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जम्मू और कश्मीर के संदर्भ में

अमेरिकी कांग्रेस के टॉम लैंटोस ह्यूमन राइट्स कमीशन में जॉन सिफटन की लिखित प्रस्तुति

आज मुझे बयान देने के लिए आमंत्रण हेतु आपका धन्यवाद.

जम्मू और कश्मीर प्रान्त में मानवाधिकार खतरे में हैं, और आम तौर से भारत में यही स्थिति है. लैंटोस आयोग इस बात के लिए तारीफ़ का हकदार है कि उसने माना कि आमतौर से  कश्मीर और भारत दोनों में मानवाधिकार समस्याएं हालांकि तफसील में अलग-अलग हैं, पर उनकी कड़ियां आपस में जुड़ी हुई हैं. मेरे बयान का केंद्र बिंदु यही कड़ियां हैं और कि कैसे अमेरिकी सरकार इन मुद्दों पर भारत सरकार के समक्ष सबसे प्रभावी ढंग से अपनी चिंताओं को  व्यक्त कर सकती है.

एक अवलोकन

मई में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के राष्ट्रीय चुनाव जीतने के बाद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में, जहां एक ओर सरकार अपनी आलोचना के लिए मुखर अधिकार समूहों, मानवाधिकार रक्षकों और पत्रकारों को लगातार परेशान कर रही है, कई बार उनपर मुकदमें दर्ज कर रही है, वहीँ दूसरी ओर वह धार्मिक अल्पसंख्यकों और अन्य कमजोर समुदायों के खिलाफ बढ़ते भीड़ के हमलों, जिनकी अगुवाई अक्सर भाजपा समर्थक करते हैं, की विश्वसनीय जांच करने में विफल हो रही है. साथ ही, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, महिला अधिकारों, बाल अधिकारों और दलितों, आदिवासी समूहों एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों से जुड़ी बड़ी चिंताएं भी थमने का नाम नहीं ले रहीं हैं.

अगस्त में, सरकार ने जम्मू और कश्मीर की विशेष संवैधानिक स्थिति रद्द कर दी और राज्य को दो अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया. इस फैसले की घोषणा करने से पहले, सरकार ने इस क्षेत्र में अतिरिक्त सैनिकों को तैनात किया, इंटरनेट और फोन बंद कर दिए और निर्वाचित नेताओं सहित हजारों लोगों को निरोधात्मक हिरासत में ले लिया. सरकार की इन कार्रवाइयों की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निंदा हुई. इस बीच, पूर्वोत्तर राज्य असम में नागरिकता सत्यापन परियोजना में लगभग बीस लाख लोगों को नागरिकता सूची से बाहर कर दिया गया. इनमें से अधिकांश लोग बंगाली नृजातीय मूल के हैं, जिनमें से कई मुस्लिम हैं. इन लोगों पर राज्यविहीन होने का खतरा मंडरा रहा है.

जम्मू और कश्मीर

मुझे पहले जम्मू-कश्मीर, विशेष रूप से मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी की स्थिति की बारीकियों पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति दें.

14 फरवरी को पुलवामा जिले में सुरक्षा बलों के काफिले पर एक आत्मघाती हमले में 40 से अधिक भारतीय सैनिक मारे गए. पाकिस्तान स्थित उग्रवादी समूह जैश-ए-मोहम्मद ने इस  हमले की जिम्मेदारी ली. इसने भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य प्रसार को बढ़ावा दिया और विवादित क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सीमा पर गोलाबारी में कम-से-कम चार नागरिकों की मौत हो गई. हमले के बाद, भारत के अन्य हिस्सों में कश्मीरी छात्रों और व्यापारियों को हैरान-परेशान किया गया या उनके साथ मारपीट की गई, यहां तक कि उन्हें किराये के मकानों और छात्रावासों से जबरन बाहर निकाल दिया गया.

