आज मुझे बयान देने के लिए आमंत्रण हेतु धन्यवाद.
भारत से जुड़ी सबसे अहम मानवाधिकार संबंधी चिंताओं में आज सबसे बड़ी चिंता है - धार्मिक स्वतंत्रता की बद्तर होती स्थिति.
तथ्य बिल्कुल स्पष्ट हैं: भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों के खिलाफ हमलों में ख़ास तौर पर 2014 में हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्ता में आने के बाद बढ़ोतरी हुई है. भाजपा नेताओं और इससे संबद्ध समूहों ने अल्पसंख्यक समुदायों को लंबे समय से राष्ट्रीय सुरक्षा और हिंदू जीवन शैली के लिए खतरा बताते हुए लांछित किया है. ऐसा करते हुए उन्होंने विशेष रूप से राज्य और राष्ट्रीय चुनावों के आसपास हिंदू वोट को ध्यान में रखते हुए मुसलमानों के खिलाफ विभाजनकारी, नफरत भरी टिप्पणियां की हैं. भाजपा सरकार ने ऐसे कानून और नीतियां बनाई हैं जो मुसलमानों के साथ बाकायदा भेदभाव करते हैं और सरकार के आलोचकों को कलंकित करते हैं.
इस विभाजनकारी राजनीतिक विमर्श ने भारत में अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के खिलाफ हिंसा को सामान्य घटना बना दिया है. सरकार में गहरे जड़ जमाए पूर्वाग्रहों ने पुलिस जैसी स्वतंत्र संस्थाओं में पैठ बना ली है, यह राष्ट्रवादी समूहों को बेख़ौफ़ होकर धार्मिक अल्पसंख्यकों को धमकाने, उन्हें हैरान-परेशान करने और उन पर हमले करने की खातिर लैस कर रही है.
हाल ही में, सरकारी तंत्र ने बड़े पैमाने पर हो रहे विरोध-प्रदर्शनों पर जवाबी कार्रवाई करते हुए एक धार्मिक अल्पसंख्यक समूह को बदनाम किया है. दो साल पहले भेदभावपूर्ण नागरिकता (संशोधन) कानून, 2019 के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के बाद, सरकारी तंत्र ने राष्ट्रीय हितों के खिलाफ साजिश का आरोप लगाकर प्रदर्शनकारियों, खास तौर से मुसलमानों को लांछित करने की कोशिश की. इसी तरह, विभिन्न धर्मों के हजारों-हजार किसानों द्वारा नवंबर 2020 में सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किए जाने के बाद भाजपा के वरिष्ठ नेताओं, सोशल मीडिया पर उनके समर्थकों और सरकार परस्त मीडिया ने एक अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक, सिखों को बदनाम करना शुरू कर दिया. उन्होंने 1980 और 90 के दशक में पंजाब के सिख अलगाववादी विद्रोह का हवाला देते हुए सिखों पर यह आरोप लगाया कि उनका "खालिस्तानी" एजेंडा है.
फरवरी 2021 में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में विभिन्न शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में भाग लेने वाले लोगों को "आंदोलनजीवी/परजीवी" बताया और भारत में बढ़ते सर्वसत्तावाद की अंतर्राष्ट्रीय आलोचना को "विदेशी विनाशकारी विचारधारा" कहा.
धार्मिक अल्पसंख्यक विरोधी विभेदकारी कानून और नीतियां
सरकार ने दिसंबर 2019 में एक नागरिकता कानून पारित किया जो मुसलमानों के साथ भेदभाव करता है और पहली बार धर्म को नागरिकता का आधार बनाता है. नागरिकता (संशोधन) अधिनियम या सीएए, पड़ोसी मुस्लिम-बहुल देशों अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के गैर-मुस्लिम अनियमित आप्रवासियों के शरण संबंधी दावों का तेजी से निपटारा करता है. "अवैध प्रवासियों" की पहचान के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के माध्यम से एक राष्ट्रव्यापी नागरिकता सत्यापन प्रक्रिया के लिए सरकार की कोशिशों के साथ इस कानून ने यह आशंका बढ़ा दी है कि लाखों भारतीय मुसलमानों के नागरिक अधिकार छीन लिए जा सकते हैं और उन्हें मताधिकार से वंचित किया जा सकता है. सरकार द्वारा कानून पारित करने से पहले, गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली की एक चुनावी रैली में कहा: "अवैध अप्रवासी दीमक की तरह हैं और जो अनाज हमारे गरीबों को मिलना चाहिए, उसे वे चट कर जा रहे हैं और हमारी नौकरियां छीन रहे हैं." उन्होंने वादा किया कि "अगर हम 2019 में सत्ता में आते हैं, तो हर एक को खोज निकालेंगे और उन्हें वापस भेज देंगे."
