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अफगानिस्तान: आईएसआईएस समूह के निशाने पर धार्मिक अल्पसंख्यक

तालिबान को चाहिए कि हजारा और जोख़िमों से घिरे अन्य समुदायों की हिफाज़त करे और उनकी मदद करे

People put flowers outside a school the day after a deadly attack, Kabul, Afghanistan, Sunday, May 9, 2021.  © AP Photo/Mariam Zuhaib

(न्यूयॉर्क, 6 सितंबर, 2022) – ह्यूमन राइट्स वॉच आज कहा कि अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) से संबद्ध संगठन, खुरासान प्रोविंस इस्लामिक स्टेट (आईएसकेपी) ने हज़ारा और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों को उनकी मस्जिदों, स्कूलों और कार्यस्थलों पर बार-बार हमले किए हैं. तालिबान सरकारी तंत्र ने इन समुदायों को आत्मघाती बम विस्फोटों और अन्य नाजायज हमलों से सुरक्षा या पीड़ितों और उनके परिवारों को आवश्यक चिकित्सा सेवाएं और अन्य सहायता प्रदान करने के लिए बहुत कम प्रयास किए हैं.

अगस्त 2021 में तालिबान के अफगानिस्तान पर सत्तासीन होने के बाद से, इस्लामिक स्टेट से सम्बद्ध समूह ने हजारा पर 13 हमलों की जिम्मेदारी ली है और कम-से-कम 3 अन्य हमलों से ये जुड़े रहे हैं, जिनमें कम-से-कम 700 लोग मारे गए और घायल हुए हैं. विशेष रूप से प्रांतों में, मीडिया पर तालिबान की बढ़ती कार्रवाई के कारण यह मुमकिन है कि कई अन्य हमलों की खबरें सामने नहीं आई हों. अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन (यूएनएएमए) ने बताया कि हाल ही में काबुल में शिया मुसलमानों की सभाओं पर समूह के हमलों में 120 से अधिक लोग मारे गए और घायल हुए.

अफगानिस्तान में ह्यूमन राइट्स वॉच की शोधकर्ता फेरेश्ता अब्बासी ने कहा, "तालिबान के सत्तासीन होने के बाद, आईएसआईएस से जुड़े लड़ाकों ने हजारा समुदाय के लोगों पर उनके स्कूल, काम या प्रार्थना के लिए जाने के दौरान कई बर्बर हमले किए हैं. इन हमलों के खिलाफ़  तालिबान अधिकारियों ने कोई गंभीर कार्रवाई नहीं की है. यह तालिबान की जिम्मेदारी है कि वह खतरों से घिरे समुदायों की रक्षा करे और इन हमलों से पीड़ितों एवं उनके परिवारों की सहायता करे."

हजारा मुख्य रूप से शिया मुस्लिम नृजातीय समूह हैं जिन्होंने एक सदी से भी अधिक समय से एक-के-बाद-एक अफगान सरकारों के भेदभाव और उत्पीड़न का सामना किया है. 1990 के दशक के दौरान, तालिबान सुरक्षा-बलों ने शिया समुदाय के लोगों की सामूहिक हत्याएं कीं और उनका अन्य तरीकों से गंभीर उत्पीड़न किया. तालिबान के सत्ता में वापसी के साथ, हजारा अपनी सुरक्षा के लिए और अधिक चिंतित हो गए हैं कि क्या नया सरकारी तंत्र उनकी रक्षा करेगा. बामयान प्रांत में हजारा समुदाय के एक सदस्य ने कहा, "तालिबान को हजारा हरगिज पसंद नहीं. पिछली बार जब वे सत्ता में थे, तो उन्होंने हम में से बहुतों को मार डाला था."

