुली, दक्षिण एशिया निदेशक; जेम्स रोस, कानूनी एवं नीति निदेशक; और जोसफ सौन्ड़र्स, उप कार्यक्रम निदेशक. इसके निर्माण में सहयोगी रहे हैं - शायना बकनर, एशिया डिवीज़न एसोसिएट; ओलिविया हंटर, पब्लिकेशन एंड फोटोग्राफी एसोसिएट; फित्जरॉय हेप्किंस, एडमिनिस्ट्रेटिव मैनेजर  और जोस मार्तिनेज़, सीनियर पब्लिकेशन कोऑर्डिनेटर.

ह्यूमन राइट्स वाच तमाम भारतीय अधिकार कार्यकर्ताओं और संगठनों का आभार प्रकट करता है जिन्होंने इसमें बहूमूल्य सहयोग दिया. इनमें शामिल हैं: कामनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव, नई दिल्ली की माया दारूवाला, वेंकटेश नायक और उनकी टीम के सदस्य;  बांग्लार मानबाधिकार सुरक्षा मंच (मासूम), पश्चिम बंगाल के कीर्ति रॉय, बिप्लब मुख़र्जी, सुभाशीष दत्त और टीम; पीपुल्स वाच, मदुरै के हेनरी टिफेन, मैथ्यू जैकब, पलनि अम्मल, राजवेलू और टीम;  पीपुल्स विजिलेंस कमिटी ऑन ह्यूमन राइट्स, वाराणसी के लेलिन रघुवंशी, श्रुति रघुवंशी, अनूप श्रीवास्तव और टीम; सिविल लिबर्टीज मोनिटरिंग समिति, हैदराबाद के लतीफ़ मोहम्मद खान और कनीज़ फातिमा. इसके अलावा हम त्रिदीप पाइस, मिहिर देसाई, युग मोहित चौधरी, जवाहर राजा, एम.ए. शकील जैसे वकीलों तथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व-सदस्य सत्यव्रत पाल का भी उनके बहुमूल्य मार्गदर्शन के लिए आभार प्रकट करते हैं.

सबसे अहम्, हम सभी पीड़ितों के परिजनों और मित्र गणों का आभार प्रकट करना चाहेंगे जिन्होंने अपनी आप-बीती हमें सुनाई.

 

 

[1] ह्यूमन राइट्स वाच, ब्रोकन सिस्टम: डिसफंक्शन, एब्यूज, एंड इम्पुनिटी इन द इंडियन पुलिस, अगस्त 2008, https://www.hrw.org/report/2009/08/04/broken-system/dysfunction-abuse-and-impunity-indian-police.

[2] उत्तर प्रदेश में वाराणसी जिला के एक पुलिस सब-इंस्पेक्टर के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार, 20 अगस्त, 2015.

[3] क्राइम इन इंडिया, २०१५, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो, गृह मंत्रालय, भरता सरकार.  http://ncrb.gov.in/ (१० सितम्बर, २०१६ को देखा गया); क्राइम इन इंडिया, २०१४ http://ncrb.nic.in/StatPublications/CII/CII2014/cii2014.asp (२३ अप्रैल, २०१६ को देखा गया); क्राइम इन इंडिया, २०१३ http://ncrb.nic.in/StatPublications/CII/CII2013/compendium%202013 _NEW.pdf  (२३ अप्रैल, २०१६ को देखा गया); क्राइम इन इंडिया, २०१० http://ncrb.nic.in/StatPublications/CII/cii2010/Compendium 2010.pdf (२३ अप्रैल, २०१६ को देखा गया);

[4] नित्या रामकृष्णन, इन कस्टडी: लॉ, इम्पुनिटी एंड प्रिजनर एब्यूज इन साउथ एशिया (नयी दिल्ली, सेज प्रकाशन और साउथ एशियन फॉर ह्यूमन राइट्स, 2013)

[5] फ्रांसिस करली मुलीन बनाम यूनियन टेरिटरी ऑफ़ देल्ही, सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया, AIR 746, SCR (2) 516, 1981, http://indiankanoon.org/doc/78536/ (१२ अगस्त, २०१५ को देखा गया).

[6] एक ऐसा ही ऐतिहासिक फैसला 1997 में डी.के.बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य का है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने हिरासत में यातना के प्रचालन को स्वीकार किया है: अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मानवाधिकारों का सबसे खराब हनन जांच के दौरान होता है, जब पुलिस या तो सबूत जमा करने या जुर्म कबूल करवाने के लिए थर्ड-डिग्री हथकंडों को अपनाती है, जिसमें यातना शामिल है. डी.के.बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 1 एससीसी 416, 1997.

[7] अपराधिक दण्ड संहिता, 1973 की धारा 41 जिसमें बिना वारंट के गिरफ्तारी का उल्लेख है, को 2009 के अधिनियम 5 द्वारा संशोधित किया गया; और इनमें निम्न धाराओं को जोड़ा गया - धारा 41क - पुलिस अधिकारी के समक्ष पेश होने की सूचना, 41ख - गिरफ्तारी की प्रक्रिया तथा गिरफ्तार करने वाले अधिकारी के कर्तव्य, 41ग - जिला नियंत्रण कक्ष, 41घ - पूछ-ताछ के दौरान गिरफ्तार व्यक्ति का अपने पसंद के अधिवक्ता से मिलने का अधिकार. गिरफ्तारी कैसे की जाएगी से सम्बंधित धारा 46 को पहले 2005 के अधिनियम 25 और फिर 2009 के अधिनियम 5 के द्वारा संशोधित किया गया है; गिरफ्तारी करने वाले व्यक्ति की, गिरफ्तारी आदि के बारे में, नामित व्यक्ति को जानकारी देने की बाध्यता से सम्बंधित धारा 50क को 2005 के अधिनियम 25 द्वारा जोड़ा गया था; पुलिस अधिकारी के आग्रह  प्रार्थना पर मेडिकल प्रैक्टिशनर द्वारा अभियुक्त की परीक्षा से सम्बंधित धारा 53 को 2005 के अधिनियम 25 द्वारा संसोधित किया गया था; बलात्कार के आरोपी व्यक्ति की मेडिकल प्रैक्टिशनर द्वारा परीक्षा से सम्बंधित धारा 532005 के को अधिनियम 25 द्वारा जोड़ा गया था; चिकित्सा अधिकारी द्वारा गिरफ्तार व्यक्ति का परिक्षण से सम्बंधित धारा 54 को 2009 के अधिनियम 5 द्वारा संशोधित किया गया था; गिरफ्तार व्यक्ति का स्वास्थ्य तथा सुरक्षा से सम्बंधित धारा 55क को 2009 के अधिनियम 5 द्वारा जोड़ा गया था; धारा 60 कि कोई भी गिरफ्तारी अपराधिक दंड संहिता के प्रावधानों के बिल्कुल अनुरूप होनी चाहिए, को 2009 के अधिनियम 5 द्वारा जोड़ा गया था; बलात्कार पीड़ित व्यक्ति की चिकित्सा परीक्षा से सम्बंधित धारा 164क को 2005 के अधिनियम 25 द्वारा जोड़ा गया था; और हिरासत में मौत की मजिस्ट्रेट द्वारा जाँच से सम्बंधित धारा 176(1क) को 2005 के अधिनियम 25 द्वारा संसोधित किया गया था.

[8] मंदीप तिवाना, ह्यूमन राइट्स एंड पुलिसिंग: लैंडमार्क सुप्रीम कोर्ट डारेक्टिव्स एंड नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन गाइडलाइन्स (न्यू डेल्ही: कामनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव, अप्रैल 2005) http://www.humanrightsinitiative.org/publications/hrc/humanrights _policing.pdf (2 फरवरी, 2016 को इस लिंक को देखा गया)

[9] सिविल व राजनातिक अधिकारों पर अन्तराष्ट्रीय संधि (ICCPR)) G.A. res. 2200A (XXI), 21 U.N. GAOR Supp. (No. 16) at 52, U.N. Doc. A/6316 (1966), 999 U.N.T.S. 171 23 मार्च 1976 से लागु हुआ, अनुच्छेद 3, 7. यातना और अन्य क्रूरता, अमानवीय और निकृष्ट व्यवहारों या सजा के खिलाफ सम्मलेन (यातना के खिलाफ कन्वेंशन) को 10 दिसम्बर, 1984 में अपनाया गया था, G.A. res. 39/46, annex, 39 U.N. GAOR Supp. (No. 51) at 197, U.N. Doc. A/39/51 (1984) 26 जून 1987 में लागु हुआ था, अनुच्छेद 1. भारत यातना के विरुद्ध सम्मलेन में हस्ताक्षरकर्ता नहीं है और इस वजह से भारत कानूनी तौर पर संधि के प्रावधानों को लागु करने के लिए बाध्य नहीं है लेकिन वो उसके उद्देश्य और लक्ष्य को विफल करने के लिए कार्य नहीं कर सकता है. कानून पर संधियों की विएना सम्मलेन जो 23 मई 1969 को संपन्न हुई, 1155 U.N.T.S. 331, 27 जनवरी 1980 से लागु हुई थी, अनुच्छेद 18.

[10]  बलपूर्वक लापता होने से सभी लोगों को सुरक्षा पर अन्तराष्ट्रीय सम्मलेन (International Convention for the Protection of All Persons from Enforced Disappearance, E/CN.4/2005/WG.22/WP.1/Rev.4 (2005). भारत ने इस पर सन 2007 में हस्ताक्षर किये. अन्तराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून गिरफ्तारी और हिरासत को स्वतंत्रता के हनन के रूप में परिभाषित करता है और जो कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रियाओं के अनुकूल नहीं हैं और जिनमे अनुचित कार्य, अन्याय और सुनिश्चित्तता का अभाव है. मनमाने तौर से आजादी से किसी को वंचित करना “गैरकानूनी” तौर से वंचित करने से भी व्यापक है, और इनमें किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करना और हिरासत में लेना भी शामिल है जो अपने अभिव्यक्ति की आजादी, संगठन बनाने और शांतिपूर्ण तरीके से जमा होने के अधिकार के लिए संघर्षरत है. देखें आई.सी.सी.पी.आर. अनुच्छेद ९(१); एस. जोसफ एंड एम्.कस्तान, नागरिक और राजनैतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन (ऑक्सफ़ोर्ड: ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, ३डी ई.डी. २०१३) सेक्टिओंस ११.११ तो ११.१५.

[11] जनवरी से और अगस्त २००८ के बीच, द नेशनल प्रोजेक्ट ऑन प्रेवेन्टिंग टार्चर इन इंडिया, ने नौ राज्यों के ४७ जिलों में पुलिस यातना के ६,०६३ मामलों का दस्तावेजीकरण किया. पीपल्स वाच, “टार्चर एंड इम्पुनिटी इन इंडिया”. नवम्बर २००८, http://www.pwtn.org/tortureandimpunitybook.htm (१५ जुलाई २००९ को देखा गया). कई रिपोर्ट्स में, द एशियाई सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स ने पुलिस द्वारा यातना के तरीकों की जांच की है, जिनमें उन्होंने जिन मामलों का दस्तावेजीकरण किया है उन पर चर्चा की है और यातना पर मीडिया रिपोर्ट्स का भी विश्लेषण किया है. देखिये ए.सी.एच.आर., टार्चर इन इंडिया २००९ (नयी दिल्ली: ए.सी.एच.आर, जून २००९); ए.सी.एच.आर., टार्चर इन इंडिया २००८  (नयी दिल्ली: ए.सी.एच.आर, जून २००८); ए.सी.एच.आर., इंडियन ह्यूमन राइट्स रिपोर्ट २००९ (नयी दिल्ली: ए.सी.एच.आर, मई २००९); ए.सी.एच.आर. एक्शनस अगेंस्ट टार्चर एंड अदर फॉर्म्स ऑफ़ ह्यूमन राइट्स वाॅयलेशन इन इंडिया (नयी दिल्ली: ए.सी.एच.आर,२००९), सभी रिपोर्ट्स मिलने का स्त्रोत: http://www.achrweb.org/ (१५ जुलाई, २००९ को देखा गया).

