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भारत: 1984 में सिखों के क़त्लेआम का कोई न्याय नहीं

"संगठित नरसंहार" के अभियोजन की विफलता पुलिस सुधारों और सांप्रदायिक हिंसा कानून की जरुरत को सामने लाती है.

(न्यू यॉर्क)- 1984 के सिख विरोधी हिंसा के दौरान हत्याओं और उत्पीड़न के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार लोगों पर मुकदमा चलाने में उतरोत्तर भारतीय सरकारों की विफलता ने सांप्रदायिक हिंसा से निपटने में भारत की ढुलमुल कोशिशों को उजागर किया है. भारत की नई सरकार को चाहिए कि पुलिस सुधार लागू करे और उसे सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ ऐसा कानून बनाना चाहिए जिसमें सरकारी अधिकारियों को मिलीभगत और कर्तव्य का पालन नहीं करने के लिए उत्तरदायी बनाया जाए.

सरकार द्वारा नियुक्त दस आयोगों और समितियों ने 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या के बाद हजारों सिखों के खिलाफ हुए घातक हमलों की जांच की है. स्वतंत्र नागरिक समाज की जांच में पुलिस और गांधी की कांग्रेस पार्टी के नेताओं, दोनों की मिलीभगत सामने आई है. फिर भी, तीन दशक बाद केवल 30 लोगों, जिनमें ज्यादातर कांग्रेस पार्टी के निचले स्तर के समर्थक हैं, को उस हमले के लिए दोषी ठहराया गया है, जिसमें हजारों लोग मौत के शिकार और घायल हुए. न तो किसी पुलिस अधिकारी को दोषी ठहराया गया और न ही बलात्कार के लिए कोई मुकदमा चला- यह न्याय प्रणाली की व्यापक विफलता को सामने लाता है.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, "1984 की सिख विरोधी हिंसा के सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार लोगों पर मुकदमा चलाने में भारत की विफलता ने न केवल सिखों को न्याय से वंचित किया है, बल्कि इसने सभी भारतीयों को सांप्रदायिक हिंसा के सामने और असुरक्षित बना दिया है. सरकारी तंत्र ने बार-बार सिखों के खिलाफ अत्याचारियों की रक्षा के लिए जांच में बाधा डाली, इसने भारत की न्याय व्यवस्था में आम लोगों के अविश्वास को गहरा किया."

1980 के दशक के शुरू में, पंजाब के सिख अलगाववादियों ने मानवाधिकारों का गंभीर उल्लंघन किया. इनमें नरसंहार, हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमला और भीड़ भरे स्थानों पर अंधाधुंध बम हमले जैसे घटनाएँ शामिल थीं. जून 1984 में, सरकार ने अमृतसर स्थित सिखों के सबसे पवित्र तीर्थस्थल स्वर्ण मंदिर पर कब्जा किए आतंकवादियों को हटाने के लिए सैनिक तैनात किया.  सैन्य अभियान में मंदिर को गंभीर नुकसान पहुंचा और तीर्थयात्रियों, आतंकवादियों और सुरक्षा कर्मियों सहित सैकड़ों लोग मारे गए. बदले की कार्रवाई करते हुए 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या उनके ही दो सिख अंगरक्षकों ने कर दी.

हत्या के बाद भीड़, जो अक्सर कांग्रेस पार्टी के नेताओं द्वारा उकसाई गई थी, दिल्ली और अन्य शहरों में सिखों के खिलाफ हिंसा पर उतारू हो गई. तीन दिनों में कम-से-कम 2,733 सिख मारे गए,  उनकी संपत्ति लूटी और नष्ट कर दी गई. राजधानी में कई महिलाओं का बलात्कार किया गया. देश के दूसरे हिस्सों में भी सैकड़ों सिख मारे गए. सरकार ने बिना देरी किये व्यापक सांप्रदायिक हिंसा की हर घटना केलिए जनता की स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया को जिम्मेदार ठहराया.  गांधी के पुत्र और उत्तराधिकारी राजीव गांधी ने राजधानी दिल्ली की एक रैली में कहा, "जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती डोलती है."

इस घटना के बाद बहुत से पीड़ितों, गवाहों और दोषी व्यक्तियों की मृत्यु हो गई है. हर गुजरते वर्ष के साथ न्याय और जवाबदेही तय करने की आशाएं और अधिक धूमिल होती जा रही हैं. शक्तिशाली संदिग्धों द्वारा कथित तौर पर गवाहों को डराने-धमकाने के बाद कई मामले रफा-दफा हो गए. अन्य मामलों में, पुलिस की ढुलमुल जांच और सबूतों के साथ छेड़छाड़ के कारण  अभियुक्त बरी हो गए.

1984 दंगों की जांच और सांप्रदायिक हिंसा की लगातार जारी समस्या के हल के लिए, ह्यूमन राइट्स वॉच भारत सरकार से मांग करता है कि:

• पुलिस द्वारा बंद कर दिए गए 237 मामलों समेत 1984 की हिंसा के मामलों की  स्वतंत्र और समयबद्ध जांच की जाए, जाँच दल को अभियोजन चलाने की अनुशंसा करने का अधिकार हो.

• अपराधियों को बचाने के लिए पुलिस पर राजनीतिक दबाव से मुक्त रखने के लिए पुलिस सुधार लागू करे. 1984 (दिल्ली), 1992 (मुंबई), 2002 (गुजरात), और 2013 (मुजफ्फरनगर) की सांप्रदायिक हिंसा में पुलिस पर राजनीतिक दबाव के ऐसे मामले सामने आए थे.

