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भारत: सेना द्वारा नागालैंड में 14 नागरिकों की हत्या

सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम निरस्त करे; जिम्मेदार सैनिकों पर मुकदमा चलाए

नागालैंड में भारतीय सैनिकों द्वारा नागरिकों की हत्या के बाद, राज्य में हॉर्नबिल फेस्टिवल के दौरान प्रदर्शित सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम को रद्द करने की मांग करने वाली तख्तियां, 5 दिसंबर, 2021. ©2021 कैसी माओ/नूरफोटो वाया एपी

(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि नागालैंड में भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा 14 नागरिकों की हत्या इस मांग को उजागर करती है कि भारत सरकार दमनकारी सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को तत्काल निरस्त करे. यह कानून आंतरिक संघर्ष के क्षेत्रों में तैनात सशस्त्र बलों को घातक बल के इस्तेमाल का व्यापक अधिकार देता है और सैनिकों को अभियोजन से प्रभावी प्रतिरक्षा प्रदान करता है.

4 दिसंबर, 2021 को नागालैंड के मोन जिला में 21 पैरा स्पेशल फोर्सेज आर्मी यूनिट के सैनिकों ने छह कोयला खान मजदूरों की गोली मारकर हत्या कर दी. यह बताया गया कि सैनिकों ने गलती से खान मजदूरों को उग्रवादी समझ लिया. इन मौतों के चलते स्थानीय ग्रामीणों और सैनिकों के बीच हिंसक झड़पें हुईं, जिसमें और सात नागरिक एवं एक सैनिक की मौत हो गई. एक दिन बाद, प्रदर्शनकारियों द्वारा असम राइफल्स के शिविर पर हमला करने के दौरान इस सैन्य टुकड़ी ने एक अन्य व्यक्ति को मार डाला. स्थानीय पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर में कहा गया है कि सेना ने पुलिस थाना से अपने उग्रवाद विरोधी अभियान के लिए पुलिस गाइड उपलब्ध कराने की मांग नहीं की थी और इस प्रकार, “यह स्पष्ट है कि सुरक्षा बलों का इरादा नागरिकों की हत्या और उन्हें घायल करना था.”

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “सेना द्वारा 14 लोगों की नृशंस हत्या की जांच का भारत के गृह मंत्री और सेना का वादा तब तक बेमानी है जब तक कि जिम्मेदार लोगों पर मुकदमा नहीं चलाया जाता. सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम जब तक सैनिकों को जवाबदेही से बचाता रहेगा, इस तरह के अत्याचार जारी रहेंगे.”

भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने इस घटना पर खेद व्यक्त किया और कहा कि एक विशेष जांच दल इसकी तहक़ीक़ात करेगा. हालांकि, उन्होंने संसद में यह स्पष्ट नहीं किया कि क्या केंद्र सरकार जिम्मेदार पाए जाने वालों पर मुकदमा चलाने की इजाज़त देगी. सेना ने भी घटना पर खेद जताया है और जांच के लिए कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का गठन किया है.

इन हत्याओं ने सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्स्पा) को समाप्त करने की मांग को  नए सिरे से सामने रखा है. नागालैंड और पड़ोसी राज्य मेघालय के मुख्यमंत्रियों ने, दोनों भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के सहयोगी हैं, इस कानून को निरस्त करने की मांग की है. साथ ही, विपक्ष के नेताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और इस कानून से  प्रभावित निवासियों ने भी यह मांग उठाई है.

