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भारत: दलित अधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी

आतंकनिरोधी कानून का राजनीतिक इस्तेमाल बंद हो

दलित संगठनों द्वारा बुलाये गए राष्ट्रव्यापी हड़ताल में विरोध प्रदर्शन करते दलित समुदाय के लोगों को रोकती पुलिस, 2 अप्रैल, 2018, चंडीगढ़, भारत.    © 2018 रॉयटर्स/अजय वर्मा
(न्यू यॉर्क) - एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया और ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत सरकार को दलित अधिकार कार्यकर्ताओं को उनके कार्यों के लिए गिरफ्तार करने पर रोक लगानी चाहिए. आतंकवाद संबंधी कथित अपराधों के लिए पांच दलित और आदिवासी अधिकार कार्यकर्ताओं की हालिया गिरफ्तारी और हिरासत राजनीति से प्रेरित लगती है.

महाराष्ट्र पुलिस ने 6 जून, 2018 को सुरेंद्र गडलिंग, रोना विल्सन, सुधीर ढवाले, शोमा सेन और महेश राउत को भारत के प्रमुख आतंकनिरोधी कानून, गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) और भारतीय दंड संहिता के कई धाराओं के तहत गिरफ्तार किया.  महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव और उसके आस-पास के गांवों में 1 जनवरी को कथित रूप से जातीय हिंसा भड़काने के लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया.

एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के कार्यकारी निदेशक आकार पटेल ने कहा, “यह पहली बार नहीं है कि दलित और आदिवासी अधिकारों पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं को अपर्याप्त सबूतों के आधार पर गिरफ्तार किया गया है. सरकार को भय का माहौल पैदा करने के बजाय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने और शांतिपूर्ण तरीके से इकठ्ठा होने संबंधी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए.”

पूर्व में “अछूत” माने जाने वाले सैंकड़ों दलित 1 जनवरी को भीमा कोरेगांव में दो सौ साल पुराने उस युद्ध का जश्न मनाने के लिए इकट्ठे हुए थे जिसमें ब्रिटिश सेना के दलित सैनिकों ने पेशवा शासक को शिकस्त दी थी. दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी समूहों और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के कथित समर्थकों, जिनमें कुछ भगवा झंडे लिए हुए थे, ने इस आयोजन का विरोध किया कि   यह राष्ट्र विरोधी है क्योंकि यह औपनिवेशिक जीत का जश्न है. इस झड़प में एक व्यक्ति की मौत हो गई और कई घायल हुए. दलित मार्च के आयोजकों ने बताया कि उनका मकसद भारत में व्यापक रूप से मौज़ूद उस विचारधारा के खिलाफ अभियान शुरू करना था जिसके कारण  दलितों और मुसलमानों पर हमले होते हैं.

गिरफ्तार लोगों में से एक, गडलिंग पुलिस हिरासत में हैं. अन्य लोगों को 4 जुलाई तक न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया है. उन्हें यूएपीए कानून के तहत छह महीने तक आरोप तय किए बिना हिरासत में रखा जा सकता है. दोषी पाए जाने पर उम्रकैद हो सकती है.

ये कार्यकर्ता आदिवासियों, जैसाकि कुछ जनजातीय समूह खुद को यह नाम देते हैं, समेत भारत के कुछ सबसे गरीब और हाशिए वाले समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए वर्षों से काम करते  रहे हैं और सरकारी नीतियों के मुखर आलोचक रहे हैं. 54-वर्षीय धवाले मुंबई के दलित कार्यकर्ता हैं और विद्रोही पत्रिका के संपादक हैं. 47-वर्षीय गडलिंग एक दलित मानवाधिकार वकील हैं और इंडियन एसोसिएशन ऑफ़ पीपुल्स लॉयर्स के महासचिव हैं.

पूर्व में प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास फेलो रहे 30-वर्षीय राउत भूमि-अधिकार कार्यकर्ता हैं. उनके कामों में स्थानीय स्तर पर लोगों को संगठित करना शामिल है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि खनन परियोजनाओं से प्रभावित क्षेत्रों में लोग निर्णय प्रक्रिया का हिस्सा बनें. 60-वर्षीया सेन दलित और महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं जो नागपुर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की विभागाध्यक्ष थीं. गिरफ्तारी के एक सप्ताह बाद विश्वविद्यालय ने पुलिस हिरासत में रहने का कारण उन्हें निलंबित कर दिया. 47-वर्षीय विल्सन दिल्ली स्थित सामाजिक कार्यकर्ता हैं और राजनीतिक कैदी रिहाई समिति के सदस्य हैं, जो यूएपीए और अन्य दमनकारी कानूनों के खिलाफ अभियान चलाती है.

यूएपीए के तहत इन पांच कार्यकर्ताओं पर एक आतंकवादी संगठन का सदस्य होने, उसकी मदद करने, उसके लिए रंगरूट भरती करने और धन जुटाने के संदेह हैं. उन पर दंड संहिता के तहत समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने और आपराधिक षड्यंत्र रचने का भी आरोप है. आठ जनवरी को पुणे के एक व्यापारी द्वारा दायर की गई पुलिस शिकायत पर यह गिरफ्तारियां हुईं, जिसमें धवाले का नाम संदिग्ध के रूप में दर्ज कराया गया था. अन्य चारों के नाम उस एफ़आईआर में नहीं थे.