• जैसा कि सर्वोच न्यायालय ने अनुशंसा की है, राज्य और जिला, दोनों स्तर पर पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गठन करे जो गंभीर पुलिस दुर्व्यवहार के सार्वजनिक शिकायतों की जांच करेगा.
• पीड़ितों और गवाहों को धमकियों से बचाने और उनके उत्पीड़न, जैसा कि 1984 के दंगों के बाद हुआ, को खत्म करने के लिए एक प्रभावी गवाह सुरक्षा कार्यक्रम शुरू करे.

• अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानकों के अनुरूप लंबित पड़े सांप्रदायिक हिंसा संबंधी कानून को बनाए, यह राज्य के अधिकारियों को उच्चतम जिम्मेदारी के साथ सांप्रदायिक हिंसा रोकने और समाप्त करने में नाकाम रहने के लिए उन्हें उत्तरदायी बनाएगा. विस्थापित लोगों,  राहत तक पहुंच, स्वैच्छिक वापसी और पुनर्वास के लिए बगैर भेदभाव के कदम उठाए. इन कदमों को उठाते समय 'आंतरिक विस्थापन पर संयुक्त राष्ट्र के मार्गदर्शक सिद्धांतों' और 'उपचारात्मक और पुनर्स्थापना कार्यों सम्बन्धी संयुक्त राष्ट्र के बुनियादी सिद्धांतों और दिशानिर्देशों' का अनुपालन करे.

गांगुली ने कहा, "भयावह नरसंहार के तीस साल बाद भारत में अभी भी सांप्रदायिक हिंसा भड़क जाती है. यह जवाबदेही के बारे में वैसी ही चिंताओं को सामने रखती है. 1984 की हिंसा की पटकथा लिखने वालों को कानून के दायरे में लाने के लिए शुरूआती कदम उठाने में भारतीय सरकार की असफलता ने अराजकता का माहौल बनाए रखा है. यह इस तरह के हमलों में राज्य की सहभागिता को समाप्त करने के लिए नई प्रतिबद्धता की मांग करता है."

1984 की सिख विरोधी हिंसा: दण्डमुक्ति के 30 साल

पुलिस जांच की विफलता

 फैक्ट फाइंडिंग दलों और नागरिक समाज समूहों ने पाया है कि 1984  की सिख विरोधी हिंसा का नेतृत्व तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और इससे सहानुभूति रखने वालों ने किया और अक्सर उन्होंने ही इसका षड़यंत्र भी रचा था. इनमें से कुछ बाद में सांसद बने या सरकारी पदों पर आसीन भी रहे. हमलों के दौरान पुलिस मूकदर्शक और अक्सर इनमें वह सहअपराधी भी बनी रही. हिंसा के लिए इन लोगों की जिम्मेदारी तय करने की बजाय, पिछले 30 वर्षों में इसमें शामिल कई पुलिस अधिकारियों और कांग्रेस पार्टी के नेताओं का ओहदा बढ़ाया गया.

दिल्ली पुलिस ने अंत में हिंसा के तीन दिनों के दौरान जिसमें 2,733 लोग मारे गए थे, केवल 587 प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर), आधिकारिक शिकायतें दर्ज कीं. इनमें से, पुलिस ने साक्ष्य का पता लगाने में असमर्थता की बात कहते हुए बिना जांच के 241 मामलों को बंद कर दिया. सरकार द्वारा नियुक्त सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायधीश जी.टी. नानावती के नेतृत्व वाले  आयोग द्वारा 2005 में सौपीं गई एक रिपोर्ट के बाद बंद किए गए चार मामलों की फिर से जांच शुरू की गई.

सरकार द्वारा गठित ज्यादातर आयोगों और सिविल सोसाइटी संगठनों की जांच में यह बात सामने आई कि इंदिरा गांधी की मृत्यु की खबर फैलाने के बाद 31 अक्तूबर को स्वतः हिंसा भड़क उठी. लेकिन अगली सुबह यह एक सोचे-समझे नरसंहार में बदल गया. 2005 में गठित नानावती आयोग ने कहा है कि विभिन्न इलाकों में हुई हिंसा में एक समान पैटर्न देखने को मिलता है:

हमले सुनियोजित तरीके से और पुलिस से डरे बिना किए गए थे; यह साफ़-साफ़ संकेत करता है कि वे आश्वस्त थे कि इन कृत्यों को अंजाम देते वक़्त और इसके बाद भी उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा. सिख समुदाय के पुरुष सदस्यों को उनके घरों से बाहर ले जाया गया. उन्हें पहले पीटा गया और फिर सुनियोजित तरीके से जला दिया गया. कुछ मामलों में उनकी गर्दनों में टायर लटका दिए गए और फिर उन पर कैरोसीन या पेट्रोल डालकर आग लगा दी गई. कुछ मामलों में उन पर सफेद ज्वलनशील पाउडर फेंका गया था जिसमें तुरंत आग लग गई. कुछ क्षेत्रों में तबाही मचाने वाली विशाल भीड़ ने ऐसा ही एक समान तरीका अपनाया था. दुकानों की पहचान की गई, उन्हें लूटा गया और फिर उनमें आग लगा दी गई. इस तरह शुरूआत में जो गुस्सा फूटा था वह एक संगठित नरसंहार बन गया.

