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भारत: कश्मीर पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट पर कार्रवाई करे

अंतरराष्ट्रीय जांच की इजाज़त देनी चाहिए, उत्पीड़न सम्बन्धी शिकायतें दूर करनी चाहिए

कश्मीर के श्रीनगर में हालिया हत्याओं के विरोध में हुए विरोध-प्रदर्शनों के दौरान प्रदर्शनकारियों पर आंसू गैस का गोला छोड़ता एक भारतीय पुलिस अधिकारी, 8 मई, 2018. © 2018 रॉयटर्स

(न्यू यॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत सरकार को कश्मीर में मानवाधिकार पर संयुक्त राष्ट्र की पहली रिपोर्ट की सिफारिशों पर तुरंत अमल करना चाहिए.

भारत लंबे समय से पाकिस्तान पर आरोप लगाता रहा है कि वह कश्मीर में विद्रोह को माल-असबाब, हथियार और प्रशिक्षण प्रदान करता आ रहा है जिसके परिणामस्वरूप 1989 से अब तक पचास हज़ार से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. भारत सरकार को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के सदस्य देशों के साथ मिलकर एक स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय जांच हेतु पहल करनी चाहिए ताकि विवादित सूबे के भारत द्वारा प्रशासित हिस्से जम्मू  और कश्मीर में गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोपों की विस्तृत पड़ताल की जा सके.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय (ओएचसीएचआर) द्वारा 49 पन्नों की जारी एक रिपोर्ट में भारत और पाकिस्तान दोनों के हिस्से वाले कश्मीर में मानवाधिकार उल्लंघनों का जिक्र है,  हालाँकि इसके मुताबिक पाकिस्तान के हिस्से वाले कश्मीर में "विस्तार और प्रभाव के लिहाज से यह अलग" है. भारत के मामले में, यह रिपोर्ट जुलाई 2016 से शुरू हुए उत्पीड़न पर केन्द्रित है, जब सरकारी बलों द्वारा एक चरमपंथी नेता की हत्या के जवाब में हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए थे. सरकार ने बिना देरी इस रिपोर्ट को "झूठा, पक्षपातपूर्ण और प्रायोजित" करार देते हुए खारिज़ कर दिया है.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, "भारत सरकार द्वारा संयुक्त राष्ट्र की कश्मीर रिपोर्ट में उठाई गई गंभीर चिंताओं को खारिज़ करना अनुचित है और इसके प्रतिकूल नतीजे सामने आ सकते हैं. इसके बजाय, सरकार को इन निष्कर्षों को स्वीकार करना चाहिए और निष्पक्ष अंतरराष्ट्रीय जांच के लिए तत्काल कदम उठाना चाहिए."

ओएचसीएचआर की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय सुरक्षा बलों ने 2016 में शुरू हुए और इसके बाद अक्सर होने वाले हिंसक विरोध-प्रदर्शनों के जवाब में अत्यधिक बल का प्रयोग किया. सिविल सोसाइटी समूहों का अनुमान है कि इस कार्रवाई में 145 लोग मारे गए और इससे भी अधिक लोग घायल हुए. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस दौरान सशस्त्र समूहों ने 20 लोगों की हत्या की.

रिपोर्ट जारी होने के कुछ ही घंटों बाद, अज्ञात बंदूकधारियों ने श्रीनगर में अखबार के कार्यालय के बाहर राइजिंग कश्मीर के संपादक वरिष्ठ पत्रकार शुजात बुखारी की हत्या कर दी.

अन्य उत्पीड़न के अलावा, संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में हिंसक प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पैलेट गन के इस्तेमाल का जिक्र है जिसके परिणामस्वरूप मौतें हुईं और लोगों को गंभीर चोटें आईं. आधिकारिक सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जुलाई 2016 से अगस्त 2017 के बीच पैलेट गन से  17 लोगों की मौत हुई. जनवरी 2018 में, जम्मू और कश्मीर की मुख्यमंत्री ने विधानसभा को बताया कि पैलेट गन से 6,221 लोग घायल हुए.

रिपोर्ट में मानवाधिकार उल्लंघन के लिए मिले अभयदान और न्याय तक पहुंच के अभाव पर चिंता व्यक्त की गई है. रिपोर्ट कहती है कि सशस्त्र बल (जम्मू और कश्मीर) विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्स्पा) और जम्मू और कश्मीर लोक सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) ने "ऐसी संरचनाएं बनाई हैं जो सामान्य कानूनी कार्यप्रणाली में बाधा डालती हैं, जिम्मेदारी तय करने में अड़चन पैदा करती हैं और मानवाधिकार उल्लंघन से निवारण के पीड़ितों के अधिकार को खतरे में डालती हैं."