5 अगस्त को, सरकार ने राज्य की विशेष स्वायत्त स्थिति को रद्द कर दिया. पूर्व मुख्यमंत्रियों, राजनीतिक नेताओं, विपक्षी कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों सहित हजारों लोगों को बिना किसी आरोप के हिरासत में ले लिया गया और इंटरनेट एवं फोन सेवा बंद कर दी गई. आवाज़ाही पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए गए और सार्वजनिक सभाओं पर रोक लगा दी गई. सरकार ने कहा कि हिंसक विरोध प्रदर्शन के दौरान जान-माल के नुकसान को रोकने के लिए ये उपाय आवश्यक हैं, लेकिन तब भी सुरक्षा बलों द्वारा मारपीट और यातना के विश्वसनीय और गंभीर आरोप सामने आए. सितंबर में, पुलवामा के चंदगाम गांव में सेना की कथित पिटाई के बाद एक 15-वर्षीय लड़के ने आत्महत्या कर ली. सेना ने आरोप से इनकार किया. हालांकि उसके बाद कई प्रतिबंध हटा दिए गए हैं, मगर सैकड़ों लोग हिरासत में हैं और मोबाइल फोन सेवाओं एवं इंटरनेट की पहुंच अभी भी सीमित है. कई माता-पिता अभी भी अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए उन्हें स्कूल या कॉलेज भेजने से बहुत डरते हैं.

जुलाई में, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय ने अपनी 2018 कश्मीर रिपोर्ट का अपडेट जारी किया, जिसमें कश्मीर के भारतीय और पाकिस्तानी दोनों हिस्सों में राज्य सुरक्षा बलों और सशस्त्र समूहों के उत्पीड़न पर गंभीर चिंता जताई गई. इसमें यह कहा गया कि किसी भी देश ने पूर्व में जारी रिपोर्ट में उठाई गई चिंताओं को दूर करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया. रिपोर्ट में इस बात के लिए भर्त्सना की गई है कि भारत में अतीत में हुए उत्पीड़नों के लिए न्याय सुनिश्चित नहीं किया गया. इन उत्पीड़नों में शामिल हैं - आतंकवादी समूहों द्वारा हिंदू कश्मीरियों की हत्याएं और उन्हें धमकियां जिसके कारण उनका जबरन विस्थापन हुआ; पाकिस्तान का समर्थन प्राप्त आतंकवादी समूहों द्वारा उत्पीड़न; साथ ही बलात गुमशुदगी, गैर-न्यायिक हत्याएं, बल का अंधाधुंध उपयोग जिसके कारण पेलेट्स गन से लोग घायल हुए और कथित यौन हिंसा सहित सुरक्षा बलों के उल्लंघन.

अगस्त में, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने दशकों बाद पहली बार जम्मू और कश्मीर पर बंद कमरे में एक बैठक की. पाकिस्तान के आग्रह पर चर्चा की मांग करने वाले चीन ने कहा कि सदस्य मानवाधिकारों और भारत तथा पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव को लेकर चिंतित हैं. सितंबर में, यूरोपीय संघ ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में जम्मू और कश्मीर के हालात का मुद्दा उठाया, और भारत से शेष प्रतिबंधों को समाप्त करने और प्रभावित आबादी के अधिकारों तथा मौलिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए आग्रह किया. यूरोपीय संसद ने भी कश्मीर पर एक विशेष बहस की, जिसमें भारत और पाकिस्तान दोनों से अपने अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों का सम्मान करने का आग्रह किया गया.

भारत सरकार ने व्यापक तौर पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जताई गई चिंता को खारिज कर दिया, मिसाल के लिए उसने जुलाई में जारी संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट को “सीमा पार आतंकवाद के मूल मुद्दे” को नजरअंदाज करने वाली “झूठी और प्रेरित कहानी” बताया. जम्मू और कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी समूहों को लेकर सुरक्षा संबंधी चिंताएं बाजिव हैं, और पाकिस्तान ने उन आतंकवादी समूहों का समर्थन किया है जिन्होंने हमलों को अंजाम दिया है. लेकिन इसकी वजह से भारतीय हुक्मरानों को यह छूट नहीं की वे मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघनों के लिए जिम्मेदार सुरक्षा बलों की जवाबदेही तय ना करे.

