(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भेदभावपूर्ण नागरिकता नीतियों के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा, जिसमें 53 लोग मारे गए थे, के दो साल बाद भारतीय सरकारी तंत्र भारत के आतंकवाद निरोधी कानून के तहत कार्यकर्ताओं और विरोध-प्रदर्शनों के आयोजकों पर गलत तरीके से मुकदमा चला रहा है.
सरकार को राजनीति से प्रेरित आरोपों को तुरंत वापस लेना चाहिए और हिरासत में लिए गए 18 कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों को रिहा करना चाहिए. उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार लोगों, साथ ही सांप्रदायिक हिंसा भड़काने वाले सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली सरकार के समर्थकों, और निष्पक्ष रूप से कानून लागू नहीं करने वाले पुलिस अधिकारियों पर सही तौर से मुकदमा चलाया जाना चाहिए.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “भारतीय सरकारी तंत्र भाजपा नेताओं द्वारा हिंसा भड़काने और हमलों में पुलिस अधिकारियों की मिलीभगत के आरोपों की निष्पक्ष जांच के बजाय उत्पीड़न और गिरफ्तारी के जरिए कार्यकर्ताओं को निशाना बना रहा है. सरकारी तंत्र को चाहिए कि हिंसा के लिए जिम्मेदार लोगों पर मुकदमा चलाए और इन जांचों के जरिए सरकार के आलोचकों को चुप करना बंद करे.”
दिसंबर 2019 में सरकार द्वारा भेदभावपूर्ण नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को अपनाए जाने के कारण पूरे भारत में कई हफ्तों तक शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन हुए. यह नागरिकता कानून पड़ोसी मुस्लिम-बहुल देशों अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के गैर-मुस्लिम अनियमित आप्रवासियों के शरण संबंधी दावों का तेजी से निपटारा करता है. “अवैध प्रवासियों” की पहचान के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के माध्यम से राष्ट्रव्यापी नागरिकता सत्यापन प्रक्रिया के लिए सरकार की कोशिशों के साथ इस कानून ने यह आशंका बढ़ा दी है कि लाखों भारतीय मुसलमानों के नागरिक अधिकार छीन लिए जा सकते हैं और उन्हें मताधिकार से वंचित किया जा सकता है.
भाजपा के कई शीर्ष नेताओं ने प्रदर्शनकारियों का खतरनाक तरीके से मजाक उड़ाया और कुछ ने खुले तौर पर उनके खिलाफ हिंसा की बात कही. 23 फरवरी, 2020 को एक स्थानीय भाजपा नेता कपिल मिश्रा द्वारा प्रदर्शनकारियों, जिनमें से बहुत सारे मुस्लिम थे, को बलपूर्वक हटाने की मांग करने के बाद, भाजपा समर्थक उस क्षेत्र में एकत्र हुए, जिससे समूहों के बीच झड़पें हुईं.
तलवार, लाठी और गैसोलीन से भरी बोतलों से लैस हिंदू भीड़ ने उत्तर-पूर्व दिल्ली के कई मुहल्लों में मुसलमानों को निशाना बनाते हुए उनके घर, दुकान, मस्जिद और संपत्तियों में आग लगा दी. हिंसा में मारे गए 53 लोगों में से 40 मुस्लिम थे; मृतक हिंदुओं में एक पुलिसकर्मी और सरकारी अधिकारी शामिल थे.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि दंगों की पुलिस जांच में पक्षपात, देरी, चूक, मुकम्मल सबूतों की कमी और उचित प्रक्रियाओं का पालन करने में विफलता के संकेत मिलते हैं.
दिल्ली पुलिस ने दंगों में 758 प्रथम सूचना रिपोर्ट - आपराधिक जांच शुरू करने के लिए जरूरी पुलिस पंजीकरण - दर्ज की है. लेकिन दो साल बाद, दिल्ली उच्च न्यायालय में पुलिस द्वारा दायर एक रिपोर्ट के अनुसार, आधे से अधिक मामलों में जांच लंबित है. केवल 92 मामले में सुनवाई शुरू हुई है. कई मामलों में, न्यायाधीशों ने जांच में देरी, अदालत के आदेशों का पालन करने या अदालत में पेश होने में विफल रहने के लिए दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई है.
कई मामलों में, न्यायाधीशों ने कहा है कि दंगों में पुलिस की जांच “बेकार,” “संवेदनहीन,” या “हास्यास्पद” है. सितंबर 2021 में, दिल्ली की एक अदालत ने जांच अधिकारियों द्वारा मुकम्मल जांच करने में विफल रहने का हवाला देते हुए, एक हिंदू व्यक्ति की दुकान को लूटने और तोड़फोड़ करने के आरोपी तीन मुसलमानों को बरी कर दिया. न्यायाधीश विनोद यादव ने जांच को संवेदनहीन और अकर्मण्य बताते हुए कहा कि अदालत के समक्ष लाए गए दिल्ली दंगों के कई अन्य मामलों में भी यही स्थिति है. उन्होंने कहा, “इस अदालत का बहुत सारा समय मौजूदा मामले जैसे मुकदमों में बर्बाद हो रहा है, जिनमें पुलिस बमुश्किल कोई जांच करती है.” एक महीने बाद, दिल्ली दंगों की जांच में पुलिस के तौर-तरीकों पर कई आलोचनात्मक टिप्पणियां करने वाले न्यायाधीश यादव का बिना कोई कारण बताए स्थानांतरण कर दिया गया.
