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भारत: कश्मीर में गैर-न्यायिक हत्याओं से जुड़ी नई खबरें

सरकार को चाहिए कि इनकी जांच करे, उत्पीड़न जारी रखने वाले कानून को रद्द करे

 

श्रीनगर में एक अस्थायी चेक नाके पर तैनात अर्धसैनिक बल के जवान, जम्मू और कश्मीर, भारत, 5 अगस्त, 2020. © 2020 एपी फोटो/डार यासीन

(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत सरकार को जम्मू और कश्मीर में जुलाई 2020 में सुरक्षा बलों द्वारा तीन लोगों की हत्या की स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच का तुरंत आदेश देना चाहिए.

सेना ने दावा किया है कि मारे गए तीनों लोग उग्रवादी थे और शोपियां जिला में 18 जुलाई को एक तलाशी अभियान के दौरान सुरक्षा बलों पर गोलीबारी के बाद जवाबी कार्रवाई में मारे गए और फिर उन्हें बारामूला जिला में दफना दिया गया. लेकिन जम्मू में उनके परिवारों ने सोशल मीडिया पर जारी हत्याओं की तस्वीरों से मृतकों की पहचान करते हुए बताया कि वे मजदूर थे जो काम की तलाश में उधर गए थे. राजनीतिक दलों की जांच की मांग के बाद, सेना ने 10 अगस्त को कहा कि वह तहकीकात करेगी.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “सुरक्षा बल कश्मीर में लंबे समय से बेख़ौफ़ कार्रवाई कर रहे हैं और अतीत में सेना की जांच न्याय प्रदान करने की बजाय उत्पीड़न करने वालों को बचाने पर ज्यादा केंद्रित रही है. कश्मीर में जारी हिंसा के चक्र का कोई अंत नहीं हो सकता यदि सुरक्षा बलों को उनके अतीत और वर्तमान के उत्पीड़नों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता है.”

मृतकों के परिजनों ने उनकी पहचान की और बताया कि आखिरी बार 17 जुलाई को उनके साथ संपर्क हुआ था जब वे काम की तलाश में शोपियां पहुंच चुके थे. बाद में जब उनसे संपर्क नहीं हो सका तो परिवारों ने यह मान लिया कि शायद उन्हें क्वारंटीन कर दिया गया हो. उन्होंने सोशल मीडिया पर शोपियां सशस्त्र मुठभेड़ में मारे गए लोगों की डाली गई तस्वीरों से अपने रिश्तेदारों की पहचान की और इसके बाद पुलिस स्टेशन में गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई. पुलिस ने कहा है कि वह भी हत्याओं की जांच कर रही है.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि हालिया हत्याओं में सेना की कोई भी जांच निरर्थक सिद्ध होगी क्योंकि सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (अफ्स्पा) सुरक्षा बलों को मानवाधिकार के गंभीर उल्लंघनों के मामलों में अभियोजन से प्रभावी सुरक्षा कवच प्रदान करता है. यह कानून सेना को उग्रवाद विरोधी कार्रवाइयों के दौरान गिरफ्तार करने, गोली मारने, और संपत्ति ज़ब्त या नष्ट करने की व्यापक शक्तियां प्रदान करता है.

जम्मू-कश्मीर में 1990 में यह कानून लागू होने के बाद से, भारत सरकार ने नागरिक अदालतों में सुरक्षा बल के किसी भी जवान के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी है. ह्यूमन राइट्स वॉच और अन्य संगठनों ने लंबे समय से इस संबंध में तथ्यों और आंकड़ों का संकलन किया है कि कैसे यह कानून राज्य के दुरुपयोग, उत्पीड़न, और भेदभाव का औज़ार बन गया है और इसे रद्द करने की मांग की है. इस कानून से प्रभावित नागरिकों, कार्यकर्ताओं, सरकार द्वारा नियुक्त समितियों, राजनीतिज्ञों और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार निकायों ने इस कानून की आलोचना की है.

