(न्यूयॉर्क) - छह मानवाधिकार समूहों ने आज कहा कि भारत सरकार ने प्रमुख कश्मीरी मानवाधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज को दमनकारी आतंकवाद निरोधी कानून के तहत हिरासत में लिया है. वह इस कानून का बड़े पैमाने पर कार्यकर्ताओं और आलोचकों के खिलाफ इस्तेमाल कर रही है. भारत सरकार को चाहिए कि बिना देरी किए गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत स्वतंत्रता के अधिकारों और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकारों का उल्लंघन रोके, और घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून से जुड़े अपने दायित्वों को पूरा करे.
बयान जारी करने वाले समूह में शामिल हैं: फ्रंट लाइन डिफेंडर्स, इंटरनेशनल फेडरेशन फॉर ह्यूमन राइट्स (एफआईडीएच), वर्ल्ड ऑर्गनाइजेशन अगेंस्ट टॉरचर (ओएमसीटी), इंटरनेशनल कमीशन ऑफ ज्यूरिस्ट, एमनेस्टी इंटरनेशनल, और ह्यूमन राइट्स वॉच.
22 नवंबर, 2021 को भारत की संघीय आतंकवाद निरोधी एजेंसी, राष्ट्रीय जांच एजेंसी के अधिकारियों ने परवेज के घर और कार्यालय पर छापे मारे, कई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण और दस्तावेज जब्त किए, और आतंकवाद के लिए धन मुहैया कराने, एक आतंकवादी संगठन का सदस्य होने, आपराधिक साजिश रचने एवं राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया. परवेज के खिलाफ कार्रवाई जाहिर तौर पर राजनीति से प्रेरित है.
44 साल के परवेज जम्मू एंड कश्मीर कोलिशन ऑफ सिविल सोसाइटी के कार्यक्रम समन्वयक हैं और एशियन फेडरेशन अगेंस्ट इनवोलंटरी डिसअपीयरेंस के अध्यक्ष हैं. उन्होंने कश्मीर में जबरन गायब होने के मामलों का दस्तावेजीकरण किया है और अचिह्नित कब्रों की जांच की है, और इसके नतीज़े में, भारतीय सरकारी तंत्र ने उनके मानवाधिकार कार्यों के लिए उन्हें बार-बार निशाना बनाया है.
2016 में उन्हें दो महीने से अधिक समय तक हिरासत में रखा गया था और जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की बैठक में शामिल होने के लिए यात्रा से रोक दिया गया था. अक्टूबर 2020 में आतंकवाद निरोधी छापों के दौरान भी उन पर कार्रवाई की गई थी, जब कई गैर-सरकारी संगठनों, कार्यकर्ताओं और एक अखबार को उनके काम के लिए या सरकार के उत्पीड़न पर मुखर होने के लिए जांच का सामना करना पड़ा था.
परवेज की मनमानी गिरफ्तारी और हिरासत भारत सरकार द्वारा जम्मू और कश्मीर में नागरिक समाज समूहों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और मीडिया संस्थानों के खिलाफ मानवाधिकारों के उल्लंघन की लंबी सूची की ताजा कड़ी है. सरकार ने कश्मीर में सुरक्षा बलों द्वारा गैर-न्यायिक हत्याओं और अन्य गंभीर उत्पीड़नों के लिए जवाबदेही सुनिश्चित नहीं की है, बल्कि इसके उलट न्याय और मानवाधिकारों की खातिर आवाज़ बुलंद करने वालों को गिरफ्तार किया है. पत्रकारों और कार्यकर्ताओं ने यह आशंका जतायी है कि उन्हें कभी भी तलब या गिरफ्तार किया जा सकता है. एक न्यूज़ रिपोर्ट के मुताबिक 40 से अधिक लोग उस सूची में शामिल हैं, जिन्हें विदेश यात्रा से रोकने का निर्देश आव्रजन अधिकारियों को दिया गया है.
