सारांश
मेरी जैसी महिलाओं के लिए, #मीटू (#MeToo) का क्या मतलब है? गरीबी और कलंक के डर से हम कभी खुल कर बोल नहीं सकते. हमारी जैसी महिलाओं के लिए कोई जगह सुरक्षित नहीं है. न हमारे काम करने की जगह, न ही हमारे घर, और न ही सड़क जिस पर हम निकलते हैं.
—शालिनी (बदला हुआ नाम), एक घरेलू कामगार, गुड़गांव, मई 2020
साल 1992 में, भारत के उत्तरी राज्य राजस्थान में सरकारी सामाजिक कार्यकर्ता भंवरी देवी का सामूहिक बलात्कार उच्च जाति के पड़ोसियों ने उनके पति के सामने किया. पड़ोसी अपने परिवार में एक बाल विवाह रोकने के भंवरी देवी के प्रयासों से नाराज थे.
लेकिन भंवरी देवी को न्याय नही मिला. एक निचली अदालत ने बलात्कार के आरोपियों को बरी कर दिया और कम संगीन अपराधों के लिए उन्हें दोषी ठहराया, जिसके लिए उन्हें नौ माह जेल की सजा काटनी पड़ी. 28 साल बाद आज भी इस मुकदमे की अपील राज्य के उच्च न्यायालय में लंबित है. लेकिन उनके कटु अनुभव से उपजे सार्वजनिक आक्रोश और सक्रियता ने करोड़ों भारतीय महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ नए कानूनी संरक्षण का मार्ग प्रशस्त किया.
उनके नियोक्ता, राज्य सरकार ने जिम्मेदारी से इनकार कर दिया क्योंकि उन पर अपने खेतों में हमला किया गया था. कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की जिसमें यह मांग की गई कि “कार्यस्थलों को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाया जाना चाहिए और हर कदम पर महिला कर्मचारियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी नियोक्ताओं की होनी चाहिए.” 1997 में याचिका पर कार्रवाई करते हुए, विशाखा बनाम राजस्थान राज्य मामले में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने “विशाखा दिशानिर्देश” निर्धारित किए. इसके जरिए नियोक्ता के लिए महिला कर्मचारियों को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करने के लिए कदम उठाना और समाधान, निपटारे या अभियोजन के लिए कार्यप्रणाली की व्यवस्था करना अनिवार्य बना दिया गया. 2013 में, भारत ने औपचारिक और अनौपचारिक दोनों क्षेत्रों में कामगारों की सुरक्षा के लिए कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम लागू किया.
यह कानून भारत के लिए एक महत्वपूर्ण विधायी कदम था, लेकिन देश की ज्यादातर महिला कामगारों के लिए, खास तौर से अनौपचारिक क्षेत्र के लोगों के लिए, यह कानून केवल कागज पर मौजूद है. इस कानून का सरकारी अमल इतना बदतर है कि अगर आज भंवरी देवी पर हमला होता, तो उन्हें अभी भी न्याय नहीं मिलता.
लाखों उत्तरजीवी महिलाओं द्वारा लैंगिक हिंसा के अपने अनुभवों को सोशल मीडिया में साझा करने के साथ अक्टूबर 2017 में वैश्विक #मीटू (#MeToo) आंदोलन का आगाज हुआ. इस आन्दोलन से प्रभावित होकर भारत में अनेक महिलाओं - ज्यादातर मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय से जुड़ी हुईं और साथ ही अंग्रेजी में सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने में सक्षम अन्य महिलाओं ने इस हैशटैग से अपने साथ हुए उत्पीड़न को सार्वजनिक करना शुरू कर दिया. इसने बड़ी शख्सियत वाले पुरुषों को नए सिरे से सार्वजनिक जांच के दायरे में ला दिया और कुछ को इस्तीफे देने पड़े और कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ा. हालांकि, कुछ हद तक सोशल मीडिया पर चलने के कारण भारत में #मीटू (#MeToo) आंदोलन ने अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाओं को बाहर रखा जहां 95 प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं.
दिल्ली स्थित वकील रेबेका जॉन ने कहा, “हमने इस तथ्य को स्वीकार तक नहीं किया है कि फैक्टरी कर्मचारी, घरेलू कामगार, निर्माण मजदूर जैसे श्रमिकों का हर रोज यौन उत्पीड़न किया जाता है और उन पर यौन हमला होता है. लेकिन गरीबी के कारण उनके पास कोई विकल्प नहीं होता, वे जानते हैं कि जो भी वे कमाते हैं वह कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.” एक घरेलू महिला कामगार ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न इतनी सामान्य बात हो गई है कि महिलाओं से सिर्फ यही उम्मीद की जाती है कि इसे स्वीकार कर लें:
हर कोई उत्पीड़न को मामूली घटना समझता है. “अरे जाने दो,” हर कोई यही कहता है. यदि बात बहुत अधिक बढ़ जाती है, तब मुझे इसकी रिपोर्ट दर्ज कराना सही लगता है क्योंकि जितना अधिक आप सहन करते हैं, यह उतना ही बढ़ता जाता है. लेकिन हम गरीब हैं, और डरते भी हैं कि यदि हमने अपने नियोक्ताओं पर मामला दर्ज कराया, तो वे हमारे खिलाफ चोरी के झूठे आरोप मढ़ सकते हैं, इसलिए हम अपनी आवाज उठाने से डरते हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने औपचारिक और अनौपचारिक दोनों क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं, ट्रेड यूनियन पदाधिकारियों, श्रम और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और शिक्षाविदों के साथ 85 साक्षात्कार किए. इन साक्षात्कारों के आधार पर पाया कि कानून लागू करने के सरकारी प्रयास सीमित हैं, विशेष रूप से अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र की महिलाओं, जैसे कि लाखों घरेलू कामगारों और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के लिए सरकार द्वारा नियोजित कर्मियों, को सुरक्षा प्रदान करने के तंत्र में भारी अंतराल मौजूद हैं.
हालांकि औपचारिक क्षेत्र में ज्यादा संख्या में महिलाएं यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ उठा रही हैं, और कंपनियां कानून का पालन करने के लिए धीरे-धीरे कदम उठा रही हैं, कार्यकर्ताओं ने बताया कि महिलाओं को अभी भी कलंक, प्रतिशोध के डर के कारण रिपोर्ट करना मुश्किल लगता है. साथ ही वे लम्बी न्याय प्रक्रिया से डरती है, जो अक्सर उन्हें निराश करती है.
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न संबंधी कानून
1997 में, सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा दिशानिर्देश प्रस्तुत किए. अदालत ने कहा, “लैंगिक समानता में यौन उत्पीड़न से सुरक्षा और गरिमा के साथ काम का अधिकार शामिल है, जो एक सार्वभौमिक मान्यता प्राप्त बुनियादी मानवाधिकार है.” हालांकि, ये दिशानिर्देश वर्तमान में करीब 19.5 करोड़ श्रमिक समूह वाले अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाओं को यौन उत्पीड़न से सुरक्षा देने में साफ़ तौर से असफल रहे हैं.
2013 में आए कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम ने कार्यस्थल की परिभाषा को व्यापक किया और घरेलू कामगारों समेत अनौपचारिक क्षेत्र को इसके दायरे में लाया. पॉश नाम से लोकप्रिय यह अधिनियम स्वास्थ्य, खेल, शिक्षा के साथ–साथ सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों या सरकारी संस्थानों में और परिवहन समेत अपने नियोजन के दौरान कर्मचारी के भ्रमण के किसी भी स्थान में सभी कामगारों को सुरक्षा प्रदान करता है.
इस कानून में यौन उत्पीड़न को शारीरिक संपर्क और कोशिशों, या यौन अनुग्रह हेतु मांग या अनुरोध, या कामुक टिप्पणी, या अश्लील साहित्य या चित्र का प्रदर्शन, या यौन प्रकृति के किसी अन्य अवांछित शारीरिक, मौखिक, या गैर-मौखिक आचार-व्यवहार के रूप में परिभाषित किया गया है. इनमें से कोई भी कार्य चाहे प्रत्यक्ष हो या सांकेतिक, कानून के तहत यौन उत्पीड़न है. यह कानून पुलिस में आपराधिक शिकायत दर्ज करने के बजाय एक और विकल्प प्रदान करता है. शिकायत सुनने, जांच करने और अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने की सिफारिश के लिए यह कानून समिति का गठन करने हेतु निजी कंपनी के मामलों में नियोक्ताओं को, या अनौपचारिक क्षेत्र के मामले में स्थानीय सरकारी अधिकारियों को बाध्य करता है. कार्रवाई में लिखित माफी से लेकर नौकरी से निष्कासन तक हो सकती है.
इन सबके बाद भी महिलाएं यौन उत्पीड़न या हमले से निपटने के लिए भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत पुलिस शिकायत दर्ज कर सकती हैं. लेकिन वर्षों तक लंबित रह सकने वाले आपराधिक मामलों के विपरीत, शिकायत समितियों से त्वरित और प्रभावी रहत उपाय मिलने की उम्मीद होती है.
पॉश कानून के तहत, 10 या अधिक कर्मचारियों वाले हर एक कार्यालय में प्रत्येक नियोक्ता के लिए आंतरिक समिति (आईसी) का गठन करना आवश्यक है. 10 से कम कर्मचारी होने की स्थिति में जिन प्रतिष्ठानों में आईसी का गठन नहीं किया गया है, या यदि शिकायत नियोक्ता के खिलाफ है, या अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के लिए, राज्य सरकार के जिला अधिकारी या कलेक्टर को प्रत्येक जिला में, और यदि आवश्यक हो तो प्रखंड स्तर पर, स्थानीय समिति (एलसी) का गठन करना है. प्रशिक्षण और शैक्षिक सामग्री विकसित करने, जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करने, कानून के कार्यान्वयन की निगरानी करने और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों में दायर और निपटाए गए मामलों की संख्या के आंकड़े रखने की जिम्मेवारी भी सरकार की है.
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न
इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन द्वारा 2017 में कराए गए भारत में अब तक के सबसे बड़े - 6,000 से अधिक कर्मचारियों के सर्वेक्षण में पाया गया कि रोजगार के विभिन्न क्षेत्रों में यौन उत्पीड़न पांव पसारे हुए है जिनमें अश्लील टिप्पणियों से लेकर यौन अनुग्रह की सीधी मांग तक सम्मिलित है. इसमें पाया गया कि अधिकांश महिलाओं ने लांछन, बदले की कार्रवाई के डर, शर्मिंदगी, रिपोर्ट दर्ज कराने संबंधी नीतियों के बारे में जागरूकता का अभाव या शिकायत तंत्र में भरोसा की कमी के कारण प्रबंधन के समक्ष यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई. यह भी पाया गया कि अधिकांश संगठन अभी भी कानून का अनुपालन करने में विफल हैं, या आंतरिक समितियों के सदस्यों ने इस प्रक्रिया को पर्याप्त रूप से नहीं समझा है.
भारत में ऐसा कोई अध्ययन नहीं है जो इस बात का दस्तावेजीकरण करता हो कि कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न महिलाओं को नौकरी छोड़ने के लिए किस हद तक जिम्मेदार है. इस परिघटना पर डेटा जर्नलिज्म वेबसाइट, इंडियास्पेंड के लिए कई किस्तों में एक जांच रिपोर्ट लिखनेवाली पत्रकार नमिता भंडारे ने कहा, “वैयक्तिक अनुभवों के ढेर सारे स्रोत हैं. लड़कियां यौन उत्पीड़न के बारे में बात नहीं करना चाहती हैं क्योंकि उन्हें डर सताता है कि परिवार तुरंत उन्हें काम छोड़ने के लिए कहेगा. यौन उत्पीड़न संबंधी कोई आंकड़ा या मौलिक परिमाणात्मक अध्ययन नहीं है, और अनौपचारिक क्षेत्र में तो बिल्कुल नहीं.”
नर्सिंग अधिकारी गरिमा (बदला हुआ नाम) ने एक सरकारी अस्पताल में अपने नियोक्ताओं से सुरक्षा और अपने कष्टों के निवारण की मांग की थी. उन्होंने 2019 में दिल्ली महिला आयोग से आंतरिक समिति की कार्यवाहियों के बारे में शिकायत की. उनकी शिकायत के बाद बनी समिति में उन लोगों को शामिल किया गया जो पहले से ही समस्याओं से अवगत थे, लेकिन चूंकि आरोपी उनके सुपरवाइजर थे, उन्होंने कोई हस्तक्षेप नहीं किया. गरिमा ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया, “जब मेरे मामले में आरोपित चिकित्सा अधीक्षक ने कमरे में प्रवेश किया, तो समिति के सभी सदस्य उनके अभिवादन में उठ खड़े हुए. उनका पूर्वाग्रह बहुत स्पष्ट था. आंतरिक समिति ने आरोपी को बचाने का काम किया.” उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि समिति सदस्यों, जो अस्पताल में नियोजित थे, ने उन्हें अपनी शिकायत वापस लेने की धमकी दी और जांच की अंतिम रिपोर्ट उन्हें नहीं दी. दिल्ली महिला आयोग ने उनके मामले की सुनवाई की और कहा कि वे उनकी शिकायत को जांच के लिए जिला स्तरीय स्थानीय समिति को भेजेंगे. गरिमा ने बताया कि उन्हें स्थानीय समिति ने सुनवाई के लिए नहीं बुलाया. इसके बजाय, महिला आयोग ने उन्हें फरवरी 2020 में सूचित किया कि समिति ने अंतिम रिपोर्ट दायर कर दी है जिसमें पुलिस अधिकारियों ने कहा कि उनके पास इस मामले को साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं. गरिमा ने कहा:
अगर मुझे इस नौकरी की जरूरत नहीं होती, तो मैं यह नहीं करती. महिलाओं को ऐसे भयानक माहौल में काम क्यों करना पड़ता है? मैं दूसरों के लिए यह कहने का उदाहरण बन गई हूं कि “क्या होता है? कुछ भी तो नहीं.” यौन उत्पीड़न इतना आम है कि अन्य डॉक्टर मुझसे कहते हैं, “आप लड़ाई के लिए क्यों ज़हमत उठा रही हैं. यह बचपना है. हम सब इससे निपटते हैं, आप क्यों नहीं कर सकतीं?”
अनौपचारिक क्षेत्र का मौन संकट
2013 के कानून के लागू होने के सात साल बाद भी सरकार ने स्थानीय समितियों, जिन पर अनौपचारिक क्षेत्र के यौन उत्पीड़न की शिकायतों के निपटारे की जिम्मेदारी हैं, के कामकाज या प्रभाव पर कोई आंकड़ा या जानकारी प्रकाशित नहीं की है.
मार्था फैरेल फाउंडेशन एंड सोसाइटी फॉर पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन एशिया द्वारा 2018 में देश के 655 जिलों से सूचना के अधिकार आवेदन से प्राप्त जानकारियों पर आधारित एक अध्ययन किया गया. इसमें पाया गया कि कई जिलों ने समितियों का निर्माण या उन्हें कानूनी प्रावधानों के अनुरूप गठित नहीं किया था. जिन जिलों में ये मौजूद भी हैं, वहां वेबसाइट्स या सार्वजनिक स्थानों पर उनके नाम और स्थान संबंधी कोई भी जानकारी खोजना मुश्किल है.
अध्ययन में समिति के सदस्यों के बीच भूमिकाओं और जिम्मेदारियों के बारे में जागरूकता की कमी भी पाई गई, जो यौन उत्पीड़न की शिकायतों के निपटारे की क्षमता की कमी का सूचक है. देश के 655 जिलों में से 29 प्रतिशत ने बताया कि उन्होंने स्थानीय समितियां बनाई हैं, जबकि 15 प्रतिशत ने ऐसा नहीं किया था. आधे से ज्यादा 56 प्रतिशत जिलों ने कोई जवाब नहीं दिया. मई 2020 तक, राजधानी दिल्ली के 11 में से केवल 8 जिलों में ही स्थानीय समितियों का गठन किया गया था. 2018 से मुंबई सिटी जिला की स्थानीय समिति की अध्यक्ष, अनघा सरपोतदार ने बताया कि मई 2020 तक समिति को केवल पांच शिकायतें मिली थीं और ये सभी औपचारिक क्षेत्र से थीं. उन्होंने कहा:
स्थानीय समितियों के बारे में कोई जागरूकता नहीं है क्योंकि केंद्र ने राज्य सरकारों को जागरूकता के प्रचार-प्रसार के लिए कोई राशि नहीं दी है. इसे दर्ज मामलों की कम संख्या में साफ देखा जा सकता है. अनौपचारिक क्षेत्र में कानून लागू नहीं हुआ है. समिति सदस्यों को कुछ मामलों में यात्रा खर्च का भुगतान भी नहीं किया जाता है. पॉश अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए बजट में कोई राशि आवंटित नहीं की गई है.
स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और सामाजिक कल्याण से संबंधित योजनाओं को लागू करने के लिए लाखों महिलाओं को नियोजित करने वाली केंद्र और राज्य सरकारें इन कामगारों की सुरक्षा के लिए कदम उठाने में विफल रही हैं. महिलाओं को अंशकालिक या स्वयंसेवक माना जाता है, उन्हें कम वेतन मिलता है, और वे अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा हैं. इनमें शामिल हैं 26 लाख आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, जो 6 वर्ष तक के बच्चों और उनकी माताओं को भोजन, स्कूल पूर्व शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा, टीकाकरण, और स्वास्थ्य जांच प्रदान करने के लिए सरकार की समेकित बाल विकास सेवाओं के तहत प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और पोषण पर काम करती हैं; 10 लाख से अधिक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) हैं जो सरकार के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अतर्गत सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के रूप में काम करती हैं; और 25 लाख मध्याह्न भोजन रसोइए हैं जो सरकारी स्कूलों में दिए जाने वाला निःशुल्क भोजन तैयार करती हैं.
इन महिलाओं को अपने काम के कारण यौन उत्पीड़न के उच्च जोखिम का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन स्कूल और अस्पताल जैसे सरकारी संस्थानों में आंतरिक समितियों का सुचारू कार्यान्वयन सुनिश्चित करने या जिलों में स्थानीय समितियां गठित करने में सरकार की विफलता के कारण इन महिलाओं की शिकायत निवारण प्रणाली तक पहुंच नहीं बन पाई है. मिसाल के तौर पर, हरियाणा की आशा कार्यकर्ता, 36 वर्षीय निशा (बदला हुआ नाम) ने बताया कि यौन उत्पीड़न के मामले कितने आम और अनियंत्रित हो सकते हैं:
जब हम उप-केंद्र जाते हैं, और जब कभी अकेले होते हैं, तो हमारे पुरुष सहकर्मी हमारे पहनावे पर टिप्पणी करते हैं, हमारे पतियों के बारे में निजी सवाल पूछते हैं, और यह सब काफी फूहड़ किस्म का लगता है. कभी-कभी जब हम बच्चों के पोलियो टीकाकरण के लिए लोगों के घरों पर जाते हैं, तो युवा और बूढ़े मजाक करते हैं, जैसे “हमें भी दो घूंट पिला दो, हम भी जवां हो जाएंगे.”
45 वर्षीय आशा कार्यकर्ता रंजना (बदला हुआ नाम), हरियाणा में आशा कार्यकर्ता संघ की सदस्य हैं. उन्होंने बताया कि अपने काम के लिए उन्हें आपात स्थितियों में रात को भी कॉल पर उपलब्ध रहना पड़ता है, जिससे उनके उत्पीड़न के शिकार होने का खतरा रहता है: “यौन उत्पीड़न कानून पर सरकार की तरफ से कोई जागरूकता या प्रशिक्षण नहीं है, उदाहरण के लिए, अगर कुछ हो जाए तो हमें कैसे शिकायत करनी चाहिए. वे केवल हमें यह बताते हैं कि अगर किसी भी समय आपात स्थिति हो तो हमें कॉल का जवाब देना है.”