2005 में, नानावती रिपोर्ट पर संसद में चर्चा के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री और कांग्रेस पार्टी के नेता मनमोहन सिंह, जो खुद एक सिख हैं, ने 1984 की सिख विरोधी हिंसा के लिए माफी मांगी थी. उन्होंने कहा था, "मुझे न केवल सिख समुदाय बल्कि पूरे देश से माफी माँगने में कोई हिचकिचाहट नहीं है क्योंकि 1984 में जो हुआ, वह राष्ट्रीयता की अवधारणा और हमारे संविधानिक मूल्यों के खिलाफ है. ऐसे में, मैं किसी झूठी प्रतिष्ठा की ज़मीन पर खड़ा नहीं रहना चाहता. अपनी सरकार, इस देश की जनता की तरफ से, मैं शर्म से सर झुकाता हूं कि ऐसी चीज हुई." लेकिन साथ ही अपने भाषण में सिंह ने हत्याओं के लिए सरकार की जिम्मेदारी स्वीकार नहीं की. उन्होंने कहा, "रिपोर्ट हमारे सामने है जो एक बात जो स्पष्ट रूप से बताती है कि कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ कोई भी सबूत नहीं है."

सिविल सोसायटी की जांच

नागरिक समाज समूहों की कई रिपोर्टों, जांच एवं प्रत्यक्षदर्शियों के विवरणों से यह बात सामने आई है कि इस तरह का सुनियोजित जनसंहार राज्य की मिलीभगत के बिना नहीं हो सकता.  हिंसा के कुछ ही समय बाद दो भारतीय मानवाधिकार संगठनों, पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की एक फैक्ट फाइंडिंग टीम ने दिल्ली दंगों के कारणों की अपनी जांच के आधार पर हू आर द गिल्टी? (दोषी कौन हैं?) रिपोर्ट प्रकाशित की. इसने यह निष्कर्ष निकाला कि हिंसा "कांग्रेस(आई) के शीर्ष नेताओं और प्रशासन के अधिकारियों की सांठ-गांठ से की गई सुसंगठित योजना" का नतीज़ा थी.

जनवरी 1985 में, गैर सरकारी संगठन सिटीजन्स फॉर डेमोक्रेसी ने दंगों की जांच की और निष्कर्ष निकाला कि हिंसा अपने आप नहीं भड़की बल्कि इसे कांग्रेस पार्टी के सदस्यों द्वारा सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया. रिपोर्ट के अनुसार, हिंसा "मुख्य रूप से बहुसंख्यक समुदायों में जुनून पैदा करने का जरिया थी."

2004 में, सिखों के अधिकार के लिए काम करने वाले एक संगठन इंसाफ (ईएनएसएएएफ) ने ट्वेंटी इयर्स ऑफ़ इम्पुनिटी रिपोर्ट जारी की थी. इसमें एक बार फिर से यह बताया गया किया कि कैसे वरिष्ठ नेताओं, जिनमें से ज्यादातर स्पष्ट रूप से कांग्रेस पार्टी के थे, ने "योजनाबद्ध तरीके से हिंसा रची, भीड़ की तैनाती, हथियार और केरोसिन जैसे विवरण मुहैया कराए, साथ ही साथ पुलिस का समर्थन और उसकी सहभागिता सुनिश्चित कराई." रिपोर्ट के मुताबिक नरसंहार को अंजाम देने में कांग्रेस पार्टी राज्य सरकार के साधनों का उपयोग करने में सफल रही , जैसे कि सरकारी बसों का इस्तेमाल सिख आबादी वाले इलाकों को भीड़ को पहुंचाने के लिए किया गया.

सरकारी आयोगों की रिपोर्टें

दिल्ली में सिख विरोधी हिंसा की जांच के लिए सरकार ने दस अलग-अलग कमीशन और समितियों का गठन किया. नरसंहार के तुरंत बाद नवंबर,1984 में केंद्र सरकार ने अतिरिक्त पुलिस आयुक्त वेद मारवाह को नरसंहार के दौरान पुलिस की भूमिका की जांच के लिए नियुक्त किया. लेकिन इससे पहले कि मारवाह आयोग अपनी जांच पूरी कर रिपोर्ट जमा करता, सरकार ने मई, 1985 में आयोग को जांच रोकने को कहा. इस फैसले का आधिकारिक कारण यह बताया गया था कि मारवाह आयोग के गठन के महीने में ही एक न्यायिक जांच आयोग का गठन सुप्रीम कोर्ट के जज रंगनाथ मिश्रा के नेतृत्व में किया गया था और समग्रता में हिंसा की जांच के लिए यह आयोग जरूरी था.

मिश्रा आयोग ने 1986 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. पारदर्शिता की कमी के कारण इस आयोग की आलोचना की गई. इसने बंद कमरे में अपनी कार्यवाही दर्ज की थी, मीडिया को रिपोर्ट करने की अनुमति नहीं थी और पीड़ितों के वकीलों को गवाहों के साथ जाने या उनसे पूछ-ताछ करने की अनुमति नहीं थी. यहाँ तक कि पीड़ितों के प्रतिनिधियों को शपथपत्रों की प्रतियां भी प्राप्त नहीं हुईं. हालाँकि रिपोर्ट में यह स्वीकार किया गया कि इंदिरा गांधी की मृत्यु की खबरों के बाद भड़की स्वतःस्फूर्त हिंसा बाद में "संगठित दंगों में" बदल गई थी. लेकिन रिपोर्ट में इसके लिए "समाज-विरोधी तत्वों" को दोषी ठहराया गया. इसमें कहा गया कि कई दंगाई कांग्रेस के निचले स्तर के कार्यकर्ता या पार्टी समर्थक थे, लेकिन रिपोर्ट का निष्कर्ष था कि कांग्रेस पार्टी या पार्टी के किसी वरिष्ठ अधिकारियों का दंगों में हाथ नहीं था.

