(न्यूयॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत सरकार ने 14 अप्रैल, 2020 को सरकारी नीतियों के मुखर आलोचक रहे दो अधिकार कार्यकर्ताओं को हिरासत में ले लिया. सरकार को चाहिए कि 2017 में महाराष्ट्र में एक प्रदर्शन के दौरान अन्य कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर कथित रूप से जातीय हिंसा भड़काने के लिए आनंद तेलतुंबडे और गौतम नवलखा के खिलाफ आतंकनिरोधी कानून के तहत लगाए गए सभी आरोपों को तुरंत वापस ले.
दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “भारत सरकार महज़ सरकार की आलोचना या अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने के लिए कार्यकर्ताओं के खिलाफ कठोर आतंकनिरोधी कानूनों का इस्तेमाल कर रही है. सरकार को चाहिए कि 2018 के भीमा कोरेगांव मामले में गलत तरीके से हिरासत में लिए गए आनंद तेलतुंबडे, गौतम नवलखा और अन्य कार्यकर्ताओं को फ़ौरन रिहा करे."
पुलिस का आरोप है कि ये कार्यकर्ता माओवादी विद्रोह की हिमायत करते हैं और उन्होंने 31 दिसंबर, 2017 को एक विशाल जन सभा में दलितों को हिंसा के लिए उकसाया, जिसके परिणामस्वरुप अगले दिन सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के समर्थकों के साथ उनकी झड़प हुई. इस झड़प में एक व्यक्ति की मौत हुई और कई घायल हुए. हालांकि, पुलिस द्वारा लगाए गए आरोपों में छिछले सबूतों का हवाला दिया गया है और इन गंभीर चिंताओं को बल मिलता है कि पूरी जांच राजनीति से प्रेरित है. खुद को इस रैली के “मुख्य आयोजक और एकमात्र धन संग्राहक” बताने वाले दो सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने कहा है कि इस मामले में गिरफ्तार अधिकांश कार्यकर्ताओं का इस घटना से कोई संबंध नहीं है.
सरकार ने तेलतुंबडे और नवलखा पर भारत के प्रमुख आतंकविरोधी कानून, गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत आरोप तय किए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अग्रिम जमानत याचिकाएं खारिज करने के बाद, दोनों को 14 अप्रैल, 2020 तक आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया. ये दोनों लोग सामाजिक कल्याण सहायता और सांप्रदायिक सद्भाव सुनिश्चित करने में सरकार की विफलताओं की खुले तौर पर आलोचना करते रहे हैं. तेलतुंबडे ने आत्मसमर्पण करने से पहले जारी एक पत्र में लिखा, “‘राष्ट्र’ के नाम पर, इस तरह के कठोर कानून निर्दोष लोगों से उनकी आज़ादी छीन रहे हैं. राजनीतिक वर्ग ने असहमति को ख़त्म करने और लोगों का ध्रुवीकरण करने के लिए अंधराष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद को हथियार बना लिया है.”
भीमा कोरेगांव मामले में 2018 से अब तक नौ अन्य प्रमुख कार्यकर्ताओं- सुधा भारद्वाज, शोमा सेन, सुरेंद्र गडलिंग, महेश राउत, अरुण फरेरा, सुधीर धवले, रोना विल्सन, वर्नोन गोंसाल्वेस और वरवरा राव को हिरासत में लिया गया है.
भाजपा के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र की पूर्ववर्ती राज्य सरकार ने इस मामले का इस्तेमाल सरकार के आलोचकों को जेल में डालने के लिए किया, जबकि उसने हिंसा भड़काने में संलिप्त हिंदू राष्ट्रवादी नेताओं से सम्बंधित मामलों की जांच को आगे नहीं बढ़ाया.
अक्टूबर 2019 में, फेसबुक के स्वामित्व वाली सोशल मीडिया कंपनी व्हाट्सएप ने तेलतुंबडे और इस मामले में शामिल कम-से-कम एक वकील को सूचित किया कि सर्वेलन्स सॉफ्टवेयर द्वारा उनके फोन पर नज़र रखी गई. वे भारत में उन 121 फ़ोन उपयोगकर्ताओं में शामिल हैं, कथित तौर पर जिनकी इजरायली कंपनी एनएसओ द्वारा निर्मित स्पाइवेयर के जरिए निगरानी की गई. इनमें कम-से-कम 22 सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, शिक्षाविद और मानवाधिकार वकील शामिल हैं. हालांकि भारत सरकार ने सॉफ्टवेयर की खरीद से इनकार किया है, लेकिन एनएसओ वेबसाइट के मुताबिक उसके उत्पाद “केवल सरकारी खुफिया और कानून प्रवर्तन एजेंसियों द्वारा इस्तेमाल किए जाते हैं.”
