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भारत: कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खतरों से घिरीं महिलाएं

कानून पर असंतोषजनक अमल के चलते अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों का कोई सहारा नहीं

(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज जारी एक रिपोर्ट में कहा कि भारत सरकार द्वारा यौन उत्पीड़न कानून को पूरी तौर पर लागू करने में विफलता ने कार्यस्थल पर दसियों लाख महिलाओं को बिना राहत उपायों के उत्पीड़न का शिकार होने के लिए छोड़ दिया है. सरकार को चाहिए कि कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013, या पॉश अधिनियम जैसा कि यह इस नाम से लोकप्रिय है, का तुरंत अनुपालन सुनिश्चित करे.

56 पन्नों की रिपोर्ट, “हम जैसी महिलाओं के लिए #मीटू नहीं: भारत में यौन उत्पीड़न कानून पर कमज़ोर अमल,” के निष्कर्षों के मुताबिक हालाँकि भारत में महिलाएं कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ तेजी से आवाज़ उठा रही हैं, कुछ हद तक वैश्विक स्तर पर हुए #मीटू (#MeToo) आंदोलन के कारण, ऐसी बहुतेरी महिलाएं हैं, विशेष रूप से अनौपचारिक क्षेत्र में, जो अभी भी लांछन, बदले की कार्रवाई के डर और न्याय की राह में संस्थागत बाधाओं के सामने विवश हैं. केंद्र और स्थानीय सरकारें शिकायत समितियों के प्रोत्साहन, स्थापना और निगरानी में विफल रही हैं जबकि ये समितियां यौन उत्पीड़न की शिकायतें प्राप्त करने, जांच करने और उत्पीड़न करने वालों के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश करने के लिए पॉश अधिनियम की मुख्य विशेषता हैं.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “#मीटू आंदोलन ने कार्यस्थल पर हिंसा और उत्पीड़न के मुद्दे पर रोशनी डालने में मदद की है, लेकिन भारत के अनौपचारिक क्षेत्र की दसियों लाख महिलाओं के अनुभव अभी सामने नहीं आ पाए हैं. भारत में प्रबंधकर्ताओं, सहकर्मियों और ग्राहकों के यौन शोषण से महिलाओं की सुरक्षा के लिए प्रगतिशील कानून हैं, लेकिन वह कानून लागू करने की खातिर बुनियादी कदम उठाने में विफल रहा है.”

ह्यूमन राइट्स वॉच ने फील्ड रिसर्च किया और इस दौरान, उसने औपचारिक और अनौपचारिक दोनों क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं, ट्रेड यूनियन पदाधिकारियों, श्रम और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और शिक्षाविदों के साथ तमिलनाडु, हरियाणा और दिल्ली में 85 से अधिक साक्षात्कार किए. उसके निष्कर्ष भारतीय संगठनों के शोध पर भी आधारित हैं.

वैश्विक #मीटू आंदोलन से प्रेरित होकर जिन महिलाओं ने वरिष्ठ पदों पर आसीन पुरुषों के खिलाफ शिकायत दर्ज की, उन्हें अक्सर धमकी, प्रतिशोध, रिश्वत की पेशकश, कानूनी प्रक्रिया में कमियां और पूर्वाग्रह एवं लांछन समेत अनेक घात-प्रतिघातों का सामना करना पड़ा है. ऐसे आरोपियों ने अक्सर बोलने की हिम्मत करने वाली महिलाओं के खिलाफ औपनिवेशिक युग के आपराधिक मानहानि कानून का इस्तेमाल किया. ये अन्य पीड़ित महिलाओं में आगे आने से रोकने के लिए खौफ पैदा करते हैं.

सितंबर 2020 में उत्तर प्रदेश में 19 वर्षीय एक दलित महिला के साथ कथित सामूहिक बलात्कार और हत्या ने भारत में महिलाओं के खिलाफ अनियंत्रित हिंसा और गरीब व हाशिए के समुदायों के खिलाफ संरचनात्मक हिंसा दोनों को उजागर किया है. सरकारी तंत्र की जवाबी कार्रवाई महिलाओं की न्याय तक पहुंच में बाधाओं को दर्शाती है.

