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भारतः पुलिस हिरासत में हत्याओं के दोषी कानूनी गिरफ्त से बाहर

हवालात में मौत की रोकथाम के लिए कानून लागू करें

(न्यूयॉर्क) – भारत में पुलिस गिरफ्तारी की प्रक्रिया को अक्सर नजरअंदाज करती है, और हिरासत में अभियुक्तों को यातना देकर मौत के घाट उतार देती है, ह्यूमन राइट्स वाच द्वारा आज जारी एक नई रिपोर्ट में यह बात सामने आई है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2010 से 2015 बीच भारत में पुलिस हिरासत में कम-से-कम 591 लोगों की मौत हुई है. अधिकारियों ने इसके लिए पुलिस को जिम्मेदार ठहराने के बजाए अधिकारों का सम्मान करने वाले पुलिस बल के निर्माण के लिए जरूरी सुधारों को रोकने का काम किया है.

भाईचारे में बंधे: ‘‘पुलिस हिरासत में हत्याएं रोकने में भारत असफल’’ नामक 121 पृष्ठों की रिपोर्ट में गिरफ्तारी संबंधित नियमों की पुलिस द्वारा अवहेलना, यातना देकर हिरासत में मौत, और इनके लिए जिम्मेदार लोगों को बरी किए जाने जैसे मसलों को पड़ताल की गई है. 2009 से 2015 के बीच हिरासत में हुई मौतों में से 17 मौतों की गहराई से जांच की गई है. इस रिपोर्ट में पीड़ितों के परिजनों, गवाहों, न्याय विशेषज्ञों और पुलिस अफसरों के 70 से अधिक साक्षात्कार शामिल हैं. इन 17 मामलों में से किसी में भी पुलिस ने गिरफ्तारी संबंधित नियमों का सही पालन नहीं किया, जिससे संदिग्धों को दुर्व्यवहार का और भी अधिक शिकार होना पड़ा.

नयी दिल्ली, भारत में पुलिस अधिकारी, जनवरी 2016  भारत में पुलिस पर अक्सर उत्पीड़न की जवाबदेही से अपने साथियों को बचाने का इल्जाम लगाया जाता है. © 2016 रायटर्स


ह्यूमन राइट्स वाच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली के अनुसारः
‘‘यातना देने के लिए जब तक अफसरों पर मुकदमा न चलाया जाए तब तक भारत में पुलिस यह नहीं सीखेगी कि संदिग्धों से मार-पीट कर अपराध कबूल करवाने का तरीका अस्वीकार्य है. हमारे शोध से यह पता चलता है कि जो पुलिस अफसर हिरासत में मौतों की जांच कर रहे होते हैं, वे अक्सर अपने सहकर्मियों को बचाने की फिराक रहते हैं न कि इन मौतों के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा दिलाने में.”

हालाँकि भारतीय पुलिस हिरासत में मौतों के लिए आम तौर से आत्महत्या, बीमारी या और कोई प्राकृतिक कारणों पर दोष मढ़ देती है लेकिन पीड़ित के परिजन अक्सर यह आरोप लगाते हैं कि मौत का कारण यातना या अन्य तरीके के दुर्व्यवहार हैं. भारतीय कानून में और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पुलिस कार्यों से संबंधित विभिन्न पहलुओं जैसे मुकदमा दर्ज करने, गिरफ्तार व्यक्तियों के साथ व्यवहार और पूछ-ताछ के के तौर-तरीकों से संबंधित प्रक्रियाओं का निर्धारण किया गया है. हालांकि उचित ट्रेनिंग और निगरानी और सबूत जमा करने के संसाधनों के अभाव के कारण थानों में अक्सर जानकारी लेने या अपराध कबूल करवाने के लिए पुलिस आपराधिक संदिग्धों के साथ दुर्व्यवहार करती है. यातना के तरीकों में जूतों और बेल्ट से बेरहमी से मार-पीट करना, कभी-कभी लोगों को लटका देना शामिल है. ह्यूमन राइट्स वाच द्वारा जांच की गई शव-परीक्षण रिपोर्ट्स में भोथरे औजार से बने चोटों और खून-जमने के निशान पाए गए हैं.