अक्टूबर 2021 में, तालिबान के आंतरिक मामलों के मंत्रालय के प्रवक्ता सईद खोस्ती ने कहा कि वह धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे: "एक जिम्मेदार सरकार के रूप में, हम अफगानिस्तान के सभी नागरिकों, खास तौर से देश के धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार हैं." हालांकि, ऐसा नहीं लगता कि तालिबान ने काबुल, मजार-ए-शरीफ और कुंदुज प्रांतों में सुरक्षा बढ़ाई हो, जहां जनवरी 2022 से हमलों में सैकड़ों लोग मारे गए हैं.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने सुरक्षित संचार माध्यमों का उपयोग करते हुए अप्रैल और जुलाई के बीच काबुल और मज़ार प्रांतों में हमलों में जीवित बचे 21 लोगों और पीड़ितों के परिवार के सदस्यों का साक्षात्कार किया.

इस्लामिक स्टेट समूह ने 19 अप्रैल को पश्चिमी काबुल में दश्त-ए-बारची, मुख्यतः हजारा और शिया आबादी वाला क्षेत्र के अब्दुल रहीम शाहिद हाई स्कूल में आत्मघाती बम विस्फोट की जिम्मेदारी ली. इस विस्फोट में 20 छात्र, शिक्षक और कर्मचारी मारे गए और घायल हुए थे. एक जीवित बचे व्यक्ति ने कहा, "हर जगह क्षत-विक्षत लाशें थीं. खून की गंध फैली हुई थी."

समूह ने 21 अप्रैल को अफगानिस्तान की एक सबसे बड़ी शिया मस्जिद मजार-ए-शरीफ स्थित सेह दोकन मस्जिद में हुए आत्मघाती हमले की जिम्मेदारी भी ली, जिसमें 31 लोग मारे गए थे और 87 अन्य घायल हुए. 27 अप्रैल को अज्ञात लोगों ने समांगन प्रांत में देयर-सूफ कोयला खदान जा रहे 5 हजारा पुरुषों की हत्या कर दी. अगले दिन, मजार-ए-शरीफ में हजारा यात्रियों को ले जा रही एक मिनी बस में हुए बम विस्फोट में 9 लोगों की मौत हो गई और 13 अन्य घायल हो गए.

काबुल के एक हजारा निवासी, जो पिछले कई हमलों के गवाह हैं, ने कहा: “हमारे बच्चे स्कूल जाना चाहते हैं, हमारी महिलाओं को अस्पतालों की जरूरत है, हम मस्जिद जाना चाहते हैं. इन सबके लिए यह जरूरी है कि हम सुरक्षित महसूस करें. खुदा के लिए, इन जगहों पर हमले मत करो- हर जगह हमारी हत्याएं करना बंद करो."

अफगानिस्तान में मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत रिचर्ड बेनेट ने 26 मई को हजारा, शिया और सूफी समुदायों पर हमलों की जांच की मांग की. उन्होंने कहा कि ये "हमले अधिकाधिक तौर पर सुनियोजित चरित्र अपना रहे हैं और इनमें संगठनात्मक नीति के तत्व दिखाई देते हैं, लिहाजा, ये मानवता के खिलाफ अपराध के उदहारण हैं."

हमलों के तात्कालिक विनाशकारी प्रभाव से परे, उत्तरजीवियों और पीड़ितों के परिवारों पर इसका भयानक दीर्घकालिक दुष्प्रभाव पड़ता है. वे अपना रोजी-रोटी कमानेवाला सदस्य खो देते हैं, अक्सर इलाज़ के बड़े खर्चों के बोझ तले दब जाते हैं और रोजमर्रे के जीवन में उनकी पहुंच प्रतिबंधित हो जाती है. सेह दोकन मस्जिद हमले में अपने 45 वर्षीय भाई को खोने वाले एक व्यक्ति ने कहा, "हम अपने बच्चों को अब स्कूल नहीं भेजते और अपनी दुकानें जल्दी बंद कर देते हैं. हमले के बाद मस्जिद भी बंद कर दी गई है."