अफ्स्पा कानून, जो उत्तर पूर्व भारत के कई राज्यों में भी लागू है, सशस्त्र बलों को कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए गोली मारकर हत्या करने, लोगों को वारंट के बिना गिरफ्तार करने और अनिश्चित समय के लिए हिरासत में रखने की शक्ति प्रदान करता है. यह कानून केंद्र सरकार की इजाज़त, जो शायद ही कभी दी जाती है, के बिना सैनिकों के अभियोजन से रोकता है, जिससे कि उन्हें गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों से पूरी तरह अभयदान मिल जाता है.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने जम्मू और कश्मीर में लम्बे अरसे से चली आ रही शिकायतों को दूर करने में भारत की विफलताओं का बार-बार दस्तावेजीकरण किया है और अफ्स्पा कानून को वापस लेने संबधी ओएचसीएचआर की मांग को दोहराया है. भारत की कई विशेषज्ञ समितियों ने अफ्स्पा कानून वापस लिए जाने के साथ-साथ अतीत में मानवाधिकार के उल्लंघनों को संबोधित करने के लिए उपायों की भी सिफारिश की है, लेकिन भारत सरकार ने इन सिफारिशों को नजरअंदाज कर दिया है.

ओएचसीएचआर रिपोर्ट में लोक सुरक्षा अधिनियम को भी वापस लिए जाने की मांग की गई है. रिपोर्ट के मुताबिक मार्च 2016 से अगस्त 2017 के बीच बच्चों सहित एक हज़ार से अधिक लोगों को हिरासत में लेने के लिए इस कानून का इस्तेमाल किया गया. जैसा कि ह्यूमन राइट्स वॉच और अन्य एजेंसियों के दस्तावेज बताते हैं, लोक सुरक्षा अधिनियम एक प्रशासकीय हिरासत कानून है जिसमें बिना आरोप या अदालती सुनवाई के दो साल तक के हिरासत का प्रावधान है. अक्सर इसका इस्तेमाल नियमित आपराधिक न्याय सुरक्षा की अनदेखी करते हुए लोगों को लंबे समय तक संदिग्ध आधार पर हिरासत में रखने के लिए किया गया है.

रिपोर्ट में, अतीत में कश्मीरी हिंदू पंडितों की हत्या और उनके जबरन विस्थापन, और विवशकारी या अनैच्छिक गुमशुदगी जैसे उत्पीड़नों के लिए भी अभयदान का उल्लेख किया गया है. रिपोर्ट के मुताबिक सुरक्षा बलों द्वारा कथित यौन हिंसा और अनजान कब्रों, जिसके बारे में कई लोगों का मानना ​​है कि इनमें जबरन गायब होने वाले व्यक्तियों के अवशेष हो सकते हैं, की विश्वसनीय जांच की दिशा में बहुत थोड़ी कोशिशें हुई हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि यद्यपि "एनजीओ, मानवाधिकार रक्षक और पत्रकार भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर में काम करने में सक्षम हैं," फिर भी सितंबर 2016 में भारतीय अधिकारियों ने कश्मीरी मानवाधिकार कार्यकर्ता खुर्रम परवेज को गिरफ्तार कर लिया था. उन्हें इसलिए हिरासत में लिया गया ताकि सड़क पर हो रहे हिंसक विरोध-प्रदर्शनों पर सुरक्षा बल की कार्रवाई के बारे में चिंताओं को उठाने के लिए जिनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद जाने से रोका जा सके. कई संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने सार्वजनिक रूप से उनकी तत्काल रिहाई की मांग की. उनके अनुसार यात्रा प्रतिबंध और हिरासत "उनके वैध मानवाधिकार सक्रियता में बाधा डालने की एक सोची-समझी कोशिश थी." नवंबर में रिहा होने से पहले परवेज़ ने 76 दिन हिरासत में बिताए.

रिपोर्ट में राज्य सरकार द्वारा संचार माध्यमों पर बार-बार लगाई गई पाबंदियों और मोबाइल और इंटरनेट सेवाएं बंद करने की बात दर्ज है. साथ ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध, मीडिया और पत्रकारों को निशाना बनाए जाने पर भी चर्चा की गई है. 2016-17 में हुए व्यापक प्रतिरोध, कर्फ्यू की लंबी अवधि, बार-बार हड़तालों और स्कूलों में आगजनी का समग्र रूप से  छात्रों और उनके शिक्षा के अधिकार पर व्यापक प्रभाव पड़ा.

यह रिपोर्ट पाकिस्तान द्वारा प्रशासित कश्मीर और गिलगित-बल्तिस्तान में हो रहे उत्पीड़नों की भी चर्चा करती है. इसमें असहमति को दबाने के लिए आतंकवाद निरोधी कानूनों के दुरुपयोग और अभिव्यक्ति तथा विचार की स्वतंत्रता, शांतिपूर्वक एकत्र होने और संगठन बनाने के अधिकारों पर प्रतिबंधों पर चर्चा की गई है.

गांगुली ने कहा, "भारत सरकार को चाहिए कि वर्तमान संघर्ष-विराम सहित इस मौके का उपयोग  अपनी कार्यप्रणाली दुरुस्त करने और दशकों के उत्पीड़न के लिए न्याय और शिकायत निवारण प्रदान करने में करे. सभी पक्षों द्वारा मानवाधिकार उत्पीड़न को संबोधित करना जम्मू-कश्मीर में हिंसा और अभयदान के इस क्रूर चक्र को ख़त्म करने की दिशा में सबसे बड़ी उम्मीद है."

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