(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर में इंटरनेट और टेलीफोन पर लम्बे समय से प्रतिबंध के कारण वहां की आबादी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और इसे तुरंत समाप्त किया जाना चाहिए. 5 अगस्त, 2019 से सेवाओं पर प्रतिबंध ने सूचनाओं पर छाए अंधेरे को और गहरा कर दिया है, परिवारों को किसी से भी संपर्क करने से रोक दिया है, चिकित्सा सेवाओं तक लोगों की पहुंच नहीं हो पा रही है और स्थानीय अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है.
भारत सरकार ने कहा है कि जम्मू और कश्मीर को संवैधानिक रूप से प्रदत्त स्वायत्त स्थिति रद्द करने के बाद ऐसी झूठी या भड़काऊ सूचनाओं को फैलने से रोकने के लिए प्रतिबंध आवश्यक हैं जिनसे हिंसक विरोध प्रदर्शन हो सकते हैं. हालांकि, ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून स्वतंत्र अभिव्यक्ति एवं सूचना के आदान-प्रदान करने के अधिकार समेत मौलिक स्वतंत्रता पर व्यापक, अंधाधुंध और अनिश्चित प्रतिबंधों का निषेध करते हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “कश्मीर में फ़ोन और इंटरनेट पर भारत सरकार के अनिश्चित कालीन प्रतिबंध से काफी नुकसान हो रहा है और इसे तुरंत समाप्त किया जाना चाहिए. इन प्रतिबंधों के कारण लोगों का गुस्सा भड़क रहा है, आर्थिक नुकसान हो रहा है और अफवाहें उड़ रही हैं. ये सब मानवाधिकारों की पहले से ख़राब स्थिति को और भी बदतर बना रहे हैं.”
कश्मीर घाटी और अन्य मुस्लिम बहुल इलाकों में टेलीफोन सेवा प्रतिबंधित है और कुछ ही लैंडलाइन टेलीफोन काम कर रहे हैं. कुछ सरकारी कार्यालयों में सार्वजनिक फोन सेवाएं उपलब्ध हैं, लेकिन उनका उपयोग करने के लिए कश्मीरियों को कई जाँच चौकियों से गुजरना पड़ता है और फिर कई घंटों तक अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ता है. कश्मीर से बाहर रहने वाले लोग अपने प्रियजनों का हाल-चाल जानने के लिए बेचैन हैं.
ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर में कश्मीरियों ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि वे रोजमर्रा की ज़िंदगी पर सुरक्षा प्रतिबंधों के असर से नाराज और चिंतित हैं. एक व्यापारी ने कहा, “हकीक़त में सरकार ने हम सभी को जेल में डाल दिया है. हम आज़ादी से आवाजाही नहीं कर सकते. हम खुलकर बोल नहीं सकते. क्या यह जेल नहीं है?” एक महिला ने कहा कि उसने सुना है कि दूसरे शहर में रहने वाली उसकी मां बीमार है लेकिन वह उसे फ़ोन नहीं कर सकती और न ही उससे मिल सकती है: “यदि आप अपने परिवार से बात नहीं कर सकते हैं, अपनी मां से मिल नहीं सकते हैं, तो क्या यह सामान्य स्थिति है?”
इंटरनेट पर प्रतिबंध उन कश्मीरियों की रोजी-रोटी छीन रहा है जो इसके लिए मोबाइल मैसेजिंग एप्स या ईमेल पर निर्भर हैं. व्यापारी ऑर्डर का लेन-देन नहीं कर सकते, टूर ऑपरेटर्स अपनी वेबसाइटों के जरिए काम नहीं कर सकते, छात्र पाठ्यक्रम पूरा नहीं कर सकते और पत्रकार रिपोर्ट नहीं भेज सकते हैं. एक व्यक्ति ने बताया कि वह अपने करों का भुगतान नहीं कर पा रहे हैं: “अब यह सब ऑनलाइन होता है. सरकार ने ऐसा ही आदेश दिया है. फिर उन्होंने इंटरनेट बंद कर दिया. तो क्या अब सरकार देर से अदायगी पर मुझ पर लगने वाले जुर्माने की भरपाई करेगी?”
एक सरकारी डॉक्टर ने श्रीनगर में विरोध प्रदर्शन किया. उसने बताया कि इंटरनेट पर प्रतिबंध लोगों, विशेष रूप से गरीबों, को सरकारी स्वास्थ्य बीमा प्राप्त करने से वंचित कर रहा है क्योंकि यह व्यक्तिगत डिजिटल कार्ड से जुड़ा होता है और मेडिकल रिकार्ड्स की जानकारी प्राप्त करने के लिए इसे इंटरनेट के जरिए स्वाइप करना पड़ता है. मीडिया की खबरों के अनुसार, उसे गिरफ्तार कर लिया गया.
इंटरनेट का लम्बे काल तक और व्यापक प्रतिबंध से आपातकालीन सेवाएं और स्वास्थ्य जानकारी, मोबाइल बैंकिंग और ई-कॉमर्स, परिवहन, स्कूल कक्षाएं, प्रमुख समस्याओं और घटनाओं की रिपोर्टिंग और मानवाधिकार जांच समेत आवश्यक गतिविधियां और सेवाएं प्रभावित होती हैं. आर्थिक नीति के मामलों के थिंक टैंक इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस के मुताबिक 2017 में जम्मू और कश्मीर में मोबाइल इंटरनेट सेवाओं पर लगाए गए 24 प्रतिबंधों से राज्य को करीब 16 अरब रुपये का नुकसान हुआ.
