“आपने जिस नंबर को कॉल किया है वह अस्थायी रूप से रद्द कर दिया गया है,” श्रीनगर में अपने मित्र को फोन करने पर मुझे हर बार यह संदेश सुनाई देता है. सोमवार को 21वें दिन भी अपने दोस्त से मेरा संपर्क नहीं हो सका.
भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली सरकार ने 5 अगस्त को संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू और कश्मीर की विशेष स्वायत्त स्थिति रद्द करने की घोषणा की और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया. तब से, सरकार ने राज्य में मूलभूत स्वतंत्रता पर व्यापक प्रतिबंध लगा रखे हैं.
सरकार ने इस क्षेत्र में 40 हजार अतिरिक्त सुरक्षा बलों को तैनात किया है और आवाजाही को सीमित करने के लिए बहुत सारी जांच-चौकियां बैठा दी हैं. फोन के अलावा, इंटरनेट सेवा भी बंद कर दिया गया है जिससे कश्मीरी लोग शेष भारत और दुनिया से कट गए हैं. एक कश्मीरी महिला ने कहा, “यह बहुत भयावह स्थिति है. हम कश्मीर में रह रहे अपने परिजनों को लेकर खौफज़दा हैं.”
सरकार ने बताया कि सुरक्षा और कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए ये कदम जरूरी हैं. यहां अतीत में भारत विरोधी प्रदर्शन अक्सर हिंसक हुए हैं, जिसमें कश्मीरी युवा सुरक्षा कर्मियों पर पत्थर फेंकते रहे हैं. ज्यादातर मामलों में सुरक्षा बलों ने अत्यधिक और अनावश्यक बल के साथ जवाबी कार्रवाई की है. इसमें कई लोग घायल हुए और मारे गए जिनमें आस पास खड़े लोग भी शामिल थे, जिसके कारण विरोध प्रदर्शन और भी उग्र हो गए.
समुचित प्रतिबंध
अंतर्राष्ट्रीय कानून राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के लिए कुछ अधिकारों पर सरकारी प्रतिबंध की अनुमति देते हैं. लेकिन उन्हें निश्चय ही न्यायसंगत उद्देश्यों के अनुरूप होने चाहिए.
सरकार धीरे-धीरे कुछ प्रतिबंधों को हटा रही है, लेकिन इंटरनेट और मोबाइल फोन अब भी बंद हैं. दुनिया में सबसे ज्यादा बार इंटरनेट सेवाएं बंद करने के लिए भारत बदनाम है और इनमें से आधे-से-अधिक प्रतिबंध कश्मीर में लगाए गए हैं. यह बिलकुल गैर बाजिब कार्रवाई है और एक तरह से “सामूहिक सज़ा” है जो रोज़मर्रा की जिंदगी और आर्थिक गतिविधियों को पंगु बना देती है. जैसा कि संयुक्त राष्ट्र ने कहा है, कई देशों में यह सुरक्षा की आड़ में सेंसरशिप का एक अहम हथियार बन गया है.
संचार माध्यमों पर प्रतिबंध गलत सूचना के आरोपों को भी बढ़ावा देते हैं, जिससे कथित मानवाधिकार हनन के स्वतंत्र जांच-पड़ताल की कोई गुंज़ाइश नहीं रह जाती. सरकार विरोध प्रदर्शनों से इनकार कर रही है इस कारण जनता में अविश्वास पैदा हुआ है. सरकार के इन दावों को गलत साबित करने के लिए लोग तारीख़ दर्ज की हुई तख्तियों के साथ विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो रहे हैं.
सरकार ने अनेक नेताओं और कार्यकर्ताओं समेत सैकड़ों लोगों को हिरासत में लिया है. एक रिपोर्ट के मुताबिक बच्चों को भी हिरासत में लिया गया है. ऐसी अपुष्ट खबरें आ रही हैं कि हजारों लोगों को लोक सुरक्षा कानून के तहत हिरासत में लिया गया है. यह एक विवादास्पद कानून है जो बिना आरोप या अदालती सुनवाई के दो साल तक हिरासत की अनुमति देता है. सरकार ने “कुछ निरोधात्मक नज़रबंदी” की बात स्वीकार की है, लेकिन उसे समय-समय पर हिरासत में लिए गए लोगों की सूची जारी करनी चाहिए, उनके ठौर-ठिकाने के बारे में परिवारों को सूचित करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बंदियों को उनके परिवार और वकील तक समुचित पहुंच हो.
‘नया कश्मीर’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “नए कश्मीर” की बात कही है जहां विकास होगा, रोजगार पैदा होंगे, निवेश होगा और समृद्धि आएगी. लेकिन कश्मीरियों से किए गए इन वादों में, सरकार उन लोगों के लिए न्याय और जवाबदेही पर मौन है, जिन्होंने दशकों से सुरक्षा बलों द्वारा यातना, बलात गुमशुदगी और गैर-न्यायिक हत्याओं सहित गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों को झेला है.
उदाहरण के लिए, एक के बाद एक आने वाली भारतीय सरकारों ने सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम, जो उत्पीड़नकारी सुरक्षा बालों को प्रभावी अभयदान देता है, को निरस्त करने की अपनी विशेषज्ञ समितियों की सिफ़ारिश को नजरअंदाज किया है. यहां तक कि सेना ने स्वीकार किया है कि घातक शक्तियों का उपयोग करने की असाधारण शक्तियों के कारण “गलतियां” हुई हैं, जिसके कारण सार्वजनिक भावनाएं भड़कती हैं और हिंसा के कुचक्र को हवा मिलती है.
श्रीनगर में विरोध प्रदर्शन की खबरें आ रही हैं. जब सरकार को ऐसी आशंका थी कि व्यापक विरोध होगा और इसी कारण उसने प्रतिबंध लगाए, तब तो उसे विरोध प्रदर्शन करने वालों के साथ संवाद की गंभीर कोशिश करनी चाहिए. सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सुरक्षा बल संयम से काम लें. और विरोध प्रदर्शन के आयोजकों को भी ऐसे कदम उठाने चाहिए जिससे कि उनके समर्थक आम लोगों और कानून प्रवर्तन अधिकारियों के खिलाफ हिंसा में शामिल न हों.
भारतीय लोकतंत्र की लंबे समय से प्रशंसा करने वाले अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने कश्मीर संबंधी सरकार के फैसले पर क्षोभ व्यक्त किया है, जहां लोग आज़ादी से आवाजाही नहीं कर पा रहे हैं, आपातकालीन सेवाओं या चिकित्सा देखभाल तक उनकी समुचित पहुंच नहीं हो रही है और वे खुद को व्यक्त नहीं कर पा रहे हैं. बेशक, भारत के लोग जम्मू-कश्मीर के हालात पर सरकार के फैसले से सहमत या असहमत हो सकते हैं, लेकिन उन्हें नागरिक स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए एक स्वर में आवाज़ बुलंद करनी चाहिए.