अधिकारियों ने इस मामले में नौ अन्य लोगों के नाम भी दर्ज कराए है. उनमें से कई कबीर कला मंच के सदस्य हैं जो गायक, कवि और कलाकारों का पुणे स्थित एक सांस्कृतिक समूह है. यह मुख्यतः दलित युवाओं का समूह है जो संगीत, कविता और नुक्कड़ नाटकों के जरिए दलितों और जनजातीय समूहों के उत्पीड़न, सामाजिक असमानता, भ्रष्टाचार और हिंदू-मुस्लिम संबंधों जैसे मुद्दों के बारे में जागरूकता फैलाता है. पुलिस का दावा है कि धवाले और कबीर कला मंच के सदस्यों ने 31 दिसंबर, 2017 को आपत्तिजनक गीत गाए और आक्रामक, उत्तेजक भाषणों से लोगों के बीच शत्रुता की भावना पैदा की, जिससे अगले दिन भीमा कोरेगांव में कथित तौर पर हिंसा भड़क गई.

पांच कार्यकर्ताओं की हिरासत की मांग करते हुए, पुलिस ने अदालत से कहा कि इन लोगों ने 31 दिसंबर को सशस्त्र सरकार विरोधी समूह प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के निर्देश और उसकी वित्तीय मदद से यह आयोजन किया था और उनके कार्य “राष्ट्र-विरोधी” थे. पुलिस ने यह भी कहा कि उन्हें कार्यकर्ताओं के घरों से पर्चे, सीडी और किताबें मिलीं, जो दर्शाती हैं कि उन्होंने माओवादियों से संपर्क साधा था और उनके लिए बैठकों की व्यवस्था की थी, जो  पुलिस के अनुसार अवैध गतिविधियों में उनकी संलिप्तता का प्रमाण हैं.

गिरफ्तारी के दो दिन बाद, पुलिस ने बताया कि उन्होंने विल्सन के लैपटॉप से एक पत्र जब्त किया जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की साजिश का जिक्र है. कार्यकर्ताओं के समर्थकों का दावा है कि ऐसा कोई भी पत्र मनगढ़ंत है.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “भारत में सरकार के आलोचकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं, ख़ास कर हाशिए के समुदायों के लिए कार्यरत लोगों को  पुलिस अक्सर आतंकनिरोधी कानूनों के जरिए निशाना बनाती है. अधिकारियों को किसी आंदोलन के वैचारिक समर्थन के लिए दंडित न करने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करना चाहिए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए.”

धवाले और कबीर कला मंच के सदस्यों सहित महाराष्ट्र में कई दलित और आदिवासी कार्यकर्ताओं को पहले भी इसी तरह के आरोपों में गिरफ्तार किया गया है. 2011 में, कबीर कला मंच के छह सदस्यों को यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया था. जनवरी 2013 में, मुंबई उच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि किसी अवैध संगठन में सदस्यता की व्याख्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार जैसी मौलिक स्वतंत्रता के आलोक में की जानी चाहिए और कि “निष्क्रिय सदस्यता” अभियोजन के लिए पर्याप्त आधार नहीं है.

धवाले को 2011 में भी यूएपीए और राजद्रोह कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था, लेकिन 40 महीने जेल में बिताने के बाद उन्हें बरी कर दिया गया था. उनकी रिहाई के फैसले में कहा गया कि पुलिस गिरफ्तारी, जब्ती और सबूत इकट्ठा करने की कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करने में विफल रही. अदालत ने कहा: “समाज में व्याप्त अन्याय को उजागर करने और इस स्थिति को बदलने की जरूरत पर जोर देने को कैसे उनके आतंकवादी संगठन के सदस्य होने का सबूत माना जा सकता है?”

भारतीय अदालतों ने फैसला दिया है कि महज़ एक विशेष दर्शन का समर्थन करने वाला साहित्य रखना अपराध नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि “केवल किसी प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता एक व्यक्ति को तब तक अपराधी नहीं बनाती जब तक कि वह हिंसा का सहारा नहीं लेता या लोगों को हिंसा के लिए प्रवृत नहीं करता या हिंसा करके या हिंसा भड़का कर अशांति नहीं पैदा करता है.”

इन निर्णयों के बावजूद, मार्च 2017 में कार्यकर्ता और शिक्षक जी.एन. साईबाबा को यूएपीए के तहत उनके घर में मिले दस्तावेजों और वीडियो के आधार पर दोषी पाया गया. इस आधार पर एक अदालत ने फैसला सुनाया कि वह एक शीर्ष माओवादी संगठन के सदस्य हैं. उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट में अपील की है.

एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया और ह्यूमन राइट्स वॉच ने भारत सरकार से बार-बार यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया है कि संगठनों पर कोई भी प्रतिबंध अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संगठन बनाने और शांतिपूर्ण एकत्र होने के अधिकारों का उल्लंघन न करे. उन्होंने गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम रद्द करने का भी आग्रह किया है. इसके प्रावधान “आतंकवाद” की अस्पष्ट और बहुत व्यापक परिभाषाओं का उपयोग करते हैं, यह बिना अभियोग 30 दिनों की पुलिस हिरासत समेत 180 दिनों तक की हिरासत का अधिकार देता है, जमानत को प्रतिबंधित करता है और कुछ हालात में ज़ुर्म का पूर्वानुमान लगाता है.

गांगुली ने कहा, “हाशिए के लोगों के अधिकारों के लिए और सरकार के उत्पीड़न के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वालों को निशाना बानाने के बजाय सरकार को प्रभावित समुदायों की शिकायतों पर ध्यान देना चाहिए.”

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