घरेलू कामगार श्रमिकों की एक अन्य महत्वपूर्ण श्रेणी हैं जिनके समक्ष निजी घरों में उनके अलग-थलग रहने और अन्य श्रमिकों को गारंटी की गई अनेक प्रमुख श्रम सुरक्षा से बाहर रखे जाने के कारण यौन उत्पीड़न और हिंसा का ख़ास तौर पर जोखिम रहता है. घरेलू कामगारों को मान्यता और उनकी सुरक्षा हेतु संरक्षणों के लिए बढ़ते राष्ट्रीय और वैश्विक आंदोलन के बावजूद भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के घरेलू कामगार समझौते की संपुष्टि नहीं की है.
घरेलू कामगारों के लिए, 2013 का पॉश अधिनियम कहता है कि स्थानीय समितियों को मामलों को पुलिस के पास भेज देना है, नागरिक राहत उपायों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता. ह्यूमन राइट्स वॉच ने अपने पूर्व के दस्तावेजीकरण में पाया है कि थाने में जाकर यौन हिंसा की शिकायत करने पर महिलाओं को अक्सर अपमान और अविश्वास का सामना करना पड़ता है, और आपराधिक मामले सालों तक अदालतों में खिंच सकते हैं, जो उत्तरजीवियों को खतरे में डाल सकते हैं और सुनवाई में शामिल होने पर उनके कार्यदिवस का नुकसान हो सकता है. यही तथ्य ज्यादातर महिला घरेलू कामगारों को शिकायत करने से विमुख करते हैं. मार्था फैरेल फाउंडेशन की निदेशक नंदिता भट्ट ने कहा, “बलात्कार के मामलों में भी, महिलाओं को शिकायत दर्ज करने में बहुत मुश्किलों से गुजरना होता है. तो भला वे यह शिकायत कैसे दर्ज कर पायेंगी कि नियोक्ता ने उन्हें अनुपयुक्त तरीके से देखा?”
गुड़गांव की घरेलू कामगार 37 वर्षीय शालिनी (बदला हुआ नाम) ने कहा कि वह जिस आवासीय अपार्टमेंट परिसर में अंशकालिक घरेलू कामगार के रूप में काम करती थीं वहां के एक सुरक्षा गार्ड ने महीनों तक उनका यौन उत्पीड़न किया. शालिनी बीते कुछ सालों से मार्था फैरेल फाउंडेशन से जुड़ी हुई हैं और पॉश अधिनियम के बारे में जानती हैं, लेकिन उन्हें यकीन नहीं होता है कि वह कभी मामले की रिपोर्ट दर्ज कर पायेंगी:
मेरे जैसे लोगों को न्याय नहीं मिलता है. स्थानीय समिति इतनी दूर है कि मैं वहां जाने के बारे में सोच भी नहीं सकती, और यकीनन मैं पुलिस के पास नहीं जाऊंगी. इस कानून ने मेरी जैसी महिलाओं की मदद नहीं की है. अगर आप शिकायत करते हैं तो भी कुछ नहीं होता. एक बार हमने एक घरेलू कामगार की पिटाई को लेकर प्रदर्शन किया, लेकिन पुलिस ने हम पर चुप रहने का दबाव बनाया. ऐसे में, पुलिस के पास जाने का क्या मतलब है? अगर हम शिकायत करने के बारे में सोचते भी हैं, तो नियोक्ता घरेलू कामगारों के खिलाफ झूठी शिकायतें दर्ज कर देंगे और पुलिस घरेलू कामगारों को पूरी रात थाना पर रखेगी और उन्हें परेशान करेगी. कानून के कारण हमारा जीवन बेहतर नहीं हुआ है.
25 वर्षीय कायनात (बदला हुआ नाम) ने कहा कि उनके दादा की उम्र के एक व्यक्ति ने उनका यौन उत्पीड़न किया जब वह 17 साल की थी और अपने नियोक्ता के घर में बतौर घरेलू कामगार रहती थी:
जब उसके बच्चे और पोते-पोतियां बाहर निकल जाते, तो वह जानबूझकर घर पर रह कर मेरे आगे-पीछे डोलते रहता. मेरी पीठ थपथपाते हुए उसके हाथ भटक जाते. मैंने नजरअंदाज करने की कोशिश की. एक बार जब उसने ऐसा किया, तो घर पर कोई नहीं था इसलिए मैं वॉशरूम में बंद हो गई और तब तक बाहर नहीं निकली जब तक दूसरे लौट नहीं आए. मुझे पता था कि अगर मैं उन्हें बताऊंगी तो कोई भी मुझ पर यकीन नहीं करेगा, इसलिए मैं चुप रही. वह आदमी मुझसे कहता था, “छोटे कपड़े पहनो, तुम इसमें बेहतर दिखोगी.” मैंने सहा क्योंकि मुझे अपने परिवार के लिए पैसे कमाने थे.
भारत का कपड़ा उद्योग देश में कृषि क्षेत्र के बाद महिलाओं का दूसरा सबसे बड़ा नियोक्ता है. कार्यकर्ताओं का कहना है कि भारतीय गारमेंट फैक्ट्रियों में यौन उत्पीड़न के साथ-साथ इनकी निगरानी और इन्हें संबोधित करने के मामले में गंभीर खामियां चिंताजनक तौर पर व्याप्त हैं. यद्यपि इस उद्योग में ज्यादातर कामगार महिलाएं हैं, लेकिन प्रबंधन में ज्यादातर पुरुष ही रहते हैं. महिलाओं ने कामुक टिप्पणी, उनके यौन जीवन के बारे में चुभते सवाल, पीछा करने और काम का बोझ हल्का करने एवं छुट्टी के एवज में यौन अनुग्रह के प्रस्तावों के बारे में बताया.
#मीटू (#MeToo) और आवाज़ उठाने की कीमत
भारत के “मी टू” आंदोलन में, जो एक व्यापक समस्या को दर्शाता है, अभी भी एक छोटा समूह शामिल है क्योंकि बदले की कार्रवाई का डर और आंतरिक समितियों में जागरूकता या विश्वास की कमी समेत रिपोर्ट दर्ज करने की राह में बड़ी बाधाएं बनी हुई हैं. ताकतवर पुरुष अपने ऊपर आरोप लगाने वालों को रोकने के लिए कानूनी चालों का भी इस्तेमाल करते हैं.
उदाहरण के लिए, भारत में #मीटू (#MeToo) आंदोलन के दौरान, सबसे प्रमुख आरोप सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली सरकार के एक मंत्री के खिलाफ लगाए गए. अक्टूबर 2018 में, कम-से-कम 20 महिलाओं ने तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री एम.जे. अकबर पर बतौर अखबार संपादक कई वर्षों तक यौन दुर्व्यवहार करने का आरोप लगाया.
अकबर ने आरोपों से इनकार किया और इनके दुर्भावनापूर्ण होने का दावा किया. उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा तो दिया, लेकिन उनके उत्पीड़नकारी व्यवहार के बारे में पहली बार लिखने वाली महिला पत्रकार प्रिया रमानी के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया.
रमानी ने अगस्त 2019 में दिल्ली की एक अदालत में अपने खिलाफ आपराधिक मानहानि के मुकदमे में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा, “मैंने जनहित और #MeToo आंदोलन के संदर्भ में सच्चाई बयान की. यह जानबूझकर मुझे निशाना बनाते हुए मुझे डराने की कोशिश है.” रमानी की वकील रेबेका जॉन ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि मानहानि मुकदमा, जो कि रिपोर्ट लिखने के समय तक लंबित था, ने लोगों में खौफ़ पैदा कर दिया. “बहुत सी महिलाएं मेरे पास आई हैं क्योंकि वे संभावित पलटवार के बारे में बहुत चिंतित हैं, जिसका उन्हें सामना करना पड़ सकता है अगर वे अपना मुंह खोलती हैं. यह साफ़ है कि अब कोई भी यौन उत्पीड़न के बारे में नहीं बोल रहा है. वह दौर आया और चला गया.”
भारत का आपराधिक मानहानि कानून ब्रिटिश औपनिवेशिक काल का एक अवशेष है जिसमें दो साल तक की जेल और जुर्माने का प्रावधान है. आपराधिक मानहानि, अभिव्यक्ति पर असंगत दंड लगाने के आधार पर, अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत गारंटी किए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है और इसे यौन उत्पीड़न की शिकायतों पर कानूनी कार्रवाई करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए. दीवानी मानहानि के मामलों का इस्तेमाल भी धमकी देने के लिए किया जा सकता है. भारत में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के आरोपी अन्य पुरुषों ने शिकायतकर्ताओं पर दीवानी मानहानि के मामले दर्ज किए हैं.
अप्रैल 2016 में, जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल के पूर्व अध्यक्ष, आर.के. पचौरी ने अपने ऊपर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिलाओं में एक के खिलाफ दीवानी मानहानि का मामला दायर किया. उन्होंने महिला के वकील वृंदा ग्रोवर के खिलाफ भी मामला दर्ज किया, और अपने ऊपर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिलाओं के बयानों को प्रकाशित करने के लिए कई मीडिया संस्थानों को भी इस मुक़दमे में आरोपित किया. ग्रोवर ने कहा:
यह मुद्दा नए निम्न स्तर पर पहुंच गया है, जहां सार्वजनिक रूप से बोलने वाले वकील को अब निशाना बनाया जा रहा है…. मेरे हिसाब से चीजें बेहद खतरनाक दिशा में मोड़ दी गई हैं क्योंकि सामाजिक क्षेत्र ऐसी एक जगह है जहां हम समर्थन जुटाने में सक्षम हैं .... यह सामाजिक क्षेत्र ही है जो परिवर्तन की प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण होता है, जहां अलग-अलग किस्म के नैरेटिव (पाठ) विकसित होते हैं, जो महिलाओं की स्पष्ट अभिव्यक्ति पर पैनी नजर रखते हैं कि भद्दी टिप्पणी के मामले में क्या गलत है और क्यों यह मामूली “छेड़खानी” का मुद्दा नहीं है.
अंतर्राष्ट्रीय कानूनी दायित्व
भारत ने 1993 में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र समझौते (CEDAW) की पुष्टि की है. यह समझौता कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को मानवाधिकारों के उल्लंघन के रूप में देखता है और इसका निषेध करता है. भारत आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय समझौते का भी हिस्सा है. इस समझौते के मुताबिक सभी कामगार “सुरक्षित और स्वस्थ कार्य परिस्थितियों” के हकदार हैं और राज्यों का मुख्य दायित्व है कि वे कानून के माध्यम से कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम करें, उपयुक्त शिकायत प्रक्रिया और प्रणाली सुनिश्चित करें और यौन उत्पीड़न के लिए आपराधिक दंड तय करें.
जून 2019 में, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने एक ऐतिहासिक संधि स्वीकृत की जिसने कार्यस्थल की दुनिया में हिंसा और उत्पीड़न की रोकथाम और जवाबी कार्रवाई के लिए नए वैश्विक मानक तय किए. भारत सरकार, भारतीय श्रमिक संगठनों और भारत के नियोक्ता संघों के प्रतिनिधियों, सभी ने समझौते के पक्ष में मतदान किया, लेकिन भारत ने अभी तक इस संधि की पुष्टि नहीं की है.
यह संधि न्यूनतम दायित्वों का निर्धारण करती है कि कैसे सरकारों को कार्यस्थल पर लोगों के खिलाफ हिंसा को रोकना और उनकी रक्षा करनी चाहिए. इसमें कार्यस्थल पर उत्पीड़न और हिंसा के खिलाफ प्रभावी राष्ट्रीय कानून सुनिश्चित करना और लैंगिक रूप से उत्तरदायी, समावेशी और एकीकृत रणनीति अपनाना शामिल है. संधि के तहत रोकथाम के उपाय अपेक्षित हैं, जिनमें सूचना अभियान एवं हिंसा और उत्पीड़न के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देना शामिल है. इसके लिए अमल भी जरूरी है, जैसे निरीक्षण और जांच, एवं शिकायत प्रणाली, व्हिसलब्लोअर की सुरक्षा, व मुआवजा समेत राहत उपायों तक पीड़ितों की पहुंच.
मुख्य सिफारिशें
भारत सरकार को राज्य सरकारों, नागरिक समाज संगठनों, महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, ट्रेड यूनियनों, निजी क्षेत्र और राष्ट्रीय एवं राज्य महिला आयोगों के साथ मिलकर कार्यस्थल पर उत्पीड़न का निषेध करने वाले कानूनों और नीतियों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए. सरकार को चाहिए:
- कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 को लागू करे, इनमें समितियों के गठन और प्रभावी संचालन की निगरानी, निरीक्षण और जांच, अनुपालन में विफल नियोक्ताओं को दंडित करना, और शिकायत प्रणाली एवं मुआवजा सहित पीड़ितों की राहत उपायों तक पहुंच सुनिश्चित करना शामिल है.
- मामलों के प्रकार और समाधान समेत, आंतरिक और स्थानीय समितियों द्वारा दर्ज तथा निपटाए गए यौन उत्पीड़न मामलों की संख्या संबंधी आंकड़े वार्षिक रूप से प्रकाशित करे. कानून का अनुपालन नहीं करने के लिए दंडित नियोक्ताओं के बारे में भी आंकड़ा प्रकाशित करे.
- हिंसा और उत्पीड़न पर आईएलओ समझौता, 2019, संख्या 190 की संपुष्टि करे और कार्यान्वित करे और प्रभावी रोकथाम उपायों की दिशा में कदम उठाए. साथ ही घरेलू कार्य जैसे हिंसा और उत्पीड़न के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दे.
- स्थानीय समितियों का राष्ट्रव्यापी ऑडिट करे और निष्कर्षों को प्रकाशित करे. ऑडिट में गठित की गई स्थानीय समितियों की संख्या, उनकी संरचना, प्राप्त शिकायतों की प्रकृति, जारी किए गए आदेश, आदेश जारी करने में लगने वाला समय, प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रम, अभियानों, और आयोजित कार्यशालाओं के प्रकार, और उनकी जिम्मेदारियों के अन्य संबंधित पहलुओं का मूल्यांकन किया जाना चाहिए.
- कार्यस्थल संबंधी अहम मुद्दे के रूप में यौन उत्पीड़न को संबोधित करने और सूचना अभियानों एवं कानून के प्रभावी अमल पर रिपोर्टिंग में साझेदार के रूप में श्रमिक संगठनों और नागरिक समाज समूहों के साथ सहयोग और संवाद बढ़ाए.
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पद्धति
यह रिपोर्ट ह्यूमन राइट्स वॉच के फील्ड रिसर्च और 85 साक्षात्कारों पर आधारित है जो जनवरी 2019 में भारत के तमिलनाडु, अगस्त 2019 में हरियाणा और जून व अगस्त 2019 के बीच दिल्ली में किए गए. कोविड-19 महामारी की रोकथाम के लिए लागू देशव्यापी लॉकडाउन के बीच आगे के साक्षात्कार मई 2020 में टेलीफोन से किए गए.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने तमिलनाडु के चेन्नई, तिरुपुर और कोयम्बटूर जिलों में गारमेंट फैक्ट्री में काम करने वाली महिलाओं, ट्रेड यूनियन पदाधिकारियों, वकीलों, महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, सरकारी अधिकारियों और फ़ैक्टरी ओनर्स एसोसिएशंस के प्रतिनिधियों समेत लगभग 50 लोगों का साक्षात्कार किया. हरियाणा में, घरेलू कामगारों और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली अन्य महिलाओं, ट्रेड यूनियन पदाधिकारियों और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ बात की. अन्य जगहों पर यौन उत्पीड़न के मामले दर्ज करने वाली महिलाओं के वकीलों, पत्रकारों, शिक्षाविदों, महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, ट्रेड यूनियन पदाधिकारियों और आंतरिक व स्थानीय समितियों के सदस्यों से बात की.
रिपोर्ट तैयार करने में अन्य अधिकार समूहों और ट्रेड यूनियनों द्वारा किए गए शोध, मीडिया रिपोर्ट्स, सरकारी आंकड़ें और अदालत के फैसलों समेत अन्य सहायक सामग्रियों से भी मदद ली गई है.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय और श्रम एवं रोजगार मंत्रालय, राष्ट्रीय महिला आयोग और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को पत्र लिखे लेकिन उनका कोई उत्तर नहीं मिला.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने साक्षात्कार दाताओं की सहमति से शिकायत पत्र और अदालत के दस्तावेज जैसे संबंधित दस्तावेजों की प्रतियां हासिल की हैं और ये प्रतियां उसके पास मौज़ूद हैं. साक्षात्कार हिंदी या अंग्रेजी में लिए गए. तमिलनाडु में, ज्यादातर साक्षात्कार एक स्वतंत्र दुभाषिए की मदद से तमिल में लिए गए.
रिपोर्ट में कई लोगों के लिए छद्म नामों का इस्तेमाल किया गया है और उनके अनुरोध पर उनकी गोपनीयता और सुरक्षा के लिए पहचान संबंधी जानकारी गुप्त रखी गई है. ह्यूमन राइट्स वॉच ने साक्षात्कार दाताओं को कोई पारिश्रमिक या अन्य तरह का भुगतान नहीं किया.
I. कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून
अक्टूबर 2017 में वैश्विक स्तर पर हैशटैग #मीटू (#MeToo) आंदोलन का आगाज हुआ जिसने कार्यस्थल की दुनिया में लैंगिक हिंसा की व्यापकता को उजागर किया.[1] भारत में यह आंदोलन मुख्य रूप से अंग्रेजी भाषी मीडिया और मनोरंजन व्यवसाय से जुडी महिलाओं पर केंद्रित था, जिनकी कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के विवरणों को साझा करने के लिए सोशल मीडिया तक पहुंच थी.[2]
भारत में महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने वैश्विक #मीटू (#MeToo) आंदोलन से बहुत पहले इन समस्याओं के बारे में लम्बे समय तक जागरूकता पैदा की और इनकी वकालत की, जिसकी बदौलत महिला कामगारों को यौन शोषण से सुरक्षा हेतु नीतियों और कानूनों के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ. हालांकि, सरकार ने इन्हें असंतोषजनक तरीके से लागू किया है और आम तौर पर नियोक्ताओं ने नजरअंदाज कर दिया है.