भारत ने यह प्रचारित किया है कि जम्मू-कश्मीर की स्वायत्त स्थिति को रद्द करने -  जो कि भाजपा का एक दीर्घकालिक लक्ष्य रहा है -  का मुख्य उद्देश्य आर्थिक विकास है. अमेरिका में भारत के राजदूत ने न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख में लिखा कि अगस्त में हुई कार्रवाइयों का मकसद “सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान करना” है. लेकिन अब तक हमने कश्मीरी आबादी पर दमन में वृद्धि ही देखी है.

सरकार कश्मीर में पहले की समस्याओं का सारा दोष बाहरी कारकों - सीमा पार आतंकवादी समूहों और पाकिस्तान द्वारा उन्हें समर्थन - पर मढ़ रही है. यह रवैया सरकार की उत्पीड़नकारी  और अधिकारों का उल्लंघन करने वाली उस कार्यनीति की अनदेखी करता है जिसने दशकों से उग्रवादी समूहों के लिए समर्थन और रंगरूटों की भर्ती को बढ़ावा दिया है.

हाल के वर्षों में कश्मीर में हिंसक विरोध प्रदर्शनों और उग्रवादी हमलों में बढ़ोतरी हुई है. भारतीय सुरक्षा बलों ने अक्सर भीड़-नियंत्रण के हथियार के रूप में पैलेट गन का इस्तेमाल सहित विरोध प्रदर्शनों के जवाब में अत्यधिक बल का इस्तेमाल किया. इससे बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी मारे गए और कई गंभीर रूप से घायल हुए. आतंकवाद निरोधी अभियानों के दौरान मानवाधिकार  उल्लंघन के लिए भारतीय सैनिकों को शायद ही कभी जिम्मेदार ठहराया गया है. सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्स्पा) के जरिए भारतीय सैनिकों को मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन के लिए अभियोजन से प्रभावी अभयदान जारी है. 1990 में कश्मीर में यह कानून लागू होने के बाद से, भारत सरकार ने सैन्यकर्मियों के खिलाफ किसी भी मामले में नागरिक अदालतों में मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी है.

भारत सरकार ने कश्मीर में बार-बार इंटरनेट, मोबाइल और ब्रॉडबैंड इंटरनेट सेवाओं पर भी प्रतिबंध लगाया है. राज्य में साल 2019 में, देश में सबसे ज्यादा, अब तक 55 बार ऐसे प्रतिबंध लगाए जा चुके गए हैं.

उत्पीड़न का यह लम्बा सिलसिला है जिसे जम्मू और कश्मीर के लोग झेल रहे हैं. सत्ता में एक के बाद एक आने वाली भारतीय सरकारें इन समस्याओं का सामना करने को तैयार नहीं हैं. और यहां हम इस मुद्दे के मूल बिंदु पर आते हैं: जब तक भारत सरकार स्वीकार नहीं करती कि उसकी अपनी उत्पीड़नकारी कार्रवाइयां हालात पर गहरा असर डालती हैं और वह इसे संबोधित नहीं करती, आसार हैं कि कश्मीर में समस्याएं जारी रहेंगी.

यही वह स्थिति है जहां अमेरिकी कांग्रेस पहल कर सकती है. कश्मीर में उत्पीड़न करने वाले आतंकवादी समूहों को अपना समर्थन समाप्त करने के लिए पाकिस्तान को प्रेरित करते हुए, कांग्रेस के सदस्यों को भारत सरकार के अधिकारियों को यह बताना चाहिए कि कश्मीर में उनकी  कार्रवाइयां मानवाधिकार समस्याओं को बढ़ा रही हैं. कांग्रेस के सदस्यों को भारतीय अधिकारियों द्वारा कश्मीर में अधिकारों का हनन करने के उनके तरीकों को चुनौती देनी चाहिए. अमेरिकी अधिकारियों को इस बात पर जोर देना चाहिए कि मनमाने ढंग से हिरासत में लिए गए नेताओं और अन्य लोगों को रिहा किया जाए, संचार पर प्रतिबंध हटाए जाएं और राजनयिकों, विदेशी पत्रकारों और अधिकार कार्यकर्ताओं सहित स्वतंत्र पर्यवेक्षक कश्मीर में स्वतंत्र रूप से यात्रा कर सकें.