परिवार के पुरुष सदस्य को खो देने वाली महिलाओं, खासकर अचानक विधवा हो जाने वाली युवा महिलाओं को बहुत ही गंभीर सामाजिक और आर्थिक दुष्परिणामों का सामना करना पड़ता है. महिलाओं के काम करने और स्वतंत्र आवाजाही के अधिकारों पर तालिबान के प्रतिबंधों ने कुछ महिलाओं के लिए जीविकोपार्जन करना और आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना नामुमकिन बना दिया है. महिलाओं के लिए महरम (रक्त संबंध वाले पुरुष रिश्तेदार) के साथ यात्रा करने वाले नियमों ने उनके लिए रोज़मर्रा के कामों के लिए बाहर निकलना बेहद मुश्किल बना दिया है और  उन्हें लगे सदमा को और गहरा कर दिया है.

तालिबान के सत्तासीन होने के तुरंत बाद दश्त-ए-बरचिन काबुल में एक मैग्नेटिक बम विस्फोट में अपने पति को खोने वाली एक महिला ने कहा, "मेरे अजीज पति मारे गए. भले ही मेरे पास डिग्री है, लेकिन तालिबान के शासन में महिलाओं के लिए रोजगार ढूंढना और और आर्थिक रूप से स्वतंत्रता होना अब कठिन है."

ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा साक्षात्कार में शामिल अधिकांश लोगों ने यह भी कहा कि हमलों के असर के कारण उन्होंने अवसाद और गंभीर सदमे का अनुभव किया.

खुरासान प्रोविंस इस्लामिक स्टेट द्वारा हजारा और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमले अफगानिस्तान में लागू अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी कानून का उल्लंघन करते हैं. नागरिकों पर जानबूझकर किए गए हमले युद्ध अपराध हैं. जान-माल के तत्काल नुकसान के अलावा ऐसे हमले दीर्घकालिक आर्थिक कठिनाई का सबब बनते हैं, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को स्थायी तौर पर नुकसान पहुंचाते हैं और शिक्षा एवं सार्वजनिक जीवन में नई बाधाएं खड़ी करते हैं.

खतरों से घिरी आबादी को सुरक्षा और उत्तरजीवियों एवं प्रभावित परिवारों को चिकित्सा और अन्य सहायता प्रदान करने में तालिबान की विफलता के साथ-साथ मानवाधिकारों, विशेष रूप से महिलाओं और लड़कियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाली इसकी नीतियां इन हमलों के कारण होने वाले नुकसान को और बढ़ा देती हैं.

अब्बासी ने कहा, "हजारा और अन्य समुदायों के खिलाफ अत्याचारों के लिए सशस्त्र समूह के नेताओं को एक दिन न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा. धार्मिक अल्पसंख्यकों को हमले से बचाने के लिए कार्रवाई करने में विफल तालिबान अधिकारी इन गंभीर अपराधों में संलिप्त हो सकते हैं."

विस्तृत निष्कर्ष केलिए कृपया नीचे देखें

साक्षात्कार दाताओं की सुरक्षा की दृष्टि से नीचे उनके बदले हुए नामों का इस्तेमाल किया गया है 

जीवन और आजीविका पर हमलों का दीर्घकालिक प्रभाव

हमलों के पीड़ितों के परिवारों ने अपने परिजनों को खोने के दुःख और अपने बच्चों एवं खुद के जीवनयापन संबंधी चिंताओं के बारे में बताया. परिवार का भरण-पोषण करने वाले मुख्य सदस्य  के मारे जाने पर, जैसा कि पड़ताल किए गए अधिकांश मामलों पाया गया, जीवित बचे रिश्तेदारों, विशेषकर महिलाओं को तालिबान शासन में अत्यंत कष्टसाध्य स्थितियों का सामना करना पड़ा है. अधिकांश परिवारों ने बताया कि उन्हें तालिबान अधिकारियों से बहुत कम या कोई सहायता नहीं मिली.

