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भारत में घृणा अपराधों के लिए मिली सज़ा

हिंसक 'गौ रक्षक' निगरानी समूहों पर लगाम ज़रूरी

एक ट्रक के पिछले हिस्से से गायों को उतारने का प्रयास करते हुए "गौ रक्षा" समूह के सदस्य. इस ट्रक को उन्होंने 8 नवंबर, 2015 को भारत के राजस्थान राज्य के रामगढ़ में रोका था. © 2015 गेट्टी इमेजज/ एलीसन जॉइस

भारत की एक अदालत ने 21 मार्च, 2018 को एक मुसलमान, अलीमुद्दीन अंसारी की पीट कर हत्या करने के लिए 11 लोगों को उम्र कैद की सज़ा सुनाई. उनके हत्यारों का मानना ​​था कि वे गोमांस का कारोबार करते थे. दोषी व्यक्तियों में सत्तारूढ़ हिंदू राष्ट्रवादी दल भारतीय जनता पार्टी के एक स्थानीय नेता भी शामिल हैं.

अनेक हिन्दू गाय को पवित्र मानते हैं. पिछले चार वर्षों में गोमांस व्यापार और इसके उपभोग के खिलाफ हिंसक निगरानी समूहों के अभियान में देश भर में कम-से-कम 29 लोगों की हत्या कर दी गई है, जिनमें ज्यादातर मुसलमान हैं. दलितों को भी निशाना बनाया गया है क्योंकि वे जानवरों के शवों को ठिकाने लगाने और उसका चमड़ा निकालने का कम करते हैं.

भारत के पूर्वी झारखंड राज्य स्थित अदालत ने मई 2014 में भाजपा द्वारा सत्ता संभालने के बाद उभरे स्व-नियुक्त "गौ रक्षकों" के हमलों के बाद से यह पहली सज़ा सुनाई है.

इसी तरह के हमलों में शामिल समूहों का भाजपा के साथ भी संबंध होता है. भाजपा शासित कई राज्यों जैसे हरियाणा, उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकारी नीतियों या निर्वाचित नेताओं के बयानों ने गौ रक्षक समूहों की हिंसा को बढ़ावा दिया है. कई वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने बार-बार धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा अपराधों को उकसाया है, जैसे कि मुसलमान पुरुषों का खौफ़ पैदा करना, जिनके बारे में वे यह आधारहीन दावा करते हैं कि भारत को मुसलमान बहुसंख्यक देश बनाने की साज़िश के लिए वे हिंदू महिलाओं का अपहरण और बलात्कार करते हैं या उन्हें प्रेम संबंधों में फांसते हैं.

सितंबर 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को निगरानी समूहों के ऐसे हमलों को रोकने के लिए कदम उठाने का निर्देश दिया था.

गौ रक्षा के नाम पर होने वाली हत्याओं के मामले में पुलिस अक्सर आरोपी के खिलाफ त्वरित कार्रवाई करने में नाकाम रही है, इसकी जगह उसने पीड़ितों और उनके सहयोगियों के खिलाफ गौ हत्या निषेध कानूनों के तहत शिकायत दर्ज की.

अंसारी के मामले में सज़ा अपवाद बन कर नहीं रह जाना चाहिए. केंद्र तथा राज्य सरकारों को तुरंत ऐसे सभी लंबित मामलों में विश्वसनीय जांच करनी चाहिए, घृणा अपराधों के लिए जिम्मेदार लोगों पर उचित मुकदमा चलाना चाहिए और सभी तरह की सांप्रदायिक हिंसा की निंदा करने के लिए सार्वजनिक अभियान शुरू करना चाहिए. धार्मिक अल्पसंख्यकों और सामाजिक रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों को यह समझाने के लिए सरकारों को अभी भी लंबा सफ़र तय बाकी है कि न्याय सुनिश्चित किया जा सकता है.

 

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