नागा हिल्स में सशस्त्र अलगाववादी आंदोलन का मुकाबला करने हेतु सेना की तैनाती की अनुमति देने के लिए साल 1958 में अफ्स्पा कानून एक अल्पकालिक उपाय के तौर पर बनाया गया था, जिसका अभी भी पिछले छह दशकों से अधिक समय से इस्तेमाल किया जा रहा है. नागालैंड के अलावा, वर्तमान में इसका इस्तेमाल भारत के पूर्वोत्तर राज्यों — मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों एवं केंद्र शासित प्रदेश — जम्मू और कश्मीर में किया जा रहा है.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि अफ्स्पा “असैन्य शासन की सहायता” के नाम पर सशस्त्र बलों को गोली मार कर हत्या करने, तथ्यहीन बहानों के आधार पर गिरफ्तार करने, बगैर वारंट के  तलाशी लेने और संरचनाओं को ध्वस्त करने के व्यापक अधिकार देता है. एक बार इस कानून के तहत किसी क्षेत्र को केंद्र या राज्य सरकार द्वारा “अशांत” घोषित कर दिए जाने के बाद उस क्षेत्र में सशस्त्र बलों को इस कानून के तहत व्यापक अधिकार प्राप्त हो जाते हैं. यह घोषणा न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं होती है.

इन विशेष शक्तियों से लैस सैनिकों ने जवाबदेह ठहराए जाने से बेख़ौफ़ होकर बलात्कार किए हैं,  यातनाएं दी हैं, लोगों को जबरन गायब किया है और हत्याएं की है. यह कानून मानवाधिकारों की सुरक्षा संबंधी अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करता है, जिसमें जीवन का अधिकार, मनमानी गिरफ्तारी और हिरासत से सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार, एवं यातना और क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार से मुक्त होने का अधिकार शामिल है. यह पीड़ितों और उनके परिवारों को निवारण के अधिकार से भी वंचित करता है.

हालांकि भारतीय कानून सैन्य या असैन्य न्याय प्रणाली के तहत अपराधों के आरोपी सशस्त्र बल कर्मियों पर मुकदमा चलाने की अनुमति देता है, लेकिन अफ्स्पा के तहत सैन्य कर्मियों के असैन्य अभियोजन के लिए केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति आवश्यक होती है. सैन्य अधिनियम के तहत, सेना एक सैनिक को उन अपराधों के लिए असैन्य से सैन्य हिरासत में स्थानांतरित कर सकती है जिन पर कोर्ट मार्शल द्वारा सुनवाई हो सकती है.

उपलब्ध जानकारी के मुताबिक ऐसे साक्ष्य बहुत कम हैं कि सेना अधिकारों के हनन के लिए पूरे तौर पर और प्रभावी ढंग से सैनिकों और अधिकारियों पर मुकदमा चला रही है. बहरहाल, केंद्र सरकार सैन्य कर्मियों के असैन्य अभियोजन की अनुमति देने से आए दिन इनकार करती रहती है. 2018 में, रक्षा मंत्रालय ने संसद को सूचित किया कि उसने सैनिकों के असैन्य अभियोजन संबंधी जम्मू और कश्मीर सरकार के साल 2001 के बाद भेजे गए सभी 50 अनुरोधों को अस्वीकार कर दिया.

भारत में सरकार द्वारा गठित कई आयोगों ने इस कानून को निरस्त करने की सिफारिश की है. लेकिन सेना के विरोध के कारण, सरकार अनुशंसाओं को लागू करने में विफल रही है. कई संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार निकायों ने भी कानून को निरस्त करने की मांग की है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय ने जम्मू और कश्मीर पर अपनी 2019 की एक रिपोर्ट में कहा है कि अफ्स्पा “जवाबदेही तय करने की राह में एक प्रमुख बाधा बना हुआ है.”

