(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत सरकार अपने आलोचकों के खिलाफ राजद्रोह और आतंकवाद-निरोधी जैसे कठोर कानूनों के तहत मामलों समेत ढेर सारे राजनीति प्रेरित मुकदमें दर्ज कर रही है. सरकार को चाहिए कि वह कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, छात्र नेताओं और अन्य लोगों के खिलाफ निराधार आरोप तुरंत वापस ले और हिरासत में लिए गए लोगों को बिना शर्त रिहा करे.
दिल्ली पुलिस ने फरवरी की सांप्रदायिक हिंसा, जिसमें कम-से-कम 53 लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हुए थे, में कथित भूमिका के लिए कार्यकर्ता उमर खालिद को “मुख्य साजिशकर्ता” के रूप में 13 सितंबर, 2020 को भारत के प्रमुख आतंकवाद विरोधी कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया. दिल्ली पुलिस ने शिक्षाविदों, कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं को भी संदिग्ध बताया है. 7 सितंबर को, राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने जनवरी 2018 में महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में कथित रूप से जाति आधारित हिंसा भड़काने वाले भाषण के लिए एक दलित सांस्कृतिक समूह के तीन सदस्यों को गिरफ्तार किया. दोनों ही मामलों में, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थक हिंसा में संलिप्त थे.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “ऐसा प्रतीत होता है कि भारत सरकार ने सरकारी नीतियों का शांतिपूर्वक आलोचना करने वालों के खिलाफ बिना किसी आधार पर ऐसी हिंसा के लिए मुकदमा चलाने की ठान ली है, जिसमें निष्पक्ष रिपोर्टिंग के मुताबिक काफी हद तक भाजपा समर्थकों का हाथ है. मुखर कार्यकर्ताओं को मनमाने ढंग से गिरफ्तार करके, सरकार न केवल असहमति को दबाने का प्रयास कर रही है, बल्कि अपने समर्थकों को संदेश भी दे रही है कि उन्हें अल्पसंख्यक समुदायों के उत्पीड़न की खुली छूट है.”
दर्जनों मानवाधिकार रक्षक, कार्यकर्ता और शिक्षाविद राजनीति से प्रेरित आरोपों में पहले से ही जेल में हैं. दिल्ली पुलिस ने अन्य लोगों की भी पहचान की है जिनके नाम पुलिस के मुताबिक जांच के दौरान सामने आए हैं. इनमें शामिल हैं: प्रसिद्ध विपक्षी राजनीतिज्ञ सीताराम येचुरी; अर्थशास्त्री जयति घोष; कार्यकर्ता और शिक्षाविद योगेंद्र यादव; दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद; और वृत्तचित्र फिल्म निर्माता राहुल रॉय.
भारत और विदेश में गिरफ्तारियों की व्यापक रूप से निंदा हुई है. निंदा करने वालों में सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी, न्यायाधीश और संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञ शामिल हैं. इन लोगों ने कहा कि “भारत के जीवंत नागरिक समाज को डराने वाले संदेश भेजने के पीछे यह मंशा साफ-साफ दीखती है कि सरकारी नीतियों की आलोचना बर्दाश्त नहीं की जाएगी.” सितंबर में, 1,000 से अधिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, शिक्षाविदों और अन्य लोगों ने फरवरी की हिंसा में लोगों को झूठे तरीके से फंसाने के दिल्ली पुलिस द्वारा '”कबूलनामा” के लिए कथित जोर जबर्दस्ती की निंदा की है. 1 सितंबर को, खालिद ने दिल्ली पुलिस आयुक्त को लिखे पत्र में आरोप लगाया कि जांचकर्ता उनके परिचितों पर उन्हें हिंसा में फंसाने के लिए दबाव डाल रहे हैं.
जून 2018 से, सरकार ने भीमा कोरेगांव मामले में आतंकवाद-निरोधी गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत 12 प्रमुख कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों को गिरफ्तार किया है. इनमें सुधा भारद्वाज, शोमा सेन, सुरेंद्र गडलिंग, महेश राउत, अरुण फरेरा, सुधीर धवले, रोना विल्सन, वर्नन गोंसाल्वेस, वरवरा राव, आनंद तेलतुम्बडे, गौतम नवलखा और हनी बाबू शामिल हैं. सरकार का आरोप है कि वे माओवादी विद्रोह के समर्थक हैं और 31 दिसंबर, 2017 को एक बड़ी सार्वजनिक रैली में उन्होंने दलितों को हिंसा के लिए उकसाया, जिससे अगले दिन भाजपा समर्थकों के साथ झड़पें हुईं. इस घटना में एक व्यक्ति की मौत हो गई और कई घायल हुए. हालांकि, पुलिस ने जो आरोप में लगाए गए हैं, उनमें कमज़ोर और विरोधाभासी साक्ष्यों का उल्लेख है और मुमकिन है कि पुलिस ने साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ की हो.