सम्पूर्ण भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बद्तर होती समस्याएं

अब मैं भारत में मानवाधिकार की व्यापक स्थिति पर आता हूं और संक्षेप में यह बताता हूं कि जम्मू-कश्मीर की बिगड़ती स्थिति कैसे इससे जुड़ी हुई है.

2015 में भाजपा के पहली बार सत्ता में आने के बाद से भारत सरकार असंतुष्टों की आवाज़ दबाने के लिए राजद्रोह और आपराधिक मानहानि कानूनों का इस्तेमाल करती रही है. पत्रकारों को उनकी रिपोर्टिंग या सोशल मीडिया पर आलोचनात्मक टिप्पणियों के लिए परेशान किया गया और कई बार हिरासत में लिया गया है, और उन्हें जम्मू-कश्मीर से जुड़े मामलों पर और साथ ही खुद पर सेंसर लगाने के बढ़ते दबाव का सामना करना पड़ा है.

इसी तरह, सरकार ऐसे भाजपा समर्थक स्वार्थ समूहों के खिलाफ सही तरीके से मुकदमा चलाने या उनके राजनीतिक संरक्षण को ख़त्म करने में विफल रही हैं जो उन्हें “अपमानित” करनेवाली बातों को चुप कराने के लिए धमकियां देने और हिंसक हमलों में मशगूल हैं. भाजपा से संबद्ध उग्रपंथी हिंदू समूहों द्वारा अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुस्लिमों के खिलाफ इन अफवाहों के बीच भीड़-हिंसा जारी है कि उन्होंने गोमांस के लिए गायों का व्यापार किया या उनकी हत्या की. मई 2015 से अब तक इस तरह के हमलों में 50 लोग मारे गए हैं और 250 से अधिक घायल हुए हैं. मुसलमानों को पीटा भी गया और उन्हें हिंदू नारे लगाने के लिए मजबूर किया गया है. पुलिस अपराधों की सही तरीके से जांच करने में बड़े पैमाने पर विफल रही है. उन्होंने जांच को बाधित किया है, प्रक्रियाओं की अनदेखी की है और गवाहों को परेशान करने तथा डराने के लिए आपराधिक मामले दर्ज किए हैं.

भारत इंटरनेट पर सबसे ज्यादा बार प्रतिबंध के मामले में पूरी दुनिया में सबसे आगे है. राज्य सरकारों ने या तो हिंसा और सामाजिक अशांति को रोकने या फिर कानून और व्यवस्था की जारी समस्या से निपटने के लिए व्यापक प्रतिबंधों का सहारा लिया है. नवंबर तक, भारत में सरकारों ने जम्मू और कश्मीर में प्रतिबंधों समेत 85 बार प्रतिबंध के आदेश दिए.

जुलाई में, संसद ने बायोमेट्रिक पहचान परियोजना, आधार अधिनियम में संशोधन किया जिसने निजी क्षेत्रों द्वारा बायोमेट्रिक डेटा संग्रह और उपयोग का रास्ता साफ़ कर दिया. संशोधनों ने निजता और डेटा सुरक्षा के प्रति चिंता पैदा की है. ये संशोधन सितंबर 2018 के उच्चतम न्यायालय के उस फैसले के बावजूद किए गए जिसमें सरकारी सुविधाओं का उपयोग और कर अदायगी को छोड़कर अन्य उद्देश्यों के लिए आधार का इस्तेमाल प्रतिबंधित किया गया है.

दिसंबर 2018 में, सरकार ने नई सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती संस्थानों के लिए दिशानिर्देश) नियमावली प्रस्तावित की. यह नियमावली उपयोगकर्ताओं की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजता के अधिकारों को बहुत ही खोखला करेगी. इसके तहत सभी कंपनियों को अपने प्लेटफॉर्म्स पर सूचनाओं के स्रोत का पता लगाने में सक्षम होना होगा, जिससे मैसेजिंग प्लेटफॉर्म्स द्वारा अपने उपयोगकर्ताओं की निजता और डेटा सुरक्षा हेतु उपयोग में लाया जाना वाला एन्क्रिप्शन कमजोर होगा.