स्वतंत्र एजेंसी दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की एक जांच में पाया गया कि हिंसा “सुनियोजित और लक्षित” थी और मुसलमानों पर हमलों में कुछ पुलिसकर्मियों ने सक्रिय रूप से भाग लिया. एक वीडियो, जो दंगों के दौरान पुलिस के मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह का प्रतीक बना, में यह देखा गया कि कई पुलिसकर्मी सड़क पर गंभीर रूप से घायल पड़े पांच लोगों को “अपनी देशभक्ति साबित” करने हेतु भारत का राष्ट्रगान गाने के लिए मजबूर कर रहे हैं. पुलिस ने फिर उन्हें हिरासत में ले लिया. घायल लोगों में एक 23 वर्षीय मुस्लिम नौजवान फैजान की चोटों की वजह से दो दिन बाद मौत हो गई. दो साल बाद, जांच अभी भी लंबित है, और हिरासत में हिंसा के लिए जिम्मेदार पुलिसकर्मियों पर न तो मुकदमा चलाया गया है और न ही उन्हें दंडित ही किया गया है. सरकार ने हिंसा में पुलिस मिलीभगत के अन्य आरोपों की जांच अभी तक शुरू नहीं की है.
इसके विपरीत, दिल्ली पुलिस ने 18 कार्यकर्ताओं, छात्रों, विपक्ष के नेताओं और स्थानीय निवासियों के खिलाफ राजनीतिक से प्रेरित मामले दर्ज किए हैं. इन 18 लोगों में 16 मुस्लिम हैं. पुलिस केस व्यापक रूप से संदिग्ध लग रहे एक जैसे उदभेदन (डिस्क्लोजर) बयानों और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों के आयोजन और घोषणा से जुड़े व्हाट्सएप चैट और सोशल मीडिया संदेशों पर आधारित हैं. पुलिस ने इसे नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के आयोजकों द्वारा भारत सरकार को बदनाम करने की एक बड़ी साजिश में संलिप्तता के सबूत के तौर पर पेश किया है.
सरकारी तंत्र ने कठोर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत मामले दर्ज किए हैं जो अवैध गतिविधि, आतंकवादियों के लिए धन मुहैया कराने और आतंकवाद की योजना बनाने एवं इसे अंजाम देने से संबंधित है. उन्होंने अन्य कथित अपराधों के साथ विरोध प्रदर्शन के आयोजकों और कार्यकर्ताओं पर राजद्रोह, हत्या, हत्या के प्रयास, धार्मिक वैमनस्य बढ़ाने और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप भी लगाए हैं. जिन लोगों पर आरोप लगाए गए, वे सभी भाजपा सरकार और नागरिकता कानून के आलोचक रहे हैं. इनमें शामिल हैं: छात्राओं का एक स्वायत्त समूह, पिंजरा तोड़; धार्मिक अल्पसंख्यकों के संरक्षण के लिए काम करने वाला समूह, यूनाइटेड अगेंस्ट हेट; और जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में छात्र के प्रदर्शनों का नेतृत्व करने वाली जामिया कोआर्डिनेशन कमिटी.
जून 2021 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कार्यकर्ताओं - नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत देते हुए कहा कि पुलिस आरोपियों के आतंकवाद से जुड़े अपराध का कोई सबूत पेश नहीं कर पाई है. अदालत ने आगे कहा, “असंतोष को दबाने की अपनी व्यग्रता और मामलों के हाथ से निकल जाने से भयाक्रांत होकर राज्य ने संवैधानिक रूप से गारंटीशुदा ‘विरोध करने के अधिकार’ और ‘आतंकवादी गतिविधि’ के बीच की रेखा को धुंधला कर दिया है. यदि यह धुंधलापन और गहरा होता है, तो लोकतंत्र खतरे में होगा.”
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बेशलेट ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ भारत सरकार द्वारा गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के दुरुपयोग पर चिंता जताई है. संयुक्त राष्ट्र के कई मानवाधिकार विशेषज्ञों ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध के लिए गिरफ्तार कार्यकर्ताओं की तत्काल रिहाई की मांग की है.
गांगुली ने कहा, “दिल्ली पुलिस द्वारा 2020 हिंसा की जांच भारत में पुलिस में विश्वास की कमी और सांप्रदायिक पूर्वाग्रह एवं अन्य समस्याओं से निपटने के लिए पुलिस सुधारों की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है. सांप्रदायिक हिंसा के लिए जिम्मेदार लोगों को कानून की पकड़ में लाने में विफलता केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ उत्पीड़न को बढ़ावा देगी.”