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भारत: ट्रांसजेंडर विधेयक से सामने आईं अधिकार संबंधी चिंताएं

सुनिश्चित करें कि कानून सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के अनुरूप हो

एक विरोध प्रदर्शन के दौरान तख्तियां लेकर ट्रांसजेंडर समुदाय के खिलाफ कथित भेदभाव और हिंसा ख़त्म करने की मांग करते लोग, बेंगलुरु, 21 अक्टूबर, 2016. © 2016 रायटर्स

(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा है कि भारत में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रस्तावित कानून देश के मानवाधिकार संबंधी दायित्वों के अनुरूप नहीं है. संसद में 19 जुलाई, 2019 को पेश ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019, ट्रांसजेंडर व्यक्ति की स्व-पहचान के अधिकार पर स्पष्ट नहीं है, जबकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2014 में एक ऐतिहासिक फैसले में इसकी मान्यता दी थी.

ट्रांसजेंडर व्यक्ति विधेयक “ट्रांसजेंडर व्यक्तियों” की व्यापक और समावेशी परिभाषा प्रस्तुत करता है और पहचान-आधारित मान्यता संबंधी अधिकारों एवं कुछ ट्रांसजेंडर व्यक्तियों द्वारा वांछित चिकित्सा प्रक्रियाओं के बीच स्पष्ट अंतर करता है. हालांकि, विधेयक के मुताबिक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को “स्व-घोषित लैंगिक पहचान का अधिकार होगा,” फिर भी इसकी भाषा से यह मतलब निकाला जा सकता है कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को कानूनी रूप से अपना लिंग बदलवाने से पहले कुछ सर्जरी से गुजरना होगा.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “ट्रांसजेंडर व्यक्ति विधेयक लंबे समय से प्रताड़ित समुदाय के लिए एक उल्लेखनीय उपलब्धि होनी चाहिए, लेकिन वर्तमान मसौदा स्व-पहचान के मौलिक अधिकार को संबोधित करने में विफल है. यह बेहद जरूरी है कि प्रस्तावित कानून ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के अनुरूप हो.”

ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत में हाल के वर्षों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा की दिशा में काफी प्रगति हुई है. 2014 में, नालसा बनाम भारत मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि ट्रांसजेंडर लोगों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए और उन्हें सभी मौलिक अधिकार हासिल होने चाहिए, साथ ही उन्हें शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में विशिष्ट सुविधाओं का हक प्रदान किया जाना चाहिए. 2018 में, एलजीबीटी व्यक्तियों की निजता और समानता को सुनिश्चित करने वाले एक ऐतिहासिक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने औपनिवेशिक युग के उस समलैंगिकता कानून को निरस्त कर दिया, जो समलैंगिक यौन संबंधों को आपराधिक करार देता था.

लेकिन ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा के लिए सरकार का प्रस्तावित कानून उन्हें पूर्ण सुरक्षा और मान्यता प्रदान नहीं करेगा, ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा.

विधेयक कानूनी रूप से लैंगिक मान्यता के लिए दो-चरणों वाली प्रक्रिया को अनिवार्य करता दिखाई देता है. सबसे पहले, ट्रांस व्यक्ति को “ट्रांसजेंडर प्रमाणपत्र” के लिए आवेदन देना होगा. यह किसी व्यक्ति की स्व-घोषित पहचान के आधार पर किया जा सकता है. इसके बाद, प्रमाणपत्र धारक व्यक्ति “लिंग प्रमाणपत्र में परिवर्तन” के लिए आवेदन कर सकता है, जो अधिकारियों को उसकी कानूनी लैंगिक पहचान को पुरुष या महिला में बदलने के लिए संकेत होगा. इस दूसरे चरण में सर्जरी की जरुरत पड़ेगी और इसके बाद चिकित्सा पदाधिकारी इसकी पुष्टि करके सम्बंधित दस्तावेज तैयार करेंगे.