फेसबुक के स्वामित्व वाली सोशल मीडिया कंपनी व्हाट्सएप ने पुष्टि की है कि भारत में उसके 121 उपयोगकर्ताओं को इसरायली कंपनी एनएसओ के स्वामित्व वाले निगरानी सॉफ्टवेयर द्वारा निशाना बनाया गया. इनमें से कम-से-कम 22 लोग मानवाधिकार कार्यकर्ता, पत्रकार, शिक्षाविद और नागरिक अधिकार वकील शामिल हैं. हालांकि सरकार ने सॉफ्टवेयर खरीदने से इनकार किया है, लेकिन इसने मामले का पूरा खुलासा करने या आरोपों की स्वतंत्र जांच की मांग पर कोई कार्रवाई नहीं की है.

इस बीच, सरकार ने मुखर अधिकार समूहों को परेशान करने और विदेशी धन प्राप्त करने की उनकी क्षमता को प्रतिबंधित करने के लिए विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) का इस्तेमाल जारी रखा है. जून में, सरकार ने लॉएर्स कलेक्टिव के खिलाफ एक आपराधिक मामला दायर किया. यह संगठन हाशिए के समूहों के अधिकारों की वकालत करता है और उन्हें कानूनी सहायता प्रदान करता है तथा एलजीबीटीक्यू लोगों के खिलाफ भेदभाव समाप्त करने के लिए अभियान चलाता है. हाल में, सरकार ने जांच में इस संगठन के सहयोग के बावजूद हिरासत में पूछताछ हेतु इसके संस्थापकों की गिरफ्तारी के लिए अदालत से अनुमति मांगी है.

2018 में आतंकवाद निरोधी कानून, गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के अंतर्गत गिरफ्तार नौ प्रमुख मानवाधिकार कार्यकर्ता आज तक जेल में हैं. इन पर एक प्रतिबंधित माओवादी संगठन के सदस्य होने और हिंसक विरोध प्रदर्शन उकसाने का निराधार आरोप है. इसी मामले में, सितंबर में अधिकारियों ने विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों और जातिगत भेदभाव के खिलाफ मुखर रहे, दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर के घर पर छापा मारा.   

अगस्त में, सरकार ने यूएपीए में संशोधन किया. यह संशोधन सरकार को किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने की शक्ति प्रदान करता है. मानवाधिकार समूहों ने इस बात पर चिंता व्यक्त की है कि कैसे यह कानून पहले से ही नियत प्रक्रिया संबधी अधिकारों का उल्लंघन करता रहा है और इसका इस्तेमाल धार्मिक अल्पसंख्यकों, सरकार के आलोचकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने के लिए किया जाता रहा है. संशोधनों को असंवैधानिक बताते हुए इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है.

विकृत होते ज्यादातर ये रुझान सत्तारूढ़ दल भाजपा की बढ़ती राष्ट्रवादी बयानबाजी और कार्रवाइयों से जुड़े प्रतीत होते हैं, और ये जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार समस्याओं की एक कड़ी को प्रतिबिंबित कर रहे हैं.

अतः ह्यूमन राइट्स वॉच की सलाह है कि जम्मू और कश्मीर के मुद्दों को उठाते समय अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों को इन दूसरी व्यापक समस्याओं को भी उठाना चाहिए. सबसे बड़ी चिंता यह है कि भारत की लोकतांत्रिक परंपराएं आज बहुत ज्यादा दबाव में हैं. दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र के नेताओं को लोकतांत्रिक परंपरा के सहयोगियों के रूप में सबसे बड़े लोकतंत्र के सदस्यों से बात करनी चाहिए ताकि वे उन आम खतरों के प्रति अपनी चिंताओं को आवाज़ दे सकें जिनका सामना दुनिया भर में अनेक लोकतंत्र कर रहे हैं. ये खतरे हैं: अल्पसंख्यकों या आलोचकों या पत्रकारों को खलनायक के रूप में पेश करने वाला उग्र राष्ट्रवाद, दूसरे देश के लोगों के प्रति घृणा प्रदर्शित करने वाली बयानबाजी और बाहरी लोगों हो हमेशा कसूरवार ठहराने की प्रवृति.

