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भारत: संयुक्त राष्ट्र ने अधिकार समीक्षा में गंभीर चिंता प्रकट की

सदस्य देशों ने अल्पसंख्यक अधिकारों, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सभा के अधिकारों की सुरक्षा की मांग की

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के 50वें सत्र के उद्घाटन में भाग लेते प्रतिनिधि, जेनेवा, 13 जून, 2022. © 2022 कीस्टोन/वैलेन्टिन फ्लौराउड

(न्यूयॉर्क) - छह अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार समूहों ने आज कहा कि भारत सरकार को चाहिए कि 10 नवंबर, 2022 को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की व्यापक आवधिक समीक्षा प्रक्रिया के दौरान सदस्य देशों द्वारा की गई सिफारिशों को तुरंत स्वीकार करे और उन पर कार्रवाई करे. इन सिफारिशों में अल्पसंख्यक समुदायों और कमजोर समूहों की सुरक्षा, लिंग आधारित हिंसा से निपटने, नागरिक समाज की स्वतंत्रता बरक़रार रखने, मानवाधिकार रक्षकों को सुरक्षा प्रदान करने और हिरासत में यातना ख़त्म करने समेत अनेकानेक प्रमुख चिंताएं शामिल हैं.

ये समूह हैं: इंटरनेशनल फेडरेशन फॉर ह्यूमन राइट्स (एफआईडीएच), वर्ल्ड ऑर्गनाइजेशन अगेंस्ट टॉर्चर (ओएमसीटी), सीएसडब्ल्यू, इंटरनेशनल दलित सॉलिडेरिटी नेटवर्क, एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच.

संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देश व्यापक आवधिक समीक्षा (यूपीआर) प्रक्रिया में भाग लेते हैं, जिसमें हरेक देश के मानवाधिकार संबंधी रेकॉर्ड की जांच की जाती है और उनके यहां मानवाधिकारों की स्थिति में सुधार के लिए उठाए जाने वाले कदम प्रस्तावित किए जाते हैं. इस समीक्षा से पहले संयुक्त राष्ट्र को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में भारत सरकार ने दावा किया कि “वह मानवाधिकारों के बढ़ावा और संरक्षण के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ है.” हालांकि, पिछले कई यूपीआर के दौरान, भारत ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा रोकने, अपने सुरक्षा बलों की जवाबदेही सुनिश्चित करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा शांतिपूर्ण सभा करने के अधिकार की रक्षा करने समेत महत्वपूर्ण सिफारिशें नजरअंदाज की है.

इस आवधिक समीक्षा के दौरान, जो कि भारत के लिए चौथी है, 130 सदस्य देशों ने 339 सिफारिशें कीं, जो देश के मानवाधिकारों के मामले में कुछ सबसे ज्वलंत चिंताओं को उजागर  करती हैं.

2017 में अपनी पिछली समीक्षा के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार के तहत भारत में मानवाधिकारों की स्थिति में गंभीर ह्रास हुआ है. सरकार ने स्वतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थानों के बरखिलाफ अपनी कार्रवाई तेज कर दी है और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, छात्रों, सरकार के आलोचकों और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर मुकदमा चलाने एवं उन्हें हैरान-परेशान करने के लिए कठोर आतंकवाद-निरोधी और राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों का इस्तेमाल कर रही है. धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमले, भेदभाव और उकसावे की घटनाएं बढ़ रही हैं. परंपरागत रूप से हाशिए पर पड़े दलित और आदिवासी समुदायों को न्याय और समान सुरक्षा से वंचित रखा जा रहा है.

कम-से-कम 21 देशों ने भारत से धार्मिक स्वतंत्रता और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा में सुधार का आग्रह किया. इनमें से कई देशों ने बढ़ती हिंसा तथा नफरती भाषणों और सरकार द्वारा “धर्मांतरण विरोधी” कानूनों जैसी भेदभावपूर्ण नीतियों को अपनाने पर चिंता जताई.

मानवाधिकार समूहों ने कहा, मोदी की अगुआई में भाजपा ने 2014 में सत्ता में आने के बाद ऐसे अनेक कानून बनाए हैं और कार्रवाइयां की हैं, जिन्होंने धार्मिक अल्पसंख्यकों, खास तौर से मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव को वैधता प्रदान की है और हिंसक हिंदू बहुसंख्यकवाद को  मजबूत किया है.

सरकार ने दिसंबर 2019 में एक नागरिकता कानून पारित किया जो पहली बार धर्म को नागरिकता का आधार बनाते हुए मुसलमानों के साथ भेदभाव करता है. अगस्त 2019 में, सरकार ने एकमात्र मुस्लिम-बहुल राज्य जम्मू और कश्मीर को प्रदत्त संवैधानिक स्वायत्तता रद्द कर दी और इस क्षेत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सभा करने और अन्य बुनियादी अधिकारों पर अंकुश लगाना जारी रखा है. अक्टूबर 2018 से अब तक, भारत सरकार ने कम-से-कम 13 रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों को उनके जीवन और सुरक्षा पर जोखिमों के बावजूद म्यांमार वापस भेज दिया है.