[12] दलबीर सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य, भारत का सर्वोच्च न्यायालय, डब्लू.पी. (क्रिमिनल) न. १९३ / २००६, ने २ मार्च २००९ में यह फैसला दिया: पारा ८-९. न्यायालय ने टिप्पणी की है कि डी.के.बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य में गिरफ्तारी और हिरासत के लिए जो प्रक्रिया संबंधी बचाव के उपाय स्थापित किया गए हैं उनसे “हिरासत में व्यक्तियों से बर्ताव करने में अमानवीय दृष्टिकोण के प्रति व्यवहार में कतई भी नरमी नहीं नज़र आती है.”

[13] उदाहरण के लिए देंखे, साना शकील, “8,500 सैम्पल्स पेंडिंग, फॉरेंसिक लैब्स टेस्ट कॉप्स पेशेंस”, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, ३ फरवरी २०१६, http://timesofindia.indiatimes.com/city/delhi/8500-samples-pending-forensic-labs-test-cops-patience/articleshow/ 50827632.cms(६ फ़रवरी, २०१६ को देखा गया)

[14] ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार, एन.रामचंद्रन के साथ, अध्यक्ष, इंडियन पुलिस फाउंडेशन, नयी दिल्ली, १६ दिसम्बर, २०१५ को

[15] पद्मनाभैया, पुलिस सुधार पर समिति, अक्टूबर २०००. अभी हाल ही में, एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स ने अपराधिक संदिग्धों से जुर्म कबूल करवाने के लिए पुलिस यातना के अनेक मामलों का दस्तावेजीकरण किया है. देखें ए.सी.एच.आर., टार्चर इन इंडिया २००९, पृष्ट २९-३२; ए.सी.एच.आर., टार्चर इन इंडिया २००८, पृष्ट ११६.

[16] भारतीय दंड संहिता (आई.पी.सी.), १८६०, धारा ३३०,http://indiankanoon.org/doc/2858386/.

[17]आई.पी.सी. धारा ३३१, http://indiankanoon.org/doc/1135572/.

[18] आई.पी.सी. धारा १६६,http://indiankanoon.org/doc/570574/.

[19] देखें राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड्स ब्यूरो, क्राइम इन इंडिया: २०१४; क्राइम इन इंडिया: २०१३; क्राइम इन इंडिया: २०१०

[20] भारत का विधि आयोग, ११३वीं रिपोर्ट पुलिस हिरासत में चोंटें, २९ जुलाई १९८५, http://lawcommissionofindia.nic.in/101-169/report113.pdf (२५ जून, २०१६ को देखा गया)

[21] डी.के.बासु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, पृष्ठ १४-१५

[22] भारतीय दंड संहिता, धारा २१७, २१८, २१९. इनमें दो से सात वर्षों की कैद के बीच की सजा का प्रावधान है.

[23] ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार: त्रिदीप पैस के साथ, नयी दिल्ली, १ अप्रैल, २०१५ को

[24] अपराधिक दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 176(1) मृत्यु के कारण की मजिस्ट्रेट दवारा जाँच जब मामला धारा 174 की उपधारा(3) के खंड (i) या खंड (ii) में निर्दिष्ट प्रकृति का है तब मृत्यु के कारण की जाँच, पुलिस अधिकारी दवारा किये जाने वाले अन्वेषण के बजाय या उसके अतिरिक्त, वह निकटतम मजिस्ट्रेट करेगा जो मृत्यु-समीक्षा करने के लिए सशक्त है और धारा 174 की उपधारा (1) में वर्णित किसी अन्य दशा में इस प्रकार सशक्त किया गया कोई भी मजिस्ट्रेट कर सकेगा, और यदि वह ऐसा करता है तो उसे ऐसी जाँच करने में वे सब शक्तियाँ होंगी जो उसे किसी अपराध की जाँच करने में होती. (1-क) जहाँ –कोई व्यक्ति मर जाता है या गायब हो जाता है; या किसी स्त्री के साथ बलात्कार का आरोप लगता  है, तो उस दशा में जब कि ऐसा व्यक्ति या स्त्री पुलिस अभिरक्षा या संहिता के अधीन मजिस्ट्रेट या न्यायालय दवारा प्राधिकृत किसी अन्य अभिरक्षा में है, वहां पुलिस दवारा की गयी जाँच या किये गए अन्वेषण के अतिरिक्त, यथास्तिथि, ऐसे न्यायिक मजिस्ट्रेट या मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट दवारा, जिसके अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर अपराध किया गया है, जाँच की जाएगी.

(2) ऐसी जाँच करने वाले मजिस्ट्रेट उसके सम्बन्ध में लिए गए साक्ष्य को इसमें इसके पश्चात् विहित किसी प्रकार से, मामले की परिस्तिथियों के अनुसार अभिलिखित करेगा.

(3) जब कभी किसी मजिस्ट्रेट के विचार में यह समीचीन है कि किसी व्यक्ति के, जिसको पहले ही दफना दिया गया है, मृत शरीर की इसलिए परीक्षा की जाए कि उसकी मृत्यु के कारण का पता चले, तब मजिस्ट्रेट उस शरीर को निकलवा सकता है और उसकी परीक्षा करा सकता है. 

(4) जहाँ कोई जाँच इस धारा के अधीन की जानी है, वहां मजिस्ट्रेट, जहाँ कहीं व्यवहारिक है, मृतक के उन नातेदारों को, जिनके नाम और पते ज्ञात हैं, इत्तिला देगा और उन्हें जाँच के समय उपस्थित रहने की अनुमति देगा.

(5) उपधारा (1-) के अधीन, जैसा भी मामला हो, जाँच या अन्वेषण करने वाला न्यायिक मजिस्ट्रेट या मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या कार्यपालिका मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी, किसी व्यक्ति की मृत्यु के चौबीस घंटे के भीतर उसकी शव-परीक्षा किये जाने की दृष्टि से शरीर को निकटतम सिविल सर्जन या अन्य योग्य चिकित्सक को, जो इसके लिए राज्य सरकार दवारा नियुक्त किया गया हो, भेजेगा जब तक कि ऐसा न करने का लिखित कारण न दिया जाये.

[25] दंड प्रक्रिया संहिता की धारा १७६ (१अ) के सम्बन्ध में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा जारी दिशा-निर्देश/स्पष्टीकरण किया, ५ अप्रैल २०१० http://police.puducherry.gov.in/Guidelines%20clarification%20section%20176%20CrPC%20by%20the%20NHRC.pdf (२३ जुलाई, २०१३ को देखा गया).

[26] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, पुलिस कार्रवाई में हुई मौतों के मामले में अनुपालन किये जाने वाले संशोधित दिशा-निर्देश/प्रक्रियाएं, १२ मई, २०१० http://nhrc.nic.in/documents/Death%20During%20the%20course%20of%20Police%20Action.pdf (२३ जुलाई, २०१६ को देखा गया).

[27] ३ जनवरी, २०११, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा सभी गृह सचिवों को लिखा गया पत्र. इस पत्र में हिरासत में मौतों के मामले में भेजी जाने वाली पोस्ट-माॅर्टम रिपोर्ट के लिए निर्देश दिए गए हैं. http://nhrc.nic.in/Documents/PostMortemReportInstructions.pdf (१३ अगस्त, २०१५ को देखा गया)

[28] दंड प्रक्रिया संहिता, धारा १९७: “न्यायधीशों और लोक-सेवकों का अभियोजन – (1) जब किसी व्यक्ति पर, जो न्यायधीश या मजिस्ट्रेट या ऐसा लोक-सेवक है या था जिसे सरकार दवारा या उसकी मंजूरी से ही उसके पद से हटाया जा सकता है, अन्यथा नहीं, किसी ऐसे अपराध का अभियोग है जिसके बारे में यह अभिकथित है कि वह उसके दवारा तब किया गया था जब वह अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर रहा था, तब कोई भी न्यायालय बिना पूर्व अनुमति के ऐसे अपराध का संज्ञान नहीं ले सकता.

[29] सितम्बर 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस मुठभेड़ में जाँच के समय और अधिक जरूरतो को धयान में रखने के लिए दिशानिर्देश जारी किये. दिशानिर्देश में एक प्रावधान है जिसके तहत पुलिस को किसी अपराधी के बारे में प्राप्त ख़ुफ़िया जानकारी को रिकॉर्ड में शामिल करना है. अगर प्राप्त ख़ुफ़िया रिपोर्ट के आधार पर पुलिस अधिकारी शस्त्र ले कर जाता है और किसी व्यक्ति को मार देता है तो उसे प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करनी चाहिए और इसे अविलम्ब कोर्ट को भेज देना चाहिए. इस पर राज्य अपराधिक जाँच विभाग या दूसरे पुलिस थाने की पुलिस के द्वारा एक स्वतन्त्र जाँच होनी चाहिए. पुलिस मुठभेड़ के दौरान हुई मौत के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 176 के तहत मजिस्ट्रेट जाँच के लिए आदेश दिया है और जाँच की रिपोर्ट न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास भेजी जानी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने अंत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के द्वारा दिए गए दिशानिर्देशो का हवाला दिया और कहा कि जो पुलिस अधिकारी ऐसे मामलों में आरोपी होते हैं उनकी विशेष पदोन्नति नहीं होनी चाहिए और उन्हें वीरता पुरस्कार भी नहीं देना चाहिए. People’s Union for Civil Liberties and Anr. v. State of Maharashtra and Ors., Supreme Court of India, Criminal Appeal no. 1255 of 1999, September 23, 2014, http://supremecourtofindia.nic.in/outtoday/ar12551999.pdf (15 अगस्त 2015 को दस्तावेज़ देखा गया.)