विशाखा दिशानिर्देश
सितंबर 1992 में, भंवरी देवी राजस्थान के अपने गांव में सरकार के महिला विकास कार्यक्रम को बढ़ावा देने के लिए एक साथिन के रूप में काम कर रही थीं. घर-घर जाकर महिलाओं को स्वच्छता जैसे कई मुद्दों पर परामर्श देना और दहेज, कन्या भ्रूण हत्या और बाल विवाह जैसी कुरीतियों को हतोत्साहित करना उनके काम का हिस्सा था. जब उन्होंने गांव की प्रभुत्वशाली गुर्जर जाति के 9 माह के बच्ची की शादी रोकने की कोशिश की, तो उन्हें पहले समाज से बहिष्कृत कर दिया गया और फिर गुर्जर समुदाय के सदस्यों ने उन पर हमला कर सामूहिक बलात्कार किया.[3]
राजस्थान की एक निचली अदालत ने बलात्कार के आरोपियों को बरी कर दिया. 28 साल बाद आज भी इस मुकदमे की अपील राजस्थान उच्च न्यायालय में लंबित है. लेकिन, उनके मामले ने एक आंदोलन को उभार दिया और विभिन्न कार्यकर्ताओं एवं महिला अधिकार समूहों ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की. इसमें यह मांग की गई कि “कार्यस्थलों को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाया जाना चाहिए और हर कदम पर महिला कर्मचारियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी नियोक्ता की होनी चाहिए.”[4]
इसके परिणामस्वरूप, 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा बनाम राजस्थान राज्य मामले में मानदंड और दिशा-निर्देश निर्धारित किए, जो नियोक्ताओं के लिए महिला कर्मचारियों को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करने के लिए कदम उठाना और ऐसे अपराधों में समाधान, निपटारे या अभियोजन के लिए कार्यप्रणाली की व्यवस्था करना अनिवार्य बनाते हैं. न्यायाधीशों ने अपने फैसले में कहा, “लैंगिक समानता में लैंगिक उत्पीड़न से सुरक्षा और गरिमा के साथ काम करने का अधिकार शामिल है, जो एक सार्वभौमिक मान्यता प्राप्त बुनियादी मानवाधिकार है.”[5]
दिशानिर्देशों में शिकायत समिति के रूप में कार्यस्थल के भीतर एक निवारण तंत्र का प्रस्ताव रखा गया. यह समिति कर्मचारियों और एक बाहरी सदस्य को लेकर बनेगी और संगठन के अन्दर यौन उत्पीड़न की शिकायतों को दूर करने के लिए सुनवाई करेगी. हालांकि, विशाखा दिशानिर्देश अनौपचारिक क्षेत्र में महिलाओं के यौन उत्पीड़न को संबोधित करने में साफ़ तौर पर विफल रहे हैं.
कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013
2013 में भारत की संसद ने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम पारित किया, जो पॉश नाम से लोकप्रिय है.[6] इस कानून ने कार्यस्थल पर उत्पीड़न की परिभाषा और इसके इस्तेमाल के दायरे को व्यापक किया. इस कानून में यौन उत्पीड़न को शारीरिक संपर्क और कोशिशों, या यौन अनुग्रह हेतु मांग या अनुरोध, या कामुक टिप्पणी, या अश्लील साहित्य या चित्र के प्रदर्शन, या यौन प्रकृति के किसी अन्य अवांछित शारीरिक, मौखिक, या गैर-मौखिक आचार-व्यवहार के रूप में परिभाषित किया गया है. इनमें से कोई भी कृत्य चाहे प्रत्यक्ष हो या सांकेतिक, कानून के तहत यौन उत्पीड़न है.
महत्वपूर्ण बात यह है कि कानून औपचारिक और अनौपचारिक दोनों क्षेत्रों के सभी सार्वजनिक और निजी नियोक्ताओं और कर्मचारियों पर लागू होता है. पॉश कानून वेतन, दैनिक मजदूरी, तदर्थ या अस्थायी आधार पर या प्रशिक्षु या स्वयंसेवकों के रूप में काम करने वालों समेत प्रत्येक महिला के लिए, उनकी उम्र या रोजगार/कार्य की स्थिति पर ध्यान दिए बगैर, कार्यस्थल पर सुरक्षित माहौल के अधिकार को मान्यता देता है.[7] इसमें सीधे प्रमुख नियोक्ता द्वारा या ठेकेदारों के माध्यम से काम पर लगाए गए मजदूर शामिल हैं. कानून घरों में काम करने वाली महिलाओं, जैसे घरेलू कामगार को मान्यता देता है. यह अधिनियम, परिवहन सहित कर्मचारी द्वारा अपनी नियुक्ति के दौरान भ्रमण किए गए किसी भी स्थान पर लागू होता है.
पुलिस के पास आपराधिक शिकायत दर्ज कराने के विकल्प के रूप में, पॉश कानून नियोक्ताओं या स्थानीय सरकारी अधिकारियों को शिकायत सुनने, जांच करने और अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश के लिए स्वतंत्र समितियों का गठन करने हेतु अधिदेश देता है. दोषी पाए गए लोगों पर लिखित माफी से लेकर नौकरी से निष्कासन तक कार्रवाई हो सकती हैं. इन सबके बाद भी महिलाएं यौन उत्पीड़न या हमले से निपटने से संबंधित भारतीय दंड संहिता के तहत पुलिस शिकायत दर्ज कर सकती हैं.[8] लेकिन शिकायत समितियां गठित करने का एक महत्वपूर्ण कारण था वर्षों तक लंबित रह सकने वाले आपराधिक मामलों के मुकाबले तुरंत और प्रभावी राहत उपाय प्रस्तुत करना. साथ ही, इसने उन महिलाओं को दीवानी राहत उपाय प्रदान किया जो शायद आपराधिक न्याय प्रणाली का इस्तेमाल नहीं करना चाहतीं या अपराधियों को जेल नहीं भेजना चाहतीं, लेकिन चाहती हैं कि कार्यस्थल में सुरक्षा सुनिश्चित हो.
पॉश कानून के तहत,10 या अधिक कर्मचारियों वाले हर एक कार्यालय में प्रत्येक निजी नियोक्ता या कंपनी के लिए आंतरिक शिकायत समिति, 2016 में एक संशोधन[9] के जरिए जिसका नाम बदलकर आंतरिक समिति (आईसी) कर दिया गया, का गठन करना आवश्यक है. नियोक्ता के लिए कार्यस्थल पर सुरक्षित काम का माहौल प्रदान करना, आईसी गठन के आदेश और यौन उत्पीड़न के दुष्परिणामों को प्रमुखता से प्रदर्शित करना, और कानून के बारे में कर्मचारियों को संवेदनशील बनाने के लिए नियमित रूप से कार्यशालाओं और जागरूकता कार्यक्रमों, साथ ही आईसी सदस्यों के लिए उन्मुखीकरण कार्यक्रम का आयोजन करना भी आवश्यक है.[10]
आंतरिक समिति का अध्यक्ष कार्यस्थल में कार्यरत किसी वरिष्ठ महिलाकर्मी को होना चाहिए, और कम-से-कम आधे सदस्य महिला होने चाहिए. दो अन्य सदस्य ऐसे कर्मचारी होने चाहिए जिन्हें सामाजिक कार्य का अनुभव हो, उनकी पहचान महिला अधिकारों के रक्षक की हो, या उन्हें कानून का ज्ञान हो. एक सदस्य महिला मुद्दों के प्रति समर्पित किसी गैर सरकारी संगठन या संस्था से होना चाहिए या ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो यौन उत्पीड़न से संबंधित मुद्दों से परिचित हो. सभी सदस्यों का कार्यकाल तीन साल से अधिक का नहीं होगा.[11]
10 से कम कर्मचारी होने की स्थिति में जिन प्रतिष्ठानों में आईसी का गठन नहीं किया गया है, या यदि शिकायत नियोक्ता के खिलाफ है, या अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के लिए, राज्य सरकार के जिला अधिकारी को पॉश कानून के तहत प्रत्येक जिला में, और यदि आवश्यक हो तो प्रखंड स्तर पर, शिकायतें प्राप्त करने के लिए स्थानीय शिकायत समिति, 2016 में एक संशोधन[12] के जरिए जिसका नाम बदलकर आंतरिक समिति (एलसी) कर दिया गया, का गठन करना आवश्यक है.[13] प्रशिक्षण और शैक्षिक सामग्री विकसित करने, जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करने, कानून के कार्यान्वयन की निगरानी करने और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों में दायर और निपटाए गए मामलों की संख्या के आंकड़े रखने की जिम्मेवारी भी सरकार की है.
प्रत्येक स्थानीय समिति के कम-से-कम आधे सदस्य महिला होने चाहिए और इसकी अध्यक्ष एक ऐसी प्रतिष्ठित महिला को होना चाहिए जो महिला कामगारों के अधिकारों को समझती हो. उस जिले में कार्यरत किसी महिला को एक सदस्य के बतौर नामित किया जाना चाहिए; गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के ऐसे दो सदस्य इस समिति में शामिल किए जाने चाहिए जिनके पास महिला अधिकारों के मुद्दों पर काम करने का अनुभव हो. एनजीओ सदस्यों में कम-से-कम एक महिला होनी चाहिए और एक ऐसा सदस्य होना चाहिए जिसकी कानून में योग्यता हो. समिति में राज्य सरकार के समाज कल्याण विभाग का एक प्रतिनिधि और दलित समुदाय का एक प्रतिनिधि होना चाहिए. सभी सदस्यों का कार्यकाल अधिकतम तीन साल का होगा.[14]
समितियों के लिए आवश्यक है कि शिकायत दर्ज होने की तारीख से 90 दिनों के भीतर यौन उत्पीड़न के प्रत्येक मामले की जांच पूरी कर लें. जांच पूरी होने के बाद, समिति के लिए जरूरी है कि आईसी के मामले में नियोक्ता को और एलसी के मामले में जिला अधिकारी को रिपोर्ट प्रेषित करें, जिनसे यह आशा की जाती है कि रिपोर्ट प्राप्त होने के 60 दिनों के भीतर इसके आधार पर कार्रवाई करेंगे. कानून यह भी कहता है कि समितियों को पीड़ित कर्मचारी को परामर्श या अन्य सहायता सेवाएं भी मुहैय्या करनी चाहिए.
शिकायत समितियों के पास दीवानी अदालत के अधिकार होते हैं. वे किसी भी व्यक्ति को समन भेज सकती हैं, उन्हें उपस्थित होने के लिए बाध्य कर सकती हैं, और पूछताछ के दौरान उनका बयान रिकॉर्ड कर सकती हैं.[15] शिकायतकर्ता के अनुरोध पर, वे जांच शुरू करने से पहले सुलह-समझौते का प्रयास कर सकती हैं. वे जांच के अधीन आए संगठन से किसी भी प्रासंगिक दस्तावेज की मांग कर सकती हैं. जांच लंबित होने तक, वे वादी या प्रतिवादी के स्थानांतरण की सिफारिश कर सकती हैं, शिकायतकर्ता के लिए अधिकतम तीन माह के विशेष सवैतनिक अवकाश की सिफारिश कर सकती हैं और शिकायतकर्ता के प्रदर्शन के मूल्यांकन से प्रतिवादी को रोक सकती हैं.[16]
अगर कोई नियोक्ता आंतरिक समिति का गठन करने सहित कानून का पालन करने में विफल होता है, तो उस पर 50 हजार रुपये तक जुर्माना लगाया जा सकता है एवं बार-बार उल्लंघन करने पर और बड़ा जुर्माना लगाया जा सकता है और कारोबार करने का उसका लाइसेंस या पंजीकरण रद्द किया जा सकता है.[17] कानून के अमल या इसके तहत निपटाए गए मामलों पर केंद्रीय रूप से एकत्रित कोई आंकड़ा नहीं है.
कानून में मौजूद खामियों पर वर्मा आयोग की सिफारिशें
जनवरी 2013 में, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, जगदीश शरण वर्मा की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय आयोग ने एक विस्तृत रिपोर्ट सौंपी. इस रिपोर्ट में महिलाओं के खिलाफ यौन हमलों की त्वरित सुनवाई तथा अधिक सजा प्रदान करने हेतु आपराधिक कानून में संभावित संशोधनों की पड़ताल की गई.[18] दिसंबर 2012 में दिल्ली में 23 वर्षीय छात्रा ज्योति सिंह पांडे के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या के बाद हुए व्यापक प्रदर्शन के बाद आयोग का गठन किया गया था.[19] समिति ने नागरिक समाज समूहों से विचार और सुझाव आमंत्रित किए और उसे 70 हजार से अधिक प्रतिक्रियाएं मिलीं.[20]
आयोग की रिपोर्ट में सितंबर 2012 में लोकसभा द्वारा पारित कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) विधेयक, 2012 की भी समीक्षा की गई और उसने यह मत प्रकट किया कि “समग्रता में देखें, तो यौन उत्पीड़न विधेयक असंतोषजनक है” और सुप्रीम कोर्ट के विशाखा निर्णय की भावना को पर्याप्त रूप से प्रतिबिंबित नहीं करता है.[21] हालांकि, राज्यसभा ने आयोग की किसी भी सिफारिश को शामिल किए बगैर, आयोग के रिपोर्ट सौंपने के एक माह बाद विधेयक पारित कर दिया.[22] यह अधिनियम दिसंबर 2013 में लागू हुआ.[23]
आयोग की सबसे बड़ी आलोचना आंतरिक समितियों की संरचना लेकर थी. इसका विचार था कि यह प्रतिकूल असर डालेगा क्योंकि “सभी शिकायतों का आंतरिक निपटारा महिलाओं को शिकायत दर्ज करने से रोकेगा और संबंधित प्रतिष्ठान को बदनामी से बचाने के लिए वैध शिकायतों के शमन की संस्कृति को बढ़ावा मिल सकता है.” इसके बजाय, उसने यौन उत्पीड़न की सभी शिकायतों को प्राप्त करने और उन पर फैसला के लिए एक पृथक नियोजन न्यायाधिकरण स्थापित करने की सिफारिश की.[24]
सात साल बाद, त्रुटिपूर्ण रिपोर्टिंग तंत्र के बारे में समिति की चिंताओं का समर्थन करने के लिए महत्वपूर्ण साक्ष्य एकत्र हो गए हैं. दिल्ली स्थित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में लॉ प्रोफेसर और समिति की सहायता करने वाली रिसर्च टीम से जुड़े मृणाल सतीश ने कहा, “पॉश कानून से जुड़े सभी अनुभव हमें बताते हैं कि कानून की आलोचना और न्यायाधिकरण की मांग संबंधी वर्मा समिति रिपोर्ट के विश्लेषण शायद सही थे.”[25] वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर ने नियोक्ता को आंतरिक समिति के सदस्यों को नामित करने का अधिकार देने के प्रावधान की आलोचना की, जो कि पहले के विशाखा दिशानिर्देशों से काफी अलग है. उन्होंने कहा, “यह एक बहुत बड़ा धक्का है, क्योंकि यह मानता है कि शीर्ष पर बैठा व्यक्ति स्वाभाविक रूप से अच्छा आदमी होता है. यह मनोयन की प्रक्रिया नहीं हो सकती है.”[26]
वर्मा समिति की रिपोर्ट में विधेयक की धारा 10(1) को हटाने की भी सिफारिश की गई थी, जो वादी और प्रतिवादी के बीच सुलह-समझौते का प्रावधान करती है. समिति ने कहा यह विशाखा दिशानिर्देश में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित अधिदेश का उल्लंघन करता है, क्योंकि “न्याय पाने की कोशिशों को सुलह-समझौते के प्रयासों से जबर्दस्ती रोका नहीं जा सकता है.” [27]
कानून की धारा 14 में महिला को दंडित करने का प्रावधान है यदि यह पाया जाता है कि उसने झूठी या दुर्भावनापूर्ण शिकायत दर्ज की है. वर्मा समिति की रिपोर्ट ने इसे “पूरी तरह से अपमानजनक प्रावधान कहा है जिसका मकसद कानून के उद्देश्य को निष्प्रभावी बनना है.” [28] समिति के निष्कर्ष से विशेषज्ञ सहमत हैं. मुंबई सिटी जिला स्थानीय समिति की अध्यक्ष अनघा सरपोतदार ने कहा, “यह प्रावधान कानून में इस तर्क के साथ जोड़ा गया कि यह महिलाओं द्वारा कानून के दुरुपयोग की रोकथाम के लिए है. हालांकि, मैं महिलाओं को कोई झूठा मामला दर्ज करते नहीं देखती हूं. इसके बजाय, मैं देखती हूं कि नियोक्ता इस प्रावधान का उपयोग शिकायतकर्ता को दंडित करने, नौकरी से निकाले जाने जैसी कठोर कार्रवाई के लिए कर रहे हैं.”[29]
यह प्रावधान शिकायतकर्ता के खिलाफ बदले की कार्रवाई का मौका देने के साथ-साथ आगे बढ़ने का साहस करने वाली अन्य महिलाओं के लिए खौफ़ का माहौल पैदा करता है. उदाहरण के लिए, मई 2018 में हरियाणा के गुड़गांव में स्थानीय समिति ने एक कंपनी के प्रबंध निदेशक और मानव संसाधन प्रबंधक के खिलाफ एक महिला कर्मचारी के यौन उत्पीड़न की शिकायत पर अंतिम आदेश को सार्वजनिक रूप से अपनी वेबसाइट पर प्रदर्शित करने का निर्णय लिया. समिति ने कहा कि शिकायतकर्ता द्वारा अपनी कंपनी की आंतरिक समिति और स्थानीय समिति को दिए गए बयान में असंगति थी, साथ ही इस घटना की रिपोर्ट दर्ज करने में भी देरी हुई. इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला गया कि शिकायत झूठी थी और महिला को लिखित चेतावनी देने की सिफारिश की गई.[30] सरपोतदार ने लिखा कि इस घटना ने धारा 14 के मनमाने उपयोग को प्रदर्शित किया है. “गंभीर विचार-विमर्श के बगैर यह यौन उत्पीड़न की घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज करने के संबंध में संभावित शिकायतकर्ताओं को हतोत्साहित और भयभीत कर सकता है. एलसी के लिए यह समझना बहुत जरुरी है कि शिकायतकर्ता हमेशा अपनी शिकायत के समर्थन में प्रत्यक्ष प्रमाण देने में सक्षम नहीं हो सकते हैं.”[31] कानून का प्रावधान स्पष्ट करता है कि किसी शिकायत को प्रमाणित करने या पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत करने में असमर्थता शिकायत को झूठा नहीं ठहराती है.[32]
जस्टिस वर्मा समिति की रिपोर्ट में इस बात का भी उल्लेख है कि कानून में आंतरिक समिति के प्रशिक्षण संबंधी विशिष्ट दिशानिर्देशों का अभाव है. इसमें उल्लेख किया गया है कि यह स्थानीय समिति की संरचना से भिन्न है, जिसमें प्राथमिकता के आधार पर कम-से-कम एक सदस्य कानून या विधिक ज्ञान की पृष्ठभूमि का होना चाहिए.
घरेलू कामगार की शिकायत के मामले में, कानून कहता है कि स्थानीय समिति को भारतीय दंड संहिता की धारा 509 और अन्य प्रासंगिक प्रावधानों के तहत मामला दर्ज करने के लिए शिकायत को सात दिनों के भीतर पुलिस के पास भेज देना चाहिए.[33] भारतीय दंड संहिता की धारा 509 में “महिला की मर्यादा” भंग करने के लिए एक साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है.[34] हालांकि, कानून यह स्पष्ट नहीं करता है कि यदि शिकायतकर्ता अपने मामले को पुलिस के पास भेजना नहीं चाहती है तो इस मामले में स्थानीय समिति को क्या करना चाहिए और क्या उसे खुद जांच करनी चाहिए.