मिश्रा आयोग ने हिंसा के विशिष्ट पहलुओं की जांच के लिए तीन अलग-अलग समितियां स्थापित करने की सिफारिश की: दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश दलिप कपूर और केंद्र सरकार के सेवानिवृत्त सचिव कुसुम लता मित्तल के नेतृत्व में पुलिस की भूमिका की जांच के लिए एक समिति का गठन किया गया; नेताओं के खिलाफ मामले दर्ज करने की सिफारिश करने के लिए दूसरी समिति दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एम.एल. जैन और सेवानिवृत्त पुलिस महानिरीक्षक ए.के. बनर्जी के अधीन स्थापित की गई और तीसरी समिति दिल्ली के गृह सचिव आर.के. आहूजा के नेतृत्व में बनी जिन्हें दिल्ली में हुई कुल मौतों का पता लगाना था.

आहुजा समिति ने मृतकों की संख्या 2733 निर्धारित की, हालांकि नागरिक समाज समूहों का मानना है कि यह आंकड़ा वास्तविक मौतों से कम है.

कपूर-मित्तल समिति के दो सदस्यों के बीच व्यक्तिगत पुलिस अधिकारियों के अभियोग के मामले में मतभेद थे. यह समिति केवल एक प्रशासनिक समिति थी जिसे पुलिस अधिकारियों की जांच या उन्हें बुलाने का अधिकार नहीं था. इसलिए कपूर का मानना था कि समिति किसी भी पुलिसकर्मी पर अभियोग नहीं लगा सकती. लेकिन मित्तल ने इससे असहमति जताई. मिश्रा आयोग से एकत्र किए गए सभी हलफनामों और सामग्री के आधार पर, उन्होंने 1990 में एक अलग रिपोर्ट सौंपी जिसमें 72 पुलिस अधिकारियों को दोषी ठहराया गया और सिफारिश की गई कि एक बाहरी एजेंसी दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करे. मित्तल ने लिखा, "दिल्ली पुलिस के अधिकारियों की विभागीय जांच से कोई परिणाम नहीं निकलेगा." लेकिन इस सिफारिश की पूरी तरह से उपेक्षा करके केवल विभागीय जांच की गई और लगभग सभी ऐसी जांच में अभियुक्तों को निर्दोष बताया गया.

जैन-बनर्जी समिति ने सिफारिश की थी कि पूर्व सांसद और कांग्रेस नेता सज्जन कुमार के खिलाफ पुलिस मामला दर्ज करे. लेकिन एक अन्य कांग्रेस नेता ब्रह्मानंद गुप्ता,जो इसी मामले में कथित हत्या और दंगों के आरोपी थे, ने दिल्ली उच्च न्यायालय से समिति के खिलाफ स्थगन आदेश प्राप्त कर लिया. अगस्त 1989 में उच्च न्यायालय ने गुप्ता की याचिका को सही ठहराया और समिति को तत्काल प्रभाव से भंग कर दिया. पांच महीने बाद, दिल्ली प्रशासन ने जैन-बनर्जी समिति की जगह एक नई पोटी-रोशा समिति का गठन किया. सज्जन कुमार के खिलाफ मामला दर्ज करने सहित इसने करीब तीस हलफनामों पर कार्रवाई की सिफारिश की. केंद्रीय जांच ब्यूरो की गिरफ्तारी से बचने के लिए कुमार ने अग्रिम जमानत ले ली. समिति के अध्यक्ष ने बाद में जांच को निलंबित कर दिया और समिति से अलग हो गए.

एक और समिति का गठन दिल्ली उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जे.डी. जैन और उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिरीक्षक डी.के. अग्रवाल के अधीन किया गया. इसने सज्जन कुमार और पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस सांसद एचकेएल भगत के खिलाफ मामला दर्ज करने की  सिफारिश की. लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई.

1985 में गुरदयाल सिंह ढिल्लों की अध्यक्षता वाली एक समिति को पीड़ितों के पुनर्वास सम्बन्धी उपायों की सिफारिश करने के लिए नियुक्त किया गया.

1994 में भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना की अगुवाई वाली दिल्ली सरकार ने पिछली समितियों के निष्कर्षों की समीक्षा के लिए पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश रंजीत एस नरुला को नियुक्त किया. तब भारतीय जनता पार्टी केंद्र में विपक्ष में थी. उन्होंने भी कांग्रेस नेता एचकेएल भगत और सज्जन कुमार के खिलाफ आरोप दर्ज करने की सिफारिश की.

अंतिम आयोग साल 2000 में सेवानिवृत्त न्यायाधीश नानावती के अधीन गठित किया गया   जिन्होंने सार्वजनिक सुनवाई की और नए हलफनामे आमंत्रित किए. मिश्रा आयोग की पहली न्यायिक जांच की ही तरह इसने भी माना कि हमले सुनियोजित थे लेकिन इसने भी जिम्मेदारी तय नहीं की. आयोग ने कहा, "लेकिन प्रभावशाली और मददगार व्यक्तियों के समर्थन और सहायता के बिना इतनी तेजी से और बड़ी संख्या में सिखों का नरसंहार नहीं हो सकता था" और भीड़ जुटाने और "उन्हें हथियार और ज्वलनशील पदार्थ मुहैया करने के लिए भी एक संगठित प्रयास की जरुरत थी."