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारतीय पुलिस ने असहमति जताने वालों को बड़ी तादाद में हिरासत में लिया है और कई मामलों में सरकार के आलोचकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ राजद्रोह या आतंकनिरोधी कानूनों का इस्तेमाल किया है.
उत्तर प्रदेश सरकार ने एक लेख में राज्य के मुख्यमंत्री के खिलाफ “आपत्तिजनक” टिप्पणी प्रकाशित करने के लिए प्रसिद्ध पत्रकार और समाचार वेबसाइट वायर के संस्थापक संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के खिलाफ आपराधिक मामला दायर किया है. इसके पहले भी, राज्य सरकार सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री की आलोचना के लिए पत्रकारों को गिरफ्तार कर चुकी है. जून 2019 में, सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकार प्रशांत कनौजिया की रिहाई का आदेश देते हुए कहा था: “एक नागरिक के स्वतंत्रता के अधिकार का अतिक्रमण किया गया है.”
दिसंबर में, उत्तर प्रदेश में पुलिस ने नए नागरिकता संशोधन अधिनियम और प्रस्तावित नागरिकता सत्यापन प्रक्रिया, जिससे लाखों भारतीय मुसलमान नागरिकता सूची से बाहर किए जा सकते हैं, के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के आयोजन में शामिल कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया और कथित रूप से पिटाई की. विपक्षी कांग्रेस पार्टी से जुड़ी एक कार्यकर्ता सदफ जाफ़र को 19 दिसंबर को लखनऊ में उस समय गिरफ्तार किया गया जब वह विरोध प्रदर्शन की फिल्म बना रही थीं.
थिएटर कलाकार और संस्कृतिकर्मी दीपक कबीर जब जाफ़र के बारे में पूछताछ करने थाना पहुंचे तो उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया. कबीर ने आरोप लगाया कि दर्जन भर से अधिक पुलिसकर्मियों ने उनकी पिटाई की. 7 जनवरी, 2020 को उन्हें जमानत देते हुए स्थानीय अदालत ने पाया कि पुलिस विरोध प्रदर्शन के दौरान हिंसा में उनके शामिल होने के सबूत नहीं जुटा पाई और उनका नाम शुरू में दर्ज मामले में शामिल नहीं था बल्कि बाद में जोड़ा गया.
असम में, पुलिस ने नए नागरिकता कानून का विरोध करने पर कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया और उनमें से कुछ को राजद्रोह और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत आरोपित किया. जनवरी में, दिल्ली पुलिस ने विश्वविद्यालय के एक छात्र पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया. फरवरी में, कर्नाटक में एक युवती को विरोध प्रदर्शन के दौरान “पाकिस्तान ज़िंदाबाद, हिंदुस्तान ज़िंदाबाद” का नारा लगाने पर राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया.
कर्नाटक पुलिस ने एक निजी प्राथमिक विद्यालय में नागरिकता कानून की आलोचना करने वाले नाटक का मंचन करने के लिए राजद्रोह के आरोप में स्कूल के प्रधानाध्यापक और एक अभिभावक को भी गिरफ्तार किया. पुलिस ने छात्रों, जिनमें से अधिकांश मुस्लिम और 9 से 12 साल की उम्र के थे, से लगातार पांच दिनों तक ऐसे शिक्षकों या माता-पिता की पहचान करने के लिए पूछताछ की, जिन्होंने नाटक तैयार करने में शायद उनकी मदद की हो.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि वैचारिक समर्थन को हिंसा में आपराधिक सहभागिता के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए. अदालतों ने बार-बार यह भी कहा है कि किसी भाषण या कार्रवाई को केवल तभी राजद्रोह माना जाएगा जब वे अशांति या हिंसा के लिए उकसाते हों या उसके लिए प्रवृत करते हों. विभिन्न राज्य सरकारें इस मानदण्ड के पूरा हुए बगैर भी लोगों पर राजद्रोह का आरोप लगाती रहती हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने भारत सरकार से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एकत्र होने और शांतिपूर्ण सभा करने के अधिकारों को बरकरार रखने का आग्रह किया है और मांग की है कि गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के साथ-साथ औपनिवेशिक कालीन राजद्रोह कानून को रद्द करे.
गांगुली ने कहा, “भारत सरकार को सरकार की आलोचना के लिए मानवाधिकार रक्षकों, कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को निशाना बनाना बंद करना चाहिए. ऐसे समय में जब दुनिया भर की सरकारें कोरोनो वायरस के कारण कैदियों को रिहा कर रही हैं, यह अजीब सी बात है कि भारत सरकार उन कार्यकर्ताओं को कैद करना चाहती है जिन्हें हरगिज गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए.”