खुद को इस रैली के “मुख्य आयोजक और एकमात्र धन संग्राहक” बताने वाले दो सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने कहा है कि इस मामले में गिरफ्तार अधिकांश कार्यकर्ताओं का इस घटना से कोई संबंध नहीं है. जुलूस के आयोजकों ने कहा कि वे भारत में सर्वव्याप्त उस विचारधारा के खिलाफ अभियान शुरू करना चाहते थे, जिसके कारण दलितों और मुसलमानों पर हमले होते हैं. सरकार इस मामले में कई अन्य शिक्षाविदों की जांच कर रही है. अन्य कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, और इन प्रोफेसरों के छात्रों ने इसे “विच हंट,” एक सोची-समझी उत्पीड़नकारी कार्रवाई बताया है. जैसाकि एक बयान में उन्होंने कहा, “यह कार्रवाई हमारे लोकतंत्र को नष्ट कर रही है, नागरिक स्वतंत्रता का उल्लंघन कर रही है और संवैधानिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर रही है.”
भाजपा के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र की पूर्ववर्ती राज्य सरकार ने इस मामले का इस्तेमाल सरकार के आलोचकों को जेल में डालने के लिए किया, जबकि उसने हिंसा भड़काने में संलिप्त हिंदू राष्ट्रवादी नेताओं से सम्बंधित मामलों की जांच को आगे नहीं बढ़ाया.
इसी तरह, दिल्ली में फरवरी की हिंसा के सिलसिले में, सरकार ने कार्यकर्ताओं, छात्र नेताओं, विपक्षी नेताओं और शिक्षाविदों पर आरोप लगाया है. लेकिन उन भाजपा नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने में विफल रही है जिन्होंने हिंसा से पहले कई हफ़्तों तक मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव करने वाले नागरिकता कानून और नीतियों का शांतिपूर्वक विरोध करने वालों के खिलाफ हिंसा की वकालत की. कुछ नेताओं ने प्रदर्शनकारियों को “गद्दार” बताते हुए उन्हें गोली मारने की वकालत की. जुलाई में जारी दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली हिंसा “पूर्वनियोजित और लक्षित” थी. उसने यह भी पाया कि पुलिस ने हिंसा के लिए मुस्लिम पीड़ितों के खिलाफ मामले दर्ज किए, लेकिन इसे भड़काने वाले भाजपा नेताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं की.
जैसा कि ह्यूमन राइट्स वॉच और अन्य ने भी तथ्यों और आंकड़ों के संकलन में पाया है कि सरकार ने जाँच में स्पष्ट तौर पर पक्षपातपूर्ण कार्रवाई की है. उसने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी और “अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश को बदनाम करने” की “साजिश” का आरोप लगाते हुए गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत बिना पर्याप्त सबूत के राजद्रोह, हत्या, और आतंकवाद के मामले दर्ज किए हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत सरकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने और शांतिपूर्ण सभा करने के अधिकारों को बरकरार रखना चाहिए. सरकार को चाहिए कि आतंकवाद-निरोधी कानून को निरस्त करे या उसमें व्यापक संशोधन करे, साथ ही औपनिवेशिक युग के राजद्रोह कानून के तहत किए जा रहे उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए इस कानून को निरस्त करे.
गांगुली ने कहा “भारत सरकार शांतिपूर्ण विरोध को कुचलने के लिए सत्तावादी कारगुजारियों का अधिकाधिक इस्तेमाल कर रही है, जबकि अपने समर्थकों के हिंसक हमलों के खिलाफ कार्रवाई करने में एकदम विफल रही है. यह भारत की न्याय प्रणाली को दीर्घकालिक नुकसान पहुंचा रही है और उत्पीड़न की जवाबदेही तय करने से पुलिस का बचाव कर रही है.”