हिंसा में राजनीतिक मिलीभगत

पीड़ित और गवाहों के बयान और शपथपत्रों के मुताबिक कांग्रेस पार्टी के नेता दंगों वाली जगह पर मौजूद थे, वे सक्रिय रूप से हिंसा में भाग ले रहे थे या भीड़ को उकसा रहे थे. नानावती आयोग को सौंपे गए कई हलफनामों में कांग्रेस सांसद सज्जन कुमार को दंगाई भीड़ को सिखों को मारने और उनकी संपत्ति लूटने और जलाने के लिए उकसाने का दोषी बताया गया.

दक्षिणी दिल्ली के चांद नगर की अमरजीत कौर ने विशेष रूप से कुमार का नाम उस व्यक्ति के रूप में लिया जिसने उनके पति को जिंदा जलाकर मार डालने वाली भीड़ का नेतृत्व किया था. पश्चिम दिल्ली के सुल्तानपुरी के कई निवासियों ने एक नवंबर की सुबह भीड़ को उकसाने वाले शख्स के बतौर सज्जन कुमार का नाम लिया था, जो यह  कह रहे थे, "सिखों ने हमारी इंदिरा गांधी को मार डाला है, अब सिखों को मारो, लूटो और जलाओ." कुछ मामलों में पीड़ितों ने आरोप लगाया था कि जब वे शिकायत दर्ज करने के लिए गए तो पुलिस ने कुमार का नाम शामिल करने से इनकार कर दिया. आखिरकार कुमार को हत्या के दो मामलों में आरोपित किया गया. इनमें से एक मामले में उन्हें बरी कर दिया गया है और दूसरे में सुनवाई लंबित है. उनको बरी किये जाने के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में एक अपील लंबित है.

हिंसा में कथित संलिप्तता या शरीक होने के लिए हलफनामों में ख़ास तौर पर कांग्रेस पार्टी के कई अन्य नेताओं, सांसदों और पार्षदों को नामित किया गया था. संसद सदस्य जगदीश टाइटलर के खिलाफ प्रस्तुत साक्ष्यों की जांच करते हुए नानावती कमीशन ने कहा:

इस सभी सामग्रियों पर देखते हुए, आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि श्री जगदीश टाइटलर के खिलाफ विश्वसनीय सबूत हैं कि शायद सिखों पर हमले आयोजित करवाने में उनका हाथ था. इसलिए, आयोग सरकार को इस पहलू पर विचार करने और आवश्यक पाने पर आगे की कार्रवाई करने की सिफारिश करता है.

इन आरोपों के बावजूद, टाइटलर का राजनीतिक सितारा चमका और वे राजीव गांधी सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री बनाए गए. नानावती आयोग की रिपोर्ट के बाद, केंद्रीय जांच ब्यूरो को उनके खिलाफ आरोपों की जांच के लिए कहा गया. दो बार, 2007 में और फिर 2009 में, केंद्रीय जांच ब्यूरो ने टाइटलर के मामले को सबूतों के आभाव में बंद कर दिया, लेकिन अप्रैल 2013 में दिल्ली की अदालत ने एजेंसी को मामले में आगे जांच करने का आदेश दिया. अभी जांच लंबित है.

नानावती  आयोग ने पाया कि पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस सांसद एचकेएल भगत और त्रिलोकपुरी के स्थानीय कांग्रेस नेताओं रामपाल सरोज और डॉ अशोक ने "इस सिख विरोधी दंगों में सक्रिय भूमिका निभाई." त्रिलोकपुरी दिल्ली के सबसे ज्यादा दंगा प्रभावित मोहल्लों में से था. इसके बावजूद आयोग आपराधिक मामलों में उनके बरी होने का हवाला देते हुए उनके खिलाफ कोई और कार्रवाई करने की सिफारिश करने में विफल रहा जबकि यह पाया गया कि ज्यादातर मामलों में लचर पुलिस जांच के कारण आरोपी बरी कर दिया गए थे. भगत का राजनीतिक करियर भी दंगों के बाद परवान चढ़ा और वह राजीव गांधी की सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाए गए. उन पर दो मामलों में मुकदमा चला लेकिन उन्हें बरी कर दिया गया. एक मामले में, धमकी मिलने की खबरों के बीच मुख्य गवाह अदालत में अपने बयान से पलट गया. दूसरे मामले में एक अपील लंबित थी लेकिन अल्जाइमर रोग के असर से गिरते मानसिक स्वास्थ्य के कारण उन्हें सुनवाई के अयोग्य माना गया. साल 2005 में भगत का निधन हो गया.

केवल दो वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं को दोषी ठहराया गया. पूर्व पार्षद बलवान खोखर को हत्या के लिए उम्र कैद की सजा सुनाई गई थी, जबकि विधानसभा के पूर्व सदस्य महेंद्र यादव को दंगे के लिए तीन साल के कारावास की सजा मिली. यादव अभी जमानत पर जेल से बाहर हैं.

