इस डर भरी ख़ामोशी के माहौल में बिना कपड़ों के शहंशाह की कहानी बरबस याद आ रही है. कहानी के लेखक हेंस क्रिश्चियन एंडरसन ने कभी यह नहीं बताया कि सच्चाई बयां करने वाले उस लड़के के साथ क्या हुआ. लेकिन आज भारत में, हमें मालूम है कि उस लड़के को तुरंत चुप करा दिया जाता.
भारत में असहमति व्यक्त करने की मज़बूत संस्कृति को दबाना आसान नहीं है. लिहाजा, चाहे जम्मू-कश्मीर की विशेष संवैधानिक स्थिति रद्द करने का फ़ैसला हो या भेदभावपूर्ण नागरिकता संशोधन विधेयक लाने का फ़ैसला या फिर प्याज की बढ़ती कीमत का मामला ही क्यों न हो, लोग पत्र लिखेंगे, दरख़ास्त भेजेंगे और विरोध प्रदर्शन करेंगे.
लेकिन अगर इन दिनों आलोचना होती है, तो इसके पूरे आसार है कि ताकतवर लोग इसे खारिज करने के लिए आगबबूला हो जाएंगे या यहां तक कि शातिराना ढंग से सत्ता का दुरुपयोग कर पलटवार करेंगे.
हाल में, उद्योगपति राहुल बजाज ने भाजपा मंत्रियों के एक समूह के सामने भय और असहिष्णुता के माहौल का वर्णन करते हुए कहा, “अगर हम खुले तौर पर आपकी आलोचना करना चाहें, तो हमें विश्वास नहीं है कि आप इसे पसंद करेंगे.” ऐसा कहते हुए उन्होंने नकारात्मक प्रतिक्रिया की भी आशंका जताई.
और ऐसा ही हुआ. जहां कुछ बीजेपी नेताओं ने तुरंत इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि बजाज का ऐसा कहना ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रमाण है, अन्य नेताओं ने कहा कि वह “राष्ट्रीय हित” पर चोट कर रहे हैं.
अक्सर, भारत सरकार राष्ट्रीय हित की आड़ में किसी भी विरोध को दबाने की कोशिश करती रही है. इसलिए, कोई आश्चर्य नहीं है कि नागरिकता कानूनों में विभाजनकारी परिवर्तन करने के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्षी नेताओं पर पाकिस्तान की भाषा बोलने का आरोप लगाया. सरकार ने मीडिया को आगाह किया वह सार्वजनिक असंतोष या ऐसी किसी भी चीज़ की रिपोर्टिंग करने से बाज आए जो “राष्ट्र विरोधी नज़रिए को बढ़ावा देती हो और/या जिसमें राष्ट्र की अखंडता को प्रभावित करने वाली कोई बात निहित हो.”
जाना-पहचाना तौर-तरीका
इन चेतावनियों को हल्के में नहीं लिया जा सकता क्योंकि अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को पहले से ही उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है. अनेक एक्टिविस्टों को विरोध प्रदर्शन आयोजित करने से रोकने के लिए निरोधात्मक हिरासत में रखा गया है, जबकि सरकार की आलोचना करने वाले लोगों पर राजद्रोह, आपराधिक मानहानि या उग्रवाद के आरोप लगाए गए हैं. सरकार ने अधिकार समूहों और मीडिया कंपनियों के खिलाफ वित्तीय लेखा और जांच का इस्तेमाल किया है और यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय अभिमत को सूचित करने वाले लोगों की विदेश यात्रा पर रोक लगाने जैसे मनमाने तौर-तरीके अपनाए हैं.
विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए कश्मीर में सैकड़ों की तादाद में लोगों को मनमाने ढंग से हिरासत मे डाल दिया गया है. इसके अलावा, सरकार ने कई कश्मीरी कार्यकर्ताओं और नेताओं को देश से बाहर जाने से रोका है और ऐसे लोगों की सूची तैयार कर रखी है जिन पर बंदिश लगायी जानी है.
