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भारत: बंदूकधारियों ने जम्मू और कश्मीर में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया

मुस्लिम बहुल क्षेत्र में हिंदुओं, सिखों को सुरक्षा प्रदान करे

भारतीय अर्धसैनिक बल के जवान श्रीनगर के बाहरी इलाके में एक सरकारी स्कूल में शिक्षकों की पहरेदारी करते हुए, जहां संदिग्ध उग्रवादियों ने दो शिक्षकों की गोली मार कर हत्या कर दी थी, भारत, 7 अक्टूबर, 2021. © 2021 एपी फोटो/डार यासीन

(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत सरकार को जम्मू और कश्मीर में सशस्त्र समूहों द्वारा निशाना बनाए जा रहे अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए. मानवाधिकार हनन और हालिया दमनकारी नीतियों के गंभीर आरोपों को दूर करने में सरकार की विफलता ने कश्मीरियों के बीच असुरक्षा बढ़ा दी है.

अक्टूबर 2021 में कश्मीर में अलग-अलग घटनाओं में अज्ञात बंदूकधारियों ने कश्मीर में सात लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी, जिनमें से चार हिंदू और सिख अल्पसंख्यक समुदायों के लोग थे. पुलिस रिपोर्टों के अनुसार, इस साल कश्मीर में योजनाबद्ध हमलों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं समेत कम-से-कम 26 लोग मारे गए हैं. भारतीय सुरक्षा बलों का उग्रवाद विरोधी अभियानों के दौरान कथित उग्रवादियों की गैर-न्यायिक हत्याओं का लंबा इतिहास रहा है.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, "कश्मीरी लोग  उग्रवादी हमलों और सरकारी तंत्र एवं सुरक्षा बलों के उत्पीड़न की अंतहीन हिंसा के दुष्चक्र में फंसे हुए हैं. सरकार को चाहिए कि कश्मीर में अल्पसंख्यकों को सुरक्षा मुहैया करे और सुरक्षा बल के उत्पीड़न के शिकार लोगों के लिए न्याय सुनिश्चित करे."

7 अक्टूबर को संदिग्ध उग्रवादियों ने श्रीनगर के एक सरकारी स्कूल में घुसकर सुपिंदर कौर और दीपक चांद की हत्या कर दी. सिख समुदाय से आने वाली सुपिंदर कौर इस स्कूल की प्रिंसिपल थी और हिंदू समुदाय के दीपक चंद इस स्कूल में शिक्षक थे. 5 अक्टूबर को बंदूकधारियों ने अलग-अलग हमलों में तीन लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी. इन लोगों में शामिल थे: अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडित समुदाय के फार्मासिस्ट, माखन लाल बिंदरू; बिहार राज्य के हिंदू स्ट्रीट-फ़ूड विक्रेता, वीरेन्द्र पासवान; और मुस्लिम टैक्सी ड्राइवर, मोहम्मद शफी लोन. 2 अक्टूबर को बंदूकधारियों ने माजिद अहमद गोजरी और मोहम्मद शफी डार की हत्या कर दी. दोनों मुसलमान थे.

उग्रवादी समूह रेजिस्टेंस फ्रंट ने कई हत्याओं की जिम्मेदारी लेते हुए कहा कि वे सरकार के साथ काम करने वाले और कश्मीर विरोधी लोगों को निशाना बना रहे थे. भारत सरकार इस फ्रंट को इस्लामी सशस्त्र समूह लश्कर-ए-तैयबा से संबद्ध बताती है.

1989-90 में उग्रवादी समूहों के हमलों के बाद हजारों-हजार कश्मीरी - जिनमें से ज्यादातर हिंदू थे - मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी से विस्थापित हुए थे. सरकार उनकी सुरक्षित वापसी कराने में विफल रही है. जम्मू-कश्मीर नहीं छोड़ने वाले या वहां काम करने वाले अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों की हत्याएं इन प्रयासों को और धीमा कर देगी.

रोजगार और आवास मुहैया करने के सरकारी कार्यक्रमों के तहत केवल कुछ सौ विस्थापित कश्मीरी पंडित परिवार ही वापस घाटी लौटे हैं. एक कश्मीरी विश्लेषक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "उनकी वापसी तो दूर की बात है, अब तो डर यह है कि इन हत्याओं से दहशत का एक नया दौर और कश्मीर से गैर-मुसलमानों का फिर से पलायन शुरू हो सकता है."