पुलिस की लचर जांच और उसके द्वारा एकत्र किए गए अपर्याप्त साक्ष्य के कारण हिंसा के लिए आरोपित कांग्रेस पार्टी के अधिकांश वरिष्ठ नेताओं पर या तो कभी मुकदमा चलाया ही नहीं गया या वे बरी कर दिए गए. कई न्यायाधीशों ने अपने फैसलों में पुलिस की जांच में चूक को दोषमुक्त किये जाने का कारण बताया. उदाहरण के लिए, न्यायाधीश एस. एन. ढींगरा ने राज्य बनाम राम पाल सरोज मामले, जिसकी सुनवाई दंगों के 11 साल बाद शुरू हुई थी, में टिप्पणी की थी कि "अदालत में दंगा के हर मामले में दायर पुलिस जांच की गुणवत्ता में कमी रही है."

अभियोजन में बहुत देरी से भी दंगा के कई मामलों में शिकायतकर्ताओं, गवाहों के साथ ही साथ दोषी व्यक्तियों की भी मौत हो गई है. ऐसी देरी पर न्यायाधीश ढींगरा ने टिप्पणी की थी:

जिस तरीके से दंगा मामलों की सुनवाई आगे बढ़ी वह किसी भी सभ्य देश में सोच से परे है. दरअसल, दंगाइयों की सुनवाई में अत्यधिक देरी ने हिंसा और अपराध की मानसिकता को वैधता प्रदान किया. एक व्यवस्था जो राज्य के साधनों के माध्यम से जांच को दबाने के लिए वैध हिंसा और अपराधियों को अनुमति देती है,  उस पर यह भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह लोगों को समान रूप से बुनियादी न्याय सुनिश्चित करे. यह कानून के शासन को मिटा देने के सामान है.

हिंसा में पुलिस की सहअपराधिता

दंगों और जांच के दौरान दिल्ली पुलिस की भूमिका की तहक़ीक़ात कई आधिकारिक जांच के साथ-साथ स्वतंत्र वकीलों और नागरिक समाज संगठनों द्वारा भी की गई है.

ज्यादातर जांच और पीड़ितों के विवरण यह बताते हैं कि कई मामलों में पुलिस ने आरोपी के खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं की. इस बात के भी प्रमाण हैं कि पुलिस ने अक्सर ऐसी प्राथमिकी दर्ज की जिसमें अपराधियों या मृतकों के नाम के लिए कॉलम नहीं थे, साथ ही उनमें सम्बद्ध घटनाओं के बारे में कोई तथ्य नहीं था. कानून के मुताबिक प्रत्येक घटना के लिए अलग-अलग प्राथमिकी दर्ज करने के बजाय, पुलिस ने विभिन्न स्थानों पर हुई कई घटनाओं को जोड़ कर एक "सामान्य, अस्पष्ट और सर्वव्यापी प्राथमिकी दर्ज की" और घटनाओं की उचित जांच करने में विफल रही. प्राथमिकी दर्ज करते समय, पुलिस हत्या का मामला दर्ज करने के प्रति उदासीन थी और अक्सर कम गंभीर आरोपों के साथ मामले दर्ज किए गए. उदाहरण के लिए, पूर्वी दिल्ली के गांधी नगर पुलिस स्टेशन के दारोगा राम मेहर शर्मा ने नानावती आयोग को बताया कि जिला स्तर पर कुछ चर्चा हुई और यह निर्णय लिया गया था कि दंगों के दौरान हुई मौतों के सभी मामलों को भारतीय दंड संहिता की धारा 304 (गैर-इरादतन हत्या) के तहत हुए अपराध के रूप में दर्ज किया जाए, न कि धारा 302 (हत्या) के तहत. .

जिन कुछ मामलों में आरोप दर्ज किये गए थे, पुलिस अदालत में उचित साक्ष्य देने में विफल रही. नानावती आयोग ने पाया कि ज्यादातर मामलों में पुलिस की जांच "पूरी तरह से काम-चलाऊ, लापरवाही भरी और दोषपूर्ण" थी जिसके परिणामस्वरूप आरोपी बरी हो गए.

वकील वृंदा ग्रोवर ने 2002 में नानावती कमीशन के समक्ष दर्ज कराए गए अपने बयान में ट्रायल कोर्ट द्वारा 126 मामलों में दिए गए फैसलों पर अपना विश्लेषण प्रस्तुत किया था. इन 126 मामलों में से केवल 8 मामलों में सजा हुई जबकि बाकी के 118 मामलों में आरोपी बरी हो गए. दिल्ली उच्च न्यायालय ने इन 8 मामलों में से 2 में ट्रायल कोर्ट के फैसले को निरस्त कर दिया. ग्रोवर ने आयोग को बताया:

यह स्पष्ट है कि जांच की गंभीर खामियों, स्तरहीन जांच, अत्यधिक देरी, अपर्याप्त साक्ष्य संग्रह और पुलिस द्वारा कानूनी प्रक्रियाओं का अनुपालन नहीं करने के कारण ज्यादातर मामलों के आरोपी बरी कर दिए गए. दोष सिद्ध नहीं होना बहुत हद तक पुलिस की अपर्याप्त, गैर-पेशेवर और लापरवाह जांच का  प्रत्यक्ष परिणाम था.