कार्यकर्ताओं का कहना है कि कानून में अन्य कमियां भी हैं. इनमें प्रमुख यह है कि यह कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को श्रमिकों का मुद्दा, जिसका निपटारा श्रम और रोजगार मंत्रालय द्वारा होता है, मानने के बजाय महिलाओं का मुद्दा मानता है, जिसकी निगरानी महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा की जाती है. मार्था फैरेल फाउंडेशन की निदेशक नंदिता भट्ट ने कहा, “अगर आप श्रम विभाग के अधिकारियों से यौन उत्पीड़न के बारे में पूछते हैं, तो उनके पास बहुत कम जानकारी होती है. वर्षों तक, हमने इसे श्रमिकों का मुद्दा बनाने के लिए काम किया, लेकिन अब यह महिलाओं का मुद्दा बन गया है.” [35]
इससे सहमत ट्रेड यूनियन सेल्फ-एम्प्लॉइड वीमेन एसोसिएशन (सेवा) की राष्ट्रीय कोर टीम की सदस्य सोनिया जॉर्ज भी इस ओर इशारा करती हैं कि कानून अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों की वास्तविकता को ध्यान में रखने में विफल है:
कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न महिला की गरिमा पर सवाल उठा रहा है. लेकिन इस कानून को लागू करने में श्रम मंत्रालय की कोई भागीदारी नहीं है. इसके अलावा, घरेलू कामगारों के पास रोजगार का कोई प्रमाण, कोई पहचान पत्र या अनुबंध नहीं होता है. इसलिए, अगर उनके साथ उस घर में कुछ होता है जहां वे काम करती हैं, तो उनके पास यह दिखाने के लिए कोई सबूत नहीं होता कि अमुक व्यक्ति उनका नियोक्ता है. अनौपचारिक क्षेत्र के अनेक श्रमिकों के लिए, अपना घर ही उनके कार्यस्थल होते हैं. इन मामलों में, घरेलू हिंसा कार्यस्थल पर हिंसा के रूप में सामने आ सकती है. हालांकि, अधिनियम यह संबंध नहीं स्थापित करता है या किसी भी तरह से इसे संबोधित नहीं करता है.[36]
सरकारी पहल
2017 में, महिला और बाल विकास मंत्रालय ने सेक्सुअल हरासमेंट (यौन उत्पीड़न) इलेक्ट्रॉनिक बॉक्स लॉन्च किया, जिसे शी-बॉक्स (SHe-Box) के रूप में जाना जाता है. यह किसी भी व्यवसाय में—औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्रों में—कार्यरत सभी महिलाओं को यौन उत्पीड़न की ऑनलाइन शिकायत दर्ज करने के लिए सिंगल विंडो (एकल खिड़की) सुविधा प्रदान करता है.[37] यह प्लेटफार्म प्रत्येक शिकायत को संबंधित आंतरिक या स्थानीय समिति को अग्रसारित करता है. जुलाई 2019 में, सरकार ने एक प्रश्न के उत्तर में संसद को बताया कि शी-बॉक्स को दो साल में केवल 612 शिकायतें मिलीं, उनमें से ज्यादातर निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की थीं. मंत्रालय के अनुसार, ज्यादातर शिकायतें उन महिलाओं की थीं, जो आंतरिक समितियों की जांच से संतुष्ट नहीं थीं या उन्हें उन पर यकीन नहीं था.[38]
तेलंगाना जैसे कुछ राज्यों ने सभी नियोक्ताओं के लिए शी-बॉक्स पर अपनी आंतरिक समितियों के बारे में जानकारी दर्ज करना अनिवार्य कर दिया है.[39] हालांकि शी-बॉक्स मामलों का शीघ्र समाधान सुनिश्चित करने के लिए शुरू किया गया था, 2018 में सूचना के अधिकार आवेदन में यह पाया गया कि इसके जरिए दायर 70 प्रतिशत मामले अभी भी लंबित थे.[40] इस तंत्र की व्यवस्था का कोई ऑडिट नहीं हुआ है और इसके बारे में अभी भी बहुत कम जागरूकता है.
2018 में, सरकार ने कंपनी (लेखा) नियमावली, 2014 में संशोधन किया. इसके जरिए कंपनियों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया कि अपने निदेशक की रिपोर्ट, जो सभी पंजीकृत कंपनियों द्वारा सालाना सुपुर्द की जाती है, में यौन उत्पीड़न अधिनियम के कार्यान्वयन के बारे में जानकारी प्रदान करें.[41]
#मीटू (#MeToo) आंदोलन के बाद, सरकार ने पॉश अधिनियम का अध्ययन और समीक्षा के लिए अक्टूबर 2018 में एक मंत्री समूह बनाया. गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में जुलाई 2019 में समूह का पुनर्गठन किया गया और बताया जाता है कि जनवरी 2020 में इसकी सिफारिशों को अंतिम रूप दे दिया गया.[42] सिफारिशों को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है.
इससे अलग, राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी पॉश अधिनियम के मौजूदा प्रावधानों की समीक्षा के लिए महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के साथ क्षेत्रीय स्तर पर परामर्श आयोजित किया और जुलाई 2019 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को अपनी अंतिम सिफारिशें सौंप दी.[43] परामर्श के दौरान, महिला अधिकार समूहों ने सरकारी कार्यालयों सहित अन्य संस्थानों द्वारा कानून का अनुपालन नहीं करने, और स्थानीय समितियों से संबंधित आंकड़ों एवं निगरानी की कमी जैसे अन्य मुद्दे उठाए. बहुतेरे समूहों ने सरकारी कानून के अंतर्गत स्थापित स्थानीय समितियों के ऑडिट के साथ-साथ विभागों और मंत्रालयों द्वारा कानून के अनुपालन को चिन्हित करने के लिए शोध की सिफारिश की.
अंतर्राष्ट्रीय कानूनी दायित्व
भारत ने 1993 में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र समझौते (CEDAW) की संपुष्टि की. यह समझौता राज्यों को महिलाओं के खिलाफ भेदभाव की रोकथाम के लिए कानून बनाने और अन्य उपायों को लागू करने के लिए बाध्य करता है. [44] यह समझौता विशेष रूप से “कार्य की परिस्थितियों में सुरक्षा का” अधिकार प्रदान करता है.[45] महिलाओं के खिलाफ भेदभाव उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र समिति, जो कि एक अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ समिति है, CEDAW के अनुपालन की निगरानी करती है. इसने एक आम सिफारिश में कहा है कि “जब महिलाएं लैंगिक हिंसा, जैसे कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं तो रोजगार में समानता को गंभीर नुकसान पहुंच सकता है.” [46]
भारत आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय समझौते (ICCPR) का भी हिस्सा है जिसके अनुसार सबों को “सुरक्षित और स्वस्थ काम की परिस्थितियों” समेत “काम की न्यायसंगत और अनुकूल परिस्थितियों के उपभोग का अधिकार है.[47] आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र समिति ने एक सामान्य टिप्पणी में कहा है कि कानून के माध्यम से कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को परिभाषित और उसकी रोकथाम करना, उपयुक्त शिकायत प्रक्रिया और प्रणालियां सुनिश्चित करना, और यौन उत्पीड़न के लिए आपराधिक दंड तय करना राज्यों का मुख्य दायित्व है.[48]
जून 2019 में, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने ऐतिहासिक संधि, हिंसा और उत्पीड़न समझौता स्वीकृत किया जो कार्यस्थल की दुनिया में हिंसा और उत्पीड़न की रोकथाम और कार्रवाई के लिए नए वैश्विक मानक निर्धारित करता है.[49] भारत सरकार, भारतीय श्रमिक समूहों और भारत के नियोक्ता संघों के प्रतिनिधियों, सबों ने समझौते के पक्ष में मतदान किया.[50] इस संधि में गैर-बाध्यकारी सिफारिश शामिल है जो समझौते के दायित्वों पर अतिरिक्त मार्गदर्शन प्रदान करती है.[51]
यह संधि कार्यस्थल की दुनिया में हिंसा और उत्पीड़न की अपनी परिभाषा में मनोवैज्ञानिक, शारीरिक, यौन और आर्थिक नुकसान को शामिल करती है और सरकारों के लिए न्यूनतम दायित्व का निर्धारण करती है. इन दायित्वों में सुदृढ़ राष्ट्रीय कानून सुनिश्चित करना और लैंगिक दृष्टि से उत्तरदायी, समावेशी और एकीकृत रणनीति अपनाना शामिल है.[52] इस संधि में हिंसा और उत्पीड़न के लिहाज से उच्च जोखिमवाले क्षेत्रों पर विशेष ध्यान और सूचना अभियान समेत अन्य सुरक्षात्मक उपाय जरूरी हैं.[53]
यह शिकायत प्रणाली, निगरानी, कार्यान्वयन और उत्तरजीवियों की मदद के लिए मानक निर्धारित करती है. इसमें कार्यस्थल से बाहर विवाद के समाधान हेतु व्यवस्था तंत्र; कोर्ट या ट्रिब्यूनल; और बदले की कार्रवाई से सुरक्षा शामिल हैं. यह निरीक्षण और जांच जैसे अमल को जरूरी बनाती है एवं इसकी सिफारिश श्रम निरीक्षणालयों और अन्य संबंधित निकायों के अधिदेश के साथ इनके समावेशन पर मार्गदर्शन प्रदान करती है. यह शिकायत प्रणाली, व्हिसलब्लोअर की सुरक्षा, व मुआवजा समेत पीड़ितों के राहत उपायों तक पहुंच के लिए विशिष्ट निर्देश देती है.[54]
समझौते की संपुष्टि करने वाली सरकारें नियोक्ताओं के लिए, जहां व्यवहारिक हो, हिंसा और उत्पीड़न पर कार्यस्थल नीति अपनाना, काम के दौरान हिंसा और उत्पीड़न के जोखिमों की पहचान करना और उन्हें पेशागत सुरक्षा और स्वास्थ्य मुद्दे के रूप में संबोधित करना, रोकथाम और नियंत्रण के उपाय करना, और श्रमिकों के अधिकारों और नियोक्ता की जिम्मेदारियों सहित इन उपायों पर श्रमिकों को जानकारी और प्रशिक्षण प्रदान करना अनिवार्य बनाती हैं.[55] संधि की संपुष्टि करने वाले देश अपने राष्ट्रीय कानूनों को संधि के मानकों के अनुरूप बनाने के लिए सहमत होते हैं जिसके अनुपालन की समय-समय पर समीक्षा आईएलओ द्वारा की जाएगी.
II. अनौपचारिक क्षेत्र का मौन संकट
इंडियन नेशनल बार एसोसिएशन द्वारा 2017 में किए गए भारत में अब तक के सबसे बड़े - 6,000 से अधिक कर्मचारियों के सर्वेक्षण में पाया गया कि रोजगार के विभिन्न क्षेत्रों में यौन उत्पीड़न पांव पसारे हुए है जिनमें अश्लील टिप्पणियों से लेकर यौन अनुग्रह की सीधी मांग तक सम्मिलित है. इसमें पाया गया कि अधिकांश महिलाओं ने लांछन, बदले की कार्रवाई के डर, शर्मिंदगी, रिपोर्ट दर्ज करने संबंधी नीतियों के बारे में जागरूकता का अभाव या शिकायत तंत्र में भरोसा की कमी के कारण प्रबंधन के समक्ष यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट दर्ज नहीं की. यह भी पाया गया कि अधिकांश संगठन अभी भी कानून का अनुपालन करने में विफल हैं, या आंतरिक समितियों के सदस्यों ने इस प्रक्रिया को पर्याप्त रूप से नहीं समझा है.[56]
जी-20 देशों में महिला श्रमबल में सबसे कम भागीदारी भारत में है, और विश्व बैंक के सबसे ताज़ा आंकड़ों के अनुसार यह 2005 के 37 प्रतिशत से गिरकर 2018 में 26 प्रतिशत हो गई.[57] महिलाओं की भारी बहुसंख्या 95 फीसदी (19.5 करोड़) अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं.[58] इनमें फुटपाथ विक्रेता, घरेलू कामगार, कृषि, निर्माण से लेकर घर से होने वाले काम जैसे बुनाई या कढ़ाई जैसी बहुत से आर्थिक कार्यकलाप शामिल हैं. यद्यपि 2013 का पॉश अधिनियम इन महिलाओं की रक्षा करता है, लेकिन कानून का कार्यान्वयन, खासकर अनौपचारिक क्षेत्र में बहुत ही बदतर है.
पत्रकार नमिता भंडारे ने भारतीय महिलाओं के नौकरी छोड़ने की वजहों पर इंडियास्पेंड के लिए कई किस्तों में एक जांच रिपोर्ट लिखी है. उन्होंने इसके लिए कई कारकों का हवाला दिया.[59] उन्होंने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया, एजेंसी के अभाव में महिलाओं के लिए श्रम शक्ति में शामिल होना बहुत मुश्किल होता है. अभी भी “उन्हें काम जारी रखने के लिए अपने पिता, अपने भाइयों, पति और ससुराल वालों की अनुमति” लेनी पड़ती है.[60] भारत में अनेक पुरुष अपने परिवार की महिलाओं के नौकरी करने को शर्म की बात समझते हैं. घरेलू काम की अवैतनिक जिम्मेदारी महिलाओं के नौकरी शुरू करने में गंभीर बाधा है, या इसके परिणामस्वरुप उन्हें बीच में ही काम छोड़ना पड़ता है.
जबकि अधिकांश विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न सहित सुरक्षा जोखिम महिलाओं के नौकरी छोड़ने की वजह हो सकते हैं, लेकिन इस संबंध में तथ्य और आंकडें उपलब्ध कराने वाला कोई अध्ययन मौजूद नहीं है. भंडारे ने कहा, “वैयक्तिक अनुभवों के ढेर सारे स्रोत हैं. लड़कियां यौन उत्पीड़न के बारे में बात नहीं करना चाहती हैं क्योंकि उन्हें डर सताता है कि परिवार तुरंत उन्हें काम छोड़ने के लिए कहेगा. यौन उत्पीड़न संबंधी कोई आंकड़ा या मौलिक परिमाणात्मक अध्ययन नहीं है, और अनौपचारिक क्षेत्र में तो बिल्कुल नहीं.”[61]
सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) या सेल्फ-एम्प्लॉइड वीमेंस एसोसिएशन (सेवा) जैसी कई ट्रेड यूनियनें 2013 के यौन उत्पीड़न कानून और शिकायत प्रणाली के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए औपचारिक और अनौपचारिक, दोनों क्षेत्रों में महिलाओं के साथ काम कर रही हैं. लेकिन कार्यकर्ताओं का कहना है कि महिला कामगारों में अभी भी अपने अधिकारों की मुकम्मल समझ का अभाव है और यौन उत्पीड़न पर चर्चा करने में वे असहज हो जाती हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच के साथ साक्षात्कार में भी, कतिपय महिलाओं ने उत्पीड़न की कहानियों को इस तरह साझा करना पसंद किया जैसे यह घटना किसी और के साथ हुई हो या यहां तक कि उन्होंने पीड़िता पर दोषारोपण किया, जो कि जड़ जमायी पितृसत्ता में बहुत आम बात है.
लेकिन महिलाएं भी शिकायत के लिए व्यवस्था पर पर्याप्त भरोसा नहीं करती हैं और जैसा कि इस रिपोर्ट में आगे चर्चा की गई है, कई हाई-प्रोफाइल मामले हुए हैं जिनमें आरोप लगाने वाली महिलाओं को तीखे सार्वजनिक प्रतिकार का सामना करना पड़ा है. प्रचंड रूप से मौजूद सामाजिक मानदंडों का मतलब है कि अनेक महिलाओं को अनिश्चित कष्ट निवारण के बदले में मिलने वाले सामाजिक लांछन का पूरा अंदेशा रहता है. ट्रेड यूनियन सेवा की सोनिया जॉर्ज ने कहा कि सुरक्षा के अभाव में, ज्यादातर महिलाएं नौकरी की ज़रूरत के कारण उत्पीड़न सहती हैं:
ज्यादातर महिलाएं चुपचाप सहन करती रहती हैं जब तक कि यह असहनीय न हो जाए, और फिर वे महज दूसरी नौकरी पाने की कोशिश करती हैं. लेकिन अनौपचारिक क्षेत्र में, उनके लिए काम खोजना वास्तव में कठिन है. वे अपने परिवारों को बताना नहीं चाहती हैं क्योंकि उन्हें डर होता है कि परिवार वाले काम करने से मना करेंगे.[62]
निवारण प्रणालियां स्थापित करने में सरकारी विफलता
केंद्र और स्थानीय सरकारें पॉश अधिनियम की केन्द्रीय विशेषता—स्थानीय समितियों के प्रोत्साहन, गठन और निगरानी में विफल रही हैं.
मार्था फैरेल फाउंडेशन एंड सोसाइटी फॉर पार्टिसिपेटरी रिसर्च इन एशिया ने 2018 में देश के 655 जिलों से सूचना के अधिकार आवेदन से प्राप्त जानकारियों पर आधारित एक अध्ययन किया. इसमें पाया गया कि कई जिलों ने समितियों का निर्माण नहीं किया था या उन्हें कानूनी प्रावधानों के अनुरूप गठित नहीं किया था. देश के 655 जिलों में से केवल 29 प्रतिशत ने बताया कि उन्होंने स्थानीय समितियां बनाई हैं, जबकि 15 प्रतिशत ने ऐसा नहीं किया था. आधे से ज्यादा, 56 प्रतिशत, जिलों ने कोई जवाब नहीं दिया. मई 2020 तक, राजधानी दिल्ली के 11 में से केवल 8 जिलों में ही स्थानीय समितियों का गठन किया गया था.[63] जिन जिलों में ये मौजूद भी हैं, वहां इन्हें खोज निकालना अक्सर मुश्किल होता है. उदाहरण के लिए, वेबसाइट्स या सार्वजनिक स्थानों पर बहुत सी समितियों के नाम और स्थान संबंधी जानकारी उपलब्ध नहीं है.
अध्ययन में समिति के सदस्यों के बीच भूमिकाओं और जिम्मेदारियों के बारे में जागरूकता की कमी भी पाई गई, जो यौन उत्पीड़न की शिकायतों के निपटारे की क्षमता की कमी का सूचक है.
पॉश कानून के सात साल बाद भी, स्थानीय समितियों के बारे में बहुत कम जागरूकता है. अधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि कामगारों के पास इनकी जानकारी होने पर भी इन तक पहुंचना एक बड़ी समस्या है. मुंबई सिटी जिला की स्थानीय समिति की अध्यक्ष, अनघा सरपोतदार ने बताया कि 2018 में उनके पद संभालने के बाद से अब तक समिति को केवल पांच शिकायतें मिली हैं और ये सभी औपचारिक क्षेत्र से थीं. समितियों के पास आधारभूत संरचना और संसाधनों की भी कमी होती है. उन्होंने कहा:
स्थानीय समितियों के बारे में कोई जागरूकता नहीं है क्योंकि केंद्र ने राज्य सरकारों को जागरूकता के प्रचार-प्रसार के लिए कोई राशि नहीं दी है. इसे दर्ज मामलों की कम संख्या में साफ देखा जा सकता है. अनौपचारिक क्षेत्र में कानून लागू नहीं हुआ है. समिति सदस्यों को कुछ मामलों में यात्रा खर्च का भुगतान भी नहीं किया जाता है. पॉश अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए बजट में कोई राशि आवंटित नहीं की गई है.[64]
सार्वजनिक क्षेत्र का उदाहरण: सरकारी योजना कर्मी
भंवरी देवी के सामूहिक बलात्कार ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न और हिंसा की पहचान करने या उसे रोकने या उस पर करवाई करने में एक नियोक्ता के रूप में सरकार की विफलता को स्पष्ट रूप से दर्शाया और उन घटनाक्रमों को अंजाम दिया जो आखिरकार 2013 के कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न संबंधी कानून के रूप में सामने आया.[65] महिला अधिकार के पैरोकारों का कहना है कि यदि यह कानून उस समय मौजूद होता, तो भी यह कमजोर कार्यान्वयन के कारण अप्रभावी साबित हो सकता था. भट्ट ने कहा, “भंवरी देवी की वजह से हमारे पास एक कानून है जो सभी कामकाजी महिलाओं के लिए सुरक्षा और न्याय सुनिश्चित करने का वादा करता है, लेकिन सवाल यह है कि अगर इस कानून के तहत शिकायत दर्ज करने के लिए आज भंवरी देवी होतीं तो क्या उन्हें समुचित न्याय मिलता?”[66]
भारत में स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और सामाजिक कल्याण से संबंधित सरकारी योजनाएं खास तौर पर उन स्थानीय महिलाओं की गोलबंदी पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं जो अपने समुदायों में पहुंच बनाती हैं या उनके बीच सेवाएं प्रदान करती हैं. अक्सर इन योजनाओं की “रीढ़” कहे जाने के बावजूद, उन्हें नियमित सरकारी कर्मचारी नहीं माना जाता है. उन्हें कम वेतन मिलता है, और अंशकालिक कामगार या स्वयंसेवक माना जाता है, जिससे वे अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा बन जाती हैं. इनमें शामिल हैं 26 लाख आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, जो 6 वर्ष तक के बच्चों और उनकी माताओं को भोजन, स्कूल पूर्व शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा, टीकाकरण, और स्वास्थ्य जांच प्रदान करने के लिए सरकार की समेकित बाल विकास सेवाओं के तहत प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और पोषण पर काम करती हैं; 10 लाख से अधिक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) हैं जो सरकार के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के रूप में काम करती हैं; और 25 लाख मध्याह्न भोजन रसोइया हैं जो सरकारी स्कूलों में दिए जाने वाला निःशुल्क भोजन तैयार करती हैं.[67]
ये महिलाएं अक्सर ऐसी परिस्थितियों में काम करती हैं जो यौन उत्पीड़न के जोखिम को बढ़ा सकती हैं, जिनमें घर-घर या गांव दर गांव अकेले जाना, प्रजनन और यौन स्वास्थ्य जैसे संवेदनशील विषयों पर चर्चा करना और उनके बारे में जानकारी देना और वजीफे या मजदूरी पर उनकी बहुत ज्यादा वित्तीय निर्भरता शामिल हैं. ग्रामीण क्षेत्रों और रूढ़िवादी समुदायों में, उन पुरुषों के साथ कामकाज और बातचीत करना जो उनके परिवार के सदस्य नहीं हैं, या वर्जित विषयों पर चर्चा इन महिलाओं को यौन उत्पीड़न का शिकार बना सकते हैं. इन सरकारी योजनाओं को लागू करने के लिए विशाल महिला कार्यबल पर निर्भर होने और इन्हें पारिश्रमिक पर रखने के बावजूद, सरकारी तंत्र पूर्ण रूप से कार्यशील शिकायत समितियों तक इन कामगारों की पहुंच सुनिश्चित करने में विफल रहा है.
