(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने कहा है कि लॉयर्स कलेक्टिव के खिलाफ आपराधिक मामला मुखर आवाज उठाने वाले अधिकार समूहों को हैरान-परेशान करने के लिए भारत सरकार द्वारा विदेशी सहायता कानून के इस्तेमाल का ताजा उदहारण है.
18 जून, 2019 को केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने लॉयर्स कलेक्टिव के खिलाफ विदेशी सहायता (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) के कथित उल्लंघन के लिए एक आपराधिक मामला दर्ज किया. यह समूह कानूनी सहायता प्रदान करता है, हाशिए के समूहों के अधिकारों की वकालत करता है, एलजीबीटीक्यू लोगों के खिलाफ भेदभाव को समाप्त करने के लिए अभियान चलाता है और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से जुड़े कानूनों पर अमल के लिए काम करता है.
एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के प्रमुख आकर पटेल ने कहा, “यह साफ़ है कि लॉयर्स कलेक्टिव द्वारा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का बचाव करने और हाशिए के समूहों के अधिकारों की वकालत करने के कारण ही भारत सरकार उसे निशाना बना रही है. विदेशी सहायता कानून का बार-बार दुरुपयोग समूहों की कार्यक्षमता को प्रतिबंधित करता है जो कि उनके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संगठन बनाने के अधिकारों का उल्लंघन है.
सीबीआई ने लॉयर्स कलेक्टिव पर भारतीय दंड संहिता के तहत आपराधिक षड्यंत्र, आपराधिक विश्वासघात और धोखाधड़ी का आरोप लगाया है. इसके अलावा एफसीआरए एवं भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की विभिन्न धाराओं के तहत कई आरोप लगाए हैं. ये आरोप 2016 में गृह मंत्रालय की एक जांच रिपोर्ट पर आधारित हैं जिसमें संगठन और उसके सह-संस्थापकों – वरिष्ठ वकील आनंद ग्रोवर और इंदिरा जयसिंह के खिलाफ वित्तीय अनियमितताओं का आरोप लगाया गया है. इस रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि संगठन ने विदेशी सहायता कानून का उल्लंघन करने वाली गतिविधियों के लिए धन का उपयोग किया, विशेष रूप से “सांसदों की लॉबिंग की और ऐसा कर राजनीतिक प्रक्रिया और संसदीय संस्थानों को प्रभावित किया.”
ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने कहा है कि हालांकि सरकार कर-लाभ के बदले गैर-सरकारी संगठनों की कुछ राजनीतिक गतिविधियों को सीमित कर सकती है, मगर विदेशी सहायता प्राप्त करने वाले समूहों पर व्यापक प्रतिबंध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संगठन बनाने के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन करता है.
लॉयर्स कलेक्टिव के खिलाफ़ गृह मंत्रालय के आरोप असंगति से भरे हुये हैं क्योंकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने 2016 में पहले एफसीआरए में संशोधन किया और फिर 2018 में पूर्वव्यापी प्रभाव से राजनीतिक दलों को दिए गए विदेशी धन को वैध बना दिया. विदेशी सहायता कानून को मुख्य रूप से राजनीतिक दलों और नेताओं को विदेशी सहायता स्वीकार करने से रोकने के लिए लागू किया गया था ताकि भारतीय चुनावों को प्रभावित करने से विदेशी हितों को रोका जा सके. लेकिन 2014 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने पाया कि भाजपा और कांग्रेस ने विदेशी सहायता कानून का उल्लंघन करके विदेशी सहायता प्राप्त की. इसके बाद, राजनीतिक दलों के खिलाफ किसी भी पूर्व प्रभाव से की जाने वाली कार्रवाई को रोकने के लिए कानून में संशोधन किया गया.
सरकार ने पहले लॉयर्स कलेक्टिव के एफसीआरए लाइसेंस को मई 2016 में निलंबित कर दिया और बाद में नवंबर 2016 में इसे रद्द कर दिया. साथ ही, इसके बैंक खातों से लेन-देन पर भी रोक लगा दी गई. लॉयर्स कलेक्टिव ने लाइसेंस रद्द करने और इसका नवीनीकरण न करने के मामले को मुंबई उच्च न्यायालय में चुनौती दी. मामला फिलहाल लंबित है, इस बीच जनवरी 2017 में, अदालत ने सरकार को इसके घरेलू बैंक खातों पर से रोक हटाने का आदेश दिया.
ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने कहा कि ऐसा लगता है कि लॉयर्स कलेक्टिव के खिलाफ अभियोग सरकार के खिलाफ मामलों में लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले समूह को चुप कराने की कोशिश है. लॉयर्स कलेक्टिव ने उन कार्यकर्ताओं का प्रतिनिधित्व किया है जो राजनीतिक रूप से प्रेरित कई तरह के आरोपों का सामना कर रहे हैं, इन कार्यकर्ताओं में ऐसे लोग शामिल हैं जिन्होंने 2002 में गुजरात में मुसलमानों को निशाना बना कर किए गए हमलों के लिए मुकदमा चलाने की मांग की या फिर जिन्होंने आदिवासी समूहों और दलितों के अधिकारों की हिमायत की है.
सिविल सोसाइटी समूहोंv, एक्टिविस्टों और डॉक्टर व मरीज़ों के अधिकारों के पैरोकारों ने लॉयर्स कलेक्टिव के खिलाफ सरकार की कार्रवाई की निंदा की है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी समूह के खिलाफ सीबीआई से उसकी जांच पर स्टेटस रिपोर्ट तलब की है.