ह्यूमन राइट्स वाच ने प्राथमिक तौर पर ऐसे मामलों का विवरण दिया है जहाँ वकीलों या मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की मदद से परिजनों ने न्यायिक राहत की मांग की है, और जिन मामलों में पुलिस और मेडिकल रिकार्ड्स और अन्य प्रासंगिक दस्तावेज सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध थे. इनमें से अधिकांश मामले अभी भी न्यायालयों में लंबित हैं. जिन मामलों में न्यायालय द्वारा स्वतंत्र जांच के आदेश जारी किये गए, इनमें से कई मामलों में निर्धारित प्रक्रिया में गंभीर स्तर के उल्लंघन और शारीरिक दुर्व्यवहार के ठोस सबूत पाए गए हैं. उदाहरण के लिए, मुंबई में एक पुलिसकर्मी ने हिरासत में एक बंदी की मौत की जांच के दौरान बताया कि मार-पीट इसलिए करनी पड़ी क्योंकि अभियुक्त “एक दुर्दांत अपराधी था, और उसने जानकारी देने से इनकार कर दिया था.”

यातना देने के लिए जब तक अफसरों पर मुकदमा न चलाया जाए तब तक भारत में पुलिस यह नहीं सीखेगी कि संदिग्धों से मार-पीट कर अपराध कबूल करवाने का तरीका अस्वीकार्य है.


पुलिस ने उन नियमों का अनुपालन नहीं किया जिसे 1997 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा डी.के. बासु बनाम पश्चिम बंगाल के मामले में हिरासत में दुर्व्यवहार की रोक-थाम के लिए बनाया गया था और ये नियम तभी से दंड प्रक्रिया संहिता में शामिल कर लिए गए हैं. किसी को भी हिरासत में लेते समय पुलिस को नियमानुसार अपनी पहचान बतानी होगी, मेमो बनाना होगा जिसमें गिरफ्तारी की तारीख और समय दर्शाना होगा, जिस पर एक स्वतंत्र गवाह के हस्तारक्षर के साथ-साथ गिरफ्तार व्यक्ति का प्रति-हस्ताक्षर होना जरूरी है और पुलिस को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हिरासत में लिए जाने वाले व्यक्ति के निकट संबंधी को गिरफ्तारी की सूचना और हिरासत की जगह की जानकारी दे दी गई है.

हिरासत में लेने के बाद गिरफ्तार व्यक्तियों का नियमानुसार मेडिकल परीक्षण करवाना होगा, डॉक्टर को पहले से लगी चोटों का विवरण देना होगा - ताकि कोई भी नई चोट से यह पता लग सके कि पुलिस ने हिरासत में दुर्व्यवहार किया है या नहीं. कानून में यह प्रावधान है कि हर गिरफ्तार व्यक्ति को अगले 24 घंटों के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाए.

ह्यूमन राइट्स वाच का मानना है कि इस नियमावली की अवहेलना के कारण ही हिरासत में दुर्व्यवहार होते हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2015 में हिरासत में हुए 97 मौतों में से 67 मामलों में संदिग्धों को कानून के अनुसार पुलिस या तो 24 घंटों के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने में विफल रही या गिरफ्तारी के बाद 24 घंटों के भीतर ही संदिग्ध की मौत हो गई. तमिलनाडु के एक मजिस्ट्रेट ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया, “पुलिस की अपनी ही प्रक्रिया संहिता है. वे आपराधिक दंड प्रक्रिया संहिता का पालन नहीं करते हैं.’’

पुलिस दुर्व्यवहार के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए भारतीय कानून के तहत पुलिस हिरासत में हुई हरेक मौत की जांच एक न्यायिक दंडाधिकारी (ज्यूडिसियल मजिस्ट्रेट) से कराया जाना अनिवार्य है. पुलिस को एक प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना होता है, और इस तरह की मौतों की जांच ऐसे पुलिस स्टेशन या एजेंसी द्वारा कराई जाती है जो इसमें संलिप्त न हो. हिरासत में मौत के हर मामले की रिपोर्ट राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी दी जाती है. आयोग के नियमानुसार हर एक शव-परीक्षण की वीडियोग्राफी करानी है और शव-परीक्षण की रिपोर्ट एक मॉडल प्रपत्र में तैयार करना होता है.



