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भारत को कश्मीर में कदम पीछे लेना चाहिए

सरकार ने आवाजाही पर रोक लगाई, फ़ोन और इंटरनेट सेवाओं को बंद किया

भारत नियंत्रित कश्मीर के श्रीनगर में सुरक्षा प्रतिबंधों के दौरान सुनसान पड़ी सड़क पर चहलकदमी करता एक आवारा कुत्ता. 12 अगस्त, 2019. © 2019 एपी फोटो/मुख्तार खान

भारतीय संसद द्वारा भारत के संविधान में जम्मू और कश्मीर को प्रदत्त विशेष स्वायत्त स्थिति रद्द करने और उसे दो अलग-अलग केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने के पक्ष में मतदान का एक सप्ताह बीत चुका है. कश्मीर के लोग पूरी तरह बंदिशों के बीच रह रहे हैं, उनके नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया है. फ़ोन, यहां तक कि लैंड लाइन, अभी भी बाधित हैं. इंटरनेट सेवा बंद है. वहां की मुख्य मस्जिदें आज ईद के दिन मुस्लिम कश्मीरियों के लिए बंद रहीं.

ऐसी खबरें हैं कि चिंतित परिवार अपने प्रियजनों से संपर्क नहीं कर पा रहे हैं और चिकित्सा सेवाओं तक उनकी पहुंच नहीं हो पा रही है. कुछ पत्रकारों ने बड़े विरोध प्रदर्शनों की जानकारी दी है जिन्हें सुरक्षा बलों ने आंसू गैस और पैलेट गन से कुचल दिया. हालांकि सरकार ने इससे इनकार किया है. कार्यकर्ताओं सहित भारी तादाद में लोगों की धड़ल्ले से गिरफ्तारी की अपुष्ट खबरें आ रही हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले सप्ताह राष्ट्र के नाम संबोधन में स्वीकार किया कि संचार और आवाजाही पर प्रतिबंधों के कारण आम कश्मीरियों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, उन्होंने यह भी माना कि ऐसे अनेक लोग हैं जो उनकी सरकार द्वारा किए गए इन संवैधानिक बदलावों से सहमत नहीं हैं, लेकिन उन्होंने आलोचकों से कहा कि फिर भी ये फैसले देश के हित में हैं.

1947 से ही, भारत और पाकिस्तान के बीच इस पूर्व मुस्लिम बहुल रियासत के स्वामित्व पर विवाद रहा है. 1980 के दशक के उतरार्द्ध में भारत के जम्मू और कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित अलगाववादी आंदोलन भड़कने के बाद अब तक 50 हजार से अधिक जानें जा चुकी हैं. सुरक्षा बलों ने जवाबी कार्रवाई में आम तौर से हत्या, यातना और गुमशुदगी को अंजाम दिया है. निश्चित रूप से, यह क्षेत्र और ज्यादा मानवाधिकार उल्लंघनों को झेलने के लिए तैयार नहीं है.

दमनकारी प्रतिबंधों को जारी रखने के बजाय, भारत सरकार को मानवाधिकार हनन के लिए न्याय और जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए, लोक सुरक्षा कानून या सरकारी बलों को अभयदान प्रदान करने वाले सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम जैसे दमनकारी कानूनों को निरस्त करना चाहिए, चेक पोस्टों पर और तलाशी अभियानों के दौरान कश्मीरियों से आक्रामक बरताव ख़त्म करना चाहिए और 1990 में मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी से विस्थापित हिंदुओं सहित तमाम विस्थापितों की सुरक्षित वापसी के लिए काम करना चाहिए.

फौरी तौर पर सरकार को चाहिए कि राजनीतिक बंदियों को रिहा करे, कड़े संचार प्रतिबंधों को उठा ले, मीडिया और स्वतंत्र पर्यवेक्षकों को पर्याप्त पहुंच की इजाज़त दे और सुरक्षा अधिकारियों को मानवाधिकारों का सम्मान करने का आदेश दे.

हालांकि अंतर्राष्ट्रीय कानून असाधारण परिस्थितियों में सरकारों को कुछ अधिकारों को अस्थायी रूप से निलंबित करने की अनुमति देते हैं, लेकिन इसके आधार पर ‘सामान्य परिस्थिति’ की नई व्याख्या की अनुमति नहीं दी जा सकती. अगर भारत सरकार कश्मीर की एक और पीढ़ी में तनाव नहीं भड़काना चाहती तो उसे अपने कदम फ़ौरन वापस खींचने चाहिए.

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