[30] इस प्रकरण में और अधिक जानकारी के लिए, देखें अध्याय I और II

[31] रेबेका समेर्वाल, “पुलिस प्रोब इन कस्टडी डेथ नोट डन विथ केयर”, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, ७ फ़रवरी, २०१६, http://timesofindia.indiatimes.com/city/mumbai/Police-probe-in-custody-death-not-done-with-care/articleshow/50884004.cms ( ११ फ़रवरी, २०१६ को देखा गया)

[32] लियोनार्ड ज़ेवियर वल्दारिस एवं अन्य बनाम प्रभारी अफसर, वडाला रेलवे पुलिस स्टेशन, मुंबई एवं अन्य, बॉम्बे उच्च न्यायालय, अपराधिक रिट याचिका २०१४ का २११०, अगस्त १३, २०१४: न्यायालय ने पुलिस को निर्देश दिया कि गिरफ्तारी और हिरासत सम्बंधित सभी वर्तमान कानूनों और दिशा-निर्देशों का सख्ती से पालन करें. उसने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वे तत्काल प्रभाव से क्लोज्ड सर्किट टेलीविज़न (सी.सी.टी.वी.) जिसमें घुमावदार कैमरा लगे हों, पुलिस स्टेशन के सभी गलियारों में, कमरों और लॉक-अप में लगायें. सी.सी.टी.वी. टेप्स को एक वर्ष के लिए सुरक्षित रखा जायेगा, और उस पुलिस स्टेशन के प्रभारी अफसर की यह जिम्मेदारी होगी कि वह यह सुनिश्चित करे कि वे सभी समय चालू रहें. न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर गिरफ्तार व्यक्ति को पुलिस हिरासत में किसी भी तरह की चोट आती है, तो उसे तत्काल पास के अस्पताल ले जाया जायेगा, और उसे सबसे बेहतर मेडिकल सेवा दी जाएगी जो उसके जीवन को बचा सकता है और उसे स्वस्थ कर सकता है. न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि पुलिस हिरासत में यदि किसी व्यक्ति को चोट लगती है तो उसकी फोटोग्राफ्स ली जानी चाहिए. और, न्यायालय हिरासत में मौतों के मामलों की उच्च प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई करेंगे, और राज्य सरकार ऐसे सभी मामलों में एक विशेष सरकारी वकील नियुक्त करेगी जिन्हें एक महिला सरकारी वकील सहयोग करेगी.

[33] लियोनार्ड ज़ेवियर वल्दारिस एवं अन्य बनाम वडाला रेलवे पुलिस स्टेशन के प्रभारी अफसर, मुंबई एवं अन्य.

[34] मुस्तफा प्लम्बर, “पैनल ने हिरासत में मौतों को रोकने के लिए ४३ कदम सुझाएँ हैं” डी.एन.ए. २० अप्रैल, २०१६  http://www.dnaindia.com/mumbai/report-panel-suggests-43-steps-to-prevent-custodial-deaths-2203954, (१० जून, २०१६ को देखा गया).

[35] मानवाधिकार संरक्षण कानून, १९९३, जिसे मानवाधिकार संरक्षण संशोधित कानून २००६ के जरिय संशोधित किया गया, क्रमांक. ४३/२००६ http://nhrc.nic.in/Documents/Publications/TheProtectionofHumanRightsAct1993_Eng.pdf (नवम्बर 30, 2015 को देखा गया).

[36] गिरफ्तारी सम्बंधित राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के निर्देश, २२ नवम्बर, १९९९. http://nhrc.nic.in/Documents/sec-3.pdf (अगस्त 13, 2015 को देखा गया).

[37] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की ओर से सभी मुख्य सचिवों को जारी पत्र जो २४ घंटों के भीतर हिरासत में मौंतों की रिपोर्ट भेजने से सम्बंधित है, १४ दिसम्बर, १९९३.http://nhrc.nic.in/Documents/sec-1.pdf (30 नवम्बर, 2015 को देखा गया).

[38] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की ओर से सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को जारी पत्र जो हिरासत में मौतों के मामलों में पोस्ट- माॅर्टम परीक्षण के विडियोग्राफी से सम्बंधित है, १० अगस्त, १९९५. http://nhrc.nic.in/Documents/sec-1.pdf (नवम्बर 30, 2015 को देखा).

[39] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की ओर से मुख्यमंत्रियों/राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासकों को जारी एक पत्र में आग्रह किया गया है कि मॉडल शव-परीक्षण प्रपत्र और तहकीकात की अतिरिक्त प्रक्रियाओं को अपनाए, २७ मार्च, १९९७. http://nhrc.nic.in/Documents/sec-1.pdf ( नवम्बर 30, 2015 को देखा).

[40] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, नयी दिल्ली के एक अधिकारी का ह्यूमन राइट्स वाच द्वारा किया गया साक्षात्कार, १० फ़रवरी, २०१६. 

[41] ह्यूमन राइट्स वाच, ब्रोकन सिस्टम, पृष्ठ १०५-१०६

[42] वी. वेंकेटेसन, “ए कमीशन इन लीम्बो,” फ्रंटलाइन, वॉल्यूम २० – इश्यू ०३, ०१-१४ फरवरी, २००३ http://www.frontline.in/static/html/fl2003/stories/20030214005312100.htm (दिसम्बर 1, 2015 को देखा).

[43] राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार संस्थानों के साथ काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों और व्यक्तियों का अखिल-भारतीय नेट-वर्क: “राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा पेरिस सिधान्तों का अनुसरण करने पर एक एनजीओ रिपोर्ट”, जनवरी २०११ http://www.peopleswatch.org/dmdocuments/HRD/NGO%20Report_Paris%20Principles_NHRC_India.pdf (1 दिसम्बर, 2015 को देखा गया).

[44] प्रकाश सिंह बनाम भारतीय संघ, भारत का सर्वोच्च न्यायालय, ८ एस.सी.सी. १, २००६ http://indiankanoon.org/doc/1090328/ (13 अगस्स्त, 2015 को देखा गया).

[45] सन १९७९ और १९८१ के बीच राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने कुल आठ रिपोर्ट्स प्रकाशित की थीं. देखें ब्यूरो ऑफ़ रिसर्च एंड डेवलपमेंट, राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट्स, http://www.bprd.gov.in/index1.asp?linkid=281 (13 अगस्त, 2015 को देखा गया).

[46] कामनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव, “सेवेन स्टेप्स टू पुलिस रिफॉर्म्स,” सितम्बर २०१०.http://www.humanrightsinitiative.org/programs/aj/police/india/initiatives/seven_steps_to_police_reform.pdf (14 अगस्त, 2015 को देखा गया).

[47] सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित न्यायमूर्ति के.टी.थॉमस समिति की अंतिम रिपोर्ट, अगस्त २०१०. http://www.peoplepolicemovement.com/commitee.html (14 अगस्त, 2015 को देखा गया).

[48] प्रकाश सिंह बनाम भारतीय संघ

[49]पुलिस सुधारों का क्या हुआ? सर्वोच्च न्यायालय ने सभी सरकारों को रिपोर्ट फाइल करने को कहा”, प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया, मार्च ११, २०१३. http://www.telegraphindia.com/1130311/jsp/frontpage/story_16658709.jsp (14 अगस्त, 2015 को देखा गया).

[50] प्रकाश सिंह, क्या सर्वोच्च न्यायालय पुलिस सुधार सम्बन्धी अपने फैसलों के साथ राज्यों को खिलवाड़ करते हुए असहाय होकर देखता रहेगा?” न्यू इंडियन एक्सप्रेस, मार्च १४, २०१५ http://www.newindianexpress.com/magazine/voices/Will-SC-Watch-Helplessly-as-States-Trifle-with-its-Police-Reforms-Ruling/2015/03/14/article2710492.ece (14 अगस्त, 2015 में देखा गया).

[51] कामनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव, “पुलिस कम्प्लैंट्स अथॉरिटीज इन इंडिया: ए रैपिड स्टडी”, दिसम्बर २०१२. http://www.humanrightsinitiative.org/publications/police/PCA_Rapid_Study_December_2012_FINAL.pdf (अगस्त 14, 2015 को देखा गया).

[52] कामनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव, “स्टेट सिक्यूरिटी कमीशंस: ब्रिंगिंग लिटिल तो द टेबल”. अगस्त २०१४ http://www.humanrightsinitiative.org/programs/Report2014/CHRI_Report2014%20.pdf (अगस्त 14, 2015 को देखा गया).

[53] प्रिवेंशन ऑफ़ टार्चर बिल, २०१० का क्रमांक ५८.http://www.prsindia.org/uploads/media/Torture/ prevention%20of%20torture%20bill%202010.pdf  (अगस्त 14, 2015 को देखा गया).

[54] बिल के पूरे विश्लेषण के लिए देखिये पी.आर.एस. लेजिस्लेटिव रिसर्च, जून २९, २०१०. http://www.prsindia.org/ uploads/media/Torture/Corrected%20Brief%20-%20Prevention%20of%20Torture%20Bill%202010_ab_3[1].9.10.pdf (अगस्त 15, 2015 को देखा गया).

[55] यातना की रोकथाम के लिए बिल, २०१० पर प्रवर समिति की रिपोर्ट, दिसम्बर ६, २०१० को राज्य सभा को पेश किया गया http://www.prsindia.org/uploads/media/Torture/Select%20Committee%20Report%20Prevention%20of%20Torture%20Bill%202010.pdf (अगस्त 15, 2015 को देखा गया)साथ ही देखें: पी.आर.एस. समिति की सिफारिशों का सारांश http://www.prsindia.org/ uploads/media/Prevention%20of%20Torture%20Bill%202010%20Standing%20Committee%20Summary%20Report%20Summary.pdf (अगस्त 15, 2015 को देखा गया).

[56] राज्य सभा में तारांकित प्रश्न क्रमांक १८५ के जवाब में भारत सरकार के गृह मंत्रालय का बयान; ११ मई, २०१६. http://mha1.nic.in/par2013/par2016-pdfs/rs-110516/185E.pdf (सितम्बर 22, 2016 को देखा गया).

[57] गिरफ़्तारी से सम्बंधित राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दिशा-निर्देश; CrPC. 418(a), http://policewb.gov.in/wbp/ misc/act/Amendment-Act-2008.pdf (accessed August 15, 2015).

[58] डी.के. बसु, CrPC sec. 41B (b), http://policewb.gov.in/wbp/misc/act/Amendment-Act-2008.pdf (अगस्त 15, 2015 को देखा गया).

[59] डी.के. बासु, CrPC sec. 41B (b), http://policewb.gov.in/wbp/misc/act/Amendment-Act-2008.pdf (अगस्त 15, 2015 को देखा गया).

[60] 28 अप्रैल, 2015 को ह्यूमन राइट्स वाच के साथ भानुमल, मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल का साक्षात्कार.

[61] सूचना के अधिकार के तहत दिए गए एक आवेदन पर आसनसोल-दुर्गापुर (पूर्व) के अतिरिक्त पुलिस आयुक्त के दवारा लिखा गया पत्र, 12 अक्टूबर, 2016, ह्यूमन राइट्स वाच के फाईल की प्रति

[62] सिविक पुलिस वालंटियर फ़ोर्स राज्य सरकार द्वारा बनाया गया है. यह ऐसे युवाओं को लेकर बना है जो यातायात प्रबंधन और सामान्य कानून व्यवस्था को बनाये रखने में पुलिस की नियमित रूप से मदद करते हैं.

[63] 28 अप्रैल, 2015 को ह्यूमन राइट्स वाच  के साथ भानुमल का साक्षात्कार.

[64] 2013 की न्यायिक जाँच की प्रक्रिया क्रमांक 1, अतिरिक्त मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के न्यायलय में, दुर्गापुर, जुलाई 2013. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल में कार्यवाही की प्रति.

[65] पूर्वोक्त.

[66] 2013 में दुर्गापुर मुख्य न्याययिक दंडाधिकारी के न्यायलय में न्यायिक कार्यवाही क्रमांक 1 के सम्बन्ध में पीड़ित परिवार की और से 3 जुलाई, 2013 को अधिवक्ता जे.एन. सिन्हा द्वारा राहुल कुमार बरुआ के साथ जिरह किया गया. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल में कार्यवाही की प्रति.