अगस्त 2019 में, भारत सरकार ने जम्मू और कश्मीर की संवैधानिक स्वायत्तता रद्द कर इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया. इसके साथ-साथ सरकार ने अधिकारों का गंभीर उल्लंघन किया जिनमें सैकड़ों लोगों को मनमाने ढंग से हिरासत में लेना, संचार सेवाओं पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाना और आवाजाही एवं सभा करने की स्वतंत्रता पर कड़े प्रतिबंध शामिल हैं. तब से, सरकार ने अनेक बंदियों को रिहा किया है और इंटरनेट बहाल कर दिया है, लेकिन मीडिया और नागरिक समाज समूहों पर अपनी कठोर कार्रवाइयां तेज कर दी हैं.

सुरक्षा बल अगस्त 2019 से प्रतिबंधों को लागू करने के दौरान बहुत सारे उत्पीड़न में संलिप्त रहे हैं. इनमें जांच-चौकियों पर नियमित रूप से लोगों को हैरान-परेशान करना और उनके साथ दुर्व्यवहार करना, मनमाने तरीके से हिरासत में लेना, यातनाएं देना और गैर-न्यायिक हत्याएं शामिल हैं. जुलाई 2020 में, सुरक्षा बलों ने शोपियां जिले में तीन लोगों की गोली मार कर हत्या की और दावा किया कि वे उग्रवादी थे एवं तलाशी अभियान के दौरान मुठभेड़ में मारे गए. उनके परिजनों ने कहा कि मृतक जम्मू के मजदूर थे जो काम की तलाश में गए थे. जम्मू और कश्मीर पुलिस ने जांच में सेना के दावों को झूठा पाया और दिसंबर 2020 में सेना के एक कैप्टेन और दो असैनिक नागरिकों के खिलाफ तीन मजदूरों के अपहरण और हत्या का मामला दर्ज किया.

2019 में जारी संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय की रिपोर्ट में कश्मीर में सशस्त्र समूहों और राज्य सुरक्षा बलों के उत्पीड़नों का उल्लेख किया गया. इस रिपोर्ट में कहा गया कि सशस्त्र समूह कश्मीर में अपहरण, नागरिकों की हत्या, यौन हिंसा, सशस्त्र संघर्ष के लिए बच्चों की भर्ती तथा जम्मू और कश्मीर में राजनीतिक संगठनों से संबद्ध या जुड़े लोगों पर हमलों समेत मानवाधिकार हनन के लिए जिम्मेदार हैं. भारत लंबे समय से पाकिस्तान पर उग्रवादी समूहों को आर्थिक मदद, हथियार और प्रशिक्षण उपलब्ध कराने का आरोप लगाता रहा है. सन 1989 से आज तक कश्मीर में हुए हमलों में पचास हजार से अधिक मौतें हुई हैं. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में सुरक्षा बलों द्वारा अत्यधिक बल प्रयोग और मनमाने ढंग से हिरासत में रखने का भी जिक्र किया गया है.

संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त कार्यालय का कहना है कि भारत का सशस्त्र बल (जम्मू और कश्मीर) विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्स्पा) “जवाबदेही तय करने में एक महत्वपूर्ण बाधा बना हुआ है” क्योंकि यह कानून मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन के मामलों में प्रभावी अभयदान प्रदान करता है. भारत सरकार ने इस उत्पीड़नकारी कानून को निरस्त करने की भारत और विदेशों से उठने वाली व्यापक मांगों को खारिज़ कर दिया है. यह मांग उठाने वालों में कार्यकर्ता, सरकार द्वारा नियुक्त समितियां, राजनीतिज्ञ और संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार निकाय शामिल हैं.

यह कानून सेना को आतंकवाद विरोधी अभियानों में गिरफ्तार करने, गोली मार कर हत्या करने और संपत्ति पर कब्जा करने या उसे नष्ट करने के व्यापक अधिकार देता है. 1990 में कश्मीर में, यह कानून लागू होने के बाद से भारत सरकार ने सुरक्षा बल के किसी भी जवान के खिलाफ नागरिक अदालतों में मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी है. ह्यूमन राइट्स वॉच और अन्य संगठनों ने लंबे समय से तथ्यों और आंकड़ों का संग्रह कर बताया है कि यह कानून राज्य सत्ता  के दुरुपयोग, उत्पीड़न और भेदभाव का औज़ार बन गया है, और इसे निरस्त करने की मांग की है.

गांगुली ने कहा, "अधिकारों का हनन रोकने में भारत सरकार की नाकामयाबी ने कश्मीर में हिंसा के दुष्चक्र को बढ़ावा दिया है. अतीत और वर्तमान के उत्पीड़नों के लिए न्याय और लोगों के अधिकारों एवं स्वतंत्रता के लिए सम्मान सुनिश्चित किए बगैर यह हिंसा समाप्त नहीं होगी."

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