फ़ैज़ा, जिनके पति सेह-दोकन मस्जिद हमले में मारे गए थे, ने कहा:

मेरे सात बच्चे बचे हैं. घर का खर्च चलाने में अपने पति की मदद करने के लिए मैं क्लीनर का काम करती थी, लेकिन तालिबान के सत्ता में आने  के बाद से यह  मुमकिन नहीं है. मेरे पास कोई दूसरा हुनर नहीं है और अगर होता भी तो मैं काम नहीं कर पाती. तालिबान  ज्यादातर पेशों में महिलाओं को काम करने की इजाजत नहीं देता है. हमारी पड़ोसन पहले शिक्षिका थीं और अब गृहणी हैं. सात बच्चों के पालन-पोषण की कल्पना भी बहुत मुश्किल है, जब कोई संसाधन या नौकरी के अवसर उपलब्ध न हों.

सेह-दोकन मस्जिद के पास रहने वाले 27 वर्षीय नईम की आंखों के सामने बम विस्फोट हुआ था. उन्होंने कहा कि वह अब मस्जिदों में जाने में सुरक्षित महसूस नहीं करते हैं. "मैंने अपनी मां से वादा किया है कि खुद को विस्फोट से बचाने के लिए किसी मस्जिद में कभी नहीं जाऊंगा."

सेह-दोकन मस्जिद में हुए बम विस्फोट में मारे गए 42 वर्षीय गुल अहमद के सभी पांच बच्चे 18 साल से कम उम्र के हैं. परिवार के एकमात्र कमाने वाले सदस्य की मौत के बाद उनके 15 वर्षीय बेटे ने काम करने के लिए स्कूल छोड़ दिया. अहमद की पत्नी ने कहा, "हम बहुत बुरे दौर में जी रहे हैं, बिना किसी सहारे के, उनके चले जाने से अब हमारे लिए कुछ भी नहीं बचा है."

53 वर्षीय शेर मोहम्मद, जो मस्जिद में हुए बम विस्फोट में मारे गए, का मजार-ए-शरीफ में एक छोटा सा व्यवसाय था. उन्होंने अपने सभी बच्चों की शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए कड़ी मेहनत की थी, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद, बच्चे स्कूल जाने या पढ़ाई करने में सक्षम नहीं हैं. परिवार बमुश्किल भोजन या कपड़े खरीद पाता है. उनकी पत्नी ने कहा, "हमें तो अब इस दर्द के साथ ही जीना है."

तालिबान अधिकारियों ने प्रत्येक परिवार को 1 लाख अफगानी (1,100 अमेरिकी डॉलर) प्रदान किए जब वे अपने पति के शव अस्पताल से ले गए. परिवारों को जिस दीर्घकालिक सहायता की आवश्यकता है, यह राशि उसका विकल्प नहीं है. अहमद की पत्नी ने कहा, "अब भविष्य को लेकर कोई उम्मीद नहीं है, ज्यादातर दिन हम खाना नहीं खाते हैं. अब ज़िन्दगी ऐसे ही कट रही है."

मजार-ए-शरीफ के एक परिवार ने तीन सदस्यों को खो दिया. ये हैं रहमतुल्ला (40 वर्ष), उनका 15 वर्षीय बेटा असदुल्लाह और 24 वर्षीय भतीजा मोहम्मद अली. मोहम्मद अली मध्य अफगानिस्तान के दाईकुंडी से विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा की तैयारी करने यहां आया था. तीनों सेह-दोकन मस्जिद में प्रार्थना करते समय मारे गए. अब पांच सदस्य वाले परिवार में कमाने वाला कोई नहीं है. रहमतुल्लाह की भतीजी ने कहा, "एक घर के सामने रखीं तीन लाशें देखकर  आपको कैसा लगता? पड़ोस में हर कोई स्तब्ध और खामोश था. स्थिति भयावह और दिल दहला देने वाली थी."

19 अप्रैल को अब्दुल रहीम शहीद हाई स्कूल में जब 12वीं के छात्र घर जाने के लिए बाहर निकल रहे थे, सुबह 9:45 से 9:55 बजे के बीच स्कूल गेट पर विस्फोट हुआ. इस विस्फोट में मारे गए या घायल हुए 20 लोगों की उम्र 16 से 53 साल के बीच थी.