मैंने अपनी लिखित प्रस्तुति में भारत में मानवाधिकार के अन्य मुद्दों पर अतिरिक्त खंडों के साथ इन मसलों का अधिक व्यापक वर्णन शामिल किया है और यह चाहूंगा कि इसे लिखित अभिलेख में सम्मिलित किया जाए.

 

परिशिष्ट: मानवाधिकार के अन्य मुद्दे

सुरक्षा बलों को अभयदान

संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञों की सिफारिशों सहित अनगिनत स्वतंत्र सिफारिशों के बावजूद सरकार सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम रद्द करने से इंकार करती रही है. यह अधिनियम जम्मू और कश्मीर में तैनात सैनिकों सहित अन्य सभी सैनिकों को मानवाधिकार के गंभीर उल्लंघनों के अभियोजन से पूरी तरह अभयदान प्रदान करता है. यह कानून उत्तर-पूर्व भारत के कई राज्यों में भी लागू है.

उत्तर प्रदेश में पुलिस द्वारा गैर-न्यायिक हत्याएं बेख़ौफ़ जारी हैं. मार्च 2017 में उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा सरकार के आने के बाद कम-से-कम 77 लोग मारे गए हैं और 1,100 से ज्यादा घायल हुए हैं. जनवरी में, संयुक्त राष्ट्र के चार अधिकार विशेषज्ञों ने इन हत्याओं पर चिंता व्यक्त की. साथ ही, उन्होंने पीड़ितों के परिजनों तथा इन मामलों पर काम कर रहे मानवाधिकार रक्षकों को पुलिस द्वारा धमकाने और परेशान करने संबधी खबरों पर भी चिंता जताई.

यह लिखे जाने तक न्यायालय की निगरानी में स्वतंत्र जांच की मांग करने वाली याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित थी. इन हत्याओं ने पुलिस उत्पीड़न के लिए जवाबदेही के सतत अभाव और पुलिस सुधारों को लागू करने में विफलता उजागर की है.

दलित और आदिवासी समूह

शिक्षा संस्थानों और नौकरियों में, दलितों के साथ भेदभाव जारी है. दलितों के खिलाफ हिंसा भी बदस्तूर जारी है, कुछ हद तक यह सामाजिक प्रगति के लिए उनकी अधिक संगठित और मुखर मांगों के प्रतिक्रियास्वरूप हुई है. सितंबर में, हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को पूरे भारत के विश्वविद्यालयों में जाति-आधारित भेदभाव की जांच हेतु नोटिस जारी की. यह नोटिस दो छात्रों - एक दलित और एक आदिवासी, जिन्होंने भेदभाव के कारण कथित रूप से आत्महत्या कर ली थी - की मांओं की याचिका के बाद जारी की गई.

इसी बीच, फरवरी में सुप्रीम कोर्ट का उन लोगों को बेदखल करने का फैसला आया जिनके दावे वन अधिकार कानून के तहत खारिज कर दिए गए थे. इस फैसले से लगभग 20 लाख आदिवासी समुदाय के लोगों तथा वनवासियों पर जबरन विस्थापन और जीविका के छीन जाने का खतरा बना हुआ है. दावा प्रक्रिया में मौजूद खामियों पर चिंता के बीच, अदालत ने बेदखली पर अस्थायी रोक लगा दी है. जुलाई में, संयुक्त राष्ट्र के तीन मानवाधिकार विशेषज्ञों ने सरकार से आग्रह किया कि दावों की पारदर्शी और स्वतंत्र समीक्षा की जाए और सभी विकल्पों के समाप्त होने, प्रभावित लोगों की सहमति, और समाधान व मुआवजा सुनिश्चित करने के बाद ही बेदखली शुरू की जाए.

