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भारत: अनियंत्रित हमलों के शिकार धार्मिक अल्पसंख्यक

अभिव्यक्ति, संगठन बनाने की स्वतंत्रता का दम घोंटने वाले कानूनों में सुधार करें

मुसलमानों और दलितों पर हिंदू निगरानी समूहों के बढ़ते हमलों के विरोध में 18 जुलाई, 2017 को नई दिल्ली में हुई एक रैली में तख्ती थामे हुए भारतीय प्रदर्शनकारी. © 2017 सज्जाद हुसैन / गेटी इमेजेज

(न्यू यॉर्क, 18 जनवरी, 2018) - 2017 में भारत सरकार अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के खिलाफ विजिलैंटि (निगरानी समूहों के) हमलों को रोकने या उनकी विश्वसनीय जांच करने में असफल रही है. आज ह्यूमन राइट्स वॉच ने वर्ल्ड रिपोर्ट 2018 जारी करते हुए यह कहा. सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कई वरिष्ठ नेताओं ने सार्वजनिक रूप से भारतीयों के मौलिक अधिकारों की कीमत पर हिंदू वर्चस्व और कट्टर-राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया है.

चरमपंथी हिंदू समूहों, जिनमें से कई सत्तारूढ़ भाजपा से जुड़े होने का दावा करते हैं, ने अल्पसंख्यक समूह के सदस्यों द्वारा गोमांस के लिए गायों की खरीद-बिक्री या उनके क़त्ल की अफवाहों के बीच  मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ बहुतेरे आक्रमण किए. हमलावरों के खिलाफ तुरंत कानूनी कार्रवाई करने के बजाय, पुलिस ने अक्सर गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाने वाले कानूनों के तहत पीड़ितों के खिलाफ शिकायत दर्ज की. 2017 में कम-से-कम 38 ऐसे हमले हुए और इनमें 10 लोग मारे गए.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, "भारतीय सत्ता अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों और अन्य कमजोर समूहों को लगातार हमले से बचाने के लिए तत्पर नज़र नहीं आई है. भविष्य के हमलों को रोकने और हिंसा के लिए जिम्मेदार लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए गंभीर प्रयास की जरुरत है."

643-पृष्ठ के वर्ल्ड रिपोर्ट के 28वें संस्करण में, ह्यूमन राइट्स वॉच ने 90 से अधिक देशों के मानवाधिकार सम्बन्धी व्यवहारों की समीक्षा की है. कार्यकारी निदेशक केनेथ रोथ अपने परिचयात्मक आलेख में लिखते हैं, मानवाधिकार उसूलों के लिए प्रतिबद्ध राजनेताओं ने दिखाया है कि सत्तावादी लोकलुभावन एजेंडों पर अंकुश लगाना मुमकिन है. जनसमुदायों की गोलबंदी तथा प्रभावशाली बहुपक्षीय किरदारों के साथ जुड़कर इन नेताओं ने प्रदर्शित किया है कि अधिकार विरोधी सरकारों का अभ्युदय अपरिहार्य नहीं है.

अगस्त में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने देश के संविधान के तहत निजता के अधिकार को "स्वाभाविक" और मौलिक घोषित किया और इसके लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी, कानून का शासन और "सर्वसत्तावादी व्यवहार के खिलाफ सुरक्षा" समेत संविधान की सुरक्षा पर बल दिया.

फिर भी, भारतीय सत्ता ने कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, पत्रकारों और सरकार के कार्यों या नीतियों की आलोचना करने वालों को प्रताड़ित किया और उनके खिलाफ राजद्रोह व आपराधिक मानहानि सहित कई दूसरे आरोप लगाए. कानूनी कार्रवाई और भ्रष्टाचार के मनमाने आरोपों की जांच के खतरे ने पत्रकारों और मीडिया संस्थानों पर आत्म-सेंसर के लिए दबाव बढ़ाया.

राज्य सरकारों ने हिंसा या सामाजिक अशांति रोकने या कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लक्ष्यहीन कोशिशों के रूप में सार्वजनिक रूप से इंटरनेट बंद करने का सहारा लिया. नवंबर तक, उन्होंने 60 बार इंटरनेट सेवाएं बंद कीं, इनमें से ऐसा 27 बार जम्मू और कश्मीर में किया गया.

सरकार ने कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार रक्षकों को परेशान करने और उनको मिलने वाली वित्तीय मदद रोकने के लिए विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) का भी इस्तेमाल किया, जो कि गैर सरकारी संगठनों के विदेशी वित्तपोषण तक पहुंच को नियंत्रित करता है.

सरकार द्वारा यौन हिंसा के खिलाफ कानून में संशोधन करने के करीब पांच साल बाद भी, लड़कियां  और महिलाएं ऐसे अपराधों की रिपोर्ट दर्ज कराने में बाधाओं का सामना करती हैं,  इन बाधाओं में शामिल हैं- पुलिस स्टेशनों और अस्पतालों में अपमान; सुरक्षा की कमी और पीड़िता "सेक्स की आदी है" या नहीं, यह तय करने के लिए चिकित्सकीय पेशेवरों द्वारा किया जाने वाला अपमानजनक "दो अंगुली परीक्षण."

पिछले वर्षों की तरह ही, भारत ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद और महासभा जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मानवाधिकारों के मुद्दों पर नेतृत्व करने का मौका गँवा दिया.

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