महिला कर्मियों की भारी बहुसंख्या, 95 फीसदी (19.5 करोड़) अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत हैं. इनमें फुटपाथ विक्रेता, घरेलू कामगार, कृषि, निर्माण से लेकर घर से होने वाले काम जैसे बुनाई या कढ़ाई जैसे बहुत से आर्थिक कार्यकलाप शामिल हैं. साथ ही, 26 लाख आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं, जो सरकार की समेकित बाल विकास सेवाओं के अंतर्गत प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और पोषण पर काम करती हैं; 10 लाख से अधिक आशा कार्यकर्ता हैं जो सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के रूप में काम करती हैं; और 25 लाख मध्याह्न भोजन रसोइया हैं जो सरकारी स्कूलों में दिए जाने वाला निःशुल्क भोजन तैयार करती हैं.

एक सुरक्षा गार्ड द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकार एक अंशकालिक घरेलू कामगार ने कहा, “मेरी जैसी महिलाओं के लिए, #मीटू (#MeToo) का क्या मतलब है? गरीबी और कलंक के डर से हम कभी खुल कर बोल नहीं सकते. हमारी जैसी महिलाओं के लिए कोई जगह सुरक्षित नहीं है.”

पॉश कानून, 2013 नियोक्ता के लिए महिला कर्मचारियों को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करने के लिए कदम उठाना और समाधान, निपटारे या अभियोजन के लिए कार्यप्रणाली की व्यवस्था करना अनिवार्य बनाता है. इस कानून ने कार्यस्थल की परिभाषा को व्यापक किया है और यह घरेलू कामगारों समेत अनौपचारिक क्षेत्र पर भी लागू होता है. यह अधिनियम सभी श्रमिकों को परिवहन सहित कर्मचारी द्वारा अपनी नियुक्ति के दौरान भ्रमण किए गए किसी भी स्थान पर सुरक्षा प्रदान करता है.

यह कानून 1997 में भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित “विशाखा दिशानिर्देश” को आगे बढ़ाता है, जिसके जरिए नियोक्ताओं के लिए महिला कर्मचारियों को कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा प्रदान करने के लिए कदम उठाना अनिवार्य बना दिया गया. ये दिशानिर्देश सरकारी सामाजिक कार्यकर्ता भंवरी देवी के साथ 1992 में सामूहिक बलात्कार के बाद निर्धारित किए गए. उनका बलात्कार उच्च जाति के पड़ोसियों ने किया था जो अपने परिवार में एक बाल विवाह रोकने के भंवरी देवी के प्रयासों से नाराज थे.

पॉश कानून के तहत, 10 या अधिक कर्मचारियों वाले हर एक कार्यालय में प्रत्येक नियोक्ता के लिए आंतरिक समिति का गठन करना आवश्यक है. 10 से कम कर्मचारी वाले प्रतिष्ठानों और अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के लिए, राज्य सरकार के जिला अधिकारी या कलेक्टर को प्रत्येक जिला में स्थानीय समिति का गठन करना है.

ये समितियां शिकायतों का निपटारा करती हैं और लिखित माफी से लेकर नौकरी से निकाले जाने तक की कार्रवाई की सिफारिश करती हैं, जो पुलिस के पास आपराधिक शिकायत दर्ज करने के मुकाबले एक विकल्प प्रदान करता है. पॉश अधिनियम के तहत, प्रशिक्षण और शैक्षिक सामग्री विकसित करने, जागरूकता कार्यक्रमों के आयोजन, कानून के कार्यान्वयन की निगरानी, और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के दर्ज और निपटाए गए मामलों का आंकड़ा रखने की भी जिम्मेदारी सरकार की है. लेकिन अध्ययनों से पता चलता है कि इनमें से बहुत सी स्थानीय समितियां अस्तित्व में ही नहीं हैं, और जब वे मौजूद होती हैं तो उन तक पहुंचने की कोई सार्वजनिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती है.

एक ट्रेड यूनियन की वरिष्ठ पदाधिकारी सोनिया जॉर्ज ने कहा, “ज्यादातर महिलाएं चुपचाप सहन करती रहती हैं जब तक कि यह असहनीय न हो जाए, और फिर वे महज दूसरी नौकरी पाने की कोशिश करती हैं. वे अपने परिवारों को बताना नहीं चाहती हैं क्योंकि उन्हें डर होता है कि परिवार वाले काम करने से मना कर देंगे.”

