(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारतसरकार द्वारा 22 मार्च, 2022 को एक नृजातीय रोहिंग्या महिला को जबरन म्यांमार वापस भेजना भारत में रोहिंग्या शरणार्थियों के जीवन के समक्ष जोखिमों को उजागर करता है. अंतर्राष्ट्रीय कानून शरणार्थियों की उन जगहों पर जबरन वापसी का निषेध करता है जहां उनके जीवन या स्वतंत्रता को खतरा हो.
भारत में रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों को कड़े प्रतिबंधों, मनमाने हिरासत, अक्सर राजनीतिक नेताओं द्वारा उकसाए गए हिंसक हमलों और जबरन वापसी के बढ़ते जोखिम का सामना करना पड़ता है. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एजेंसी (यूएनएचसीआर) के मुताबिक वर्तमान में भारत में कम-से-कम 240 रोहिंग्या अवैध प्रवेश के आरोप में हिरासत में हैं. इसके अलावा, करीब 39 रोहिंग्याओं को दिल्ली में एक शेल्टर और अन्य 235 रोहिंग्याओं को जम्मू के एक होल्डिंग सेंटर (अस्थायी शिविर) में रखा गया है.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “एक रोहिंग्या महिला को जबरन म्यांमार वापस भेजने से भारत सरकार को कुछ हासिल नहीं होगा, जबकि उसे अपने बच्चों से अलग कर दिया गया है और गंभीर जोखिम में डाल दिया गया है. म्यांमार में रोहिंग्या शरणार्थियों के जीवन और स्वतंत्रता पर खतरे के ढेर सारे सबूतों के बावजूद उन्हें वापस भेजने का निर्णय मानव जीवन और अंतर्राष्ट्रीय कानून के लिए प्रति सरकार की क्रूर अवहेलना को दर्शाता है.”
भारत में रोहिंग्याओं की अनुमानित संख्या 40 हजार है, जिनमें से कम-से-कम 20 हजार यूएनएचसीआर में पंजीकृत हैं. 2016 के बाद, उग्र राष्ट्रवादी हिंदू समूहों ने जम्मू में रोहिंग्या शरणार्थियों को निशाना बनाया और उन्हें देश से बाहर निकालने की मांग की है. यह भारत में मुसलमानों पर बढ़ते हमलों की एक और कड़ी है. अक्टूबर 2018 से अब तक भारत सरकार 12 रोहिंग्याओं को म्यांमार वापस भेज चुकी है. सरकार का दावा है कि वे स्वेच्छा से वापस लौटे हैं. हालांकि, सरकार ने यूएनएचसीआर के उस अनुरोध को बार-बारअस्वीकार कर दिया जिसमें उसने रोहिंग्याओं से मिलने की अनुमति मांगी ताकि वह यह आकलन कर सके कि क्या रोहिंग्याओं का वापस लौटने का निर्णय स्वैच्छिक था.
36 साल की हसीना बेगम, उसके पति और तीन बच्चे यूएनएचसीआर में शरणार्थी के रूप में पंजीकृत हैं. वह उन रोहिंग्याओं में शामिल थी जिन्हें 6मार्च, 2021 को जम्मू-कश्मीर के अधिकारियों द्वारा हिरासत में लिया गया. इसके बाद अधिकारियों ने उन्हें सत्यापन के लिए एक होल्डिंग सेंटर में यह कहते हुए भेज दिया कि सरकार ने उन्हें निर्वासित करने की योजना बनाई है. उसके पति ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि एक साल पहले हसीना को हिरासत में लिए जाने के बाद से उसने और बच्चों ने उसे नहीं देखा है.
मणिपुर राज्य मानवाधिकार आयोग द्वारा 21 मार्च, 2022 के एक आदेश में निर्वासन पर रोक लगाने के बावजूद सरकार ने उसे जबरन म्यांमार वापस भेज दिया. आयोग ने कहा कि उसे निर्वासित करने की योजना भारतीय संविधान द्वारा गारंटीशुदा जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार और मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 14 के साथ-साथ गैर-वापसी के सिद्धांत का उल्लंघन प्रतीत होती है.
हसीना बेगम के पति अली जौहर (37 वर्षीय) को जब यह जानकारी हुई कि उनकी पत्नी को निर्वासित किया जा सकता है तो उन्होंने यूएनएचसीआर को पत्र लिख कर एजेंसी से हस्तक्षेप की अपील की. अली ने बताया कि उन्हें कोई जवाब नहीं मिला. यूएनएचसीआर के अधिकारियों ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि उन्होंने इस मामले में भारतीय अधिकारियों से संपर्क किया था.