अगस्त में, जम्मू-कश्मीर पीपुल्स मूवमेंट के शाह फैसल को, उनके द्वारा सरकार की कार्रवाई की आलोचना करने के बाद, भारत से बाहर जाने से रोका गया और हिरासत में ले लिया गया. सितंबर में, कश्मीरी पत्रकार गौहर गिलानी को अंतरराष्ट्रीय ब्रॉडकास्टर डॉयचे वेले द्वारा आयोजित एक प्रशिक्षण कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए जर्मनी जाने से रोका गया. अक्टूबर में, कश्मीरी पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता बिलाल भट ने बताया कि उन्हें मलेशिया जाने वाले वायुयान पर सवार होने से रोक दिया गया. सरकार ने आरोप लगाया कि इनमें से कुछ “जनसमूह को प्रभावित करने वाले,” देश के खिलाफ दूसरों को “भड़काने वाले” शख्सियत हैं या कश्मीर में जारी राजनीतिक संक्रमण के दौर में “बखेड़ा पैदा” कर सकते हैं.
सरकार ने मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाले सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ सोशल कंसर्न, सबरंग ट्रस्ट, नवसर्जन ट्रस्ट, एक्ट नाऊ फॉर हार्मनी एंड डेमोक्रेसी, एनजीओ हज़ार्ड्स सेंटर, इंडियन सोशल एक्शन फ़ोरम और एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया समेत कई प्रतिष्ठित संगठनों को परेशान करने के लिए विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम का एक राजनीतिक औज़ार के रूप में इस्तेमाल किया है. हालांकि भ्रष्टाचार और तर्कसंगत राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं को दूर करने के लिए वित्तीय प्रबंधन का विनियमन और जांच-पड़ताल उचित है, मगर एफसीआरए बहुत व्यापक है और भारत में सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने के प्रयासों में अनावश्यक रूप से बाधा डालता है.
सरकार ने 2018 और 2019 में ऐसे एक्टिविस्टों और शिक्षाविदों के घरों पर कई छापे मारे, जो सरकार के मुखर आलोचक रहे हैं और मानवाधिकारों के मुद्दों पर आवाज बुलंद करते रहे हैं. जून में, केंद्रीय जांच ब्यूरो ने एफसीआरए के कथित उल्लंघन के लिए लॉयर्स कलेक्टिव के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया और बाद में मुंबई और नई दिल्ली स्थित उसके कार्यालयों पर छापा मारा. अदालतों ने हिरासत में पूछताछ के लिए संगठन के संस्थापकों को गिरफ्तार करने के आधिकारिक अनुरोध को अस्वीकार कर दिया.
एक मुख्य आतंकवाद निरोधी कानून - गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत नौ प्रमुख मानवाधिकार कार्यकर्ता साल 2018 से जेल में हैं. इन पर एक प्रतिबंधित माओवादी संगठन का सदस्य होने और हिंसक विरोध प्रदर्शन को उकसाने का आरोप है. उनके वकीलों में से एक उन 22 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में शामिल हैं, जिन्हें इजरायली निगरानी सॉफ्टवेयर द्वारा निशाना बनाया गया. इस सॉफ्टवेयर के बारे में एनएसओ ग्रुप का दावा है कि वह इसे पूरी दुनिया में केवल सरकारी एजेंसियों को बेचता है.
एक्टिविस्टों और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर राजद्रोह का आरोप लगाया जा रहा है. अक्टूबर में, बिहार पुलिस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक खुला पत्र लिखने के लिए प्रसिद्ध फिल्म हस्तियों सहित 49 लोगों के खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया. इस पत्र में अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाने वाले घृणा अपराधों और भीड़-हिंसा पर चिंता व्यक्त की गई थी. पुलिस अधिकारियों ने व्यापक सार्वजनिक आलोचना के बाद मामला बंद कर दिया. सितंबर में, दिल्ली पुलिस ने राजनीतिक कार्यकर्ता शेहला रशीद के खिलाफ ट्विटर पर सेना द्वारा कथित उल्लंघनों की आलोचना के लिए राजद्रोह का मामला दर्ज किया. स्क्रॉल.इन द्वारा जांच में पाया गया कि झारखंड में आदिवासी समुदायों के दस हज़ार से अधिक सदस्यों पर राजद्रोह और सार्वजनिक व्यवस्था में गड़बड़ी का आरोप लगाया गया है.