स्थानीय निवासी 53 वर्षीय सैयद मुहम्मद हुसैन धमाका सुनते ही पीड़ितों की मदद के लिए दौड़ पड़े. लेकिन 30 मिनट बाद हुए एक दूसरे विस्फोट में वह भी मारे गए. उनके बेटे ने घायल छात्रों की मदद की लेकिन उन्हें बाद में पता चला कि पीड़ितों में उनके पिता भी शामिल हैं. हुसैन के बेटे ने कहा, "मैं मदद के लिए सबसे पहले पहुंचने वालों में था. मैंने शवों को उठाया. सात छात्र और दो स्थानीय निवासी मारे गए गए थे, लेकिन मुझे नहीं पता था कि उनमें मेरे पिता भी हैं.”

हुसैन के आठ बच्चे हैं - छह लड़कियां और दो लड़के. वह परिवार के एकमात्र कमाने वाला सदस्य थे. उनकी मृत्यु के बाद, उनके 22 वर्षीय सबसे बड़े बेटे के कंधे पर सभी की जिम्मेदारी आ गई है.

शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव

पिछले एक साल में हमलों में घायल हुए सैकड़ों लोगों को गंभीर चोटें आई हैं और ये सभी पूरी तरह से दोबारा स्वस्थ नहीं हों पायेंगे. पिछली अफगान सरकार ने विद्रोहियों के हमलों में घायल  लोगों और मृतकों के परिजनों को वित्तीय सहायता प्रदान की थी. हाल के हमलों के उत्तरजीवियों और पीड़ितों के परिवारों ने बताया कि उन्हें वित्तीय सहायता संबंधी तालिबान के किसी दिशा-निर्देश या दी जाने वाली नियत राशि के बारे में जानकारी नहीं है.

अब्दुल रहीम शाहिद हाई स्कूल में हुए विस्फोट से पास के एक घर की रसोई की खिड़कियां टूट गईं. इस धमाके ने उस वक़्त रसोई में मौजूद 16 वर्षीय साफिया की सुनने की क्षमता को नुकसान पहुंचाया, अब वह बोल भी नहीं सकती. उसके पिता, जो एक एक दिहाड़ी मजदूर हैं, रोज लगभग 250 अफगानी ($3) कमाते हैं.  वे इलाज का खर्च नहीं उठा सकते. तालिबान के कई अधिकारी उनके घर गए, लेकिन कोई वित्तीय सहायता उपलब्ध नहीं कराई.

सेह-दोकन मस्जिद में हुए विस्फोट में, 28 वर्षीय सूचना प्रौद्योगिकी तकनीशियन, बशीर अहमद का हाथ जख्मी हो गया था. उन्होंने कहा, "मुझे नहीं लगता कि मैं अब कभी भी इन हाथों से इंटरनेट लाइन्स सेट कर पाऊंगा. काम के दौरान मुझे ऊंची संरचनाओं पर चढ़ना पड़ता है. मेरे बाजुओं में अब ताकत नहीं है." जिस सदमें से वह गुजर रहे हैं, उसका वर्णन करते हुए उन्होंने कहा, “मैं जहां भी जाता हूं, मुझे लगता है कि धमाका हो रहा है. मैं हर दिन उस दुःस्वप्न से फिर से गुजरता हूं."

27 वर्षीय सैयद मोहम्मद, जिन्होंने कुछ साल पहले हमले के डर से विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ दी थी, भी सेह-दोकन मस्जिद में हुए विस्फोट में मारे गए लोगों में शामिल थे. उनके पिता ने कहा कि उसकी मंगेतर मासूमा सदमे में है, वह  न तो अच्छे से खाती-पीती है और न ही ठीक से सोती है. मोहम्मद की मां ने कहा कि वह चिंताग्रस्त रहती हैं और उन्हें नींद नहीं आती, दो डॉक्टरों के इलाज़ से भी कोई फायदा नहीं हुआ.