[67] पुलिस उपायुक्त (पूर्व), आसनसोल-दुर्गापुर पुलिस आयुक्त कार्यालय द्वारा उप पुलिस आयुक्त (मुख्यालय), 7 दिसंबर, 2012 को उत्तम मल की मौत सम्बन्धी भेजी गयी जांच रपट, ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल में कार्यवाही की प्रति.

[68] 28 अप्रैल, 2015 को मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल के दिलीप दासगुप्ता के साथ ह्यूमन राइट्स वॉच का साक्षात्कार

[69] 28 अप्रैल, 2015 को मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल के भानुमल के साथ ह्यूमन राइट्स वॉच का साक्षात्कार.

[70] 12 जून 2015 को हैदराबाद, तेलंगाना के बी. सदानंद के साथ ह्यूमन राइट्स वॉच का साक्षात्कार.

[71] पूर्वोक्त.

[72] पूर्वोक्त

[73] 6 अगस्त, 2009, न्यू इंडियन एक्सप्रेस हिरासत के मृत्यु के मामले में दो पुलिसवालों को निष्कासित किया गया http://www.newindianexpress.com/cities/hyderabad/article66436.ece  (15 जून, 2015 को देखा गया).

[74] पूर्वोक्त

[75] भारतीय संविधान, अनुच्छेद 22; दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 50.

[76] 5 अप्रैल, 2010 को सेंथिल कुमार के ख़िलाफ़ प्रथम सुचना रिपोर्ट, ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[77] 30 मई, 2015 को तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले के वडामदुरई के शशि कुमार का ह्यूमन राइट्स वाच के साथ साक्षात्कार.

[78] पूर्वोक्त

[79] प्रथम सुचना रिपोर्ट, 5 अप्रैल, 2010, ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[80] राजस्व अनुमंडल पदाधिकारी द्वारा प्रस्तुत जाँच रिपोट, 24 अप्रैल, 2010, ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[81] नुरुल इतवारी शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य एवम अन्य, मुंबई उच्च न्यायलय, Crl. W.P. No. 4476 of 2012.

[82] नुरुल इतवारी शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य एवंअन्य.

[83] पूर्वोक्त.

[84] बॉम्बे उच्च न्यायालय में Crl. W. P. No. 4476 of 2012 का अभय भोईर द्वारा जमा किया गया हलफनामा. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[85] पूर्वोक्त

[86] 29 अप्रैल, 2015, पश्चिम बंगाल, मुर्शिदाबाद की राजीब मोल्ला की पत्नी रेबा बीबी के साथ ह्यूमन राइट्स वॉच का साक्षात्कार.

[87] पूर्वोक्त.

[88] पूर्वोक्त

[89] 16 फरवरी, 2014 को मुर्शिदाबाद मेडिकल कालेज में किये गए पोस्ट-मॉर्टम की रिपोर्ट, ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[90] 22 अगस्त, 2015, उत्तर प्रदेश, अलीगढ़ के अब्दुल अज़ीज़ के बेटे जमशेद का ह्यूमन राइट्स वॉच के साथ साक्षात्कार.

[91] पूर्वोक्त.

[92] 9 मई, 2011 की पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट, ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[93] लियोनार्ड ज़ेवियर वल्दारिस और अन्य बनाम वडाला रेलवे पुलिस चौकी कार्यालय प्रभारी और अन्य, बॉम्बे उच्च न्यायालय, Crl. W.P. No. 2110 of 2014.

[94] मार्च 21, 2016, मुंबई, सुफियान मोहम्मद खान का ह्यूमन राइट्स वॉच के साथ साक्षात्कार. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिए हैं की हथकड़ी का इस्तेमाल तभी किया जाए जब एक व्यक्ति गंभीर गैर-ज़मानती अपराधों में लिप्त हो, पहले से सजा प्राप्त हो, एक हताश चरित्र का हो, हिंसक हो, उत्पाती या दखल देने वाला हो, या ऐसा व्यक्ति जो आत्महत्या कर सकता हो या जो भागने का प्रयास कर सकता हो.  प्रेम शंकर शुक्ल बनाम दिल्ली प्रशासन, एस.सी.सी. ५२६, १९८०. कई वकीलों ने रिपोर्ट दी है कि हथकड़ी के इस्तमाल में सर्वोच्च न्यायलय के निर्देशों का पुलिस घोर उल्लंघन करती है.

[95] किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम, 2015, 2016 का क्रमांक 2.

[96] देखें ICCPR, art. 10(2)(b) (“ अभियुक्त किशोरों को वयस्कों से अलग रखा जाना चाहिए”); see also Convention on the Rights of the Child, art. 37(c).

[97] केन्द्रीय जाँच ब्यूरो को मोहम्मद इरफ़ान हजाम दवारा दिया गया बयान,. RC-BSI/S/2014/0005-CBI/SCB/मुंबई, जुलाई 5, 2014. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[98] लियोनार्ड ज़ेवियर वल्दारिस और अन्य बनाम वडाला रेलवे स्टेशन कार्यालय प्रभारी एवं अन्य.

[99] पूर्वोक्त.

[100] केन्द्रीय जाँच ब्यूरो को लियोनार्ड वल्दारिस का दिया गया बयान, RC BS1/2014/S/0005-CBI/SCB/मुंबई, जुलाई 5, 2014. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[101]  18 अप्रैल, 2014 की पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[102] 13 सितम्बर, 2009 को पुलिस सब इंस्पेक्टर संजय सुदम खेडेकर द्वारा सहायक पुलिस आयुक्त, सी.आई.डी. को दिया गया बयान; मेहरूनिशा कादिर शेख बनाम घाटकोपर पुलिस चौकी प्रभारी एवं अन्य Crl. W.P. No. 2613 of 2009.

[103] पूर्वोक्त

[104] सी.बी.आई. का मुकदमा नंबर BSI/2009/S/0004 का चार्टशीट; CBI, SCB, मुंबई, 30 दिसंबर 2010. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[105] मेहरुनिशा कादिर शेख़ बनाम घाटकोपर पुलिस स्टेशन कार्यालय प्रभारी एवं अन्य.

[106] पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट. 11 सितम्बर, 2009. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[107] मेहरुनिशा कादिर शेख़ बनाम घाटकोपर पुलिस स्टेशन कार्यालय प्रभारी एवं अन्य.

[108]बलपूर्वक लापता व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन E/CN.4/2005/WG.22/WP.1/Rev.4 (2005), http://www.ohchr.org/EN/HRBodies/CED/Pages/ConventionCED.aspx (10 नवम्बर, 2016 को देखा गया.)

[109] डी. के बसु; CrPC sec 50A

[110] CrPC sec 50A (4).

[111] डी. के बसु; CrPC sec.41C, http://policewb.gov.in/wbp/misc/act/Amendment-Act-2008.pdf (16 अगस्त, 2015 को देखा गया.)कामनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव की २०१६ में प्रकाशित एक रपट में पाया गया कि २००९ में दंड प्रक्रिया संहिता में जो संशोधन पुलिस के कर्तव्यों के बारे में लाये गए थे, आज पांच साल बीत जाने के बाद भी अध्ययन में शामिल २४ राज्यों में से २१ राज्यों द्वारा गिरफ्तारी सम्बन्धी जानकारी सार्वजनिक नहीं की जाती है. रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि अधिकांश राज्यों की पुलिस को इस धारा के प्रावधानों की जानकारी तक नहीं है और इन्हें लागू करने के लिए उन्होनें कोई प्रणाली नहीं बनाई है.  देखिये कामनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव, ट्रांसपेरेंसी ऑफ़ इनफार्मेशन अबाउट अरेस्ट एंड डिटेंशन, २०१६.

[112] “सर्वोच्च न्यायालय ने सभी पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के निर्देश दिए", टाइम्स ऑफ़ इंडिया, २५ जुलाई, २०१५. http://timesofindia.indiatimes.com/india/SC-directs-all-police-stations-to-be-under-CCTV-watch/articleshow/48209843.cms (15 अगस्त, 2015 को देखा गया.)

[113] भानु मल के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार, मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल, २८ अप्रैल, २०१५

[114] नुरुल इतवारी शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य, Crl. W.P. No. 4476 of 2012, बाम्बे उच्च न्यायलय.

[115] बी. सदानंद के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार, 12 जून 2015. हैदराबाद, तेलंगाना

[116]  मांजा बीबी के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार, धनिअखाली, हुगली जिला, पश्चिम बंगाल, ०१ मई, २०१५

[117] पूर्वोक्त.

[118] 22 सितम्बर, 2016, ह्यूमन राइट्स वाच का फोन पर लिया गया साक्षात्कार.

[119] प्रतिम कुमार सिंघ रे बनाम भारतीय संघ और अन्य, कलकत्ता उच्च न्यायलय, W.P. No. 3800 (W) of 2013, May 13, 2013,http://judis.nic.in/Kolkata_App/Judge_Result_Disp.asp?RecCnt=2643&MyChk=WP_3800W_2013_13052013_J_228_218.pdf&submit=Submit (06 नवम्बर, 2016 को देखा गया.)

[120] ओबैदुर रहमान की पत्नी का ह्यूमन राइट्स वाच के साथ साक्षात्कार, 28 अप्रैल 2015, मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल.

[121] ओबैदुर रहमान के परिवार के एक सदस्य (जिनका नाम अनुरोध पर नहीं बताया गया है) के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार, 28 अप्रैल 2015, मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल.

[122] बांगुर न्यूरो साइंस संस्थान के मेडिकल प्रमाण पत्र पर हरिशचंद्र पुलिस थाने के सब-इंस्पेक्टर विकास हालदार का हस्ताक्षर है, ह्यूमन राइट्स वाच के फाइल की प्रति. रिपोर्ट के अनुसार रात 10:15 बजे वह थाने के बाहर बीमार हो गया था और सुबह 2:45 बजे उसे अस्पताल ले जाया गया.

[123] पूर्वोक्त.

[124] "हिरासत में मौत की जाच में पुलिस दोषी" टाईम्स आफ इंडिया, 30 अक्टूबर, 2014, http://timesofindia.indiatimes.com/city/ madurai/Probe-into-custodial-death-case-faults-cops/articleshow/44978205.cms (15 जून, 2015 को देखा गया.)

[125] सईद मोहम्मद की माँ सईद अली फातिमा और उनके मामा मोहम्मद सुलतान और अब्दुल रहमान के साथ ह्यूमन राइट्स वॉच का साक्षात्कार. एस.पी. पत्तिनाम, रामनाथपुरम जिला, तमिलनाडु, 2 जून 2015.

[126] 15 अक्टूबर 2015, पोस्ट मार्टम रिपोर्ट; ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[127] सकीना बीबी का ह्यूमन राइट्स वाच के साथ साक्षात्कार, मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल, 29 अप्रैल 2005.  

[128] सकीना बीबी का ह्यूमन राइट्स वाच के साथ साक्षात्कार, 29 अप्रैल 2005

[129] पूर्वोक्त.

[130] उप दंडाधिकारी की जांच रिपोर्ट, 8 जनवरी, 2013. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[131] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की कार्रवाई रिपोर्ट, जो “सूचना के अधिकार’ के आवेदन के जवाब में मिला, जिसमें पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट की निष्कर्ष का हवाला दिया गया है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का जवाब ६ अक्टूबर, २०१६ को प्राप्त हुआ. ह्यूमन राइट्स वाच के पास इसकी प्रतिलिपि है.