शरणार्थी और नागरिकता अधिकार

अगस्त में, असम सरकार ने राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर प्रकाशित किया. इसका उद्देश्य है   बांग्लादेश से गैर कानूनी प्रवासन के मुद्दे पर बार-बार विरोध प्रदर्शनों और हिंसा से उत्पन्न स्थिति में भारतीय नागरिकों और वैध निवासियों की पहचान करना. लगभग बीस लाख लोगों को इस नागरिकता सूची से बाहर कर दिया गया है. इनमें से अधिकांश बंगाली नृजातीय मूल के हैं, जिनमें कई मुस्लिम हैं. लिहाजा, इनकी मनमानी गिरफ्तारी और राज्यविहीनता का खतरा बढ़ गया है.

अक्टूबर 2018 में सात रोहिंग्या मुसलमानों को म्यांमार निर्वासित करने के बाद, सरकार ने 2019 में आठ लोगों को निर्वासित कर दिया - जनवरी में पांच सदस्यों के एक परिवार को और मार्च में एक पिता तथा उसके दो बच्चों को निर्वासित किया गया. अप्रैल में संयुक्त राष्ट्र के पांच मानवाधिकार विशेषज्ञों ने इसे अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन बताते हुए निर्वासन की  निंदा की. उन्होंने भारत में कुछ रोहिंग्याओं के अनिश्चित काल तक हिरासत पर भी चिंता जताई.

महिला अधिकार

सुर्ख़ियों में आने वाले बलात्कार के दो मामलों, जिनमें भाजपा के वरिष्ठ नेता फंसे हुए हैं, ने इस ओर ध्यान खींचा है कि कैसे महिलाएं, विशेष रूप से रसूखदार पुरुषों के खिलाफ शिकायत करने वाली महिलाएं, अभी भी न्याय के रास्ते में दोषारोपण, धमकियां और गवाह संरक्षण के अभाव जैसी बाधाओं का सामना करती हैं. सोशल मीडिया पर और साथ में व्यापक स्तर पर आलोचना होने के बाद आरोपी नेताओं को गिरफ्तार किया गया. रसूखदार पुरुषों के खिलाफ शिकायतें दर्ज कराने वाली महिलाएं भी उन आपराधिक मानहानि मुकदमों की चपेट में आ गई हैं जो उनके द्वारा आरोपित बनाये गए पुरुषों ने उनके खिलाफ दायर किए हैं. 

बाल अधिकार

पूरे भारत में बाल श्रम, बाल तस्करी और सामाजिक तथा आर्थिक रूप से हाशिए के समुदायों के बच्चों तक शिक्षा की अपर्याप्त पहुंच अभी भी गंभीर चिंता के विषय बने हुए हैं.

अगस्त में, भारत की संसद ने बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम 2012 में संशोधन कर 18 साल से कम उम्र के किसी भी व्यक्ति के लिंग प्रविष्टि सम्बन्धी संगीन यौन उत्पीड़न के लिए मौत की सजा का प्रावधान किया और सभी यौन अपराधों के लिए जुर्माना बढ़ा दिया. ऐसा बाल अधिकार समूहों द्वारा उठाई गई इन चिंताओं के बावजूद किया गया कि इससे पुलिस शिकायतों में कमी आ सकती है क्योंकि दर्ज होने वाले लगभग 95 प्रतिशत मामलों में अपराधी पीड़ित का परिचित, रोबदार हैसियत का या परिवार का सदस्य होता है.

सितंबर में, बाल अधिकार कार्यकर्ताओं की एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय की किशोर न्याय समिति से अगस्त माह से प्रतिबंधों के दौरान हुए बच्चों की कथित हिरासत और अन्य उत्पीड़नों पर रिपोर्ट मांगी.