बिहार में मध्याह्न भोजन कामगारों से जुड़े यौन उत्पीड़न के कुछ मामलों को डॉक्यूमेंट करने वाली पत्रकार नेहा दीक्षित ने बताया: “मैं राज्य के 27 सरकारी स्कूलों पर गई, लेकिन उनमें से किसी में आंतरिक समिति किसी भी स्वरुप में मौजूद नहीं थी. मैं जिन 68 रसोइयों से मिली, उनमें से किसी को भी यौन उत्पीड़न के मामलों से निपटारे संबंधी किसी प्रणाली की जानकारी नहीं थी.”[68]
हरियाणा की 36 वर्षीय आशा कार्यकर्ता निशा (बदला हुआ नाम) ने बताया कि यौन उत्पीड़न के मामले कितने आम और अनियंत्रित हो सकते हैं:
जब हम उप-केंद्र जाते हैं, और जब कभी अकेले होते हैं, तो हमारे पुरुष सहकर्मी हमारे पहनावे पर टिप्पणी करते हैं, हमारे पतियों के बारे में निजी सवाल पूछते हैं, और यह सब काफी फूहड़ लगता है. कभी-कभी जब हम बच्चों के पोलियो टीकाकरण के लिए लोगों के घरों पर जाते हैं, तो युवा और बूढ़े मजाक करते हैं, जैसे “हमें भी दो घूंट पिला दो, हम भी जवां हो जाएंगे.”[69]
45 वर्षीय आशा कार्यकर्ता रंजना (बदला हुआ नाम), हरियाणा में आशा कार्यकर्ता संघ की सदस्य हैं. उन्होंने बताया कि अपने काम के लिए उन्हें आपात स्थितियों में रात को भी कॉल पर उपलब्ध रहना पड़ता है. उन्होंने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया:
रात में, कभी-कभी एम्बुलेंस चालक हमें परेशान करता है. यहां तक कि डॉक्टर भी कभी-कभी परेशान कर सकते हैं. लेकिन महिलाओं को लांछन या बदले की कार्रवाई के डर से बोलने से बहुत डर लगता है. अक्सर, लोग हमारे चरित्र पर संदेह करते हुए कहते हैं, “वह रात में बाहर जाती है और इसलिए जरूर बदचलन होगी.” वे हमें सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते हैं. यौन उत्पीड़न कानून पर सरकार की तरफ से कोई जागरूकता या प्रशिक्षण नहीं है, उदाहरण के लिए, अगर कुछ हो जाए तो हमें कैसे शिकायत करनी चाहिए. वे केवल हमें यह बताते हैं कि अगर किसी भी समय आपात स्थिति हो तो हमें कॉल का जवाब देना है. यहां तक कि अगर हम उन्हें अपनी परेशानियां बताते भी हैं, तो अधिकारी कहते हैं, “इसी काम ले लिए आपको रखा गया है. आपको इससे निपटना होगा.”[70]
कुछ आशा कार्यकर्ताओं ने बताया कि वे जिन गर्भवती महिलाओं की मदद करती हैं उनके पुरुष रिश्तेदार भी फोन कॉल कर भद्दे कमेंट्स करते हैं. कुछ मामलों में पुरुष सहकर्मी ऐसा करते हैं.[71] मध्याह्न भोजन की एक रसोइया ने बताया कि कैसे एक दर्जी जिसके साथ उसने स्कूल यूनिफार्म उपलब्ध कराने के लिए काम किया था, ने देर रात उसे फोन कॉल कर परेशान करना शुरू किया. एक अन्य मध्यान्ह भोजन कर्मी ने बताया कि सरकारी शिक्षा विभाग के एक क्लर्क से काम के सिलसिले में मिलने के बाद वह उसे फोन कॉल करने लगा.[72]
हरियाणा की 38 वर्षीय आशा कार्यकर्ता शांता (बदला हुआ नाम) ने कहा कि अगर वह शिकायत करती भी हैं, तो आरोपी का परिवार, समाज और उनके अपने परिजन शिकायत वापस लेने के लिए बहुत दबाव बनाते हैं.[73] जनवरी 2014 में, शांता को किसी निर्माण स्थल पर एक ठेकेदार ने एक महिला की मदद करने के लिए बुलाया, जो बच्चे को जन्म देने वाली थी. उन्होंने कहा:
हमारे वरिष्ठ कर्मियों ने बताया था कि मरीज़ो को अस्पताल ले जाना हमारा काम है. इसलिए, मैंने एक एम्बुलेंस को फोन किया और हम एक अस्पताल पहुंचे. लेकिन वहां कोई सुविधा नहीं थी, अतः हम दूसरे अस्पताल गए, लेकिन वहां कोई कर्मचारी नहीं था. अंत में, हम पड़ोसी जिले के तीसरे अस्पताल में गए. उस समय तक, रात के 11:30 बज चुके थे और एम्बुलेंस चालक ने मुझे घर छोड़ने की पेशकश की. वह वापसी में मेरे साथ मजाक करने लगा. वह रास्ते में रुक कर मेरे लिए एक गिलास गन्ने का रस लेकर आया जिसे मैंने पीने से मना कर दिया. तब तक आधी रात हो चुकी थी और उसने मेरे साथ छेड़छाड़ की कोशिश की. मैंने प्रतिरोध किया और किसी तरह अपने भाई को बुलाया. डर के कारण मैंने घर पर कुछ भी नहीं बताया लेकिन मैंने चिकित्सा-प्रभारी को फोन कर उन्हें पूरी घटना बताई. कर्मचारियों और पर्यवेक्षकों ने मेरी मदद की, और हमने तीन दिनों के बाद ड्राइवर को ढूंढ निकाला. लेकिन इसके बाद पुलिस और अन्य आशा कार्यकर्ताओं ने मुझे समझौता करने के लिए कहा. उसने दर्जनों आशा कार्यकर्ताओं के सामने माफी मांगी और उन्होंने मुझे आधिकारिक शिकायत दर्ज नहीं करने के लिए कहा. लेकिन किसी ने मुझे यह नहीं बताया कि एक कानून भी है और मैं स्थानीय समिति में शिकायत दर्ज कर सकती हूं.[74]
महिला अधिकार समूह अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति के सोनीपत जिले की प्रमुख लक्ष्मी छिल्लर ने कहा:
हरियाणा के किसी भी सरकारी स्कूल, अस्पताल, पुलिस स्टेशन या आंगनवाड़ी केंद्र पर यौन उत्पीड़न की जांच के लिए पूरी तरह से कार्यशील कोई समिति नहीं हैं. हम किसी भी स्थानीय समिति के बारे में जानते भी नहीं हैं. हमारे पास जागरूकता से सम्बंधित सामग्री भी नहीं है. जिन महिलाओं के साथ हम काम करते हैं, जब उनसे हम यौन उत्पीड़न पर बात करने का प्रयास करते हैं, तो वे इस पर बात नहीं करना चाहती हैं. वे ऐसे मामले को दफन करना पसंद करती हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह इज्ज़त से जुड़ी बात है और किसी भी शिकायत के लिए उन्हें ही दोषी ठहराया जाएगा.[75]
कानून को प्रभावी तरीके से लागू करने का यह भी मतलब है कि पीड़ितों के दोषारोपण की हावी संस्कृति को बदलने के लिए जन जागरूकता अभियान चलाया जाए. दोषारोपण की यह संस्कृति शिकायत दर्ज करने वाली जगहों की जानकारी के बावजूद महिलाओं को आगे आने से रोक सकती है.
घरेलू कामगारों के लिए कमजोर संरक्षण
भारत में घरेलू कामगारों, साथ ही देखभाल करने वालों, सफाईकर्मियों और दूसरे घरेलू कर्मचारियों में मुख्य रूप से महिलाएं हैं. घरेलू कामगारों के समक्ष निजी घरों में उनके अलग-थलग रहने, नियोक्ताओं और घरेलू कामगारों के बीच महत्वपूर्ण शक्ति असंतुलन और श्रम कानूनों के तहत अपर्याप्त सुरक्षा के कारण कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का ख़ास तौर पर उच्च जोखिम रहता है. उत्तरजीवियों के शिकायत दर्ज करने में अनेक बाधाओं के बावजूद, घरेलू कामगारों से बलात्कार की खबरें नियमित रूप से मीडिया में आती रहती हैं.[76]
भारत में घरेलू कामगारों से संबंधित कोई भरोसेमंद आंकड़ा नहीं है. हालांकि आधिकारिक आंकड़ों में 2019 में 39 लाख घरेलू कामगार का अनुमान लगाया गया है, लेकिन सरकारी और गैर-सरकारी दोनों स्रोतों के अनुसार असल संख्या करोड़ों है, जबकि मीडिया आमतौर पर 9 करोड़ का उल्लेख करता है.[77]
घरेलू कामगार अन्य श्रमिकों की तरह, मिसाल के लिए काम के घंटों एवं लाभ के मामले में बहुत सी समान सुरक्षाओं का उपभोग नहीं करते हैं. हालांकि कई कानून जैसे असंगठित सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008; कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013; और विभिन्न राज्यों में अधिसूचित न्यूनतम मजदूरी अनुसूचियां घरेलू कामगारों को संदर्भित करते हैं, लेकिन घरेलू कामगार आंदोलन व्यापक, समान रूप से लागू, राष्ट्रीय कानून की मांग कर रहा है जो रोजगार की न्यायसंगत शर्त्तों और शिष्ट काम के माहौल की गारंटी करता हो.[78] भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के घरेलू कामगार समझौते की भी संपुष्टि नहीं की है, जो सरकारों को घरेलू कामगारों को अन्य श्रमिकों की तरह श्रम सुरक्षा देने और घरेलू कामगारों को दुर्व्यवहार, हिंसा और उत्पीड़न से बचाने के लिए प्रभावी उपाय करने के लिए बाध्य करता है.[79]
2013 का पॉश अधिनियम कहता है कि स्थानीय समितियों को घरेलू कामगारों के मामलों को पुलिस के पास भेज देना चाहिए, नागरिक राहत उपायों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता. घरेलू कामगारों के रूप में काम करने वाली अधिकांश महिलाओं को पुलिस से राहत उपायों की मांग करने में घोर बाधाओं का मुकाबला करना होता है. ह्यूमन राइट्स वॉच ने अपने पूर्व के दस्तावेजीकरण में पाया है कि थाने में जाकर यौन हिंसा की शिकायत करने पर महिलाओं को अक्सर अपमान, अविश्वास और सहयोग में कमी का सामना करना पड़ता है, यह तथ्य ज्यादातर महिला घरेलू कामगारों को शिकायत करने से विमुख करते हैं.[80] भट्ट ने कहा, “बलात्कार के मामलों में भी, महिलाओं को शिकायत दर्ज करने में बहुत मुश्किलों से गुजरना होता है. तो भला वे यह शिकायत कैसे दर्ज कर पायेंगी कि नियोक्ता ने उन्हें अनुपयुक्त तरीके से देखा?” उन्होंने आगे कहा कि अन्य प्रमुख बाधा यह है कि आपराधिक मामले सालों तक अदालतों में खिंच सकते हैं, जो उत्तरजीवियों को अपराधियों की धमकी के खतरे में डाल सकते हैं और सुनवाई में शामिल होने पर उनके कार्यदिवस का नुकसान हो सकता है.[81]
25 साल की कायनात (बदला हुआ नाम) ने घरेलू कामगार के रूप में 12 साल की उम्र में काम करना शुरू किया जब उनका परिवार काम की तलाश में पश्चिम बंगाल से नई दिल्ली के लगभग 25 मील दूर गुड़गांव पहुंचा. पहले कुछ वर्षों के दौरान, उन्होंने बाल मजदूर के रूप में, विभिन्न घरों में रहकर घरेलू कामगार के तौर पर काम किया. इस दौरान उन्होंने मार-पीट और धमकी सही. 2012 में, जब वह 17 साल की थी, एक बूढ़े आदमी ने उनका यौन उत्पीड़न किया. उन्होंने वह घर छोड़ दिया और अब अपने घर में ही रह कर कई जगहों पर अंशकालिक घरेलू कामगार के रूप में काम करती हैं. उन्होंने बताया:
जब उसके बच्चे और पोते-पोतियां बाहर निकल जाते, तो वह जानबूझकर घर पर रह कर मेरे आगे-पीछे डोलते रहता. मेरी पीठ थपथपाते हुए उसके हाथ भटक जाते. मैंने नजरअंदाज करने की कोशिश की. एक बार जब उसने ऐसा किया, तो घर पर कोई नहीं था इसलिए मैं वॉशरूम में बंद हो गई और तब तक बाहर नहीं निकली जब तक दूसरे लौट नहीं आए. मुझे पता था कि अगर मैं उन्हें बताऊंगी तो कोई भी मुझ पर यकीन नहीं करेगा, इसलिए मैं चुप रही. मैंने दूसरे घरेलू कामगार को बताया तो उसने कहा कि उस व्यक्ति ने उसका भी उत्पीड़न किया था. लेकिन वह अंशकालिक कामगार थी इसलिए उसे मेरी तरह खतरों का सामना नहीं करना पड़ता था. उसने भी कभी कुछ नहीं कहा क्योंकि उसे नौकरी की जरूरत थी. वह आदमी मुझसे कहता था, “छोटे कपड़े पहनो, तुम इसमें बेहतर दिखोगी.” मैंने सहा क्योंकि मुझे अपने परिवार के लिए पैसे कमाने थे. लेकिन मैंने आखिरकार काम छोड़ दिया क्योंकि मैं बहुत निराश थी और किसी के घर पर रहकर काम नहीं करने का फैसला किया.[82]
कायनात को अंततः आवाज़ उठाने की ताकत मिली जब वह 2018 में उन कार्यकर्ताओं से मिलीं जो एक सहभागी अनुसंधान परियोजना के अंग के तौर पर कला के उपयोग को प्रोत्साहित कर रहे थे.[83] वह अब मार्था फैरेल फाउंडेशन द्वारा यौन उत्पीड़न पर चलाए जा रहे जागरूकता अभियान का हिस्सा है और कानून समझती हैं. लेकिन वह कहती है कि वास्तव में कुछ भी नहीं बदला है. कायनात ने कहा, “यह महिलाओं के लिए सम्मान का सवाल है. अगर मैं ऐसी किसी भी घटना की रिपोर्ट दर्ज करती हूं, तो मुझे अपनी नौकरी खोनी पड़ सकती है. और हमेशा लड़की को ही दोषी ठहराया जाता है.”[84] कायनात ने सामुदायिक कार्यशालाओं और बैठकों में #मीटू (#MeToo) आंदोलन के बारे में सुना था. उन्होंने कहा, “#मीटू (#MeToo) आंदोलन हर महिला के लिए होना चाहिए, लेकिन मेरे जैसे लोगों की बात इस आंदोलन में नहीं सुनी जाती.”[85]
दूसरों ने भी ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि #मीटू (#MeToo) आंदोलन से उन्हें कोई मदद नहीं मिली. 37 वर्षीय शालिनी (बदला हुआ नाम) गुड़गांव में घरेलू कामगार हैं. उन्होंने कहा:
मेरी जैसी महिलाओं के लिए, #मीटू (#MeToo) का क्या मतलब है? हम घर पर नहीं बोल सकते, तो बाहर कैसे खुलकर अपनी बात रख सकते हैं? मेरे जैसी अनगिनत महिलाएं ऐसे ही फँसी हुई हैं. हम इससे बाहर नहीं निकल सकते. हमें अपने बच्चों का भविष्य चुनना है. गरीबी और कलंक के डर से हम कभी खुल कर बोल नहीं सकते. हमारी जैसी महिलाओं के लिए कोई जगह सुरक्षित नहीं है. न हमारे काम करने की जगह, न ही हमारे घर, और न ही सड़क जिस पर हम निकलते हैं.[86]
शालिनी गुडगांव के जिस आवासीय अपार्टमेंट परिसर में अंशकालिक घरेलू कामगार के रूप में काम करती थीं वहां के एक सुरक्षा गार्ड ने महीनों तक उनका यौन उत्पीड़न किया. वह 13 साल पहले बिहार के एक छोटे से गांव से गुड़गांव चली आईं. उन्होंने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि शुरुआती सालों में वह घर से बाहर कदम रखने से भी नफरत करती थी:
जब मैंने काम शुरू किया, तो मुझे घर से निकलने से भी डर लगता था. काम के लिए जाते वक़्त रास्ते में टैक्सी और ऑटो रिक्शा चालकों द्वारा परेशान किए जाने से मेरा रोने का मन करता था. मैं जिस आवासीय कॉलोनी में काम करती थी, वहां का गार्ड मुझे परेशान करता था. वह मुझसे प्यार करने की बात कहता था. वह मेरी शिफ्ट के बाद लिफ्ट के पास मेरा इंतज़ार करता था और जब मैं लिफ्ट में अकेली होती, तो भद्दी टिप्पणियां करता था. मैंने अपने पति से कहा, लेकिन उन्होंने मुझे गंभीरता से नहीं लिया. एक दिन, बात बहुत आगे बढ़ गई जब गार्ड ने पैसे निकाल कर मेरी हथेली पर रख दिए और मुझे अपने साथ चलने को कहा. उस दिन मैं घर लौटने पर बहुत रोई और अपने पति से कहा कि मैं गांव वापस जाना चाहती हूं. मेरे पति और देवर ने कॉलोनी जाकर सुरक्षा प्रमुख, जिन्हें वे जानते थे, से शिकायत की और गार्ड को चुपचाप वहां से हटा दिया गया. अगर मेरे नियोक्ताओं को पता चल जाता, तो वे शायद मुझे ही दोषी ठहराते. इसीलिए मैं चुप रही.[87]
शालिनी ने बताया कि नियोक्ताओं के घरों पर रहकर काम करने वाले कामगारों की स्थिति और बदतर होती है:
एक जगह, जहां मैं खाना बनाती थी, पति-पत्नी उनके घर पर रहकर साफ-सफाई का काम करने वाले कामगार के साथ बहुत बुरा व्यवहार करते थे. महिला उसे पीटती थी, और पति उसे हाथ पकड़कर कमरे में ले जाता था. वह झारखंड की लगभग 14 या 15 साल की लड़की थी. मैंने कुछ महीनों के बाद नौकरी छोड़ दी क्योंकि मुझे उनका व्यवहार पसंद नहीं था. वह लड़की मेरे पास आती थी लेकिन मुझे कुछ नहीं बता पाती थी. वह हमेशा बहुत डरी रहती थी.[88]
शालिनी बीते कुछ सालों से मार्था फैरेल फाउंडेशन से जुड़ी हुई हैं और पॉश अधिनियम के बारे में जानती हैं, लेकिन उन्हें यकीन नहीं होता है कि वह कभी मामले की रिपोर्ट दर्ज कर पायेंगी:
मेरे जैसे लोगों को न्याय नहीं मिलता है. स्थानीय समिति इतनी दूर है कि मैं वहां जाने के बारे में सोच भी नहीं सकती, और यकीनन मैं पुलिस के पास नहीं जाऊंगी. इस कानून ने मेरी जैसी महिलाओं की मदद नहीं की है. अगर आप शिकायत करते हैं तो भी कुछ नहीं होता. एक बार हमने एक घरेलू कामगार की पिटाई को लेकर विरोध प्रदर्शन किया, लेकिन पुलिस ने हम पर चुप रहने का दबाव बनाया. ऐसे में, पुलिस के पास जाने का क्या मतलब है?