[132] सरला देवी का ह्यूमन राइट्स वाच के साथ साक्षात्कार, मेरठ, उत्तरप्रदेश, 24 अगस्त 2015.

[133] खबरों के अनुसार पुलिस ने अप्पू को ७ दिसम्बर, २०१३ को पकड़ा था और उसे दारौला थाना के हवालात में राखी हुई थी."मेरठ में पुलिस हिरासत में युवक ने की आत्महत्या, 5 पुलिसकर्मी निलंबित", जी न्यूज़, 10 दिसम्बर, २०१३.http://zeenews.india.com/news/uttar-pradesh/youth-commits-suicide-in-meerut-polices-custody-5-cops-suspended_895622.html (5 जून, 2016 को देखा गया.)

[134] सरला देवी का ह्यूमन राइट्स वाच के साथ साक्षात्कार, 24 अगस्त 2015.

[135] पूर्वोक्त

[136] चन्दन के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार, मेरठ, 24 अगस्त 2015, उत्तरप्रदेश.

[137] रामू के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार. पनिहवर, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश, 22 अगस्त 2015. श्री लक्ष्मिराज इंटर कालेज, अलीगढ़ के निबंधन और स्थानांतरण प्रमाणपत्र से यह पता चलता है कि रामू सिंह की जन्म तिथि 1५ दिसंबर, 1978 है जबकि श्यामू सिंह के 14 दिसंबर 1979. दोनों में लगभग एक साल का अंतर है.

[138] रामू के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार, 22 अगस्त 2015.

[139] पूर्वोक्त.

[140]  शारदा रमेश धागे बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य, 12 अगस्त, 2014 को बाम्बे उच्च न्यायलय में ट्रोम्बे पुलिस थाना के वरीय पुलिस इंस्पेक्टर प्रसाद मनोहर धरिया द्वारा पेश हलफनामा.

[141] शारदा रमेश धागे बनाम वरीय पुलिस इंस्पेक्टर, ट्रोम्बे पुलिस थाना और अन्य, बॉम्बे उच्च न्यायलय W.P. No. 1207 of 2014.

[142] पूर्वोक्त.

[143] 14 फरवरी 2014 को सचिन धागे का गिरफ़्तारी रिकॉर्ड, ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल् की प्रति.

[144] मृत्यु के कारणों का प्रमाण पत्र, 9 जून, 2014. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[145] पोस्ट मार्टम रिपोर्ट, 21 फरवरी, 2014. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[146] दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 56,57,167(2).

[147] पूर्वोक्त.

[148] आई.सी.सी.पी.आर. अनुच्छेद ९(३). संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति, अनुच्छेद ९ के बारे में सामान्य टिपण्णी ८ (सोलहवां सत्र, १९८२). कंपाइलेशन ऑफ़ जनरल कमेंट एंड जनरल रिकमेन्डेशन एडोप्टेड बाय ह्यूमन राइट्स ट्रीटी बॉडीज, U.N. Doc. HRI/GEN/1/Rev.6 at 130 (2003), para. 2 (“ज़्यादातर राजकीय पक्षों के मामले में कानून द्वारा निश्चित समय-सीमा दी जाती है.”)

[149] प्रथम सूचना रिपोर्ट, C.R. No. 49/2014.

[150] 16 अप्रैल, 2014 को लियोनार्ड वल्दारिस द्वारा मुंबई पुलिस आयुक्त को लिखा पत्र. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[151] 17 अप्रैल, 2014 को लियोनार्ड वल्दारिस द्वारा मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट को आवेदन. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[152] 17 अप्रैल, 2014 को लियोनार्ड वल्दारिस के आवेदन पर कोर्ट का आदेश. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[153] राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो, गृह मंत्रालय, भारत सरकार, भारत में अपराध: 2015; भारत में अपराध: 2014; भारत में अपराध: 2013; भारत में अपराध 2010.

[154] डी.के..बसु.

[155] डी.के. बासु,; CrPC sec 41D.

[156] 4 फरवरी 2016 को अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (नाम गोपनीय रखा गया) के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का टेलीफोन पर साक्षात्कार.

[157] दंड प्रक्रिया संहिता, धारा 50(4). गिरफ़्तारी से संबंधित कानून आयोग की 117वीं रिपोर्ट, अनुबंध lll, 2001, http://lawcommissionofindia.nic.in/reports/177rptp2.pdf (20 सितम्बर, 201 को देखा गया)

[158] न्यायिक दंडाधिकारी के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार, 2 जून 2015.

[159] सकीना बीबी के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार, पश्चिम बंगाल, 29 अप्रैल, 2015.

[160] अधिवक्ता देबाशीस के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार, कलकत्ता, पश्चिम बंगाल, 30 अप्रैल 2015.

[161] डी. के. बसु, दंड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2008, 2009 का क्रमांक 5, धारा 54.

[162] डी. के. बसु.

[163] सियोन अस्पताल से प्राप्त चिकित्सकीय प्रमाण पत्र; 30 नवम्बर, 2012. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[164] नुरुल इतवारी शेख़ बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य.

[165] नुरुल इतवारी शेख़ बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य. एक ख़बर के माध्यम से, गुमनामी के वायदे पर, एक वरिष्ट पुलिस अधिकारी ने बताया कि सत्यशोधक पट्टा या ट्रुथ सीकिंग बेल्ट लगभग ३.५ फीट से ४ फीट लम्बा और ६ इंच चौड़ा होता है, जिसमें लकड़ी का कुंडा होता है. इस अफसर के अनुसार, पुलिस आटा चक्की में इस्तेमाल बेल्ट को इकट्ठा करती है और उस पर बढई से लकड़ी का एक हैंडल लगवाती है. उस अधिकारी ने बताया कि महाराष्ट्र में पुलिस इस बेल्ट का इस्तमाल कई दशकों से करती आ रही है और हरेक पुलिस थाना और क्राइम ब्रांच में यह बेल्ट मौजूद है. विनोद कुमार मेनन, सी.बी.आई. ने हिरासत में मौत के लिए धारावी पुलिस पर मुकदमा दर्ज किया, http://www.mid-day.com/articles/cbi-books-dharavi-cops-for-homicide-in-custodial-death/16889151 (13 जून, 2016 को देखा गया).

[166] 14 मार्च, 2013, जाँच अधिकारी, सहायक पुलिस आयुक्त विजय मेरु को प्रकाश घदिगओंकर दवारा दिया गया बयान. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[167] 26 मार्च, 2013 को इनामुल शेख़ दवारा पुलिस को दिया गया बयान. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[168] 30 नवम्बर, 2012, ज़ुल्फार शेख़ की जाँच के बाद जारी चिकित्सकीय रिपोर्ट. प्रमाण पत्र में यह लिखा हुआ था की कोई परेशानी नहीं है और सब ठीक है.

[169] नुरुल इतवारी शेख़ बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य

[170] लियोनार्ड ज़ेवियर वल्दारिस और अन्य बनाम वडाला रेलवे पुलिस थाने के प्रभारी और अन्य.

[171] पूर्वोक्त.

[172] पूर्वोक्त.

[173] पूर्वोक्त.

[174] लोकमान्य तिलक म्युनिसिपल जनरल हॉस्पिटल, सियोन, मुंबई, 17 अप्रैल, 2014 की आपात मेडिको-लीगल रजिस्टर नोट बुक, क्रमांक 16 पेज क्रमांक. 15.  ह्यूमन राइट्स वॉच की फ़ाइल की प्रति.

[175] लोकमान्य तिलक म्युनिसिपल जनरल हॉस्पिटल के सहायक मेडिकल ऑफिसर डॉक्टर एजाज़ हुसैन का केंद्रीय जाँच ब्यूरो, मुंबई के उप-अधीक्षक को 2 अगस्त, 2014 को दिया गया बयान. ह्यूमन राइट्स वॉच की फ़ाइल की प्रति.

[176] लोकमान्य तिलक म्युनिसिपल जनरल हॉस्पिटल, सीयोन, मुंबई की 17 अप्रैल 2014 की आपात मेडिको-लीगल रजिस्टर नोट बुक, क्रमांक 16 पेज क्रमांक 15. ह्यूमन राइट्स वॉच की फ़ाइल की प्रति

[177] लियोनार्ड ज़ेवियर वल्दारिस और अन्य बनाम वडाला रेलवे पुलिस थाने के प्रभारी और अन्य

[178] लोकमान्य तिलक म्युनिसिपल जनरल हॉस्पिटल के सहायक मेडिकल ऑफिसर डॉक्टर एजाज़ हुसैन का केंद्रीय जाँच ब्यूरो, मुंबई के उप-अधीक्षक को 2 अगस्त, 2014 को दिया गया बयान. ह्यूमन राइट्स वॉच की फ़ाइल की प्रति.

[179] सकीना बीबी का ह्यूमन राइट्स वॉच को दिया गया साक्षात्कार, मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल, 29 अप्रैल, २०१५

[180] पूर्वोक्त.

[181] पूर्वोक्त

[182] सुचना के अधिकार के आवेदन के जवाब में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की कार्रवाई रिपोर्ट. इस रिपोर्ट में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष 6 मई 2013 को प्रस्तुत दंडाधिकारी जाँच के निष्कर्ष का जिक्र है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का जवाब 6 अक्टूबर 2016 को प्राप्त हुआ. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[183] अजमेरी बेगम, शैख़ हैदर की बहन, के साथ ह्यूमन राइट्स वॉच का साक्षात्कार, निज़ामाबाद, तेलंगाना, 11 जून, 2015.

[184] प्रथम सुचना रपट, 21 मार्च, 2015. ह्यूमन राइट्स वॉच के फाइल की प्रति. यह भी देखें, भारतीय दंड सहिंता धारा 379 http://indiankanoon.org/doc/1101188/; sec. 511, http://indiankanoon.org/doc/1185693/.

[185] प्रथम सुचना रपट, 21 मार्च, 2015. ह्यूमन राइट्स वॉच के फाइल की प्रति. यह भी देखें, भारतीय दंड सहिंता धारा 224 http://indiankanoon.org/doc/1522870/

[186] अजमेरी बेगम के साथ ह्यूमन राइट्स वॉच का साक्षात्कार, 11 जून, 2015.

[187] पूर्वोक्त.

[188] पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट, 22 मार्च, 2015. ह्यूमन राइट्स वॉच के फ़ाइल की प्रति.

[189] पी.पी. उन्नीकृष्णन बनाम पुत्तियोत्तिल अलिकुट्टी, एआईआर  2000 एससी 2952 http://indiankanoon.org/doc/82632/ (9 फरवरी, 2016 को दस्तावेज देखा गया.)

[190] त्रिदीप पायस के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का टेलीफ़ोन पर साक्षात्कार. 8 फरवरी, 2016.

[191] शकीला अब्दुल गफ्फार खान बनाम वसंत रघुनाथ ढोबले, 7 SCC 749, 2003; शिव कुमार बनाम हुकुम चाँद, 7 SCC 467 1999; 23 हितेंद्र विष्णु ठाकुर बनाम महाराष्ट्र राज्य, 4 SCC 602, 1994, para 23; जय पाल सिंह नरेश बनाम उत्तरप्रदेश राज्य, इलाहबाद उच्च न्यायलय, Crl. LJ 32, 1976.