हिंसा में मददगार होने का आरोप

पूर्वी दिल्ली के त्रिलोकपुरी में सबसे ज्यादा हत्याएं हुईं और कुछ सबसे क्रूर और भयावह हिंसा की घटनाएं भी इसी इलाके में सामने आई थीं. मित्तल रिपोर्ट में कई हलफनामों का हवाला देते हुए कहा गया है कि पुलिस ने सिखों को खुद को बचाने से रोका. सिख पुरुष अपने साथ कृपाण (छोटी सी तलवार) रखते हैं. गवाहों ने आरोप लगाया कि पुलिस द्वारा हथियारों को जब्त कर लिया गया था. कुछ मामलों में हिंसक भीड़ से सिखों को बचाने के बजाय पुलिस ने खुद को बचाने की कोशिश करने वाले सिखों के खिलाफ झूठे मुकदमे दायर किए. पुलिस ने गवाहों को  धमकी भी दी और उन्हें पुलिस का पक्ष लेने वाले और मृतकों की संख्या को कम बताने वाले हलफनामों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया. मित्तल रिपोर्ट में कहा गया है कि ऐसे सबूत थे जो बताते हैं कि पुलिस ने "भीड़ द्वारा पूरी तरह जला नहीं पाई गई लाशों को चुपचाप इकट्ठा किया और उनका निपटारा किया."

मित्तल रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों द्वारा अपनी गतिविधि को छुपाने के लिए पुलिस लॉग बुक में हेरफेर किया गया और उत्तरदायित्व और जवाबदेही से बचने के लिए अधिकारियों ने हिंसा से जुड़े संदेशों को दर्ज नहीं किया. इसके अलावा, रिपोर्ट में पाया गया कि पुलिस कंट्रोल रूम ने ऐसी अफवाहें फैलानी शुरू कर दीं कि पानी में जहर डाला जा रहा है और पंजाब से हिंदुओं की लाशों से भरी ट्रेन पहुँच रही  हैं. इसने  भगदड़ पैदा की और भीड़ को उकसाया.

जिन पुलिस अधिकारियों ने हिंसा रोकने की हिम्मत दिखाई उनका तबादला कर दिया गया. अतिरिक्त पुलिस आयुक्त एच.सी.जाटव ने उत्तरी दिल्ली के सब्जी मंडी पुलिस स्टेशन के दो सिख पुलिस अधिकारियों को तबादला कर दिया. अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त केवल सिंह और इंस्पेक्टर गुरमैल सिंह, दोनों पर दंगों के दौरान अपनी ड्यूटी वाली जगह से गायब रहने आरोप लगाया गया, लेकिन मित्तल रिपोर्ट में कहा गया है कि यह स्पष्ट है कि उन्हें हटाया गया है क्योंकि उन्होंने 31 अक्टूबर की रात दंगे रोकने के लिए कड़ी कार्रवाई की थी. उन्होंने 90 लोगों को गिरफ्तार किया, लूटी गई संपत्ति बरामद की, एक आपराधिक मामला दर्ज किया और दंगाई भीड़ को नियंत्रित करने के लिए बल प्रयोग की अनुमति मांगी थी.

अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश करने वाले पुलिस अधिकारियों को कांग्रेस के स्थानीय नेताओं के दबाव का सामना करना पड़ा. गवाहों और न्यूज़ रिपोर्टर के अनुसार एक मामले में, लूटपाट करने के आरोप में गिरफ्तार किए गए दंगाइयों की रिहाई की मांग करने कांग्रेस सांसद धरम दास शास्त्री 5 नवंबर को कुछ स्थानीय नेताओं और करीब 3000 लोगों के साथ करोल बाग पुलिस थाने पहुंचे थे. नानावती रिपोर्ट में कहा गया है कि शास्त्री और उनके समर्थकों ने दंगाइयों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने पर पुलिस अधिकारियों को गंभीर नतीजे भुगतने की धमकी दी थी. एक गवाह के मुताबिक, कमरे में मौजूद एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने गिरफ्तारी करने वाले अपने जूनियर अधिकारियों के खिलाफ जाते हुए शास्त्री और अन्य नेताओं का पक्ष लिया था.

उत्तरदायित्व की कमी

जैन-अग्रवाल समिति और कुसुम लता मित्तल की जांच में दिल्ली पुलिस के कुल 147 सदस्यों को दोषी पाया गया. कुछ अधिकारियों के खिलाफ 25 आपराधिक मामले दर्ज किए गए थे, ज्यादातर मामलों में अलग से विभागीय जांच की गई और अधिकारियों को दोषमुक्तकर दिया गया.

बीते कुछ वर्षों में, पुलिस ने दंगों के दौरान अपनी भूमिका का यह कहते हुए बचाव किया है कि उसके पास संसाधनों की कमी थी. कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा कि वे हिंसा की व्यापकता से अनजान थे और उनके कनिष्ठ अधिकारियों ने उन्हें पर्याप्त जानकारी नहीं दी थी.

लेकिन मित्तल रिपोर्ट और नानावती आयोग, दोनों ने इस तरह के स्पष्टीकरण को खारिज कर दिया. नानावती आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि पुलिस आयुक्त एस.सी. टंडन दिल्ली में कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार थे और आयोग ने उनका यह स्पष्टीकरण अस्वीकार कर दिया कि उनके अधीनस्थों ने उन्हें सही सूचना नहीं दी थी. रिपोर्ट में कहा गया है:

कानून और व्यवस्था बनाए रखने में बड़े पैमाने पर असफलता सामने आई और पुलिस बल के प्रमुख के रूप में उन्हें इस असफलता के लिए जिम्मेदार होना होगा. घटनाक्रम खुलासा करते हैं कि पुलिस बल का रवैया संवेदनाहीन था और शहर में हो रही घटनाओं के बारे में उन्होंने उचित जानकारी नहीं रखी.