27 साल की अलका (बदला हुआ नाम) का यौन शोषण किया गया जब 10 साल की उम्र में पहली बार घरेलू कामगार के रूप में काम करना शुरू किया. उन्होंने कहा:
मैं इतनी छोटी थी कि मुझे पता भी नहीं था कि क्या सही है, क्या गलत. नियोक्ता, जो एक डॉक्टर था, उसने मेरा हाथ पकड़कर मुझे अपनी गोद में बैठा लिया. उसने कहा कि वह मुझे मिठाई देगा. मैं बहुत डर गयी और असहज महसूस करने लगी. इसलिए, मैं काम छोड़ कर भाग गई. मैंने घर पर कुछ नहीं कहा क्योंकि मैं किसी को भी बताने से बहुत डर रही थी. इसलिए भी कि कोई भी वास्तव में लड़कियों को समझने की परवाह नहीं करता है, ऐसे में बस नौकरी छोड़ना बेहतर था.[89]
अलका बताती है कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न इतना सामान्य हो गया है कि महिलाओं से बस इसे स्वीकार करने की उम्मीद की जाती है. “हर कोई उत्पीड़न को मामूली घटना समझता है. ‘अरे जाने दो,’ हर कोई यही कहता है. यदि बात बहुत आगे बढ़ जाती है, तब मुझे इसकी रिपोर्ट दर्ज कराना सही लगता है क्योंकि जितना अधिक आप सहन करते हैं, यह उतना ही बढ़ता जाता है.” [90]
चोरी के झूठे आरोपों सहित अपने नियोक्ताओं के बदले की कार्रवाई का डर अनेक घरेलू कामगारों को पुलिस में शिकायत दर्ज करने से रोकता है. अलका ने कहा, “हम गरीब हैं, और डरते भी हैं कि यदि हमने अपने नियोक्ताओं पर मामला दर्ज कराया, तो वे हमारे खिलाफ चोरी के झूठे आरोप मढ़ सकते हैं, इसलिए हम अपनी आवाज उठाने से डरते हैं.” [91] शालिनी ने कहा, “अगर हम शिकायत करने के बारे में सोचते भी हैं, तो नियोक्ता घरेलू कामगारों के खिलाफ झूठी शिकायतें दर्ज कर देंगे और पुलिस घरेलू कामगारों को पूरी रात थाना पर रखेगी और उन्हें परेशान करेगी. कानून के कारण हमारा जीवन बेहतर नहीं हुआ है.” [92]
III. #मीटू (#MeToo) और आवाज़ उठाने की कीमत
यौन उत्पीड़न के खिलाफ 2013 के कानून और #मीटू (#MeToo) आंदोलन ने यौन उत्पीड़न की व्यापकता और स्वरूपों एवं इसकी रोकथाम व कार्रवाई के मामले में सरकारों, नियोक्ताओं और जनता की जिम्मेदारियों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रेरित किया है. लेकिन कार्यस्थल की दुनिया में उत्पीड़न और हिंसा के उत्तरजीवी रिपोर्ट दर्ज करने में बड़ी बाधाओं का सामना करते हैं जिसमें प्रतिशोधात्मक करवाई का डर और आंतरिक समितियों एवं दूसरी अन्य न्याय प्रणालियों में विश्वास की कमी शामिल है. आपराधिक मानहानि मुकदमों के इस्तेमाल से जुड़े कई हाई-प्रोफाइल मामलों ने इस जोखिम-लाभ की गणना को मजबूत बनाया है.
आंतरिक समितियों पर विश्वास की कमी
जबकि अधिकांश कंपनियों में आंतरिक समितियां (आईसी) हैं, विशेषज्ञों का कहना है कि उनमें बहुत से महज खानापूर्ति के लिए हैं. अपने कार्यस्थल की संस्कृति में बदलाव के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता लाना उनका मकसद नहीं है. खास तौर से चिंता की बात यह है कि आंतरिक समितियों के गठन या विशिष्ट शिकायतों के निपटारे के समय फैसलों में नियोक्ताओं के हितों का टकराव हो सकता है. दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और महिला अधिकार कार्यकर्ता माया जॉन, जो आंतरिक समितियों में रही हैं, कहती हैं:
इस कानून में जिस तरह की आंतरिक जांच की परिकल्पना की गई है, वह मूल रूप से समस्या पैदा करने वाली है. यौन उत्पीड़न के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वातावरण तैयार करने वाली कंपनी ही आंतरिक समिति का गठन और इसके सदस्यों को नामित करती है. यह लैंगिक समानता के लिए जादुई ढंग से कैसे काम करेगा? अधिकांश स्थानों पर, हम पाते हैं कि कोई मामला दर्ज होने पर जल्दबाज़ी में आईसी का गठन होता है. हम में से कई आईसी का हिस्सा हैं. यह एक निराशाजनक क़वायद है क्योंकि हमारे यहां अधिकांश कार्यस्थलों में शिकायतों को महत्वहीन बनाने और चरित्र हनन की संस्कृति होती है. तमाम कटुता के बावजूद, यदि आईसी [सही] निर्णय देती भी है, तो भी इसे लागू करने का निर्णय कंपनी या नियोक्ता पर निर्भर करता है.[93]
आरती (बदला हुआ नाम) 2014 में जयपुर के एक सरकारी बैंक की आंतरिक समिति की बाहरी सदस्य थी. वह एक साल तक समिति की सदस्य रहीं, लेकिन इस बीच उन्हें केवल एक बैठक में आमंत्रित किया गया. उन्होंने कहा:
एक महिला कर्मचारी द्वारा दर्ज यौन उत्पीड़न की पुरानी शिकायत थी. समिति के अन्य सदस्य, जो कि कंपनी के कर्मचारी थे, ने मुझे बताया कि मामला निपटा लिया गया है क्योंकि मामूली भ्रम के कारण ऐसा हुआ था. मुझे मिलाकर दो बाहरी सदस्य थे. हमने शिकायतकर्ता से बात करवाने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने कहा कि उसे अगली बैठक में बुलाएंगे. लेकिन इसके बाद उस साल और कोई बैठक नहीं हुई.[94]
आरती के मुताबिक जब उनसे आंतरिक समिति में शामिल होने के लिए कहा गया था, उन्हें पॉश कानून के बारे में बहुत कम जानकारी थी. वह व्यापार बढ़ाने वाले एक नेटवर्क की महिला शाखा की प्रधान थीं. हालांकि, उन्होंने महिला सशक्तीकरण पर काम करने वाला एक गैर-सरकारी संगठन भी चलाया है. उन्होंने कहा:
मेरी कोई कानूनी पृष्ठभूमि नहीं है. मैंने महिला सशक्तीकरण पर काम किया है लेकिन यौन उत्पीड़न के मुद्दों पर नहीं. मेरी नियुक्ति के बाद, मैंने कानून के बारे में गूगल पर जानकारी प्राप्त की और मुझे आंतरिक समिति और बाहरी सदस्य की भूमिका के बारे में थोड़ा-बहुत पता चला. मुझे इस विषय पर संगठन द्वारा कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया और न ही जागरूक किया गया.[95]
अनेक नियोक्ताओं ने सुरक्षित कार्यस्थल बनाने के लिए अपने अन्य कर्तव्यों को पूरा करने, साथ ही यौन उत्पीड़न के संघटकों, इस तरह के व्यवहार के परिणामों और कानून के प्रावधानों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए बहुत कम कार्य किया है. और न ही अनुपालन की उचित सरकारी निगरानी है. यौन शोषण की शिकायतों में महिलओं की मदद करने में माहिर अधिवक्ता वकील वृंदा ग्रोवर ने कहा:
कानून की व्याख्या का न्यूनतावादी दृष्टिकोण रहा है. राज्य द्वारा निगरानी की वैधानिक चर्चा होती है, लेकिन यह निगरानी नहीं करता है. राज्य उद्योग क्षेत्र के बहुत से पहलुओं की कड़ाई से निगरानी करता है लेकिन इसकी निगरानी नहीं करता है. यह दर्शाता है कि राज्य कार्यस्थल पर सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करने को बहुत कम महत्व देता है.[96]
समुचित जांच का अभाव, प्रतिशोधात्मक कार्रवाई
हाल के वर्षों में, ऐसे कई प्रमुख मामले सामने आए हैं, जिनमें महिलाएं वरिष्ठ पदों पर आसीन पुरुषों के खिलाफ शिकायतें दर्ज करने के लिए सामने आईं हैं और उन्हें धमकी, प्रतिशोध, रिश्वत की पेशकश, कानूनी प्रक्रिया में कमियां और पूर्वाग्रह एवं लांछन समेत बहुतेरे घात-प्रतिघात का मुकाबला करना पड़ा है. ये अन्य पीड़ितों को आगे आने से रोकने के लिए खौफ़ पैदा करते हैं.
मुख्य न्यायाधीश का मामला
अप्रैल 2019 में, मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के एक पूर्व जूनियर असिस्टेंट ने सुप्रीम कोर्ट के 22 जजों को सुपुर्द अपनी शिकायत में मुख्य न्यायाधीश द्वारा 2018 में अपने ऊपर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया. इसके जवाब में, न्यायमूर्ति गोगोई ने उस महिला को सूचित किए बिना इस मामले की सुनवाई के लिए 20 अप्रैल को तत्काल तीन न्यायाधीशों की बेंच का गठन कर दिया. न्यायमूर्ति गोगोई ने खुद सुनवाई की अध्यक्षता भी की, शिकायत को न्यायिक स्वतंत्रता पर हमला बताया और आरोपों को ख़ारिज कर दिया.[97]
इंडियन सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन ने कार्यवाही और आदेश की आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया की सरेआम अवहेलना की है.[98] भारत के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, महिला वकीलों और महिला अधिकार समूहों ने सार्वजनिक बयान और पत्र जारी कर सुप्रीम कोर्ट से जांच के लिए एक विशेष समिति बनाने की मांग की.[99] मामले का सार्वजनिक रूप से तूल पकड़ने के बाद, न्यायमूर्ति गोगोई ने दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश, न्यायमूर्ति एस. ए. बोबड़े से सर्वोच्च न्यायालय की आगे की कार्रवाई तय करने को कहा और तीन न्यायाधीशों की जांच समिति का गठन किया. हालांकि, मई 2019 में, समिति ने न्यायमूर्ति गोगोई को यौन उत्पीड़न के आरोपों से मुक्त करते हुए कहा कि उसे शिकायत में “कोई ठोस तथ्य नहीं” मिला.[100]
महिला की शिकायत में केवल यौन उत्पीड़न की शिकायत का ही विवरण नहीं था, बल्कि इसमें अक्टूबर 2018 से अप्रैल 2019 के बीच परवर्ती घटनाक्रमों — कार्यस्थल में महिला एवं उसके परिवार के सदस्यों के निलंबनों और निष्कासनों की एक श्रृंखला का भी ब्यौरा है. इसके अलावा, इसमें एक कथित रिश्वतखोरी का आपराधिक मामला भी शामिल है जिसमें मार्च 2019 में महिला की गिरफ़्तारी हुई थी. महिला ने कहा कि उत्पीड़न से निपटने में विफल रहने और अपने परिवार की सुरक्षा के डर से उसने आखिरकार शिकायत दर्ज करने के लिए अपनी चुप्पी तोड़ी.[101] जांच समिति द्वारा न्यायमूर्ति गोगोई को आरोप मुक्त किए जाने के बाद, महिला ने कहा कि वह पूरी तरह से निराश है. उन्होंने कहा, “मेरी नौकरी चली गई, मैंने सब कुछ खो दिया है.”[102]
जनवरी 2020 में, जस्टिस गोगोई के अपना कार्यकाल पूरा कर सेवानिवृत्त होने के दो माह बाद, उन्हें अपनी पहले की नौकरी पर बहाल कर लिया गया.[103]
चिकित्सा अधीक्षक का मामला
दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में नर्सिंग अधिकारी, 32 वर्षीय गरिमा (बदला हुआ नाम) ने बताया कि उन्होंने सीखा है कि किसी प्रभावशाली पुरुष के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत करना व्यर्थ है और इसके नतीज़े केवल शिकायत करने वाली महिला को भुगतने पड़ते हैं. 2019 के आरम्भ में, गरिमा के अस्पताल में एक नए चिकित्सा अधीक्षक की तैनाती हुई. गरिमा ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि उसने फरवरी 2019 में पहली मुलाकात में ही उन्हें असहज करना शुरू कर दिया:
उसने कहा, “मैं इतनी दूर से बात नहीं करता. आओ मेरे बगल में बैठो.” और वह मुझे घूर रहा था. मैंने उससे कहा कि काम की चर्चा करते हैं क्योंकि मैं बहुत असहज महसूस कर रही था. लेकिन उसने कहा, “काम की बात बाद में होगी, पहले कुछ अपने बारे में बताओ. अब तक शादी क्यों नहीं की? चलो बताओ तुम्हारी जरूरतें क्या हैं. तुम्हें यह भी पता नहीं.” तब मैंने उसे रोका, लेकिन वह मेरे कंधे छूता रहा. जब मैंने अपने कंधे खींच लिए, तो उसने मुझे मेरी शिफ्ट के बाद मिलने के लिए कहा. उसने कहा, “अपने यूनिफार्म में मत आना. मुझे तुम से बात करनी है. मेरा नंबर लो. मुझे फ़ोन करना.”[104]
गरिमा ने कहा कि वह वास्तव में गुस्से में थी और शिकायत दर्ज करना चाहती थी लेकिन यकीन नहीं था कि इतने बड़े अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई होगी. उन्होंने बताया कि वह अनुचित तरीके से बात करता रहा, निजी टिप्पणियां करता रहा और मुझे छूता रहा. उन्होंने कहा, “वह इस तरह की बातें करता: ‘मुझे बताओ, तुम्हें कैसा मर्द पसंद हैं? मेरी तरह?’”[105] गरिमा पर अपनी बीमार मां की देखभाल की जिम्मेदारी है और ऐसे में वहां नौकरी करना पसंद नहीं करने के बावज़ूद उन्होंने काम करना जारी रखा.
मार्च 2019 में एक और असहज मुलाकात के बाद, गरिमा ने सहायक चिकित्सा अधीक्षक से बात की, लेकिन उन्होंने उनकी शिकायत सुनने से इनकार कर दिया और चुप रहने को कहा. इसलिए, उसी माह, उन्होंने दिल्ली पुलिस की महिला हेल्पलाइन और दिल्ली सरकार की सार्वजनिक शिकायत निगरानी प्रणाली में शिकायत दर्ज की.[106] #मीटू (#MeToo) आंदोलन से वाकिफ गरिमा ने सोशल मीडिया पर भी अपने अनुभव साझा किए. यह अधिकारियों से मदद और अस्पताल के दूसरे कर्मचारियों से समर्थन प्राप्त करने की कोशिश ज्यादा थी.[107] ऑल इंडिया गवर्नमेंट नर्सेज फेडरेशन ने भी मामले की जांच के लिए दिल्ली सरकार को लिखा.[108] स्वास्थ्य विभाग ने तुरंत आंतरिक समिति से उनकी शिकायतों की जांच करने का आदेश दिया.[109] अप्रैल में, वह अस्पताल की आंतरिक समिति के सामने पेश हुईं. उनके मुताबिक इस समिति का गठन स्वास्थ्य विभाग द्वारा इस मामले की जांच के आदेश के बाद किया गया था.
उन्होंने बताया कि उन्हें समिति पर भरोसा नहीं था. इसमें उन लोगों को शामिल किया गया था जो पहले से ही समस्याओं से अवगत थे, लेकिन चूंकि आरोपी उनके सुपरवाइजर थे, उन्होंने कोई हस्तक्षेप नहीं किया. गरिमा ने बताया, “जब मेरे मामले में आरोपित चिकित्सा अधीक्षक ने कमरे में प्रवेश किया, तो समिति के सभी सदस्य उनके अभिवादन में उठ खड़े हुए. उनका पूर्वाग्रह बहुत साफ़ था. आंतरिक समिति ने आरोपी को बचाने का काम किया.”[110] उन्होंने मई 2019 में समिति को पत्र लिख कर अपने बयान की प्रति, सदस्यों के नाम और कार्यवाही का विवरण मांगा. उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि समिति सदस्य, जो अस्पताल में नियोजित थे, उन्हें अपनी शिकायत वापस लेने की धमकी देते रहे.[111] लेकिन उन्हें आगे कोई जानकारी या यहां तक कि अंतिम रिपोर्ट नहीं दी गई, और इसलिए वह समिति के निष्कर्षों से अनजान हैं.
इस बीच, पुलिस अस्पताल आई और गरिमा से यह कहते हुए समझौता के लिए कहा कि चिकित्सा अधीक्षक माफी मांगने के लिए तैयार हैं. गरिमा ने कहा, “उन्होंने मुझसे कहा, ‘बस जाने दीजिए. आप अविवाहित हैं, आपको समझना चाहिए. शिकायत करना आसान है, लेकिन लड़ना मुश्किल.’” गरिमा ने बताया कि चिकित्सा अधीक्षक ने उन्हें पदोन्नति और भत्ते देने का वादा किया, लेकिन उन्होंने अपनी शिकायत वापस लेने से इनकार कर दिया. आगे गरिमा ने कहा, “वह मुझ पर और मेरे परिवार पर दबाव बनाने की कोशिश करते रहा, और शिकायत वापस लेने के लिए हमें समझाने हेतु अस्पताल कर्मियों को मेरे घर भेजता रहा.” उन्होंने कहा कि जल्द ही उनका कार्यस्थल और भी अधिक शत्रुतापूर्ण हो गया. उन्हें उनकी नियमित दिन की पाली के बजाय अस्पताल में शाम और रात की पाली में ड्यूटी दी जाने लगी और नियत वेतन वृद्धि भी नहीं मिली. पुलिस ने भी प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज नहीं की जो कि जांच शुरू करने के लिए जरुरी है.