परवेज की गिरफ्तारी ऐसे समय में हुई है जब भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर नागरिक समाज समूहों और मीडिया के खिलाफ़ दमनात्मक कार्रवाइयां तेज कर दी है. और खास तौर से जम्मू और कश्मीर में अगस्त 2019 में राज्य के विशेष स्वायत्त स्थिति रद्द कर इसे दो संघ शासित क्षेत्रों में विभाजित करने के बाद.
असहमति दबाने के लिए सरकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों और आलोचकों के खिलाफ आतंकवाद निरोधी कानून का अधिकाधिक इस्तेमाल कर रही है. कानून में आतंकवाद की अस्पष्ट और व्यापक परिभाषा है जिसके दायरे में अल्पसंख्यक आबादी और नागरिक समाज समूहों के राजनीतिक विरोध सहित अनेक प्रकार की अहिंसक राजनीतिक गतिविधियां आ जाती हैं. 2019 में, सरकार ने कानून में नए संशोधन कर अधिकारियों को बिना किसी आरोप या मुकदमे के किसी भी व्यक्ति को “आतंकवादी” करार देने का अधिकार दे दिया.
अक्टूबर 2020 में, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त ने मानवाधिकार रक्षकों और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कानून के बढ़ते उपयोग पर चिंता व्यक्त की और सरकार से “केवल बुनियादी मानवाधिकारों का प्रयोग करने के लिए” गिरफ्तार लोगों को रिहा करने का आग्रह किया, जबकि ये ऐसे अधिकार हैं “जिनकी रक्षा के लिए भारत बाध्य है.”
अगस्त 2019 के बाद, भारतीय सरकारी तंत्र ने कश्मीर में मीडिया की स्वतंत्रता पर शिकंजा कस दिया है. दुनिया में किसी भी जगह के मुकाबले इंटरनेट पर सबसे ज्यादा प्रतिबंध भारतीय सरकारी तंत्र ने लगाए हैं. ऐसी अधिकांश कार्रवाइयां कश्मीर में की गई हैं जिनका उद्देश्य विरोध प्रदर्शनों को दबाना और साथ ही सूचनाओं तक पहुंच को रोकना है और अभिव्यक्ति और संगठन बनाने की स्वतंत्रता सहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करना है.
कश्मीर में पत्रकारों को आतंकवाद के आरोपों में छापेमारी और गिरफ्तारी सहित सरकार के बढ़ते उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है. सितंबर में, पुलिस ने चार कश्मीरी पत्रकारों के घरों पर छापा मारा और उनके फोन एवं लैपटॉप जब्त कर लिए. जून में, संयुक्त राष्ट्र के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर विशेष दूत और मनमाने हिरासत के मामलों के कार्य समूह ने “जम्मू और कश्मीर की स्थिति का कवरेज करने वाले पत्रकारों को कथित तौर पर मनमाने तरीके से हिरासत में लेने और धमकी देने” पर चिंता व्यक्त की.
2019 के बाद, सुरक्षा बल कई प्रकार के उत्पीड़न में संलिप्त रहे हैं जैसे आवाजाही पर प्रतिबंध लगाने के दौरान जांच-चौकियों पर नियमित रूप से हैरान-परेशान और दुर्व्यवहार करने, मनमाने ढंग से हिरासत में लेने, और यातना और गैर-न्यायिक हत्याओं में. 15 नवंबर को श्रीनगर के हैदरपोरा इलाके में सुरक्षा बलों के साथ कथित मुठभेड़ में चार लोग मारे गए और पुलिस ने आनन-फानन में उनके शवों को दफना दिया. दो पीड़ितों के परिवारों ने कहा कि मृतक व्यवसायी थे और पुलिस ने “मानव ढाल” के रूप में उनका इस्तेमाल किया. परिवारों द्वारा हत्याओं का विरोध किए जाने पर पुलिस ने कई को अस्थायी रूप से हिरासत में लिया. दो पूर्व मुख्यमंत्रियों समेत लोगों के व्यापक प्रतिरोध के बाद पुलिस ने दो शवों को कब्र से बाहर निकाल कर उनके परिवारों को सौंप दिया, और प्रशासन ने मौतों की मजिस्ट्रेट जांच का आदेश दिया.