2014 से, कई संगठनों - ग्रीनपीस इंडिया, सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ सोशल कंसर्न, सबरंग ट्रस्ट, नवसर्जन ट्रस्ट, एक्ट नाउ फॉर हार्मनी एंड डेमोक्रेसी, एनजीओ हैज़र्ड सेंटर और इंडियन सोशल एक्शन फोरम को विदेशी सहायता कानून के तहत निशाना बनाया गया.
सरकार ने एक प्रमुख भारतीय मानवाधिकार संगठन- सेंटर फॉर प्रमोशन ऑफ सोशल कंसर्न जो अपनी कार्यक्रम इकाई - पीपुल्स वॉच के लिए ज्यादा लोकप्रिय है, के खिलाफ विदेशी सहायता कानून का इस्तेमाल किया. यह कार्रवाई बदले के लिए कानून के इस्तेमाल को उजागर करती है. जब समूह ने 2016 में दिल्ली हाई कोर्ट में अपने एफसीआरए का नवीनीकरण नहीं करने के सरकार के फैसले को चुनौती दी, तो गृह मंत्रालय ने अदालत को बताया कि समूह ने संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत और विदेशी दूतावासों के साथ सूचना साझा करने के लिए विदेशी सहायता का इस्तेमाल किया, “भारत की छवि खराब करने के लिए...भारत में मानवाधिकार की स्थिति का नकारात्मक चित्रण किया.”
सरकार ने इसे “राष्ट्रीय हितों के लिए हानिकारक अवांछनीय गतिविधियों” के रूप में दर्शाया, ऐसा करते हुए उसने अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों को बढ़ावा देने के लिए समूह को निशाना बनाने का पूरा प्रयास किया.
ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार नागरिक समाज समूहों के अभिव्यक्ति और संगठन बनाने की स्वतंत्रता के अधिकार को बुलंद करने के अदालती फैसलों की अवहेलना कर रही है. अदालतों ने सरकार को बार-बार याद दिलाया है कि लोकतंत्र में शांतिपूर्ण विरोध का अधिकार है और इस पर बंदिश नहीं लगायी जा सकती.
सरकार गैर-सरकारी समूहों के खिलाफ विदेशी सहायता कानून के कथित दुरुपयोग पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सवालों का ठोस जवाब देने में भी विफल रही है. साथ ही, यह स्पष्ट नहीं कर पाई कि ये प्रतिबंध अंतरराष्ट्रीय कानून और मानकों का उल्लंघन नहीं करते हैं. मिसाल के तौर पर, आयोग ने नवंबर 2016 में, सेंटर फ़ॉर प्रमोशन ऑफ सोशल कंसर्न के एफसीआरए लाइसेंस का नवीनीकरण न करने के सरकार के फैसले पर सवाल उठाया. सरकार ने दिसंबर 2016 में जवाब दिया, लेकिन आयोग ने कहा कि उसका जवाब “बिल्कुल अस्पष्ट है.” आयोग द्वारा बार-बार पूछे जाने के बावजूद, सरकार ने कोई नया जवाब नहीं दिया.
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी भारत के विदेशी सहायता कानून के अस्पष्ट प्रावधानों और इसके दुरुपयोग की निंदा हुई है. अप्रैल 2016 में, शांतिपूर्वक एकत्र होने और संगठन बनाने की स्वतंत्रता पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत ने यह दावा करते हुए एक कानूनी विश्लेषण प्रकाशित किया कि एफसीआरए अंतर्राष्ट्रीय कानून, सिद्धांत और मानकों के अनुरूप नहीं है. जून 2016 में, मानवाधिकार रक्षकों की स्थिति, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्वक एकत्र होने और संगठन बनाने की स्वतंत्रता पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूतों ने भारत सरकार से एफसीआरए को निरस्त करने की मांग की. उस समय उन्होंने कहा था कि “नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय या सांस्कृतिक प्राथमिकताओं की वकालत करने वाले वैसे संगठनों को चुप करने ले लिए इसका अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जा रहा है जो संभवतः सरकार से भिन्न राय रखते हैं.”
हालांकि, भ्रष्टाचार और वास्तविक राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं को दूर करने के लिए गैर-लाभकारी संगठनों और गैर सरकारी संगठनों के वित्तीय मामलों का विनियमन और जांच उचित है, मगर एफसीआरए बहुत व्यापक है और यह भारत में सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाले संगठनों की गतिविधियों में अनावश्यक रूप से बाधा डालता है. एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया और ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत सरकार को इस कानून को निरस्त करना चाहिए या इसमें संशोधन करना चाहिए, ताकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संगठन बनाने के अधिकारों में हस्तक्षेप न करे, और गैर-सरकारी संगठनों की शांतिपूर्ण गतिविधियों को राजनीतिक कारणों से प्रतिबंधित करने के लिए इसका दुरुपयोग नहीं किया जा सके.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “भारत सरकार समावेशी विकास और बुनियादी अधिकारों के लिए प्रतिबद्धता की बात करती है, फिर भी ऐसे वकीलों और कार्यकर्ताओं को निशाना बना रही है जो सबसे कमजोर लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम करते हैं. लोकतांत्रिक सरकारों को आलोचना का डर नहीं होना चाहिए, और उन्हें नागरिक स्वतंत्रता को बुलंद करने वाले कार्यकर्ताओं को उनकी विचारधारा या प्रतिबद्धता के लिए निशाना नहीं बनाना चाहिए.”