गैर-न्यायिक हत्याओं के बहुचर्चित मामलों में भी, अफ्स्पा ने सुरक्षा बल कर्मियों को असैन्य अदालतों में अभियोजन से सुरक्षा प्रदान की है, जबकि सैन्य अदालतों ने अंततः उन्हें हर तरह के कुकृत्य से बरी कर दिया है. सफल अभियोजन के एक बिरले मामले में, नवंबर 2014 में सेना ने बताया कि एक सैन्य अदालत ने 2010 में मछिल में फर्जी सशस्त्र मुठभेड़ और तीन निर्दोष ग्रामीणों की हत्या के लिए दो अधिकारियों सहित पांच सैनिकों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है. लेकिन जुलाई 2017 में एक फौजी ट्रिब्यूनल ने सजा निलंबित कर इन सभी पांच को बरी कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट ने 2016 के एक ऐतिहासिक फैसले में जवाबदेही की कमी पर प्रकाश डालते हुआ कहा है कि वर्दीधारियों द्वारा अत्यधिक या बदले में बल के इस्तेमाल से हुई मौत के किसी भी आरोप की गहन जांच जरुरी है. अदालत ने कहा है कि “यहां तक कि अफ्स्पा के तहत अशांत घोषित क्षेत्र में और उग्रवादियों, विद्रोहियों और आतंकवादियों के खिलाफ” ऐसा बल प्रयोग स्वीकार्य नहीं हैं. एक साल बाद, शीर्ष अदालत ने मणिपुर में 1979 से 2012 तक सरकारी सुरक्षा बलों द्वारा की गई कथित गैरकानूनी हत्याओं की जांच का आदेश दिया. अदालत ने यह आदेश मणिपुर के पीड़ित परिवारों और गैर सरकारी समूहों द्वारा दायर एक याचिका पर दिया जिसमें 1,528 हत्याओं की जांच की मांग की गई थी.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद, केंद्र सरकार ने अफ्स्पा का हवाला देते हुए गैर-न्यायिक हत्याओं के सभी मामलों में सशस्त्र बल कर्मियों पर मुकदमा चलाने की अनुमति से इनकार कर दिया जिनकी जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो की एक विशेष जांच दल कर रही है. साल 2004 के एक मामले में, फ़िरोइज़म सनाजीत की हत्या से जुड़े मामले में, केंद्रीय जांच ब्यूरो ने भारतीय सेना के 19 राजपूत (बीकानेर) के चार कर्मियों के खिलाफ हत्या, गलत तरीके से कैद में रखने और सबूतों को गायब करने का आरोप लगाया. हालांकि, भारत के रक्षा मंत्रालय ने अफस्पा का हवाला देते हुए उन पर मुकदमा चलाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया और कहा कि सनाजीत “कानून द्वारा प्रदत्त शक्तियों के वैध इस्तेमाल द्वारा आधिकारिक कर्तव्यपालन के दौरान एम्बुश (घात) में मारा गया था.”

इस मामले में फरवरी 2021 के अपने आदेश में, मणिपुर के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने राज्य उच्च न्यायालय से स्पष्टीकरण मांगा है. इसमें कहा गया है कि “ऐसे अधिकांश मामलों में, जिनमें सेना/अर्धसैनिक बल के जवान फर्जी मुठभेड़ के मामलों में संलिप्त हैं, सक्षम प्राधिकारी द्वारा अभियोजन की स्वीकृति से इनकार करना आम चलन हो गया है.”

मणिपुर में सुरक्षा बलों द्वारा कथित गैर-न्यायिक हत्याओं की जांच का आदेश देने वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ का सदस्य रहे पूर्व न्यायधीश मदन लोकुर ने नागालैंड में 4 दिसंबर की हत्याओं के बाद कहा कि हालांकि अफ्स्पा सशस्त्र बलों को व्यापक अधिकार देता है, लेकिन इसका “मतलब यह नहीं है कि वे किसी की भी हत्या कर सकते हैं.”

गांगुली ने कहा, “लंबे समय से अफ्सपा ने सशस्त्र बलों को गंभीर मानवाधिकार हनन की जिम्मेदारी से बचाया है और पीड़ित परिवारों को न्याय से वंचित रखा है. सरकार को चाहिए कि नागालैंड में हत्याओं की एक स्वतंत्र असैन्य जांच सुनिश्चित करे तथा अनेक और लोगों के जीवन की रक्षा की खातिर अफस्पा को तत्काल निरस्त करे.”

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