यौन उन्मुखता और लैंगिक पहचान

अगस्त 2019 में, संसद के निम्न सदन ने ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक पारित कर दिया. अधिकार समूहों ने प्रस्तावित कानून की आलोचना की है कि यह ट्रांसजेंडर लोगों को पूर्ण सुरक्षा और मान्यता प्रदान करने में विफल है. यह विधेयक ट्रांसजेंडर व्यक्ति के  स्व-पहचान करने के अधिकार पर अस्पष्ट है, जिसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2014 में एक ऐतिहासिक फैसले में मान्यता दी थी. इसके प्रावधान कानूनी लिंग मान्यता के अंतरराष्ट्रीय मानकों के भी विपरीत हैं.

सितंबर 2018 में एक स्वागत योग्य घटनाक्रम में, जो राष्ट्रमंडल के अन्य देशों के समुदायों को प्रभावित करेगा, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में वयस्कों के बीच सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालते हुए औपनिवेशिक काल की भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को निरस्त कर किया.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

अक्टूबर 2019 में, बिहार पुलिस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक खुला पत्र लिखने के लिए जाने-माने अभिनेताओं, फिल्म निर्माताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों सहित 49 लोगों के खिलाफ राजद्रोह का मुक़दमा दायर किया. इस पत्र में अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ भीड़-हिंसा, घृणा अपराधों के लिए जवाबदेही के अभाव और असहमति को कुचलने पर चिंता व्यक्त की गई थी. व्यापक आलोचना के बाद, अधिकारियों ने कुछ दिनों के भीतर ही मामले को बंद कर दिया.

2019 में, उत्तर प्रदेश में पुलिस ने कई पत्रकारों को गिरफ्तार किया, उनके खिलाफ़ जांच-पड़ताल की और मुक़दमा दायर किया. सितंबर में, उन्होंने सरकारी स्कूलों में निःशुल्क भोजन की योजना में व्याप्त कुप्रबंधन को उजागर करने के लिए एक पत्रकार के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया. जून में, उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री को बदनाम करने का आरोप लगते हुए मुख्यमंत्री से प्रेम का दावा करने वाली एक महिला का वीडियो पोस्ट करने के जुर्म में तीन पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया.

विदेश नीति

पूरे साल पाकिस्तान के साथ संबंध बिगड़ते रहे. पाकिस्तान स्थित उग्रवादी समूह जैश-ए-मोहम्मद ने फरवरी में सुरक्षा बलों के काफिले पर हुए हमले की जिम्मेदारी ली, जिसके बाद भारत ने जवाबी हवाई हमले किए. अगस्त में, भारत द्वारा जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा रद्द करने के फैसले के बाद, पाकिस्तान ने भारत के साथ अपने राजनयिक संबंधों का दर्जा गिरा दिया और भारतीय उच्चायुक्त को निष्कासित कर दिया. सितंबर में जिनेवा में हुए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की बैठक में दोनों देशों के राजनयिकों के बीच कश्मीर के मुद्दे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला.

भारत ने बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और अफगानिस्तान सहित अन्य पड़ोसियों के साथ द्विपक्षीय वार्ता के दौरान सार्वजनिक रूप से अधिकारों की सुरक्षा का मुद्दा नहीं उठाया. अगस्त में, भारत के विदेश मंत्री ने बांग्लादेश की अपनी यात्रा के दौरान बांग्लादेश में विस्थापित रोहिंग्या और म्यांमार के रखाइन राज्य के विकास में और अधिक सहायता प्रदान करने की इच्छा जाहिर की. असम में नागरिकता सत्यापन परियोजना द्वारा बाहर किए गए लगभग 20 लाख लोगों के निर्वासन संबंधी चिंताओं पर उन्होंने बांग्लादेश को आश्वस्त किया कि यह भारत का आंतरिक मामला है.

जुलाई में, भारत ने एलजीबीटीक्यू अधिकारों की सुरक्षा पर एक स्वतंत्र विशेषज्ञ के लिए आदेश पत्र के नवीकरण पर अपनी पुरानी स्थिति बनाये रखी और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में मतदान से गैरहाजिर रहा. ऐसा तब किया गया जबकि 2018 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने वयस्कों के बीच सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है.

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