मीडिया पर अंकुश
मीडिया पर खुद पर सेंसर लगाने या सरकार का कदमताल करने का दबाव है. सरकार ने पत्रकारों और आलोचकों को निशाना बनाने के लिए आपराधिक मानहानि कानून का इस्तेमाल किया है. जून में, पुलिस ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से प्रेम का दावा करने वाली एक महिला का वीडियो पोस्ट करने के आरोप में तीन पत्रकारों को गिरफ्तार किया और उन पर मुख्यमंत्री की मानहानि का आरोप लगाया. नवंबर में, तेलंगाना सरकार ने केंद्र और राज्य सरकारों के खिलाफ़ आलोचनात्मक लेखन के लिए प्रसिद्ध एक पत्रकार के खिलाफ़ गैरकानूनी गतिविधियां अधिनियम के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया.
नवंबर 2018 में, मणिपुरी पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम को यूट्यूब पर प्रधानमंत्री और अन्य अधिकारियों की आलोचना करने पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत हिरासत में लिया गया. और एक ब्रिटिश पत्रकार आतिश तासीर ने लिखा कि मोदी प्रशासन की आलोचना के कारण भारतीय मूल के व्यक्ति के रूप में उनके स्थायी वीज़ा को निरस्त कर दिया गया. जबकि उनकी परवरिश एकल मां ने की थी, जो भारतीय नागरिक हैं. अगस्त में, स्वतंत्र समाचार नेटवर्क एनडीटीवी ने “मीडिया की आज़ादी के पूरे खात्मे” की शिकायत की जब आव्रजन अधिकारियों ने “फर्ज़ी और पूरी तरह से निराधार भ्रष्टाचार के मामले के आधार पर” उसके संस्थापकों को एक सप्ताह की विदेश यात्रा पर जाने से रोक दिया.
भारतीय न्यायालयों ने बार-बार यह कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में “आलोचना और असहमति का अधिकार अनिवार्य तौर पर शामिल है.” अंतर्राष्ट्रीय कानून के तहत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार मौलिक अधिकार तो है ही, यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार तथा साथ ही नागरिक और राजनीतिक अधिकार समेत अन्य अधिकारों को भी “शक्ति प्रदान करता” है. संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कहा है कि “न्यायसंगत अभिव्यक्ति पर पाबंदी के लिए आपराधिक कानून का मनमाना इस्तेमाल अधिकारों पर प्रतिबंध का सबसे कठोर रूप है, क्योंकि यह न केवल ‘ख़ौफ़नाक असर’ पैदा करता है, बल्कि अन्य मानवाधिकार उल्लंघनों की ओर भी ले जाता है.”
यह ख़ौफ़नाक असर पैदा हो रहा है क्योंकि भारत में असहमति की बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ती है - देशद्रोही करार दिए जाने; निगरानी, गिरफ्तारी या छापे के खतरों से लेकर आतंकवाद के लिए आरोपित होने तक की कीमत. बजाज की नाराज़गी के बाद, गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि “डरने की कोई जरूरत नहीं है” और हालांकि सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया है जिसकी आलोचना हो, “फिर भी अगर आप कहते हैं कि एक खास प्रकार का माहौल है, तो हमें माहौल बेहतर बनाने के प्रयास करने होंगे.”
इस दिशा में, यह पहला अच्छा कदम होगा. उस लड़के की तरह जिसने राजा को आगाह किया और इस प्रकार उसे और ज्यादा शर्मिंदगी से बचा लिया, सरकार को यह समझना चाहिए कि आलोचना उसके कार्यों में सुधार ला सकती है और सबों के लिए अधिकारों को बेहतर तरीके से सुनिश्चित करने में मदद कर सकती है.