ह्यूमन राइट्स वाच के शोध, न्यायालय के फैसले, और मीडिया विवरण यह दर्शाते हैं कि इन प्रावधानों की आमतौर पर अवहेलना की जाती है. विभागीय जांच में गलत कामों के लिए बमुश्किल पुलिस को दोषी पाया जाता है. पुलिस संलिप्त पुलिस अधिकारियों के खिलाफ षिकायत दर्ज करने में देर करती है या उसका विरोध करती है. 2015 में पुलिस हिरासत में हुई कुल 97 मौतों में से केवल 33 में ही पुलिस अफसरों के खिलाफ मामले दर्ज किये गए थे. सत्यब्रत पाल ने, जो 2014 तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य रहे हैं, ह्यूमन राइट्स वाच को बताया, “पुलिस की आंतरिक जांच का मूल मकसद लीपा-पोती होता है.”

राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार आयोगों द्वारा जांच और मुआवजे की तो सिफारिश की जाती है, लेकिन शायद ही कभी अनुशासनात्मक कार्रवाई या मुकदमा चलाने की सिफारिश की जाती है. ह्यूमन राइट्स वाच के अनुसार, पीड़ितों के परिजनों द्वारा न्याय पाने का प्रयास करने पर, खास कर जो आर्थिक या सामाजिक तौर पर हाशिये पर हैं, पुलिस द्वारा डराया-धमकाया जाता है.

पुलिस द्वारा यातना और अन्य दुर्व्यवहार और पीड़ितों को न्याय दिलाने में विफलता अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के प्रति भारत की प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन करते हैं. भारत ने नागरिक और राजनैतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रस्ताव की अभिपुष्टि की है और यातना व अन्य क्रूर, अमानवीय या निकृष्ट व्यवहार या सजा के खिलाफ कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किये हैं. भारत ने हालाँकि बलपूर्वक लापता होने के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन पर हस्ताक्षर तो कर दिए हैं, लेकिन उसकी अभिपुष्टि अभी तक नहीं की है. यह कन्वेंशन हिरासत में लोगों के साथ यातना और अन्य गंभीर दुर्व्यवहारों की रोकथाम की मांग करता है.

गांगुली का मानना है कि “यातना देने और दुर्व्यवहार के निवारण के लिए बने नियम-कानूनों का यदि पुलिस अनुपालन करे तो हिरासत में मौतों को रोका जा सकता है”. उन्होंने यह भी कहा कि “भारत तभी कानून के राज के बारे में गर्व कर सकता है, जब उसे लागू करने वालों को जवाबदेह ठहराया जाए”.

पुलिस हिरासत में हुई मौतों के बारे में परिवारों का बयान ( रिपोर्ट से उद्धृत)

एग्नेलो वल्डारिस, महाराष्ट्र
25 वर्षीय एग्नेलो वल्डारिस और तीन अन्य लोगों को चोरी के संदेह में पुलिस ने गिरफ्तार किया, उन्हें कथित तौर पर गैरकानूनी रुप से हिरासत में रखा गया, पीटा गया और साथ ही उनके साथ यौन दुर्व्यवहार किया गया. दो दिन तक हिरासत में रखने के बाद, पुलिसकर्मियों ने उन्हें धमकाया कि अनिवार्य मेडिकल परीक्षण के दौरान वे डाक्टरों को अपने यातनाआंे के बारे में कुछ नहीं बताएँगे. इससे वल्डारिस ने इनकार कर दिया. पुलिस द्वारा उनकी गिरफ्तारी के तीन दिन बाद और इसके पहले कि उन्हें मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाता, 18 अप्रैल, 2014 की सुबह वल्डारिस की मौत हो गयी. मुंबई के वडाला रेलवे पुलिस स्टेशन के अफसरों ने बयान दिया कि हिरासत से भागने की कोशिश करते हुए ट्रेन की चपेट में आने से उनकी मौत हो गई. लेकिन उनके परिजनों और वल्डारिस के साथ हिरासत में रहे गवाहों ने यह आरोप लगाया कि उनकी मौत पुलिस यातना से हुई है.