22 वर्षीय अहमद शाह सेह-दोकन मस्जिद में हुए बम विस्फोट में घायल हो गए और इस हमले में उनके 50 वर्षीय पिता की मौत हो गई. विस्फोट में उनका बायां हाथ जख्मी हो गया, जिससे वह काम करने में असमर्थ हो गए. डॉक्टरों ने उन्हें आगे के इलाज़ के लिए भारत जाने की सलाह दी, लेकिन वह खर्च वहन नहीं कर सकते हैं.

फुटबॉल खेलने के शौकीन छात्र मोहम्मद को अप्रैल में मुमताज एजुकेशनल सेंटर पर हुए हमले के दौरान गंभीर चोटें आई थीं, जिससे अब वह चल नहीं सकते. डॉक्टरों का कहना है कि उन्हें पूरी तरह स्वस्थ होने के लिए भारत या पाकिस्तान जाकर विशेषज्ञ से इलाज़ कराना चाहिए लेकिन उनका परिवार यह खर्च वहन नहीं कर सकता. मोहम्मद ने कहा, "मैंने उस व्यक्ति को देखा जिसने आत्मघाती विस्फोट किया. विस्फोट से कुछ दिन पहले, उसने हमारे सेंटर पर आकर खुद को एक छात्र के रूप में पंजीकृत कराया था" मोहम्मद ने कहा कि हमलावर का चेहरा उनकी आंखों के सामने घूमता रहता है.

अब्दुल रहीम शाहिद हाई स्कूल पर हुए हमले में 17 वर्षीय जमान घायल हो गया था. तालिबान अधिकारियों ने उसे 5,000 अफगानी (55 डॉलर) दिए, लेकिन स्कूल लौटने के लिए उसे बेहतर इलाज़ की ज़रूरत है जिसके बिना वह अच्छी तरह से सुन नहीं सकता है.

हमलों के मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता पर प्रभाव

हमलों ने हजारा और शिया समुदाय के सदस्यों के लिए शिक्षा, धर्म के पालन और अन्य मौलिक स्वतंत्रता के अपने अधिकारों का इस्तेमाल करना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरूर बना दिया है. बहुतेरे लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है और उनका कहना है कि वे बाहर निकलना महफूज महसूस नहीं करते हैं. वे अब सामाजिक समारोहों में शिरकत करने, सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करने और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर जाने से बचते हैं.

मज़ार-ए-शरीफ़ में सेह-दोकन मस्जिद पर हमले के बाद उसे बंद कर दिया गया. अनेक परिवारों ने यह भी बताया कि उनके बच्चों के लिए स्कूल जाकर निशाना बनने के बजाए घर पर रहना सुरक्षित है.

चार बेटों के साथ काबुल में रहने वाली सायरा ने कहा कि वह अब अपने बेटों को स्कूल या कहीं और नहीं भेजती हैं. वह और उनके पति अब धार्मिक आयोजनों में शामिल नहीं होते हैं जब तक कि ऐसा बहुत जरूरी न हो.

घायल छात्र अपर्याप्त चिकित्सा देखभाल के कारण स्कूल लौटने में भी असमर्थ हैं. अब्दुल रहीम शाहिद हाई स्कूल के सीनियर छात्र 18 वर्षीय अली रजा पैर और कान में चोट के कारण कक्षाएं नहीं कर पा रहे हैं. कई अन्य छात्रों ने कहा कि वे अब अपनी सुरक्षा के डर से स्कूल नहीं जाते हैं. रजा ने कहा, "मेरे अधिकांश सहपाठियों ने इस दुखद घटना के बाद स्कूल जाना बंद कर दिया है. तालिबान के सत्ता में आने के बाद, 50 छात्रों में से केवल 25 ही कक्षाएं कर रहे हैं. हमारे संस्थान पर हाल ही हमले के कारण वर्तमान में केवल 10 से 15 बच्चे ही स्कूल आ रहे रहे हैं.