विधेयक जिलाधिकारी को आवेदन की “सत्यता” जांचने और लिंग प्रमाण पत्र में परिवर्तन संबंधी निर्णय लेने का अधिकार देता है, लेकिन इस बारे में दिशानिर्देश नहीं देता कि यह निर्णय कैसे लिया जाना चाहिए. विधेयक इस बात पर भी मौन है कि पुरुष या महिला लिंग प्रमाण पत्र रखने वाले ट्रांस व्यक्ति की पहुंच ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए लक्षित सरकारी कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों तक होगी या नहीं.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन करते प्रतीत होने के अलावा, ये प्रावधान कानूनी आधार पर लैंगिक मान्यता संबंधी अंतरराष्ट्रीय मानकों के विपरीत भी हैं. अंतर्राष्ट्रीय मानकों और बेहतर दस्तूरों- जिनमें कई संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों, वर्ल्ड मेडिकल एसोसिएशन और वर्ल्ड प्रोफेशनल एसोसिएशन फॉर ट्रांसजेंडर हेल्थ के मानक और दस्तूर शामिल हैं, के अनुसार ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिंग पुनर्निर्धारण की कानूनी और चिकित्सा प्रक्रियाओं को पृथक करना आवश्यक है. इनमें कानूनी आधार पर लैंगिक मान्यता के लिए आवेदकों का मनोवैज्ञानिकों, चिकित्सकों या अन्य विशेषज्ञों के पैनल द्वारा मूल्यांकन को हटाया जाना शामिल है. स्व-घोषित पहचान सभी सामाजिक सुरक्षा उपायों, सुविधाओं और अधिकारों तक पहुंच का आधार होना चाहिए.

2015 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय ने अनुशंसा की थी कि राज्यों को चाहिए कि “अनुरोध किए जाने पर तुरंत कानूनी पहचान दस्तावेज जारी करें जो अनुरोध करने वाले की पसंद के लिंग को दर्शाते हों और इस प्रकार नसबंदी, जबरन उपचार और तलाक जैसे अपमानजनक पूर्व शर्तों को खत्म करें.” विश्व स्वास्थ्य संगठन और एशिया-पैसिफिक ट्रांसजेंडर नेटवर्क द्वारा 2015 में प्रकाशित रिपोर्ट में यह अनुशंसा की गई है कि सरकारें “बिना किसी चिकित्सा आवश्यकता या किसी भी आधार पर भेदभाव के बगैर प्रत्येक व्यक्ति की स्व-परिभाषित लैंगिक पहचान को पूर्ण रूप से मान्यता देने के लिए सभी आवश्यक विधायी, प्रशासनिक और अन्य उपायों को लागू करें.”

भारतीय विधेयक में इंटरसेक्स व्यक्तियों का उल्लेख एक महत्वपूर्ण समावेश है, लेकिन इस विधेयक का नाम बदलकर ट्रांसजेंडर और इंटरसेक्स व्यक्ति अधिकार विधेयक कर दिया जाना चाहिए और इसमें भारत के अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों के अनुरूप इंटरसेक्स लोगों के लिए सुस्पष्ट सुरक्षा शामिल की जानी चाहिए.

इंटेक्सेक्स” का तात्पर्य वैश्विक आबादी के अनुमानित 1.7 प्रतिशत ऐसी शारीरिक विलक्षणता के साथ जन्म लेने वाले हिस्से से है जो महिला या पुरुष होने की पारंपरिक उम्मीदों पर खरे नहीं उतरते. उनके गुणसूत्र, जनन-ग्रंथि या जननांग जैसी यौन विशेषताएं सामाजिक प्रत्याशा से भिन्न होती हैं. ऐतिहासिक रूप से, अनेक इंटरसेक्स व्यक्तियों को - अक्सर बचपन में - अपने शरीर को लैंगिक मानदंडों के अनुरूप ढालने के लिए अपरिवर्तनीय चिकित्सा प्रक्रियाओं से गुजरने के लिए मजबूर किया जाता है.

इस विधेयक में गैर-आपातकालीन शल्यचिकित्सा प्रक्रियाओं से पहले इंटरसेक्स व्यक्तियों की सुविचारित सहमति और बच्चों पर अनावश्यक चिकित्सकीय प्रक्रियाओं को प्रतिबंधित करने का प्रावधान किया जाना चाहिए. इंटरसेक्स व्यक्तियों को पहचान संबंधी क़ानूनी दस्तावेज जारी किए जाने चाहिए जो उनके पसंदीदा लिंग को दर्शाते हों और सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इंटरसेक्स व्यक्तियों और संगठनों से उन कानूनों और नीतियों पर सलाह ली जाए जिनका उनके अधिकारों पर प्रभाव पड़ता हो.

इसके अलावा, समावेशी शिक्षण विधियों को अपनाने में मदद करने हेतु शिक्षकों के प्रशिक्षण पर जोर देने के लिए इस विधेयक को संशोधित किया जाना चाहिए जिससे कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कर्मचारियों या अन्य बच्चों द्वारा इन बच्चों को परेशान या इनके साथ भेदभाव नहीं किया जाए.

गांगुली ने कहा, “भारत में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को गरिमा और समानता के साथ जीने का हक़ होना चाहिए और शिक्षा, रोजगार तथा स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी समान पहुंच होनी चाहिए. अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप कानून बनाने के लिए यह आवश्यक कि संसद ट्रांसजेंडर समुदाय के साथ पूरी तरह संवाद करे.”

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