गरिमा ने बताया कि जुलाई 2019 में, एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने उनसे कहा: “तुम बच्चों की तरह बातें कर रही हो. यह आम बात है. ऐसा सभी के साथ होता है. मजबूत बनो. ये सब सहना सीखो.”[112]
2019 में, गरिमा दिल्ली महिला आयोग पहुंची और उन्हें आंतरिक समिति की दिखावटी कार्यवाही के बारे में बताया. आयोग ने उनके मामले की सुनवाई की और कहा कि वे जांच के लिए उनकी शिकायत को जिला स्तरीय स्थानीय समिति भेज रहे हैं. गरिमा ने बताया कि उन्हें स्थानीय समिति ने सुनवाई के लिए नहीं बुलाया. इसके बजाय, आयोग ने उन्हें 2020 में सूचित किया कि समिति ने अंतिम रिपोर्ट दायर कर दी है जिसमें पुलिस अधिकारियों ने कहा कि उनके पास इस मामले को साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं.[113]
एक साल बाद भी गरिमा के साथ न्याय नहीं हुआ है. उन्होंने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया:
अगर मुझे इस नौकरी की जरूरत नहीं होती, तो मैं यह नहीं करती. महिलाओं को ऐसे भयानक माहौल में काम क्यों करना पड़ता है? मैं दूसरों के लिए यह कहने का उदाहरण बन गई हूं कि “क्या होता है? कुछ भी तो नहीं.” यौन उत्पीड़न इतना आम है कि अन्य डॉक्टर मुझसे कहते हैं, “आप लड़ाई करने की क्यों ज़हमत उठा रही हैं. यह बचपना है. हम सब इससे निपटते हैं, आप क्यों नहीं कर सकतीं?”[114]
मानहानि मुकदमे और "मुंह बंद रखने के आदेश"
ताकतवर पुरुष अपने ऊपर आरोप लगाने वालों को रोकने के लिए कानूनी धमकी जैसी चालों का भी इस्तेमाल करते हैं. भारत में #मीटू (#MeToo) आंदोलन के दौरान, सबसे प्रमुख आरोप सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली सरकार के एक मंत्री के खिलाफ लगाए गए. अक्टूबर 2018 में, कम-से-कम 20 महिलाओं ने तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री एम.जे. अकबर पर बतौर अखबार संपादक कई वर्षों तक यौन दुर्व्यवहार करने का आरोप लगाया.[115] अकबर ने आरोपों से इनकार किया और इनके दुर्भावनापूर्ण होने का दावा किया.[116]
अनगिनत पत्रकारों ने प्रधानमंत्री और भारत के राष्ट्रपति से हस्तक्षेप करने और एक स्वतंत्र जांच सुनिश्चित करने की अपील की.[117] लेकिन महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों की रक्षा करने के सार्वजनिक संकल्पों के बावजूद, जब सरकार को अपने एक मंत्री के खिलाफ आरोपों का सामना करना पड़ा, तो वह इस मामले पर सार्वजनिक रूप से बोलने में विफल रही.
अकबर ने आखिरकार मंत्री पद से इस्तीफा तो दिया, लेकिन उनके उत्पीड़नकारी व्यवहार के बारे में पहली बार लिखने वाली प्रमुख महिला पत्रकार प्रिया रमानी के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया.[118] भारत की एक शीर्ष कानून फर्म की मदद से अकबर ने रमानी को दबोचने के लिए आपराधिक जांच का जाल बिछाया.
रमानी ने अगस्त 2019 में दिल्ली की एक अदालत में अपने खिलाफ आपराधिक मानहानि के मुकदमे में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा, “मैंने जनहित और #मीटू (#MeToo) आंदोलन के संदर्भ में सच्चाई बयान की. यह अकबर द्वारा यौन उत्पीड़न के शिकार उन सभी महिलाओं के बीच खौफ़ पैदा करने के लिए दायर किया गया एक झूठा और दुर्भावनापूर्ण मामला है जो अपने अनुभवों के बारे में मुखर हुई हैं. यह जानबूझकर मुझे निशाना बनाकर डराने-धमकाने की कोशिश है. यह शिकायतकर्ता के अपने खिलाफ़ लगे यौन दुराचार के गंभीर आरोपों और इसके बाद सामने आई सार्वजनिक नाराजगी से ध्यान हटाने की कोशिश है.”[119] रिपोर्ट लिखे जाने के समय तक मुकदमा लंबित था.
रमानी की वकील रेबेका जॉन ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि मानहानि मुकदमा ने खौफ़ पैदा कर दिया. उन्होंने कहा, “बहुत सी महिलाएं इसके बाद मेरे पास आई हैं क्योंकि वे संभावित पलटवार के बारे में बहुत चिंतित हैं, जिसका उन्हें सामना करना पड़ सकता है अगर वे अपना मुंह खोलती हैं. यह साफ़ है कि अब कोई भी यौन उत्पीड़न के बारे में नहीं बोल रहा है. वह दौर आया और चला गया.”[120]
भारत का आपराधिक मानहानि कानून ब्रिटिश औपनिवेशिक काल का एक अवशेष है जिसमें दो साल तक की जेल और जुर्माने का प्रावधान है.[121] आपराधिक मानहानि, अभिव्यक्ति पर असंगत दंड लगाने के आधार पर, अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत गारंटी किए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है और इसे यौन उत्पीड़न की शिकायतों पर कानूनी कार्रवाई करने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए.[122]
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत ने सिफारिश की है कि आपराधिक मानहानि कानूनों को निरस्त किया जाए और उसकी जगह नागरिक मानहानि कानूनों को लागू किया जाए.[123]
लेकिन दीवानी मानहानि मामलों का इस्तेमाल भी धमकी देने के लिए किया जा सकता है. भारत में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के आरोपी अन्य पुरुषों ने शिकायतकर्ताओं पर दीवानी मानहानि के मामले दर्ज किए हैं. उदाहरण के लिए, अक्टूबर 2018 में, अभिनेता आलोक नाथ की पत्नी ने लेखक और निर्माता विंता नंदा के खिलाफ दीवानी मानहानि का मुकदमा दायर किया, जिन्होंने नाथ पर 1999 में उनके साथ बलात्कार का आरोप लगाया था.[124] हालांकि, जनवरी 2020 में, नाथ की पत्नी ने मामला वापस ले लिया.[125]
अप्रैल 2016 में, जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल के पूर्व अध्यक्ष, आर.के. पचौरी ने अपने ऊपर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिलाओं में एक महिला और उनकी वकील वृंदा ग्रोवर के खिलाफ दीवानी मानहानि का मामला दायर किया. उन्होंने अपने ऊपर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिलाओं के बयानों को प्रकाशित करने के लिए कई मीडिया संस्थानों को भी इस मुक़दमे में आरोपित किया.[126] ग्रोवर ने कहा:
यह मुद्दा नए निम्न स्तर पर पहुंच गया है, जहां सार्वजनिक रूप से बोलने वाले वकील को अब निशाना बनाया जा रहा है…. मेरे हिसाब से चीजें बेहद खतरनाक दिशा में मोड़ दी गई हैं क्योंकि सामाजिक क्षेत्र ऐसी एक जगह है जहां हम समर्थन जुटाने में सक्षम हैं.... यह सामाजिक क्षेत्र ही है जो परिवर्तन की प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण होता है, जहां अलग-अलग किस्म के नैरेटिव (पाठ) विकसित होते हैं, जो महिलाओं की स्पष्ट अभिव्यक्ति पर पैनी नजर रखते हैं कि भद्दी टिप्पणी के मामले में क्या गलत है और क्यों यह मामूली “छेड़खानी” का मुद्दा नहीं है.[127]
कानूनी प्रणालियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ताकतवर लोगों के आलोचकों को चुप कराने के लिए दीवानी मानहानि मुकदमे का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता है. इनमें समुचित तौर पर बदलाव लाना चाहिए ताकि प्रकाश में आए महत्वपूर्ण आरोपों को देखने में सार्वजनिक हित को आंका जा सके.[128]
मानहानि के मुकदमे दायर करने के अलावा, यौन उत्पीड़न के अभियुक्तों ने अपने खिलाफ मामलों पर मीडिया को खबर प्रकाशित करने से रोकने के लिए अदालतों से आदेश या “मुंह बंद रखने के आदेश” की भी लगातार मांग की है. उदाहरण के लिए, जनवरी 2014 में, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश, जस्टिस स्वतंत्र कुमार, जो नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष बने, ने दिल्ली उच्च न्यायालय से आदेश प्राप्त किया, जिससे कि मीडिया को एक प्रशिक्षु द्वारा उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों को प्रकाशित करने से रोका जा सके.[129] अक्टूबर 2014 में, सुप्रीम कोर्ट ने एक जिला अदालत की महिला न्यायाधीश द्वारा मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के खिलाफ लगाए गए यौन उत्पीड़न के आरोपों की खबरें प्रकाशित करने से रोकने के लिए मीडिया को ऐसा ही आदेश जारी किया था.[130]
पचौरी ने भी अपने खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामले में खबर प्रकाशित करने पर रोक की मांग की थी. जबकि दिल्ली की एक दीवानी अदालत ने सभी मीडिया संस्थानों को उनके मामले की खबर प्रकाशित करते हुए डिस्क्लेमर का उपयोग करने का अंतरिम आदेश दिया, लेकिन फरवरी 2018 में अदालत ने अपने पहले के आदेश को पलटते हुए कहा, “जिस तरह के प्रतिबंध की मांग की गई है, यह न केवल मीडिया का मुंह बंद करता है बल्कि साथ ही घटनाक्रमों पर अद्यतन रहने के जनता के अधिकार को प्रतिबंधित करता है—उनके सूचित रहने के अधिकार का उल्लंघन होता है या उसे रौंद दिया जाता है.”[131]
निजी क्षेत्र का उदाहरण: गारमेंट फैक्टरी श्रमिक
भारत का कपड़ा उद्योग देश में कृषि क्षेत्र के बाद महिलाओं का दूसरा सबसे बड़ा नियोक्ता है. ह्यूमन राइट्स वॉच ने अपने पूर्व के दस्तावेजीकरण में पाया है कि भारतीय गारमेंट फैक्ट्रियों में यौन उत्पीड़न के साथ-साथ इनकी निगरानी और संबोधित करने के मामले में गंभीर खामियां चिंताजनक तौर पर व्याप्त हैं.[132] यद्यपि इस उद्योग में ज्यादातर कामगार महिलाएं हैं, लेकिन प्रबंधन में अधिकांश पुरुष ही रहते हैं. महिलाओं ने कामुक टिप्पणी, उनके यौन जीवन के बारे में चुभते सवाल, पीछा करने और काम का बोझ हल्का करने एवं छुट्टी के एवज में यौन अनुग्रह के प्रस्तावों के बारे में बताया.[133] ये नौकरियां घरेलू काम और खेती जैसे अन्य उपलब्ध रोजगार विकल्पों की तुलना में महिलाओं और उनके परिवारों के लिए आय का कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्रोत होती हैं. यह महिलाओं को अपनी नौकरी बचाने के लिए उत्पीड़न सहन करने का अतिरिक्त दबाव डालता है.
गारमेंट एंड फैशन वर्कर्स यूनियन की अध्यक्ष और न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव की राष्ट्रीय सचिव सुजाता मोदी बताती हैं कि कारखानों में उत्पीड़न सामान्य बात है:
हो सकता है कि कारखानों में यौन संसर्ग के खुले प्रस्तावों या बिना सहमति के स्पर्श के रूप उतना मौजूद न हो जितना कि एक अत्यंत शत्रुतापूर्ण काम का माहौल बनाने के रूप में हो, जहां महिलाओं का मजाक उड़ाया जाता हो, उन पर चीखा-चिल्लाया जाता हो, अपमानित किया जाता हो, दबाया जाता हो और महिला होने के नाते उन्हें तुच्छ या अक्षम माना जाता हो. प्रबंधक और वरिष्ठ कर्मी शॉप फ्लोर को नियंत्रित करने के लिए ऐसा माहौल बनाते हैं. इसमें किसी भी साहसी और आत्मविश्वास से भरी मुखर महिला को अलग-थलग करने के लिए “बुरी महिला, अच्छी महिला” का राजनीतिक खेल हो सकता है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि अन्य महिलाएं उससे न जुड़ें. वे आत्मविश्वासी महिला के बारे में, हर शॉप फ्लोर में उसके रिश्तों के बारे में गलत जानकारी फैलाते हैं. ऐसा उन महिलाओं के जरिए करवाया जाता है जो इन अफवाहों को फैलाने में मदद करती हैं. इस किस्म की राजनीति तमाम कारखानों में होती है.[134]
तिरुपुर की एक कपड़ा फैक्ट्री कामगार 23 वर्षीय सलमा (बदला हुआ नाम) ने बताया कि महिला कामगारों को अक्सर अपशब्दों का सामना करना पड़ता है, साथ ही, खासकर उनसे तेजी से काम निकलवाने के लिए पर्यवेक्षकों द्वारा उनका यौन अपमान किया जाता है. उन्होंने कहा:
ऐसा इसलिए है क्योंकि वे जानते हैं कि हम किसी को नहीं बताएंगे. अगर हम घर पर किसी को बताते हैं, तो वे हमारा काम छुड़वा देंगे. और अगर हम कार्यस्थल पर शिकायत करते हैं, तो हम अपनी नौकरी से हाथ धो बैठेंगे. हमारे परिजन और सहकर्मी भी हमें ही दोषी ठहराएंगे. हम महिला कामगार आपस में भी इस के बारे में बात करने में सहज महसूस नहीं करती हैं, क्योंकि हो सकता है कि कोई हमारी चुगली कर दे.[135]
दक्षिण भारत के एक कारखाने में कार्यरत 11 महिलाओं ने एक वरिष्ठ प्रबंधक की कामुकता से भरी बीभत्स टिप्पणियों से हुए शत्रुतापूर्ण काम के माहौल के बारे में एक शिकायत भेजी. इसमें कहा गया: “हम ग्यारह लोगों ने एक साथ आकर शिकायत की है. कृपया हमारी सहायता करें. इसमें यदि हम अपना नाम जाहिर करते हैं तो वे हमें जीने नहीं देंगे. हम न्याय चाहते हैं... क्या हमारा गरीब होना हमारा कसूर है?”[136]
मोदी ने बताया कि इन फैक्ट्रियों में ट्रेड यूनियनों द्वारा सामूहिक सौदेबाजी और संगठित करने में गंभीर बाधाएं हैं, जो श्रमिकों को उनके अधिकारों के बारे में जानकारी प्राप्त करने और शिकायतों के साथ आगे आने के लिए जरूरी समर्थन के बिना छोड़ देती हैं—जिससे एक ऐसा वातावरण तैयार होता है जहां यौन उत्पीड़न को बढ़ावा मिल सकता है और निवारण के रास्ते सीमित हो सकते हैं. उन्होंने कहा कि फैक्ट्रियों में आंतरिक समितियां स्वेच्छाचारी होती हैं, ज्यादातर कागज पर मौजूद हैं, और स्थानीय सरकार या अंतरराष्ट्रीय ब्रांड्स या ऑडिटर्स द्वारा इन समितियों की कोई निगरानी या जवाबदेही तय नहीं की जाती है. आगे उन्होंने कहा, “ये समितियां मूल रूप से केवल अपने प्रबंधन के प्रति जवाबदेह मानव संसाधन विभागों द्वारा गठित की जाती हैं. इसलिए, एक बाहरी सदस्य की नियुक्ति, जो कानून द्वारा अनिवार्य है, केवल तभी होती है जब कंपनी उस बाहरी मनोनीत व्यक्ति के साथ सहज हो.”
कंपनियां बिरले ही अपनी निगरानी में यौन उत्पीड़न को दृढ़तापूर्वक संबोधित करती हैं. 2019 में ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट में भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान के गारमेंट फैक्ट्रीज के 2019 और 2018 के बीच के 50 से अधिक सामाजिक अंकेक्षणों की समीक्षा की गई.[137] इन फैक्ट्रियों के निरीक्षण विशिष्ट तौर पर तीसरे पक्ष के लेखा परीक्षकों द्वारा किए जाते हैं. ऐसी ज्यादातर रिपोर्ट में, यौन उत्पीड़न की विवेचना न्यूनतम या पूरी तरह से गायब थी. भारत की महज एक रिपोर्ट में कार्यस्थल पर कानूनी रूप से अनिवार्य पॉश समिति के बारे में सरसरी तौर पर जिक्र किया गया था और लेकिन उसमें इसके कारगर होने का कोई मूल्यांकन नहीं किया गया था.
तमिलनाडु और कर्नाटक में वस्त्र उद्योग में श्रम अधिकारों और सामाजिक अनुपालन पर काम करने वाले एक प्रबंधन सलाहकार ने कहा कि निर्यात के लिए वस्त्र बनाने वाली फैक्ट्रियों में आंतरिक समितियां हैं—खास तौर पर ऐसा अंतरराष्ट्रीय ब्रांड्स के दबाव में है जो कि कानून के अनुपालन की अपेक्षा करते हैं. मगर जो फैक्ट्रियां स्थानीय ब्रांड्स के लिए आपूर्ति करती हैं वे इसका अनुपालन नहीं करती हैं. जहां समितियां मौजूद भी हैं, वहां वे ब्रांड्स को दिखाने भर के लिए हैं, शायद ही कभी ठीक से काम करती हैं. “सरकारी अधिकारियों द्वारा इसपर बिल्कुल अमल नहीं किया जाता है,” उन्होंने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया.[138]
तिरुपुर जिले में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून को लागू करने हेतु जिम्मेवार जिला समाज कल्याण अधिकारी आई. पूंगोथाई ने कहा कि कानून लागू होने के लगभग पांच साल बाद जाकर 2018 में जिले के सरकारी कार्यालयों ने अपनी आंतरिक समितियों का गठन किया. उन्होंने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि फैक्ट्रियों में आंतरिक समितियों की बहुत कम निगरानी होती है, जबकि वे अनुपालन में कमियों से परिचित होते हैं. “हमारी क्षमता बहुत सीमित है. आंतरिक समितियों की निगरानी करना मुमकिन नहीं है.” ज्यादातर कंपनियों में इन समितियों में कम-से-कम एक व्यक्ति प्रबंधन से होता है, जो उनके मुताबिक महिलाओं को अपनी बात खुलकर रखने से रोकने का काम करता है.[139]
उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि अनौपचारिक क्षेत्र में स्थानीय समितियों के बारे में जानकारी अभी तक नहीं पहुंच पाई है. किसी भी फैक्ट्री या स्थानीय समिति में यौन उत्पीड़न की शिकायतें दर्ज नहीं होना बताता है कि वे अप्रभावी हैं, उन्होंने कहा.