घरेलू कामगार के समक्ष निजी घरों में उनके अलग-थलग रहने और अन्य श्रमिकों को गारंटी की गई अनेक प्रमुख श्रम सुरक्षा से बाहर रखे जाने के कारण यौन उत्पीड़न और हिंसा का ख़ास तौर पर जोखिम रहता है. घरेलू कामगारों के लिए, पॉश अधिनियम कहता है कि स्थानीय समितियों को मामलों को पुलिस के पास भेज देना है, नागरिक राहत उपायों के लिए कोई जगह नहीं छोड़ता. ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा है कि भारत सरकार को अधिनियम में संशोधन करना चाहिए जिससे कि घरेलू कामगारों की भी कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों में स्थानीय समितियों के माध्यम से अन्य श्रमिकों के समान ही समयबद्ध न्याय तक पहुंच सुनिश्चित हो सके.

जबकि अधिकांश निजी कंपनियों में आंतरिक समितियां हैं, उनमें बहुत से महज अनुपालन दिखाने हेतु खानापूर्ति के लिए हैं, कार्यस्थल की संस्कृति में बदलाव के प्रति इनकी कोई प्रतिबद्धता नहीं होती है. नियोक्ता, रोकथाम, यौन उत्पीड़न के संघटकों और इस तरह के व्यवहार के परिणामों के प्रति जागरूकता बढ़ाने जैसी अपनी अन्य जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए बहुत थोड़े प्रयास करते हैं.

औपचारिक और अनौपचारिक दोनों क्षेत्रों में, सरकार को समितियों के लिए प्रभावी निगरानी प्रणाली स्थापित करनी चाहिए और पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए नियमित रिपोर्ट प्रकाशित करनी चाहिए. सरकार को आसान पहुंच सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय प्रशासन के हर स्तर पर स्थानीय समितियों का गठन करना चाहिए. साथ ही समिति सदस्यों, जिला अधिकारियों और अन्य संबंधित जिला स्तरीय अधिकारियों के लिए नियमित प्रशिक्षण आयोजित करना चाहिए.

जून 2019 में, भारत सरकार, भारतीय श्रमिक समूहों के प्रतिनिधि और भारतीय नियोक्ता संघों के प्रतिनिधियों सभी ने अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन हिंसा और उत्पीड़न समझौते के पक्ष में मतदान किया, जो कार्यस्थल पर हिंसा और उत्पीड़न रोकने और इस पर कार्रवाई करने के लिए वैश्विक मानकों को स्थापित करने वाली एक ऐतिहासिक संधि है.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत को आईएलओ संधि की संपुष्टि करनी चाहिए और पॉश अधिनियम को पूरी तरह अमल में लाना चाहिए.

गांगुली ने कहा, “भारत सरकार को महिलाओं की कार्यस्थल पर सुरक्षा और सम्मान के लिए, चाहे वे घरेलू कामगार हों, सरकारी योजना कार्यकर्ता हों या दफ्तरों में काम करने वाली हों, उनके अधिकारों के लिए उठ खड़ा होना चाहिए. सरकार को कार्यस्थल संबंधी अहम मुद्दे के रूप में यौन उत्पीड़न को संबोधित करने, सूचना अभियानों में साझेदार बनने और उत्पीड़न का सामना करने वालों के लिए समुचित मदद और राहत उपाय सुनिश्चित करने की खातिर श्रमिक संगठनों और नागरिक समाज समूहों के साथ समन्वय स्थापित करना चाहिए.”

 

रिपोर्ट से लिए गए कुछ चुनिन्दा मामले

शांता (बदला हुआ नाम), आशा कार्यकर्ता

हरियाणा की 38 वर्षीय आशा कार्यकर्ता शांता ने कहा कि स्वास्थ्यकर्मी तब विशेष तौर पर ज़ोखिम का सामना करते हैं जब उन्हें रात में काम पर बुलाया जाता है. अगर वह शिकायत करती भी हैं, तो आरोपी का परिवार, समाज और उनके अपने परिजन शिकायत वापस लेने के लिए बहुत दबाव बनाते हैं. जनवरी 2014 में, शांता को किसी निर्माण स्थल पर एक ठेकेदार ने एक महिला की मदद करने के लिए बुलाया, जो बच्चे को जन्म देने वाली थी. उन्होंने बताया कि वह उस महिला को अस्पताल ले गई, लेकिन एम्बुलेंस ड्राईवर ने लौटते वक़्त उनके साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश की.