अधिकारियों का दावा है कि सोशल मीडिया और इंटरनेट-आधारित मास मैसेजिंग एप्स ने अतीत में जम्मू-कश्मीर में अफवाहों को हवा दी जिसके कारण हिंसा उग्र हो गई लेकिन वर्तमान प्रतिबंधों ने लोगों की जान बचाई है. हालाँकि सरकार के फैसले का समर्थन और विरोध करने वाले दोनों ने ही गलत सूचना फैलाई है और घृणा की हिमायत की है मगर कश्मीरियों का कहना है कि सरकार ने केवल सरकार की आलोचना करने वालों को निशाना बनाया है. उदाहरण के लिए, जम्मू और कश्मीर से बाहर सोशल मीडिया पर कई लोग एकजुटता और प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में लाल बिंदु का उपयोग कर रहे हैं. कई ऐसे खातों के बारे में शिकायत दर्ज की गई और फिर उन्हें बंद करा दिया गया.
भारतीय कानून में ऑनलाइन प्रतिबंधों का प्रावधान है. अगस्त 2017 में, भारत सरकार ने भारतीय दूरसंचार अधिनियम, 1885 के तहत दूरसंचार अस्थाई सेवा निलंबन (लोक आपात या लोक सुरक्षा) नियम जारी किए. ये नियम केंद्र और राज्य सरकारों को प्रतिबंध संबंधी आदेश जारी करने की अनुमति देते हैं. इससे पहले, प्रतिबंध संबंधी ज्यादातर आदेश दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत जारी किए जाते थे. यह एक उपनिवेशकालीन प्रावधान है जो राज्य सरकारों को कानून और व्यवस्था बनाए रखने में मदद करने के लिए आपातकालीन शक्तियां प्रदान करता है, जैसे कि अशांति फैलने से रोकने के लिए कर्फ्यू लगाना या बड़ी सभाओं पर रोक लगाना. हालांकि यह प्रावधान मुख्य रूप से आपात स्थितियों में लागू किया जाना था, लेकिन इसकी विस्तृत भाषा और पर्याप्त सुरक्षा उपायों के अभाव ने सरकारों को यह मौक़ा दे दिया कि वे शांतिपूर्ण सभाओं को रोकने और व्यापक इंटरनेट प्रतिबंध लगाने के लिए इसका बार बार दुरुपयोग करें.
अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून, जैसे कि नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय समझौता (आईसीसीपीआर), इंटरनेट सहित सभी संचार माध्यमों के जरिए लोगों को स्वतंत्र रूप से सूचना और विचारों को खोजने, प्राप्त करने और प्रदान करने के अधिकार की रक्षा करते हैं. सुरक्षा संबंधी प्रतिबंध कानून आधारित होने चाहिए और विशिष्ट सुरक्षा सरोकारों के प्रति आवश्यक और समुचित कार्रवाई होने चाहिए. 22 अगस्त को संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने जम्मू-कश्मीर पर संयुक्त बयान जारी किया कि, “बिना औचित्य प्रस्तुत किए सरकार द्वारा इंटरनेट और दूरसंचार नेटवर्क पर प्रतिबंध आवश्यकता और आनुपातिकता के बुनियादी मानदंडों के अनुरूप नहीं है.” अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत डेविड काए ने कहा है कि ज़रूरत इस बात की है कि प्रतिबंध अपने घोषित उद्देश्य को प्राप्त करें जबकि वास्तव में वे अक्सर उसे खतरे में डालते हैं. उनकी 2017 की रिपोर्ट के अनुसार, “यह पाया गया है कि नेटवर्क कनेक्टिविटी बनाए रखना सार्वजनिक सुरक्षा चिंताओं को कम कर सकता है और सार्वजनिक कानून व व्यवस्था को बहाल करने में मदद कर सकता है.”
जुलाई 2016 में, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने ऑनलाइन पहुँच और सूचना रोकने या बाधित करने के लिए कतिपय देशों द्वारा उठाये गए कदमों पर निंदा प्रस्ताव पारित किया और मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 19 और आईसीसीपीआर के तहत अभिव्यक्ति की आज़ादी सुरक्षित करने की मांग की. 2015 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संघर्ष की स्थितियों में कार्रवाई पर अपनी संयुक्त घोषणा में संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों और विशेष दूतों ने घोषणा की कि, संघर्ष के समय में भी, “कम्युनिकेशन ‘किल स्विचेज’ (यानी सभी संचार प्रणालियों पर प्रतिबंध) का इस्तेमाल मानवाधिकार कानून के तहत कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता है.”
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि अनिश्चितकालीन, व्यापक प्रतिबंध और शांतिपूर्ण विरोध का दमन करने के बजाय, सरकार को सोशल मीडिया का उपयोग पारदर्शी जानकारी प्रदान करने के लिए करना चाहिए जो कि हिंसा भड़कने को रोकने में कारगर हो सकता है. साथ ही सरकार को सुरक्षा बलों को अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के अनुसार कार्य करने का निर्देश देना चाहिए.
गांगुली ने कहा, “अंतर्राष्ट्रीय कानून इंटरनेट सहित अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध की अनुमति देते हैं, लेकिन उन्हें वैध उद्देश्य के लिए सीमित दायरे में ही लागू किया जाना चाहिए. लेकिन वर्तमान प्रतिबंधों के मामले में इसका पालन नहीं किया गया है. भारत सरकार को लोगों की चिंताओं को दूर करना चाहिए, न कि उन्हें समुचित और स्वतंत्र रूप से संवाद करने पर प्रतिबंधित करना चाहिए.”