[192] रेबा बीबी बनाम बिप्लब कर्मकार एवं अन्य., क्रिमिनल रिवीजन केस नंबर 801/14, अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, लालबाग, मुर्शिदाबाद का २1 अप्रैल, 2014 को जारी आदेश. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में उपलब्ध प्रति.

[193] क्रिमिनल रिवीजन नंबर 131/2015; क्रिमिनल रिवीजन नंबर 5/2016.

[194] बांग्लार मानबाधिकार सुरक्षा मंच (मौसम) की सचिव कीर्ति रॉय का 1 फरवरी, 2016 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश को लिखा पत्र. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[195] बिप्लब कर्मकार एवं अन्य बनाम रेबा बीबी@ बेवा एवं अन्य., क्रिमिनल रिवीजन नंबर 5/2015, अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायधीश, लालबाग, मुर्शिदाबाद,1 फरवरी 2016 को जारी आदेश. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[196] महाराष्ट्र राज्य बनाम चंद्रकांत राजाराम काम्बले एवं अन्य., सत्र न्यायलय, ग्रेटर बॉम्बे, मुंबई, एससी 309, 2014.

[197] पूर्वोक्त.

[198] पूर्वोक्त.

[199] सुधीर खिच्ची बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य., Crl. W. P. no. 4167 of 2015.

[200] पोस्ट मार्टम 28 अक्टूबर, 2013 को रिपोर्ट तैयार की गयी जिसमें यह लिखा था कि खिच्ची को 26 अक्टूबर 2013 को रात जब 10:25 बजे कूपर मेमोरियल अस्पताल लाया गया तब तक उसकी मौत हो चुकी थी. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में उपलब्ध प्रति.

[201] महाराष्ट्र राज्य बनाम चंद्रकांत राजाराम काम्बले एवं अन्य, सत्र न्यायलय, ग्रेटर बॉम्बे, मुंबई, एससी 309, 2014. 

[202] 14 मार्च 2016, को मुंबई की अधिवक्ता रति अमरोलिया के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार.

[203] पूर्वोक्त.

[204] पूर्वोक्त.

[205]  भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के प्रासंगिक भाग में लिखा है गैर-इरादतन हत्या हत्या नहीं है यदि:

- यदि अपराधी उस समय जबकि गंभीर या अचानक उकसावे से आत्मसंयम की शक्ति से वंचित हो, उस व्यक्ति की, जिसने कि वह उकसावा दिया था, जिसके कारण यदि भूल या दुर्घटनावश किसी व्यक्ति की मौत हो जाए तो.

-    यदि अपराधी, व्यक्ति या संपत्ति की निजी सुरक्षा के अधिकारों की अनुपालना में कानून द्वारा प्रदत्त शक्ति का उल्लंघन कर उस व्यक्ति की हत्या कर देता है जिसके खिलाफ वह बगैर सोचे-समझे आत्मरक्षा के अधिकार का पालन कर रहा हो और उसे नुकसान पहुँचाने के किसी इरादे के बगैर वह ऐसा करता हो जो कि आत्मरक्षा के लिए जरुरी है;

-    यदि अपराधी ऐसा लोक सेवक होते हुए, या ऐसे लोक सेवक की मदद करते हुए जो लोक न्याय के लिए कार्य कर रहा है, वह कानून द्वारा प्रदत्त शक्ति से आगे बढ़कर कोई ऐसा कार्य करे जिससे हत्या हो जाये, जिसे वह विधिपूर्ण और ऐसे लोक सेवक के नाते उसके कर्तव्य के सम्यक निर्वहन के लिए आवश्यक होने का सदभावपूर्वक विश्वास करता है, और उस व्यक्ति के प्रति, कोई दुर्भावना नहीं रखता है जिसकी मौत हुई है;

-    यदि यह हत्या अचानक आवेश में हुई अचानक झगडे में बिना सोचे-समझे हुई हो और अपराधी दवारा अनुचित लाभ उठाए बिना या क्रूरतापूर्ण या असाधारण तरीके से नहीं किया गया हो;

-    यदि वह व्यक्ति जिसकी हत्या की गई है 18 वर्ष से अधिक आयु का हो, की मौत होती है या वह अपनी मर्जी से मौत का जोखिम उठाता हो. 

[206] प्रतीम कुमार सिंह रे बनाम भारतीय संघ एवं अन्य.

[207] पूर्वोक्त

[208] पूर्वोक्त. 13 मई, 2013 को जारी आदेश.

[209]बंगाल में हिरासत में हुए मौत मामले में सी.बी.आई. ने सात पुलिसवालों को नामित किया.,” IANS, 29 सितम्बर 2014, http://www.business-standard.com/article/news-ians/cbi-names-seven-cops-in-bengal-custodial-death-case-114092901162_1.html (11 सितम्बर, 2016 को दस्तावेज देखा गया).

[210] इस मामले के बारे में और जानकारी के लिए देखें: Section II

[211] अलीगढ के अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को सौंपी गई पुलिस रिपोर्ट, 10 अगस्त, 2011. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल की प्रति

[212] पूर्वोक्त.

[213] अलीगढ के अधिवक्ता जोगेंद्र पाल सिंह के साथ ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार, 22 अगस्त, 2015.

[214] पूर्वोक्त.

[215] मानवीर सिंह के द्वारा क्वार्सी पुलिस चौकी में 15 अप्रैल, 2012 को दायर की गयी प्रथम सुचना रिपोर्ट. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[216] पुलिस रपट, 28 अगस्त, 2012, इसकी कॉपी ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में है.

[217] मनवीर सिंह विरुद्ध एस.आर.आनंद प्रकाश व् अन्य, मुख्य न्यायायिक दंडाधिकारी का न्यायालय, अलीगढ, क्रमांक 115.12.103, 29 नवम्बर, 2013.

[218] दुर्विजय सिंह व अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार व अन्य, 16899/2015, इलहाबाद उच्च न्यायालय, 14 जनवरी 2016 को आदेश जारी. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

219  आनंद प्रकाश बनाम उत्तर प्रदेश सरकार व अन्य, 4406/2016, सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया, 11 मार्च 2016 को जारी आदेश. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

220 राज्य अपराधिक जाँच विभाग के अपराधिक शाखा के द्वारा मई 2014 को रिपोर्ट दर्ज की गयी जिसमें विजय कुमार, एसडीम के द्वारा जनवरी 3, 2013 को अलीगढ जिला दंडाधिकारी के समक्ष प्रस्तुत जाँच रिपोर्ट का निष्कर्ष. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

221 राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के द्वारा उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को 4 जनवरी, 2014 को लिखा गया पत्र. ह्यूमन राइट्स वॉच के फाइल में प्रति उपलब्ध. उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा राज्य अपराधिक जाँच विभाग की अपराधिक शाखा को 14 फरवरी, 2014 को लिखा गया पत्र भी देखे. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

222 अपराधिक जाँच विभाग के अपराधिक शाखा की अंतिम रिपोर्ट 29/2014, प्रकरण क्रमांक 12170/24/3/2012 – AD, 15 मई 2014. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

223 दिग्विजय यादव की पत्नी अंजू यादव का 21 जुलाई 2014 को अपराधिक जाँच विभाग, लखनऊ के अपराधिक शाखा के प्रमुख को लिखा गया पत्र. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

224 प्रमोद कुमार के द्वारा अपराधिक जाँच विभाग, लखनऊ के अपराधिक शाखा के प्रमुख को 20 अगस्त 2014 को लिखा गया पत्र. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

225 अपराधिक जाँच विभाग के अपराधिक शाखा की अंतिम रिपोर्ट 29/2014, प्रकरण क्रमांक 12170/24/3/2012 – AD, 2 मई 2014. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

226 इस प्रकरण में अधिक जानकारी के लिए सेक्शन II देखें.

227 पुलिस द्वारा धारावी पुलिस थाने में दर्ज दुर्घंटना मृत्यु रिपोर्ट, 2 दिसम्बर 2012. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

228 यूथ फाउंड डेड इन पुलिस लॉक-अप, अहमद अली, ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, 2 दिसम्बर 2012. http://timesofindia.indiatimes.com/ city/mumbai/Youth-found-dead-in-police-lock-up/articleshow/17455427.cms (28 अप्रैल 2016 को देखा गया)

229 जौंडिस मे हेव किल्ड मैन: कॉप्स, मुंबई मिरर, 4 दिसम्बर 2012. http://www.mumbaimirror.com/mumbai/others/Jaundice-may-have-killed-man-Cops/articleshow/17860796.cms  (28 अप्रैल 2016 को देखा गया)

230 पुलिस कमिश्नर, मुंबई को 11 दिसम्बर 2012 को नुरुल शेख का पत्र. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

231 नुरुल इतवारी शेख बनाम महाराष्ट्र सरकार व अन्य.

232 प्रथम सुचना रिपोर्ट. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

233 सहायक पुलिस आयुक्त प्रफुल्ल भोसले का बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष 1 अप्रैल 2013 का शपथ पत्र. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

234 विजय मेरु, सहायक पुलिस आयुक्त, अपराधिक शाखा, अपराधिक जाँच विभाग के द्वारा 20 मई 2013 को प्रस्तुत अंतिम जाँच

रिपोर्ट. रिपोर्ट की प्रति गवाहों के बयान के साथ ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

235  विजय मेरु, सहायक पुलिस आयुक्त को पुलिस कांस्टेबल आत्माराम गुरव को 13 मार्च 2013 को दिया गया बयान. बयान की प्रति ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में उपलब्ध. 

236 विजय मेरु, सहायक पुलिस आयुक्त, अपराधिक शाखा, अपराधिक जाँच विभाग के द्वारा 20 मई 2013 को प्रस्तुत अंतिम जाँच रिपोर्ट. रिपोर्ट की प्रति गवाहों के बयान के साथ ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में उपलब्ध.

237 पूर्वोक्त.

238 नुरुल इतवारी शेख बनाम महाराष्ट्र सरकार व अन्य. 30 जून 2014.

239 विनोद कुमार मेनन “सी.बी.आई. ने धारावी के पुलिसवाले के खिलाफ हिरासत में हत्या का जुर्म दर्ज किया मिड-डे 23 जनवरी http://www.mid-day.com/articles/cbi-books-dharavi-cops-for-homicide-in-custodial-death/16889151 (9 नवम्बर 2016 को देखा गया)

240 इस प्रकरण में अधिक जानकारी के लिए अध्याय II देखें.

 

241 पीड़ित के द्वारा महाराष्ट्र पुलिस के महानिदेशक को 30 मई 2014 को लिखा गया पत्र. इसके साथ इरफ़ान हजाम के द्वारा पुलिस अधीक्षक, राज्य सी.आई.डी. को 26 मई 2014 को लिखा गया पत्र. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

242 पूर्वोक्त.

243 लियोनार्ड ज़ेवियर वल्दारिस व अन्य बनाम प्रभारी अधिकारी, वडाला पुलिस थाने व अन्य, 17 जून 2014.

245 गृह विभाग, महाराष्ट्र सरकार के द्वारा स्वीकृति आदेश, 15 फरवरी 2015. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

246 सी.बी.आई. मामले आरसी 5/s/2014 में दर्ज आरोप पत्र, सी.बी.आई., एस.सी.बी., मुंबई. 31 दिसम्बर 2015. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

247 पूर्वोक्त.

248 मेह्रुनिसा कदीर शेख बनाम प्रभारी अधिकारी, घाटकोपर पुलिस थाना व अन्य, 16 अक्टूबर 2009.