इसके पूर्व नवंबर में, पुलिस ने एक कश्मीरी व्यक्ति की सुरक्षा बलों द्वारा अक्टूबर में हत्या पर सार्वजनिक रूप से सवाल करने पर कार्यकर्ता और राजनेता तालिब हुसैन को गिरफ्तार कर लिया. अधिकारियों ने हुसैन के आरोपों की जांच नहीं की, बल्कि उन पर “विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने” और “अफवाहें या फर्जी खबरें फैलाने” का आरोप लगाया.
मार्च में, संयुक्त राष्ट्र के पांच विशेषज्ञों ने भारत सरकार को पत्र लिखकर कश्मीरी राजनेता वहीद पारा की नजरबंदी; दुकानदार इरफान अहमद डार की हिरासत में कथित हत्या; और शोपियां जिले के निवासी नसीर अहमद वानी के जबरन गायब होने के बारे में जानकारी मांगी. उन्होंने “दमनकारी कार्रवाइयों और स्थानीय आबादी के मौलिक अधिकारों के सुनियोजित उल्लंघन के व्यापक तौर-तरीकों के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा बलों द्वारा दी गई धमकी और उनकी तलाशी एवं जब्ती” पर चिंता जताई.
दिसंबर 2020 में, सुरक्षा बलों ने श्रीनगर के बाहरी इलाके में दो पुरुषों और एक किशोर को उग्रवादी बताते हुए मार डाला. परिवारों ने इस दावे को झूठा करार दिया, और किशोर के पिता ने कहा कि वह माध्यमिक विद्यालय का छात्र था. फरवरी में, खबरों के मुताबिक पुलिस ने इस किशोर के पिता के खिलाफ आतंकवाद निरोधी कानून सहित अन्य कानूनों के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया जिन्होंने अपने बेटे के शव और हत्या की जांच की मांग की थी.
सुरक्षा बल के उत्पीड़नों के लिए कोई जवाबदेही तय नहीं है, आंशिक रूप से ऐसा सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (अफ्स्पा) के कारण है जो सुरक्षा बलों को अभियोजन से प्रभावी प्रतिरक्षा प्रदान करता है. 1990 में जम्मू और कश्मीर में यह कानून लागू होने के बाद से, भारत सरकार ने नागरिक अदालतों में किसी भी सुरक्षा बल कर्मी के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी है. अधिकार समूहों ने लंबे समय से तथ्य और आंकड़ों के संकलन के जरिए बताया है कि यह कानून राज्य के उत्पीड़न, दमन और भेदभाव का हथियार बन गया है, और इसे निरस्त करने की मांग की है. इस कानून से प्रभावित निवासियों, कार्यकर्ताओं, सरकार द्वारा नियुक्त समितियों, राजनेताओं और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार निकायों ने भी कानून की आलोचना की है.
भारत द्वारा मानवाधिकारों पर आघात के सामने आने के बाद भी संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोपीय संघ, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया समेत इसके अन्य अंतर्राष्ट्रीय साझेदार सार्वजनिक रूप से भारत सरकार के उत्पीड़नों को रोकने के उपाय करना तो दूर, इनकी निंदा करने से भी बच रहे हैं. बढ़ते उत्पीड़न की आलोचना करने की यह अनिच्छा चिंता पैदा करती है कि इससे भविष्य में सरकार को और भी दमनकारी तरीके अपनाने के लिए बढ़ावा मिलेगा.
समूहों ने कहा कि भारत सरकार को राजनीति से प्रेरित मामलों में गिरफ्तार परवेज और अन्य को तत्काल और बिना शर्त रिहा करना चाहिए और उनके खिलाफ तमाम आरोप वापस लेने चाहिए. सरकार को चाहिए कि गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून और मानकों के अनुरूप बनाने के लिए इसमें संशोधन करे और ऐसा होने तक मानवाधिकार रक्षकों, सरकार के आलोचकों और अपने मौलिक मानवाधिकारों का प्रयोग करने वाले अन्य लोगों को निशाना बनाने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं करे.