भारत सरकार दावा करती है कि सैनिकों को ऐसी शक्तियों की जरूरत है क्योंकि सेना की तैनाती तभी की जाती है जब हथियारबंद दस्तों से राष्ट्रीय सुरक्षा को गंभीर खतरा हो. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सुरक्षा बलों के हाथों हुई सभी हत्याओं की जांच की जानी चाहिए. शीर्ष अदालत ने यह भी कहा है कि “यहां तक कि अफ्स्पा के तहत अशांत घोषित क्षेत्र में और उग्रवादियों, विद्रोहियों और आतंकवादियों के खिलाफ” ऐसा बल स्वीकार्य नहीं हैं.

जम्मू-कश्मीर में गैर-न्यायिक हत्याओं के बहुत सारे आरोप सामने आए हैं. सीधे तौर पर मार डाले गए लोगों में से ज्यादातर के बारे में यह झूठी रिपोर्ट दर्ज की जाती है कि वे सेना और उग्रवादियों के बीच सशस्त्र मुठभेड़ के दौरान मारे गए, जिसे “एनकाउंटर किलिंग्स” की संज्ञा दी जाती है.

एक बहुचर्चित उदाहरण पथरीबल में पांच लोगों की हत्या का है. पुलिस और सेना ने इनकी पहचान 2000 में कश्मीर के छत्तीसिंहपुरा में 36 सिखों के नरसंहार के लिए जिम्मेदार उग्रवादियों के रूप में की थी और फिर उन्हें एक कथित सशस्त्र मुठभेड़ में मार डाला गया था. बाद में राज्य सरकार द्वारा कराई गई फोरेंसिक जांच में यह सामने आया कि वे स्थानीय ग्रामीण थे जो सिख नरसंहार के लिए जिम्मेदार नहीं थे. हालांकि, जनवरी 2014 में सेना ने कहा कि वह साक्ष्य के अभाव में आरोपी सैन्य अधिकारियों के खिलाफ मामला बंद कर रही है.

न्याय के एक दुर्लभ मामले में, नवंबर 2014 में सेना ने बताया कि एक सैन्य अदालत ने 2010 में माछिल में फर्जी सशस्त्र मुठभेड़ और तीन निर्दोष ग्रामीणों की हत्या के लिए दो अधिकारियों सहित पांच सैनिकों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है. लेकिन जुलाई 2017 में एक फौजी ट्रिब्यूनल ने सभी पांच सैनिकों की सजा निलंबित कर दी. इस फैसले ने एक बार फिर से अभयदान की संस्कृति को उजागर कर दिया.

गैर-न्यायिक हत्याओं के नए आरोप तब सामने आए हैं जब अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्वायत्तता रद्द करने और इसे दो केंद्र शासित क्षेत्रों में विभाजित करने के बाद कश्मीर में भारत सरकार के कड़े प्रतिबंध जारी हैं. सैकड़ों लोग बिना किसी आरोप के हिरासत में हैं, सरकार की आलोचना करने वालों को गिरफ्तारी की धमकी दी जाती है और इंटरनेट तक पहुंच सीमित है. सुरक्षा बलों द्वारा नई गिरफ्तारी, यातना और दुर्व्यवहार के कई आरोप भी लगे हैं. सरकार ने शांतिपूर्ण आलोचनाओं को दबाने के लिए कठोर आतंकवाद निरोधी और राष्ट्रद्रोह कानूनों का भी इस्तेमाल किया है.

गांगुली ने कहा, “भारत सरकार सुरक्षा बलों द्वारा दशकों से जारी उत्पीड़न के मामलों में कश्मीरियों को लंबे समय से न्याय से वंचित कर रखा है, जिससे वहां एक अंतहीन हिंसा का दुष्चक्र पैदा हो गया है. सरकार को अफ्स्पा रद्द कर देना चाहिए, हत्याओं के ताज़ा मामले में नागरिक और स्वतंत्र जांच सुनिश्चित करनी चाहिए और बुनियादी अधिकारों पर जारी प्रतिबंधों को ख़त्म करना चाहिए.”

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