रोहिंग्या मुस्लिमों के “आतंकवादी” होने का दावा करने वाले उग्र राष्ट्रवादी हिंदू समूहों के रोहिंग्या-विरोधी व्यापक अभियान ने जम्मू और दिल्ली में रोहिंग्यायों के घरों पर आगजनी सहित निगरानी समूहों जैसी हिंसा को उकसाया है. 2018 में दिल्ली में एक रोहिंग्या बस्ती में आगलगी के बाद, जिसमें कम-से-कम 50 घर जल गए थे, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की युवा शाखा के एक नेता ने कार्रवाई की वाहवाही करते हुए ट्विटर पर लिखा, “शाबाश मेरे हीरो ... हाँ, हमने रोहिंग्या आतंकवादियों के घर जला दिए.”
म्यांमार में, रखाइन राज्य के शिविरों और गांवों में घिरे लगभग 6 लाख रोहिंग्या सैन्य व्यवस्था द्वारा रंगभेद, उत्पीड़न के शिकार हैं और स्वतंत्रता से पूरी तरह वंचित हैं. 1 फरवरी, 2021 के बाद प्रतिबंध और अन्य तरह के उत्पीड़न और बदतर हो गए हैं, जब रोहिंग्याओं के खिलाफ 2012, 2016 और 2017 में हुए सामूहिक जुर्म के लिए जिम्मेदार सैन्य नेतृत्व ने तख्तापलट कर दिया. लगभग दस लाख रोहिंग्या मुसलमान अभी बांग्लादेश में शरणार्थी के रूप में रह रहे है. ये रोहिंग्या वापस म्यांमार लौटने में असमर्थ हैं.
जौहर ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया, “हम वहां नहीं जा सकते. वे [म्यांमार सेना] हमें मार डालेंगे. अगर हालात बेहतर हुए तो हम वापस जाएंगे.”
जनवरी 2020 में अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने नरसंहार समझौते के कथित उल्लंघन पर फैसला सुनाते हुए सर्वसम्मति से म्यांमार को रोहिंग्याओं को नरसंहार से सुरक्षा प्रदान करने का आदेश दिया. इन बाध्यकारी उपायों के बावजूद, म्यांमार के लिए संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत ने सितंबर 2021 में अपनी रिपोर्ट में कहा कि “रोहिंग्याओं के खिलाफ़ सामूहिक नृशंस अपराधों का गंभीर खतरा है.” दिसंबर में, उन्होंने बताया कि “मानवता के खिलाफ जारी अपराधों और रोहिंग्या एवं अन्य समूहों के खिलाफ म्यांमार हुंटा केरोज-ब-रोज अत्याचारों को देखते हुए वर्तमान में रोहिंग्याओं के लिए अपनी मातृभूमि में सुरक्षित, सुस्थायी, सम्मानजनक वापसी की स्थितियां मौजूदनहीं हैं.”
लेकिन भारत सरकार ने कहा है कि वह ऐसे अनियमित रोहिंग्या अप्रवासियों को निर्वासित करेगी जिनके पास विदेशी अधिनियम के तहत आवश्यक यात्रा संबंधी वैध दस्तावेज नहीं हैं. यद्यपि भारत 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन या इसके 1967 के मसौदे का हिस्सा नहीं है, लेकिन वापसी का निषेध प्रचलित अंतरराष्ट्रीय कानून का मानक बन गया है जिसको मानने के लिए भारत बाध्य है.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत सरकार को सभी रोहिंग्याओं को म्यांमार वापस भेजने पर रोक लगाना चाहिए क्योंकि उन्हें वहां उत्पीड़न का गंभीर खतरा है. भारत सरकार को निर्वासन के जोखिम वाले किसी भी व्यक्ति को एक वकील उपलब्ध करना चाहिए, उसका यूएनएचसीआर से संपर्क कराना चाहिए और उसे एक निष्पक्ष न्याय निर्णायक के समक्ष निर्वासन के खिलाफ अपने तर्क प्रस्तुत करने का मौक़ा देना चाहिए. सरकारी तंत्र को ऐसे किसी भी निर्वासन पर रोक लगानी चाहिए जो कि जबरन वापसी के समान हो.
गांगुली ने कहा, “भारतीय सरकारी तंत्र धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों के खिलाफ भेदभावपूर्ण नीतियों पर अधिकाधिक अमल कर रहा है और रोहिंग्या के प्रति उसकी नीति इसी धार्मिक कट्टरता को प्रतिबिंबित करती है. भारत सरकार को चाहिए उत्पीड़ितों को शरण देने के अपने लंबे इतिहास को नहीं भुलाए और किसको शरण देना है इसका फ़ैसला उनके धर्म के आधार पर ना करे.”