अली रजा के सहपाठी मोहम्मद हकीम ने कहा, "अगर मुझे मरना है, तो मैं मर जाऊंगा, लेकिन जब तक जिंदा हूं, स्कूल जाऊंगा." लेकिन अपने पैरों में फंसी गोली के टुकड़ों के कारण वह  छोटी दूरी भी मुश्किल से तय कर पाते हैं. उन्हें उम्मीद है कि ज़ख्म ठीक हो जाएंगे और वह फिर से चलने-फिरने एवं वापस स्कूल जाने लगेंगे.

अनुशंसाएं

  • खुरासान प्रोविंस इस्लामिक स्टेट और अन्य सशस्त्र समूहों को अंतरराष्ट्रीय मानवीय  कानून का पूरी तरह से पालन करना चाहिए और नागरिकों के खिलाफ तमाम हमलों को रोकना चाहिए तथा गंभीर उत्पीड़नों के लिए जिम्मेदार कमांडरों को दंडित करना चाहिए.
  • तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून का पूरी तरह से पालन करना चाहिए और गंभीर उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार लोगों पर उचित तरीके से मुकदमा चलाना चाहिए.
  • तालिबान सरकारी तंत्र को हजारा और शिया सहित जोखिम से घिरे सभी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा करनी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे बिना किसी डर के शिक्षा तक पहुंच और इबादत के अपने अधिकारों का उपभोग कर सकें.
  • तालिबान को स्कूलों, अस्पतालों, पूजा स्थलों और अन्य सामुदायिक संस्थानों सहित हमले की जद में आने की आशंका वाले नागरिक संस्थानों की रक्षा के लिए जोखिम से घिरे समुदायों और नागरिक समाज समूहों के साथ परामर्श करना चाहिए.
  • तालिबान को आपातकालीन स्वास्थ्य देखभाल, जैसे एम्बुलेंस सेवाएं और मनोसामाजिक (मानसिक स्वास्थ्य) सहायता के लिए पर्याप्त मदद सुनिश्चित करनी चाहिए.
  • तालिबान को हमलों से जीवित बचे लोगों और परिवार के सदस्यों को वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए, जिसमें उन परिवारों की सहायता पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए, जिनकी मुखिया महिलाएं हैं और जिनके कमाने वाले सदस्य की मौत हो गई है और यह सहायता प्रदान करने के लिए दिशानिर्देश जारी करना चाहिए.
  • तालिबान को महिलाओं के अधिकारों के सारे उल्लंघनों को रोकना चाहिए, साथ ही यह चाहिए कि वे महिलाओं के जीविकोपार्जन को और अधिक कठिन बनाने वाले प्रतिबंध पर रोक लगाएं.
  • तालिबान को हमलों के उत्तरजीवियों और गवाहों को मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं और मनोसामाजिक मदद उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त सहायता सुनिश्चित करनी चाहिए.
  • तालिबान को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हमलों में विकलांग हुए बच्चे दूसरों के साथ समान आधार पर स्कूल जाने में सक्षम बन सकें.
  • तालिबान के साथ काम करने वाली सरकारों को हजारा और शिया समुदायों को बेहतर सुरक्षा देने की मांग करनी चाहिए और हजारा एवं शिया समुदायों के विरूद्ध अपराधों  सहित अफगानिस्तान में किए गए अपराधों के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करनेवाले तंत्र को प्रोत्साहित और उसका समर्थन करना चाहिए.
  • सभी सरकारों को अफ़ग़ानिस्तान में नागरिकों की जबरन वापसी को निलंबित कर देना चाहिए और अफ़ग़ानिस्तान के हज़ारा और अन्य उत्पीड़ित नृजातीय एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए शरण और अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा के अन्य उपायों संबंधी आवेदनों पर उदारता से विचार करना चाहिए.

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