डर के कारण मैंने घर पर कुछ भी नहीं बताया लेकिन मैंने चिकित्सा-प्रभारी को फोन कर उन्हें पूरी घटना बताई. कर्मचारियों और पर्यवेक्षकों ने मेरी मदद की, और हमने तीन दिनों के बाद ड्राइवर को ढूंढ निकाला. लेकिन इसके बाद पुलिस और अन्य आशा कार्यकर्ताओं ने मुझे समझौता करने के लिए कहा. ड्राइवर ने दर्जनों आशा कार्यकर्ताओं के सामने माफी मांगी और उन्होंने मुझे आधिकारिक शिकायत दर्ज नहीं करने के लिए कहा. लेकिन किसी ने मुझे यह नहीं बताया कि एक कानून भी है और मैं स्थानीय समिति में शिकायत दर्ज कर सकती हूं.

कायनात (बदला हुआ नाम), घरेलू कामगार

25 साल की कायनात ने घरेलू कामगार के रूप में 12 साल की उम्र में काम करना शुरू किया जब उनका परिवार काम की तलाश में पश्चिम बंगाल से गुड़गांव पहुंचा. पहले कुछ वर्षों के दौरान उन्होंने बाल मजदूर के रूप में, विभिन्न घरों में रहकर घरेलू कामगार के तौर पर काम किया. इस दौरान उन्होंने मार-पीट और धमकी सही. 2012 में, जब वह 17 साल की थी, एक बूढ़े आदमी ने उनका यौन उत्पीड़न किया:

जब उसके बच्चे और पोते-पोतियां बाहर निकल जाते, तो वह जानबूझकर घर पर रह कर मेरे आगे-पीछे डोलते रहता. मेरी पीठ थपथपाते हुए उसके हाथ भटक जाते. मैंने नजरअंदाज करने की कोशिश की. एक बार जब उसने ऐसा किया, तो घर पर कोई नहीं था इसलिए मैं वॉशरूम में बंद हो गई और तब तक बाहर नहीं निकली जब तक दूसरे लौट नहीं आए. मुझे पता था कि अगर मैं उन्हें बताऊंगी तो कोई भी मुझ पर यकीन नहीं करेगा, इसलिए मैं चुप रही. वह आदमी मुझसे कहता था, “छोटे कपड़े पहनो, तुम इसमें बेहतर दिखोगी.” मैंने सहा क्योंकि मुझे अपने परिवार के लिए पैसे कमाने थे. लेकिन मैंने आखिरकार काम छोड़ दिया क्योंकि मैं बहुत निराश थी और किसी के घर पर रहकर काम नहीं करने का फैसला किया.

 

शालिनी (बदला हुआ नाम), घरेलू कामगार

शालिनी गुडगांव के जिस आवासीय अपार्टमेंट परिसर में अंशकालिक घरेलू कामगार के रूप में काम करती थीं. वहां के एक सुरक्षा गार्ड ने महीनों तक उनका यौन उत्पीड़न किया गया.

वह मुझसे प्यार करने की बात कहता था. वह मेरी शिफ्ट के बाद लिफ्ट के पास मेरा इंतज़ार करता था और जब मैं लिफ्ट में अकेली होती, तो भद्दी टिप्पणियां करता था. एक दिन, बात बहुत आगे बढ़ गई जब गार्ड ने पैसे निकाल कर मेरी हथेली पर रख दिए और मुझे अपने साथ चलने को कहा. उस दिन मैं घर लौटने पर बहुत रोई और अपने पति से कहा कि मैं गांव वापस जाना चाहती हूं. मेरे पति और देवर ने कॉलोनी जाकर सुरक्षा प्रमुख, जिन्हें वे जानते थे, से शिकायत की और गार्ड को चुपचाप वहां से हटा दिया गया. अगर मेरे नियोक्ताओं को पता चल जाता, तो वे शायद मुझे ही दोषी ठहराते. इसीलिए मैं चुप रही.

मेरी जैसी महिलाओं के लिए, #मीटू (#MeToo) का क्या मतलब है? गरीबी और कलंक के डर से हम कभी खुल कर बोल नहीं सकते. हमारी जैसी महिलाओं के लिए कोई जगह सुरक्षित नहीं है. न हमारे काम करने की जगह, न ही हमारे घर, और न ही सड़क जिस पर हम निकलते हैं.

 

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