249 संजय सुदाम खेडेकर व अन्य बनाम मेह्रुनिस्सा कदीर शेख व अन्य, सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया, Crl. S.L.P. 7952/2009 23 नवम्बर 2009.

250 बॉम्बे उच्च न्यालय, मेह्रुनिसा कदीर शेख बनाम प्रभारी अधिकारी, घाटकोपर पुलिस थाना व अन्य, Crl. W.P. No. 2613/2009, 16 अक्टूबर 2009.

251 बॉम्बे उच्च न्यायालय, मेह्रुनिसा कदीर शेख बनाम प्रभारी अधिकारी, घाटकोपर पुलिस थाना व अन्य, Crl. W.P. No. 2613/2009, 16 अक्टूबर 2009.

252 सी.बी.आई. मामले क्रमांक बी.एस.आई./2009/S/0004 में दर्ज आरोप पत्र., सी.बी.आई., एस.सी.बी., मुंबई, 30 दिसम्बर 2015. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध

253 अधिक जानकारी के लिए अध्याय II देखे.

 

254 सी.बी.आई. मामले क्रमांक बी.एस.आई./2009/S/0004 में दर्ज आरोप पत्र, सी.बी.आई., एस.सी.बी., मुंबई, 30 दिसम्बर 2015. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

255 महाराष्ट्र में फॉरेंसिक मेडिसिन के डॉक्टरों व विशेषज्ञों द्वारा सीबीआई को दिए बयान, मुंबई, जनवरी और फरवरी 2010. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

256 मेह्रुनिस्सा कदीर शेख बनाम संजय एस खेडेकर व अन्य, अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपोलिटन दंडाधिकारी, मुंबई, C.C. No. 1170 PW 2010, 3 नवम्बर 2014. मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 की धारा 30 में दी गयी परिभाषा के अनुसार मानवाधिकार कोर्ट मानवाधिकार के शोषण के मामलों में त्वरित सुनवाई के लिए एक सत्र न्यायालय होता है. देखें http://nhrc.nic.in/documents/Publications/TheProtectionofHumanRightsAct1993_Eng.pdf (20 सितम्बर 2016 में देखा गया).

257 जब पुलिस के विरुद्ध कोई आरोप दर्ज किया जायेगा जिसमे पुलिस के विरुद्ध अपराधिक कृत्य का आरोप हो, जो गैर इरादतन हत्या का संज्ञेय मामला बन रहा हो तो उनके खिलाफ भारतीय दण्ड संहिता की उचित धारा के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होनी चाहिए. पुलिस कार्रवाई के दौरान मौत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के संशोधित दिशा-निर्देश/प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए, 12 मई 2010.

258 इस प्रकरण में अधिक जानकारी के लिए अध्याय II देखे.

259 शेख बाबू, निज़ामाबाद, तेलंगाना का ह्यूमन राइट्स वाच को 11 जून 2015 को दिया गया साक्षात्कार.

260 शेख हैदर मामला - दो आयोग, हिरासत में एक मौत, न्याय सिफर, अमित कुमार, Twocircles.net, 1 जनवरी 2016, http://twocircles.net/2016jan01/1451661077.html#.WCWVpS197IU (10 नवम्बर 2016 को देखा गया).

261 इस प्रकरण में जानकारी के लिए अध्याय II  देखे.

262 रमनद की हिरासत में मौत. छह पुलिसवालों का तबादला टाइम्स ऑफ़ इंडिया, 18 अक्टूबर 2014 http://timesofindia.indiatimes.com/city/madurai/Ramnad-custodial-death-case-six-police-personnel-transferred/articleshow/44864437.cms (15 जून 2015 को देखा गया).

263 एस. सकुबर बनाम गृह सचिव, Crl. O.P. (MD), 19158/2014, ह्यूमन राईट वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध..

264 पूर्वोक्त. 16 अक्टूबर 2014 को जारी आदेश.

265 "रामनाथपुरम हिरासत में मौत मामला: मद्रास उच्च न्यायलय ने तमिलनाडु सरकार को पीड़ित के परिजन को नौकरी देने का दिया आदेश", एल. सरवणन, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, 16 अक्टूबर 2014, http://timesofindia.indiatimes.com/india/Ramanathapuram-custodial-death-Madras-HC-directs-Tamil-Nadu-govt-to-give-job-to-victims-kin/articleshow/44839342.cms (15 जून 2015 को दस्तावेज देखा गया)

266 हिरासत में मौत के मामले में सब इंस्पेक्टर को जेल, 20 जून 2015, न्यू इंडियन एक्सप्रेस, 20 जून 2015,  http://www.newindianexpress.com/states/tamil_nadu/SI-Remanded-in-Custodial-Death-Case/2015/06/20/article2876007.ece (25 जून 2015 को दस्तावेज देखा गया)

267 28 जुलाई 2015 को दायर, सीबीसीआईडी विरुद्ध कलित्हस, SC 1000086, प्रधान जिला न्यायलय, रामनाथपुरम, तमिलनाडु.

268 इस मामले में ज्यादा जानकारी के लिए अध्याय II देखें.

269 शारदा रमेश धागे बनाम वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक, ट्रोम्बे पुलिस चौकी व अन्य, W.P. No. 1207 of 2014.

270  पूर्वोक्त. 13 अगस्त, 2014 को जारी आदेश. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

271 दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 176 (1A).

271 दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 176 (4).

273 राज्य आपराधिक जाँच विभाग के आपराधिक शाखा द्वारा मई 2014 में रिपोर्ट दर्ज की गयी, जिसमें सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट विजय कुमार की जांच रिपोर्ट के निष्कर्ष का उल्लेख है, अलीगढ जिला दंडाधिकारी को 3 जनवरी, 2013 को प्रस्तुत. ह्यूमन राइट्स वॉच की फ़ाइल्में प्रति उपलब्ध.

274 पूर्वोक्त

275 इस प्रकरण के सम्बन्ध में और जानकारी के लिए अध्याय II देखें.

277 पूर्वोक्त.

278 प्रथम सुचना रिपोर्ट; 5 अप्रैल 2010, ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

 

279 राजस्व संभाग अधिकारी दवारा जमा की गयी जाँच रिपोर्ट; 24 अप्रैल 2010. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

280 “रामनद हिरासत में मौत: 6 पुलिस वालों का तबादला”, टाइम्स आफ इंडिया, 18 अक्टूबर 2014, http://timesofindia.indiatimes.com/city/madurai/Ramnad-custodial-death-case-six-police-personnel-transferred/articleshow/44864437.cms (15 जून 2015 को देखा गया).

281 “पूछताछ के दौरान व्यक्ति को गोली मारी; तमिलनाडु पुलिस उप निरीक्षक निलंबित, जाँच जारी, अरुण जनार्धन, इंडियन एक्सप्रेस, 15 अक्टूबर 2014, http://indianexpress.com/article/india/india-others/man-shot-during-interrogation-tamil-nadu-police-si-suspended-probe-on/ (16 जून 2015 को देखा गया).

282 “उप निरीक्षक के ख़िलाफ़ दर्ज हत्या का मामला दर्ज”, द हिन्दू, अप्रैल 18, 2015. http://www.thehindu.com/news/national/tamil-nadu/murder-case-booked-against-si/article7115490.ece (15 जून 2015 को देखा गया).

283 प्रथम सूचना रिपोर्ट; 4 सितम्बर 2012, ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

284 दुलाल मल के साथ ह्यूमन राइट्स वॉच का साक्षात्कार, मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल, 28 अप्रैल 2015.

285 पुलिस जाँच रिपोर्ट, 7 दिसंबर 2012. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

286 पूर्वोक्त.

287 इस मामले में ज्यादा जानकारी के लिए अध्याय II देखे.

288 हसनारा बेगम का शिकायत पत्र, 22 जनवरी 2015. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध

289 23 जनवरी 2015 को कार्यकारी दंडाधिकारी द्वारा प्रस्तुत जाँच रिपोर्ट. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

290 सीबीआई मामले RC No. 5/S/2014 में आरोपपत्र में सीबीआई, एससीबी, मुंबई. 31 दिसंबर 2015. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

291 पुलिस सहायक उप निरीक्षक वकील पठान दवारा सीबीआई, मुंबई के पुलिस उप-अधीक्षक पी.एन. अरिन सी बोस को दिया बयान. 6 अगस्त 2015. गवाही की प्रति ह्युमन राइट्स की फाईल में उपलब्ध.

292 न्यायिक दंडाधिकारी जाँच रिपोर्ट. 2 मई 2011. ह्यूमन राइट्स वॉच की फ़ाइल्में प्रति उपलब्ध.

293 सरस्वती के साथ ह्यूमन राइट्स वॉच का साक्षात्कार. वादामदुरई, जिला दिंडीगुल, तमिलनाडु, 30 मई 2015.

294 सीबीसीआईडी दिंडीगुल बनाम थिरुमलाई मुथुसामी व अन्य, पीआरसी 800013, 11 नवम्बर 2015 को दायर. मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी कोर्ट, दिंडीगुल, तमिलनाडु. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

295 नुरुल इतवारी शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्य.

296 राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, हिरासत में मौत/बलात्कार के संबध में दिशा निर्देश, http://nhrc.nic.in/Documents/sec-1.pdf

[297] हिरासत में मौत के मामलों में पोस्ट मार्टम परीक्षण के विडियो फिल्मिंग के सम्बन्ध में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा द्वारा राज्य के मुख्यमंत्रियों को लिखा गया पत्र, 10 अगस्त 1995 को http://nhrc.nic.in/Documents/sec-1.pdf (20 अगस्त 2016 को देखा गया).

[298] ह्यूमन राइट्स वाच द्वारा सत्यब्रत पाल का साक्षात्कार. नोयडा, उत्तर प्रदेश. 10 दिसम्बर 2015.

[299] पूर्वोक्त.

[300] पोस्ट मार्टम रिपोर्ट, 5 अप्रैल 2010; फॉरेंसिक रिपोर्ट, 21 अप्रैल 2010. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[301] राजस्व संभाग अधिकारी द्वारा सौंपी गयी जाँच रिपोर्ट, 24 जून 2010. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध..

[302] पोस्ट मार्टम रिपोर्ट, 9 मई 2011. ह्यूमन राइट्स वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[303] प्रतिम कुमार सिंघ रे बनाम भारतीय संघ व अन्य.

[304] पोस्ट मार्टम रिपोर्ट, ग्रांट मेडिकल कॉलेज, मुंबई के फॉरेंसिक विभाग द्वारा किया गया शव परीक्षण, 3 दिसम्बर 2012. ह्यूमन राइट्स  वाच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[305] “सी.बी.आई. द्वारा धारावी पुलिसवालों के खिलाफ हिरासत में हत्या का मामला दर्ज.”, विनोद कुमार मेनन, मिड-डे, 23 जनवरी 2016. http://www.mid-day.com/articles/cbi-books-dharavi-cops-for-homicide-in-custodial-death/16889151 (10 नवम्बर, 2016 को देखा गया).