भारत में कई राज्यों ने मुस्लिम मवेशी व्यापारियों पर मुकदमा चलाने के लिए गोहत्या निरोधक कानूनों का इस्तेमाल किया है, जबकि बीजेपी से जुड़े समूहों ने गोमांस के लिए गायों को मार डालने या उनका व्यापार करने की अफवाहों पर मुसलमानों और दलितों पर हमले किए हैं. कम-से-कम 10 भारतीय राज्यों ने जबरन धर्म परिवर्तन पर रोक लगा दी है, लेकिन वे ईसाइयों को निशाना बनाने के लिए इन कानूनों का दुरुपयोग करते हैं. विभिन्न राज्य हिंदू महिलाओं के साथ संबंध में रहने वाले वाले मुस्लिम पुरुषों को परेशान और गिरफ्तार करने के लिए भी इन कानूनों का इस्तेमाल करते हैं. 2022 में पूरे साल, कई बीजेपी शासित राज्यों में सरकारी तंत्र ने  कानूनी अनुज्ञप्ति या उचित प्रक्रिया के अनुपालन के बगैर मुसलमानों के घरों और संपत्तियों को ध्वस्त कर दिया. ऐसा सांप्रदायिक झड़पों के दौरान हुई हिंसा के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराते हुए फ़ौरी या सामूहिक तौर पर सजा देने के लिए किया गया.

बीस देशों ने कहा कि भारत को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सभा करने के अधिकार की रक्षा  को उन्नत करना चाहिए और एक ऐसा अनुकूल माहौल बनाना चाहिए जिसमें नागरिक समाज समूह, मानवाधिकार रक्षक और मीडिया अपने कार्यों का निष्पादन कर सकें. इनमें से कुछ देशों ने कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों के खिलाफ आतंकवाद निरोधी कानून और गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के इस्तेमाल पर चिंता व्यक्त की. वर्षों से, अधिकार समूहों और कई संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने इस कानून के इस्तेमाल पर चिंता जताई है. इसकी व्यापक रूप से आलोचना इसलिए की जाती है कि यह अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के अनुरूप नहीं है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा शांतिपूर्ण सभा करने के अपने मौलिक अधिकारों का प्रयोग करने वाले कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों को हिरासत में लेने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता है.

कई देशों ने गैर-सरकारी संगठनों को प्राप्त होने वाले विदेशी धन को विनियमित करने वाला कानून, विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) से संबंधित चिंताएं व्यक्त कीं और सरकार से मांग की है कि इस कानून को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के अनुरूप बनाने के लिए इसकी समीक्षा करे या इसमें संशोधन करे.

भारतीय सरकारी तंत्र ने इस कानून के जरिए हजारों नागरिक समाज समूहों, विशेष रूप से मानवाधिकारों या कमजोर समुदायों के अधिकारों पर काम करने वाले समूहों को प्राप्त होने वाले विदेशी धन पर रोक लगा दी है. संयुक्त राष्ट्र के कई निकायों ने आगाह किया है कि इस कानून का इस्तेमाल असहमति को दबाने करने के लिए किया जा रहा है. अक्टूबर 2020 में, तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बाचेलेट ने कहा था कि इस अधिनियम का इस्तेमाल “वास्तव में मानवाधिकारों की रिपोर्टिंग और वकालत, जिसे सरकारी तंत्र आलोचनात्मक मानता है, करने वाले एनजीओ को डराने-धमकाने या दंडित करने के लिए किया जा रहा है.”

उन्नीस देशों ने कहा कि भारत को अत्याचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र समझौते की पुष्टि करनी चाहिए. यह एक ऐसा समझौता है जिस पर भारत ने 1997 में हस्ताक्षर किया था लेकिन इसकी पुष्टि कभी नहीं की. 2012 और 2017 दोनों यूपीआर के दौरान भारत ने कहा था कि वह संधि की पुष्टि करने के लिए प्रतिबद्ध है. लेकिन इसने अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए कदम नहीं उठाए हैं, जबकि पुलिस और अन्य सुरक्षा बलों द्वारा सूचनाएं एकत्र करने या ज़बरन अपराध कबूल करने के लिए नियमित रूप से यातनाएं दी जाती हैं और अन्य दुर्व्यवहार किए जाते हैं.

सदस्य देशों ने भारत से जाति-आधारित भेदभाव ख़त्म करने; गरीबी उन्मूलन संबंधी प्रयासों को मजबूत करने; स्वास्थ्य सेवा, सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता तक पहुंच में सुधार लाने; तमाम बच्चों को मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने; स्वच्छ, स्वस्थ और टिकाऊ पर्यावरण सुनिश्चित करने और बच्चों, महिलाओं और विकलांग व्यक्तियों की सुरक्षा को सुदृढ़ करने का भी आग्रह किया.

भारत सरकार ने कहा है कि “यूपीआर एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसका भारत पूरी तरह से समर्थन करता है” और “दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में, भारत मानवाधिकारों के उच्चतम मानकों की खातिर प्रतिबद्ध है.”

इन समूहों ने कहा, भारत सरकार को चाहिए कि वह अन्य सदस्य देशों द्वारा यूपीआर में व्यक्त चिंताओं को दूर करने का प्रयास करे, इन चिंताओं को अधिकार समूहों और कई संयुक्त राष्ट्र निकायों ने व्यापक रूप से साझा किया है. साथ ही भारत को स्थिति में सुधार हेतु तत्काल कदम उठाने चाहिए और सभी लोगों के अधिकारों और सम्मान की रक्षा करनी चाहिए.

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