यह इतनी बड़ी इंडस्ट्री है, इतनी सारी महिलाएं काम कर रही हैं लेकिन एक भी शिकायत नहीं है. हमने फैक्ट्रियों से वार्षिक रिपोर्ट लेनी शुरू की है लेकिन उनमें [यौन उत्पीड़न के बारे में] कुछ भी नहीं है. यह परेशान करने वाली बात है. स्थानीय समिति में भी कोई शिकायत दर्ज नहीं होती है. नौकरी खोने के डर से कोई भी यौन उत्पीड़न के बारे में बात नहीं करना चाहता है. सामाजिक मनःस्थिति को बदलनी होगी; मुख्य रूप से पुरुषों की बदलनी होगी लेकिन महिलाओं की भी ताकि वे यह जान सकें कि आवाज़ उठाना ठीक है.[140]
इन गारमेंट फैक्ट्रियों में काम करने वाली महिलाओं को अक्सर इस बात की अच्छी समझ नहीं होती है कि यौन उत्पीड़न किसे कहते हैं या उनके कानूनी अधिकार क्या हैं, और प्रबंधन के निर्देशों ने उनकी समझ और बिगाड़ दिया है. महिला श्रमिकों के कानूनी अधिकारों पर केंद्रित होने के बजाय, इस तरह के “प्रशिक्षण” हानिकारक रूढ़ियों और पीड़ित पर दोषारोपण के नजरिए को मजबूती दे सकते हैं. उदाहरण के लिए, तिरुपुर जिले की गारमेंट फैक्ट्रियों में काम करने वाली कई महिलाओं ने बताया कि उन्होंने फैक्ट्री में “सुरक्षा और महिलाओं की समस्याएं” विषय पर चर्चा में हिस्सा लिया. एक 28 वर्षीय कामगार ने कहा, “बहुत सारी लड़कियां युवा पुरुषों से बात करती हैं, उनकी बातों में आ जाती हैं और फिर धोखा खाती हैं. इस चर्चा से मुझे ज्ञात हुआ कि अगर हम सावधान रहें तो ऐसा नहीं होगा.”[141]
पीड़ित पर दोषारोपण का ऐसा नजरिया नियोक्ताओं का भी होता है. कोयंबटूर स्थित साउथ इंडियन मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन, जिसके 700 सदस्य हैं, के महासचिव सेल्वाराजू कंडास्वामी ने गारमेंट फैक्ट्रियों में किसी भी तरह के यौन उत्पीड़न से इनकार किया. उन्होंने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया:
खुद लड़कियों और स्मार्ट फोन एवं इंटरनेट की वजह से चुनौतियां आ रही हैं…. आज कल लड़कियों को संभालना सबसे बड़ी समस्या है. ज्यादातर लड़कियां लड़कों को आकर्षित करती हैं, प्यार में पड़ जाती हैं. वे फोन की वजह से अनुशासनहीन हो रही हैं. वे खुद ही समस्या हैं.[142]
43 साल की रीता (बदला हुआ नाम) तीन साल पहले तक अंतरराष्ट्रीय ब्रांड्स को आपूर्ति करने वाली तिरुपुर की एक फैक्ट्री में काम करती थीं और वहां की आंतरिक समिति का हिस्सा थीं. उन्होंने बताया कि उन्हें समिति के सदस्य के रूप में कुछ प्रशिक्षण मिला, लेकिन श्रमिकों के लिए कोई जागरूकता कार्यक्रम नहीं आयोजित किया गया और वह जिस समिति में थीं, उसे कभी औपचारिक शिकायत नहीं मिली:
मेरी फैक्ट्री सहित ज्यादातर फैक्ट्रियों में अगर एक युवा महिला कामगार शिकायत करती है, तो पुराने कर्मचारी सामूहिक रूप से यह सुनिश्चित करेंगे कि वह काम छोड़ कर चली जाए. महिलाएं बोलने से भी बहुत डरती हैं क्योंकि उन्हें पता है कि यह एक बड़ा मुद्दा बन जाएगा और वे इस कारण भी चिंतित रहते हैं कि बात घर पहुंचने पर परिजन उनके साथ डांट-फटकार करेंगे.[143]
अनुशंसाएं
भारत सरकार को राज्य सरकारों, नागरिक समाज संगठनों, महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, ट्रेड यूनियनों, निजी क्षेत्र और राष्ट्रीय एवं राज्य महिला आयोगों के साथ मिलकर कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न का निषेध करने वाले कानूनों और नीतियों का कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए. इसे चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा और उन कानूनों के दुरुपयोग की रोकथाम के लिए प्रमुख सुधारों को भी लागू करे जिसके परिणामस्वरूप यौन उत्पीड़न और हिंसा के उत्तरजीवियों की आवाज़ खामोश कर दी जाती है.
केंद्र सरकार के लिए
- कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 को लागू करे, इनमें समितियों के गठन और प्रभावी संचालन की निगरानी, निरीक्षण और जांच, अनुपालन में विफल नियोक्ताओं को दंडित करना, और शिकायत प्रणाली एवं मुआवजा सहित पीड़ितों की राहत उपायों तक पहुंच सुनिश्चित करना शामिल है.
- शी-बॉक्स (SHe-Box) के बारे में जानकारी का प्रचार-प्रसार करे और इसे और ज्यादा प्रभावशाली बनाने हेतु सुधार के लिए स्वतंत्र अंकेक्षण कराए, साथ ही निपटारे के लिए समय-सीमा तय करे ताकि शिकायतें लंबित न रहें.
- जुलाई 2019 में पॉश अधिनियम के अध्ययन और समीक्षा करने के लिए गृह मंत्री की अध्यक्षता में गठित टास्कफोर्स की सिफारिशों को प्रकाशित करे और इस पर सार्वजनिक टिप्पणियां आमंत्रित करे.
- हिंसा और उत्पीड़न पर आईएलओ समझौता, 2019, संख्या 190 की संपुष्टि करे और कार्यान्वित करे. सूचना अभियानों सहित प्रभावी रोकथाम उपायों की दिशा में कदम उठाए. साथ ही हिंसा और उत्पीड़न के उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दे.
- घरेलू कामगारों पर आईएलओ समझौता, संख्या 189 की संपुष्टि करे और कार्यान्वित करे.
- पॉश अधिनियम का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त राशि और संसाधन आवंटित करे.
भारतीय संसद के लिए
- कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 की धारा 14 को रद्द करे, जो किसी महिला को झूठी या दुर्भावनापूर्ण शिकायत दर्ज करने पर दंडित करने का प्रावधान करती है.
- पॉश अधिनियम की धारा 10 को निरस्त करे, जिसके अनुसार यौन उत्पीड़न की शिकायत प्राप्त होने पर वादी और प्रतिवादी के बीच सुलह का प्रयास किया जाना चाहिए.
- महिलाओं की शिकायतें प्राप्त करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में प्रखंड, तालुका और तहसील स्तर तथा शहरी क्षेत्रों में वार्ड या नगरपालिका स्तर पर स्थानीय समितियों की उप-समितियों का गठन हेतु पॉश अधिनियम की धारा 6(2) में संशोधन करे.
- पॉश अधिनियम की धारा 11 में संशोधन करे जिससे कि घरेलू कामगारों की भी कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों में स्थानीय समितियों के माध्यम से अन्य श्रमिकों के समान ही समयबद्ध न्याय तक पहुंच सुनिश्चित हो सके.
- आपराधिक मानहानि का अपराध खत्म करने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 को निरस्त करे. मानहानि केवल एक दीवानी मामला होना चाहिए. इस बीच, सुनिश्चित करे कि यौन उत्पीड़न की शिकायतों पर कानूनी कार्रवाई के रूप में आपराधिक मानहानि का उपयोग नहीं किया जाए.
केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के लिए
- औपचारिक और अनौपचारिक—दोनों क्षेत्रों में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की व्यापकता और इसके स्वरूपों, अधिकारों के बारे में जानकारी, शिकायत दर्ज करने में कथित बाधाओं और समितियों के प्रभावी कामकाज को सक्षम बनाने वाले कारकों पर गुणात्मक और मात्रात्मक—दोनों प्रकार के स्वतंत्र अध्ययन कराएं. निष्कर्षों को व्यापक रूप से प्रचारित करें.
- यौन उत्पीड़न के बारे में जागरूकता बढ़ाने, पीड़ितों को दोषी ठहराए जाने वाले नजरिए से लड़ने और घरेलू कामगारों के अधिकारों एवं नियोक्ताओं और सरकार की जिम्मेदारियों के बारे में जानकारी प्रसारित करने के लिए स्थानीय सरकारी अधिकारियों, नियोक्ताओं और आवासीय कल्याण संघों को प्रशिक्षण दें, सूचना सामग्री तैयार करें और जन जागरूकता अभियान चलाएं.
- शिकायतें दर्ज करने, पीड़ितों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करने और उन्हें सेवाओं तक पहुंचाने, जांच तकनीक, और पीड़ित पर दोषारोपण से बचने समेत यौन उत्पीड़न मामलों के उचित निपटारे पर पुलिस अधिकारियों और न्यायिक अधिकारियों को संवेदनशील बनाने के लिए प्रशिक्षण और जवाबदेही तंत्र में सुधार करें.
- ट्रेड यूनियनों सहित श्रमिकों के संगठनों के निर्माण और उनके मुक्त क्रियाकलापों का समर्थन करें, क्योंकि वे श्रमिक अधिकारों के बारे में जानकारी का प्रचार-प्रसार और उनकी शिकायतों को आगे लाने में भरपूर सहायता देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
- सुनिश्चित करें कि शी-बॉक्स (SHe-Box) क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध हो और यह अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों सहित सभी महिला कामगारों के लिए सुलभ हो.
आंतरिक समितियों के लिए
- 10 से अधिक कर्मचारियों वाली प्रत्येक कंपनी में एक आंतरिक समिति सुनिश्चित करें, जो कानून के अनुरूप स्थापित हो और अपनी वार्षिक रिपोर्ट में आयोजित बैठकों, दर्ज मामलों, जारी आदेशों और सभी कर्मचारियों के बीच इस मुद्दे पर जागरूकता बढ़ाने के लिए किए गए उपायों की जानकारी प्रस्तुत करती हो.
- समितियों के लिए निगरानी तंत्र स्थापित करें.
- तमाम समिति सदस्यों को यौन उत्पीड़न की शिकायतों के निपटारे के तरीकों पर संवेदनशील बनाने और कानूनी प्रावधानों से उन्हें परिचित कराने के लिए नियमित प्रशिक्षण सुनिश्चित करें.
- मामलों के प्रकार और समाधान समेत, आंतरिक समितियों द्वारा दर्ज तथा निपटाए गए यौन उत्पीड़न मामलों की संख्या संबंधी आंकड़े वार्षिक रूप से प्रकाशित करें.
- कानून का अनुपालन नहीं करने के लिए दंडित नियोक्ताओं के बारे में आंकड़ा वार्षिक रूप से प्रकाशित करें.
स्थानीय समितियों के लिए
- स्थानीय समितियों का राष्ट्रव्यापी ऑडिट करें और निष्कर्षों को प्रकाशित करें. ऑडिट में गठित की गई स्थानीय समितियों की संख्या, उनकी संरचना, प्राप्त शिकायतों की प्रकृति, जारी किए गए आदेश, आदेश जारी करने में लगने वाला समय, प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रम, अभियानों, और आयोजित कार्यशालाओं के प्रकार, और उनकी जिम्मेदारियों के अन्य संबंधित पहलुओं का मूल्यांकन किया जाना चाहिए.
- 2013 के कानून के अनुरूप प्रत्येक जिले में स्थानीय समितियों का गठन करें. सुनिश्चित करें कि उनके पास पर्याप्त संसाधन हों और यौन उत्पीड़न रोकने एवं इस संबंध में चुप्पी तोड़ने—इन दोनों में मदद करने के लिए जागरूकता कार्यक्रमों और अभियानों का संचालन करने के लिए उन्हें राशि आवंटित की गई हो. उन्हें अनौपचारिक क्षेत्र का कामगार होना चाहिए.
- यह सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय समितियों की संरचना में संशोधन करें कि उनमें अनौपचारिक क्षेत्र से कम-से-कम एक प्रतिनिधि शामिल किया जाए.
- समिति सदस्यों, जिलाधिकारी और जिला प्रशासन के अन्य संबंधित अधिकारियों के लिए नियमित प्रशिक्षण आयोजित करें.
- स्थानीय समितियों के लिए निगरानी तंत्र स्थापित करें और पारदर्शिता व जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए नियमित रिपोर्ट प्रकाशित करें.
- कार्यस्थल संबंधी अहम मुद्दे के रूप में यौन उत्पीड़न को संबोधित करने और सूचना अभियानों एवं कानून के प्रभावी अमल पर रिपोर्टिंग में साझेदार के रूप में श्रमिक संगठनों और नागरिक समाज समूहों के साथ सहयोग और संवाद बढ़ाएं.
- घरेलू कामगारों के मामले में नियोक्ताओं, सरकारी अधिकारियों और अन्य हितधारकों जैसे रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन्स के लिए कानून के अंतर्गत उनके कर्तव्यों पर प्रशिक्षण सुनिश्चित करें.
- शिकायतकर्ताओं के साथ संवेदनशील व्यवहार, उचित जांच के तरीके और हानिकारक एवं भेदभावपूर्ण सामाजिक मानदंडों के पूर्वाग्रह को संबोधित करने समेत यौन उत्पीड़न के मामलों के उचित निपटारे पर पुलिस अधिकारियों और न्यायिक अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण और जवाबदेही तंत्र में सुधार करें.
- अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों को उनकी शिकायत दर्ज करने में मदद करने के लिए मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करें.
भारत में निजी नियोक्ताओं और उनके साथ व्यापार कर रही विदेशी और घरेलू कंपनियों के लिए
- आईएलओ हिंसा और उत्पीड़न समझौते में निर्धारित दिशानिर्देशों के अनुरूप श्रमिकों के परामर्श से हिंसा और उत्पीड़न पर एक कार्यस्थल नीति अपनाएं और लागू करें; काम से जुड़ी यौन हिंसा और उत्पीड़न के जोखिम का आकलन करें और उन्हें रोकने और नियंत्रित करने के उपाय करें; और श्रमिकों को उनके अधिकारों, चिन्हित जोखिमों, उपलब्ध सुरक्षा उपायों और शिकायत तंत्रों पर प्रशिक्षण प्रदान करें.
- हिंसा और उत्पीड़न के स्वरूपों और प्रभावी रोकथाम एवं राहत उपायों की पहचान के लिए कार्यस्थल पर लैंगिक हिंसा और उत्पीड़न की जांच हेतु क्षेत्र-विशिष्ट अध्ययन कराएं. यह सुनिश्चित करें कि महिला श्रमिकों, यूनियनों और कार्यस्थल पर उत्पीड़न से निपटने में अनुभवी स्थानीय महिला अधिकार समूह अध्ययन की रूप-रेखा तैयार करने में सक्रिय रूप से शामिल हों और वे सुरक्षित रूप से जानकारी साझा कर सकें. महिलाओं और संघ के नेताओं को इन अध्ययनों में कार्यस्थल संबंधी किसी भी शिकायत प्रणाली, ऐसी प्रणाली तक पहुंच और उपयोग में आसानी और बदले की कार्रवाई विरोधी संरक्षण उपायों के बारे में गोपनीय प्रतिक्रिया दर्ज करने की अनुमति मिलनी चाहिए.
- कार्यस्थल पर लैंगिक हिंसा का पता लगाने और उस पर कार्रवाई में सामाजिक अंकेक्षण पर निर्भरता की गंभीर सीमाओं को स्वीकार करें. विश्वसनीय, सुलभ और गोपनीय निगरानी और शिकायत प्रणाली बनाने के लिए यूनियनों, श्रमिक संगठनों और स्थानीय महिला अधिकार समूहों के साथ काम करें.
- ट्रेड यूनियनों सहित श्रमिक संगठनों को श्रमिकों के अधिकारों, लैंगिक हिंसा और पुरुषों और महिलाओं दोनों के बीच कार्यस्थल पर उत्पीड़न के बारे में जानकारी का प्रचार-प्रसार करने में मदद करें और शिकायतें दर्ज करने के लिए जरुरी सहायता प्रदान करें.
- कार्यस्थल संबंधी उत्पीड़न का पता लगाने और कार्रवाई करने के लिए उभरती श्रेष्ठ कार्यप्रणालियों के बारे में जानकारी प्राप्त करें, इसके अनुकूल बनें और इसे लागू करें, साथ ही श्रमिकों और महिल अधिकार समूहों व कंपनियों के बीच संभव बाध्यकारी समझौतों का विकास करें.
संयुक्त राज्य अमेरिका, यूके, यूरोपीय संघ, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, अन्य संबंधित सरकारों, विदेशी दाताओं और सहायता एजेंसियों के लिए
- भारत सरकार को कार्यस्थलों को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाने संबंधी कानून लागू करने हेतु अपनी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का सम्मान करने के लिए प्रोत्साहित करें.
- स्थानीय नागरिक समाज समूहों और महिला अधिकार संगठनों को कार्यस्थल से जुड़े यौन उत्पीड़न पर, इसकी व्यापकता, कानूनों और नीतियों के कार्यान्वयन की प्रभावकारिता और महिलाओं की न्याय तक पहुंच समेत सामायिक मात्रात्मक और गुणात्मक अध्ययन करने के लिए सहायता प्रदान करें.
- सभी श्रमिकों के बीच कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के बारे में जागरूकता बढ़ाने संबंधी पहल का समर्थन करें और रोकथाम व कार्रवाई के प्रयासों में पुरुष और महिला दोनों को शामिल करें.
आभार
ह्यूमन राइट्स वॉच एशिया डिवीज़न की शोध सलाहकार जयश्री बाजोरिया ने इस रिपोर्ट के लिए शोध किया और इसे तैयार किया. इसका संपादन दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने किया. कानून एवं नीति निदेशक जेम्स रॉस; और वरिष्ठ संपादक डेनिएल हास ने क्रमशः कानून और कार्यक्रम सम्बन्धी समीक्षा की. महिला अधिकार विभाग में एडवोकेसी डायरेक्टर निशा वारिया, और बिज़नेस एंड ह्यूमन राइट्स डिवीज़न की वरिष्ठ शोधकर्ता कोमल रामचंद्र ने विशेषज्ञ समीक्षा मुहैय्या की. इसके निर्माण में सहयोगी रहे हैं एशिया कोवोर्डिनेटर राखेल लेगरवुड; पब्लिकेशन कोवोर्डिनेटर त्रविस कार और एडमिनिस्ट्रेटिव मैनेजर फित्जरॉय हेप्किंस.
हम इस परियोजना में सहयोग के लिए ऑस्ट्रेलियन एथिकल फाउंडेशन का आभार व्यक्त करते हैं.
हम खास तौर से कानूनी विश्लेषण की समीक्षा के लिए बैंगलोर स्थित नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी में लॉ प्रोफेसर मृणाल सतीश के कृतज्ञ हैं. और रिपोर्ट पर अपनी मूल्यवान सलाह और प्रतिक्रिया प्रदान करने के लिए मार्था फैरेल फाउंडेशन की निदेशक नंदिता भट्ट और सेल्फ-एम्प्लॉइड विमेंस एसोसिएशन की राष्ट्रीय कोर टीम सदस्य सोनिया जॉर्ज के प्रति भी कृतज्ञता प्रकट करते हैं.
हम बहुतेरे गैर-सरकारी संगठनों, ट्रेड यूनियनों, कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, पत्रकारों और महिला एवं श्रम अधिकारों के मुद्दों पर काम करने वाले वकीलों का धन्यवाद व्यक्त करते हैं जिन्होंने अपनी अंतर्दृष्टि और विश्लेषण हमारे साथ साझा किए या अन्य तरीके से मदद की. ह्यूमन राइट्स वॉच विशेष रूप से मार्था फैरेल फाउंडेशन; गारमेंट एंड फैशन वर्कर्स यूनियन की अध्यक्ष तथा न्यू ट्रेड यूनियन इनिशिएटिव की राष्ट्रीय सचिव सुजाता मोदी; गुड़गांव श्रमिक केंद्र की राखी सहगल; पत्रकार अनुराधा नागराज; और ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ़ आंगनवाड़ी वर्कर्स एंड हेल्पर्स की महासचिव एवं सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियंस की राष्ट्रीय सचिव ए.आर. सिंधु का आभार व्यक्त करता है.
सर्वोपरि, हम उन महिलाओं का शुक्रिया अदा करते हैं और आदर करते हैं, जिन्होंने कार्यस्थल से जुड़े उत्पीड़न के अपने कष्टप्रद अनुभवों को हमारे साथ इस उम्मीद में साझा किया कि उनकी ये कहानियां दूसरों की मदद करने वाले सुधारों की राह खोलेंगी.