मौत के बाद, वल्डारिस के पिता, लियोनार्ड वल्डारिस ने थाने में एक शिकायत दर्ज कराई. जब पुलिस ने कोई भी कार्रवाई नहीं की, तो उन्होंने बॉम्बे उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया. न्यायालय ने स्थानीय पुलिस द्वारा “जांच की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर शंका जताई, और केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सी.बी.आई.) द्वारा एक नई जांच के आदेश दिए. सी.बी.आई. ने पाया कि चारों संदिग्धों को पुलिस ने गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखा था और बाद में झूठा रिकॉर्ड तैयार किया गया. इस दुर्व्यवहार के लिए जिम्मेदार पुलिसकर्मियों के खिलाफ मुकदमा नहीं चलाया गया. लियोनार्ड वल्डारिस का कहना है उसे अच्छी तरह याद है कि वह आखिरी बार अपने बेटे से अस्पताल में मिला थाः

मेरे बेटे के हाथ पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था और उसने बताया कि पुलिस ने उसके साथ रात भर मार-पीट की है. उसने कहा कि “डैडी वे मुझे मार देंगे”.....मैंने हर तरह से पुलिस का सहयोग किया, उन पर भरोसा किया. मैंने अपने बेटे को उन्हें सौंप दिया था. अब मैं उस गलती के लिए हर दिन खुद को दोषी मानता हूँ. अगर मैं अपने बेटे को पुलिस को नहीं सौंपता, तो वह आज जिंदा होता.”

काजी नसीरुद्दीन, पश्चिम बंगाल
पश्चिम बंगाल में सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस पार्टी के एक स्थानीय नेता 35 वर्षीय काजी नसीरुद्दीन को 18 जनवरी, 2013 को हुगली जिले में हिरासत में लिया गया. हालाँकि पुलिस का यह दावा है कि धनियाखाली पुलिस थाने के शौचालय में गिरने से नसीरुद्दीन की मौत हो गई थी, जबकि नसीरुद्दीन की पत्नी मांजा बीबी का आरोप है कि उनके पति की मौत पुलिस की मार-पीट से हुई.

मांजा बीबी ने राज्यपाल से एक स्वतंत्र जांच की लिखित मांग की, और तब यह मामला पश्चिम बंगाल सीआईडी को सौंप दिया गया. राज्य पुलिस के ही एक अंग सीआईडी ने इस मौत की सही ढंग से जांच नहीं की. मई 2013 में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए नसीरुद्दीन का मामला केन्द्रीय जांच ब्यूरो को सौंप दिया, और अदालत ने इस पर जोर दिया कि इस मामले में पुलिस ने गिरफ्तारी संबंधी प्रक्रियाओं का उलंघन किया और सही तरीके से जांच करने में भी विफल रही है. फैसले में कहा गयाः “राज्य की जांच एजेंसी की पूरी-की-पूरी जांच डैमेज कंट्रोल का हताषाजनक प्रयास है.’’

श्यामू सिंह, उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश के अलीगढ जिले के कवारसी पुलिस थाने में 15 अप्रैल, 2012 को श्यामू सिंह की पुलिस हिरासत में मौत के बाद पुलिस ने कहा कि उन्होंने आत्महत्या की थी. लेकिन उनके साथ ही गिरफ्तार श्यामू के भाई रामू सिंह ने बताया कि गिरफ्तारी के बाद श्यामू के कपडे उतार कर उन्हें केवल अंडरवियर में रहने दिया गया और उनको यातना दी गयीः

“उन्होंने, पुलिसकर्मियों ने, हमें फर्श पर लिटा दिया. चार लोगों ने मुझे नीचे दबा कर पकडे रखा, और एक आदमी मेरी नाक के रास्ते से लगातार पानी डालता था. मैं सांस नहीं ले पा रहा था. जब वे मेरे साथ ऐसा करने से रुकते थे, तो वे श्यामू के साथ शुरू हो जाते थे. श्यामू बेहोश हो गया तो वे काफी चिंतित हो गए और आपस में बात करने लगे कि वह मर जायेगा. एक आदमी ने अपनी जेब से एक पुड़िया निकाली और उसे श्यामू के मुंह में ढूंस दिया.”

परिजनों ने सात पुलिस अफसरों के खिलाफ यातना देकर मारने का आरोप दर्ज कराया. तब से लेकर अब तक पुलिस द्वारा लगातार जवाबदेही को सुनिश्चित करने के प्रयासों में रोड़ा अटकाया जा रहा है. रामू ने ह्यूमन राइट्स वाच को बताया कि अपने भाई के मामले को आगे बढाने के कारण पुलिस उसे लगातार डरा-धमका और परेशान कर रही हैः

पुलिस मुझसे कहती थी कि मैं उनके लिए नासूर बन गया हूँ जिसे काट कर फेंक देना होगा. “तुम हमारे लिए वही हो गए हो. होशियार रहो या श्यामू के साथ जो हुआ तुम्हारे साथ भी होगा.”

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