नानावती रिपोर्ट ने हालाँकि कई पुलिस अधिकारियों की सहभागिता पाई या उन्हें दोषी पाया, लेकिन दुर्भाग्य से इसने उनकी जिम्मेदारी तय करने के लिए आगे की कार्रवाई की सिफारिश करने से बचने के लिए विभागीय जांच का हवाला दिया. इन जांचों में अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम रहे और घातक हिंसा में सहभागी रहे पुलिस अधिकारियों को प्रभावी रूप से पूर्ण दंडमुक्ति प्रदान की गई.

अप्रैल 2014 में, समाचार वेबसाइट कोबरापोस्ट के स्टिंग में कई पुलिस अधिकारी पकड़े गए. इनमें से कुछ, जिन पर हिंसा भड़काने का आरोप था, उन्होंने कैमरे के सामने यह कहा कि उनकी निष्क्रियता के लिए प्रशासन और वरिष्ठ अधिकारी जिम्मेदार थे.

महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा

हिंसा की तहकीकात करने वाले अधिकांश अनुसंधान महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर काफी हद तक चुप रहे हैं. विभिन्न सरकारी कमीशनों को प्रस्तुत किए गए कुछ ही हलफनामों में इसके बारे में विस्तार से चर्चा की गई है. कई मामलों में, सामाजिक लांछना की डर से महिलाओं ने "अपमान" या "बदनामी" जैसे व्यंजनाओं का इस्तेमाल किया. पीयूसीएल-पीयूडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक, एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की तहक़ीक़ातों से यह बात सामने आई है कि "कम-से-कम चार महिलाएं, जिनकी उम्र 14 से 50 साल की थी, सामूहिक बलात्कार का शिकार हुईं. बाद में दिल्ली के जे.पी. नारायण अस्पताल ने त्रिलोकपुरी से बलात्कार के सात मामलों की आधिकारिक सूचना दी.."

प्रारंभिक आयोगों को भी पीड़ितों से ऐसे हलफनामे प्राप्त हुए थे जिसमें उन्होंने बलात्कार का आरोप लगाया था लेकिन इन पर आगे जांच नहीं हो पाई. सुल्तानपुरी क्षेत्र की पद्मी कौर ने मिश्रा आयोग को सौंपे गए अपने हलफनामे में एक नवंबर को हुई घटना का वर्णन किया और इसमें उन्होंने कांग्रेस नेता ब्रह्मानंद गुप्ता सहित भीड़ में शामिल कई लोगों को नामित किया:

कुछ समय बाद भीड़ पहुंची, हमारा दरवाजा तोड़ दिया और अंदर आ गई. उन्होंने मेरी बेटी मैना कौर को मजबूती से पकड़ा और उसके कपड़े फाड़ने लगे.... उन्होंने मेरी बेटी के हाथ-पैर तोड़ दिए और उसका अपहरण कर लिया. उन्होंने उसे अपने घर में तीन दिनों तक कैद रखा. मैं भीड़ के कुछ लोगों को जानती हूं... अब मेरी बेटी मैना कौर बीमार रहती है और उसकी हालत एक पागल की तरह हो गई है.

महिलाओं की पत्रिका मानुषी की प्रकाशक मधु किश्वर ने यौन उत्पीड़न का सबसे विस्तृत विवरण दर्ज किया था. किश्वर ने शहर के सबसे बुरी तरह प्रभावित मोहल्ला पूर्व दिल्ली के त्रिलोकपुरी की कई महिलाओं की आप-बीती दर्ज की. किश्वर ने 45 साल की महिला गुरदीप कौर की कहानी प्रकाशित की, जिन्होंने बताया था कि उनके पति और तीन बेटों की क्रूरतापूर्वक हत्या उनके सामने कर दी गई:

मेरा सबसे छोटा बेटा मेरे साथ घर में रहता था. उसने अपनी दाढ़ी साफ़ कर ली थी और अपने बाल कटवा लिए थे. 14 से 16 साल के वे लड़के मेरे पीछे छिपे मेरे बेटे को बाहर खींचने लगे. उन्होंने मेरे कपड़े फाड़ दिए और मेरे बेटे के सामने मुझे नंगा कर दिया. जब इन युवकों ने मेरा बलात्कार करना शुरू किया, तो मेरा बेटा रोने लगा और उसने कहा, "बड़े भाइयों, ऐसा मत करो. वह आपकी मां की तरह है जैसे कि वह मेरी मां है." लेकिन उन्होंने मेरे बेटे के सामने, मेरे घर में मेरा बलात्कार किया. वे युवा थे, शायद आठ की तादाद में रहे होंगे. जब उनमें से एक ने मेरा बलात्कार किया, तो मैंने कहा: "मेरे बच्चे, कोई बात नहीं. जो अच्छा लगे वो करो. लेकिन याद रखना, मैंने बच्चों को जन्म दिया है. यह बच्चा इसी रास्ते से दुनिया में आया है."

कौर ने बताया कि उनसे बलात्कार के बाद वे युवा कथित तौर पर उनके सबसे छोटे बेटे को अपने साथ ले गए और उसे जिंदा जला दिया. कौर ने किश्वर को बताया कि नौ-दस साल की लड़कियों सहित उनकी पड़ोस की ज्यादातर महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया.

पत्रकार मनोज मित्ता के अनुसार, त्रिलोकपुरी से करीब तीस सिख महिलाओं का अपहरण कर लिया गया और उन्हें करीब 24 घंटे तक पड़ोस के चिल्ला गांव में कैद कर रखा गया. लेकिन कोई जांच नहीं हुई और किसी पीड़ित को मुआवजा नहीं मिला.

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