[306] प्रमुख वकीलों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि पीड़ित और गवाह पर अपराधिक प्रक्रिया के दौरान अपना बयान बदलने के लिए दवाब बनाया जाता है. इसके चलते हत्या, रेप, जाति आधारित अत्याचार और साम्प्रदायिक हिंसा के अपराधी दोषमुक्त हो जाते हैं. उदाहरण के लिए, किशोरी रुचिका गिर्होत्रा ने 1990 में हरियाणा राज्य के एक शक्तिशाली पुलिस अफसर पर यौन शोषण का आरोप लगाया और यह प्रकरण लगभग दो दशक तक चला था. इस प्रकरण में जब रुचिका ने आरोप लगाये थे तब उसके पूरे परिवार को सताया गया था. उसने 1993 में आत्महत्या कर ली थी. देखें, “मौत के 19 साल बाद भी न्याय मांग रहे हैं रुचिका के दोस्त”, अजय सुरी, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, 26 दिसम्बर 2012. http://timesofindia.indiatimes.com/india/19-years-after-death-Ruchikas-friend-cries-for-justice/articleshow/17761608.cms (22 सितम्बर, 2016 को देखा गया). ह्यूमन राइट्स वाच ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि कैसे 1984 के सिख विरोधी दंगों के बहुत सारे मामले अचानक ख़त्म कर दिए गए जब शक्तिशाली अभियुक्तों ने गवाहों को डराया और धमकाया. देखें, “भारत: 1984 सिख विरोधी दंगों में कोई इंसाफ नहीं”, ह्यूमन राइट्स वाच न्यूज़ रिलीज़, 29 अक्टूबर 2014. https://www.hrw.org/news/2014/10/29/india-no-justice-1984-anti-sikh-bloodshed. इसी तरह, ह्यूमन राइट्स वाच ने इसका दस्तावेजीकरण भी किया है कि 2002 में गुजरात दंगों के दौरान मुस्लिमों को मारने और उनको घायल करने के जिम्मेदार लोगों के अभियोजन लिए के लिए संघर्षरत पीड़ित, गवाह और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को कैसे हिन्दू उग्रवादियों ने डराया-धमकाया था. देखें, Human Rights Watch, Discouraging Dissent: Intimidation and Harassment of Witnesses, Human Rights Activists, and Lawyers Pursuing Accountability for the 2002 Communal Violence in Gujarat, September 2004, https://www.hrw.org/legacy/backgrounder/asia/india/gujarat/. सन 2005 में गृह मंत्रालय की स्थायी समिति ने गवाह सुरक्षा की कमी पर चिंता जताई और कानून में संसोधन की सिफारिश की. देखें गृह मंत्रालय की स्थायी समिति, अपराधिक कानून (संसोधन) विधेयक, 2003 पर 111वीं रिपोर्ट, फरवरी 2005. http://164.100.47.5/newcommittee/reports/EnglishCommittees/Committee%20on%20Home% 20Affairs/111threport.htm (21 सितम्बर, 2016 को देखा गया). सन 2006 में भारत के विधि आयोग ने एक 500 पन्नों की रिपोर्ट जारी की जिसमें अदालत के अन्दर और बाहर गवाहों की सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्रक्रियात्मक बदलाव की सिफारिश की गई है. देखें भारत के विधि आयोग की गवाहों की पहचान की सुरक्षा पर 198वीं रिपोर्ट, अगस्त 2006. http://lawcommissionofindia.nic.in/reports/rep198.pdf (21 सितम्बर 2016 को देखा गया).

[307] मासूम (MASUM) की सचिव किर्ती रॉय का राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को लिखा गया पत्र, 13 जुलाई 2015. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[308] अजीमुद्दीन सरकार द्वारा सहन की गयी प्रताड़ना के सम्बन्ध में मासूम (MASUM) के दवारा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को अनेक शिकायतें भेजी गयी. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा इस सम्बन्ध में कई मामले दर्ज किये गए.  देखें एनएचआरसी मामले सं. 1231/25/13/2013, 1142/25/13/2013, और 657/25/13/2013.

[309] ह्यूमन राइट्स डिफेंडर्स अलर्ट की और से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को लिखा गया पत्र, 22 नवम्बर 2015, http://hrdaindia.org/wp-content/uploads/2015/11/2015-11-22-HRDA-UA-WEST-BENGAL-Case-of-Mr.-Azimuddin-Sarkar.pdf (5 जून 2015 को देखा गया).

[310] ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा ससि कुमार का साक्षात्कार, वादामदुरै, जिला डिंडीगुल, तमिलनाडु, 30 मई 2015.

[311] ससि कुमार की मेडिकल रिपोर्ट. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[312] पत्र की प्रति ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में उपलब्ध.

[313] ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा सकीना बीबी का साक्षात्कार, मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल, 29 अप्रैल 2015.

[314] पूर्वोक्त.

[315] ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जमशेद अज़ीज़ का साक्षात्कार, अलीगढ़, उतरप्रदेश, 22 अगस्त 2015.

[316] ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा ओबैदुर रहमान की बेटी का साक्षात्कार, मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल, 28 अप्रैल 2015.

[317] ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा रामू का साक्षात्कार, अलीगढ़, उत्तरप्रदेश, 22 अगस्त 2015.

[318] पूर्वोक्त.

[319]  ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा रामू का साक्षात्कार, 22 अगस्त 2015.

[320] प्रथम सुचना रिपोर्ट, 25 नवम्बर 2002. ह्यूमन राइट्स वॉच की फ़ाइल्में प्रति उपलब्ध.

[321] 1 दिसम्बर 2002 को रामनाथपुरम के जिलाधिकारी के नाम उपजिलाधिकारीऔरउप-संभागीयदंडाधिकारीथिर्सू आशीष चटर्जी के दवारा को लिखा गया पत्र. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[322] जाँच रिपोर्ट, 1 दिसंबर, 2002. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध

[323] पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट, 1 दिसंबर 2002. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[324] कार्यकारी सब-डिविजनल दंडाधिकारी को जमा की गयी मेडिकल रिपोर्ट. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[325] कार्यकारी सब-डिविजनल दंडाधिकारी और सब-कलक्टर, परमकुदी आशीष चटर्जी की करुप्पी के मृत्यु संबंधी जाँच रिपोर्ट, 9 जनवरी 2003. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[326] पूर्वोक्त.

[327] राज्य मानवाधिकार आयोग, तमिलनाडु की रिपोर्ट, केस नंबर 7074/2002/SS, 24 फरवरी 2003. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[328] महिला हिंसा पर राष्ट्रीय महिला आयोग और तमिलनाडु राज्य महिला आयोग के दवारा आयोजित जन सुनवाई की रिपोर्ट, 28 अक्टूबर 2003. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[329] पूर्वोक्त.

[330] तमिलनाडु राज्य बनाम शाहुल हमीद व अन्य., अतिरिक्त जिला सत्र न्यायालय, रामनाथपुरम एससी नंबर 105/2007.

[331] ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा अधिवक्ता एस.जे. शेख इब्राहीम का साक्षात्कार, रामनाथपुरम, तमिलनाडु, 2 जून 2015.

[332] रामनाथपुरम, तमिलनाडु के जिलाधिकारी द्वारा 12 जनवरी 2006 को जारी आदेश. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[333] हेनरी तिफगने बनाम तमिलनाडु राज्य व अन्य, Crl. O.P. 3715 of 2004.

[334] पूर्वोक्त.

[335] रामनाथपुरम, तमिलनाडु, के पुलिस उप-महानिरीक्षक द्वारा जारी आदेश, जिसमें सीबी सीआईडी के दवारा दर्ज आरोपों का उल्लेख है, 25 सितम्बर 2009. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[336] तमिलनाडु राज्य बनाम शाहुल हमीद व अन्य, अतिरिक्त जिला सत्र न्यायालय, रामनाथपुरम SC No. 105/2007. 14 फरवरी 2013.

[337] शाहुल हमीद बनाम तमिलनाडु राज्य, मद्रास उच्च न्यायलय, मदुरई खंडपीठ, Crl. A. (MD) nos. 58 to 62 of 2013,27 फरवरी 2014

[338] हेनरी तिफगने बनाम शाहुल हमीद व अन्य, विशेष अनुमति याचिका (Crl). No. of 2015

[339] हिरासत में मौत की 24 घंटे के भीतर रिपोर्टिंग के लिए सभी मुख्य सचिवों को लिखा गया पत्र, 14 दिसम्बर, 1993 http://nhrc.nic.in/Documents/sec-1.pdf (30 नवम्बर 2015 को देखा गया). मानवाधिकार सुरक्षा अधिनियम, 1993, अध्याय III, “आयोग के कार्य और शक्तियां. http://nhrc.nic.in/documents/Publications/TheProtectionofHumanRightsAct1993_Eng.pdf (9 नवम्बर 2016 को देखा गया).

[340] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के एक अधिकारी से ह्यूमन राइट्स वाच का साक्षात्कार (नाम जाहिर नहीं), नई दिल्ली, 10 फरवरी, 2016.

[341] दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 176(1A) की व्याख्या के सम्बन्ध में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा जारी दिशानिर्देश/स्पष्टीकरण, 5 अप्रैल 2010.http://police.puducherry.gov.in/Guidelines%20clarification% 20section%20176%20CrPC%20by%20the%20NHRC.pdf (23 जुलाई 2016 को देखा गया).

[342] सुचना के अधिकार के आवेदन के जवाब में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का पत्र, 24 अगस्त 2016. ह्यूमन राइट्स वॉच की फाइल में प्रति उपलब्ध.

[343] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की वेबसाइट से मिला मामले की विवरण. फ़ाइल क्र: 1661/22/30/2014-PCD http://nhrc.nic.in/display.asp?fno=1661/22/30/2014-PCD  (12 नवम्बर, 2016 को देखा गया).

[344] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की वेबसाइट से मिला मामले की विवरण. फ़ाइल क्र: 612/25/11/2015-AD, http://nhrc.nic.in/display.asp?fno=612/25/11/2015-AD (12 नवम्बर, 2016 को देखा गया.).

[345] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की वेबसाइट से मिला मामले की विवरण. फ़ाइल क्र: 1628/25/4/2012-AD, http://nhrc.nic.in/display.asp?fno=1628/25/4/2012-AD  (12 नवम्बर, 2016 को देखा गया.)

[346] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की वेबसाइट से मिला मामले की विवरण. फ़ाइल क्र: 328/1/7/09-10-AD http://nhrc.nic.in/display.asp?fno=328/1/7/09-10-AD (30 नवम्बर, 2015 को देखा गया).

[347] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की वेबसाइट से मिला मामले की विवरण. फ़ाइल क्र: 31/25/13/2013-JCD, http://nhrc.nic.in/display.asp?fno=31/25/13/2013-JCD (30 नवम्बर, 2015 को लिया गया)

[348] सत्यब्रत पाल का ह्यूमन राइट्स वाच को दिया गया साक्षात्कार, 10 दिसम्बर, 2015.

[349] राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की वेबसाइट से मिला मामले की विवरण. फ़ाइल क्र: 20256/24/54/2014, http://nhrc.nic.in/display.asp?fno=31/25/13/2013-JCD (30 नवम्बर 2015 को देखा गया)

[350] प्रधानमंत्री ने ‘स्मार्ट’ पुलिस सुधारों और पुलिस बल के शहीदों को सम्मान देने की बात कही.” डेली मेल, 1 दिसम्बर 2014. http://www.dailymail.co.uk/indiahome/indianews/article-2855247/PM-calls-smart-police-reforms-honour-force-s-martyrs.html (10 फरवरी 2016 को दस्तावेज़ देखा गया)

[351] ह्यूमन राइट्स वाच, ब्रोकन सिस्टम, पृष्ठ 107-117.

 

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