अगस्त 2019 में, सरकार ने एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य, जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्वायत्तता रद्द कर दी और लोगों के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन करने वाले अनेकानेक प्रतिबंध लगा दिए. कश्मीरी पत्रकारों पर अधिकाधिक दबाव बढ़ गया है, और सरकार ने मनमाने ढंग से आलोचकों को गिरफ्तार किया है.
अक्टूबर 2018 से, भारत सरकार रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों को उनके जीवन और सुरक्षा के जोखिम के बावजूद म्यांमार निर्वासित करने की धमकी दे रही है, और अब तक एक दर्जन से अधिक रोहिंग्याओं को उनके देश वापस भेज चुकी है. राज्य सरकारें मुस्लिम मवेशी व्यापारियों पर गोहत्या निषेध संबंधी कानूनों के तहत मुक़दमें दर्ज करती हैं, जबकि भाजपा से संबद्ध समूह मुस्लिमों और दलितों पर इन अफवाहों के आधार पर हमले करते हैं कि उन्होंने गोमांस के लिए गौ-हत्या की या उनका व्यापार किया.
हाल ही में, चार भाजपा शासित राज्यों - उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात - ने धर्मांतरण विरोधी कानून पारित किए हैं, व्यवहार में, इस कानून का इस्तेमाल हिंदू महिलाओं से शादी करने वाले मुस्लिम पुरुषों के खिलाफ किया जाता है. यह कानून अंतर-धार्मिक संबंधों की रोकथाम के लिए बनाया गया है. भाजपा नेता “लव जिहाद” मुहावरा का इस्तेमाल इस आधारहीन सिद्धांत को बढ़ावा देने के लिए करते हैं कि मुस्लिम पुरुष हिंदू महिलाओं को इस्लाम में धर्मान्तरित करने के लिए उन्हें विवाह के जाल में फंसाते हैं.
ऐसे रिश्तों को बिल्कुल नकार देने वाले परिवारों और हिंदू राष्ट्रवादी समूहों के निशाने पर पहले से ही मौजूद अंतर-धार्मिक जोड़ों के बीच इस कानून ने काफी खौफ़ पैदा कर दिया है. हिंसक भाजपा समर्थक और सदस्य अंतर-धार्मिक जोड़ों को हैरान-परेशान करते हैं, उन पर हमला करते हैं और उनके खिलाफ मामले दर्ज करते हैं. कई राज्यों - ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में पहले से ही धर्मांतरण विरोधी कानून हैं, जिनका इस्तेमाल अल्पसंख्यक समुदायों, खासकर इसाइयों, जिनमें दलित और आदिवासी समुदाय के इसाई शामिल हैं, के खिलाफ किया गया है.
ये कार्रवाइयां घरेलू कानून का और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के प्रति भारत के दायित्वों का उल्लंघन करती हैं. ये कानून नस्ल, नृजातीयता या धर्म के आधार पर भेदभाव का निषेध करते हैं और सरकारों के लिए आवश्यक बनाते हैं कि वे अपने निवासियों को कानून का समान संरक्षण मुहैया करें. भारत सरकार धार्मिक और अन्य अल्पसंख्यक आबादी की सुरक्षा के वास्ते और उनके खिलाफ भेदभाव और हिंसा के लिए जिम्मेदार लोगों के विरुद्ध पूरी तरह और निष्पक्ष तौर पर कानूनी कार्रवाई करने के लिए भी बाध्य है.
न्याय प्रणाली में मौजूद मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह
फरवरी, 2020 में दिल्ली में सांप्रदायिक झड़पों और मुसलमानों पर हिन्दू भीड़ के हमलों में 53 लोग मारे गए. मृतकों में ज्यादातर मुस्लिम थे. गवाहों के बयान और वीडियो साक्ष्य हिंसा में पुलिस की संलिप्तता को दर्शाते हैं. हालांकि, अब तक सरकार द्वारा पुलिस संलिप्तता के आरोपों की जांच बाकी है. इस बीच, दिल्ली पुलिस ने जुलाई, 2020 में अदालत को बताया कि उसके पास भाजपा नेताओं के खिलाफ "कार्रवाई योग्य" कोई सबूत नहीं है, जबकि उनमें से कुछ के द्वारा हिंसा की वकालत करने वाले वीडियो मौजूद हैं, गवाहों की शिकायतें हैं और पुलिस द्वारा अदालत में प्रस्तुत व्हाट्सएप चैट के ट्रांसक्रिप्ट्स (प्रतिलिपियां) हैं जो बताते हैं कि हिंदू दंगाइयों को भाजपा नेताओं से शह मिला. इससे पहले, फरवरी 2020 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने दंगों संबंधी याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए, हिंसा के लिए उकसाने वाले भाजपा नेताओं के खिलाफ मामले दर्ज नहीं करने के दिल्ली पुलिस के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि इससे गलत संदेश गया और उन्हें बेख़ौफ़ छोड़ दिया गया.
इसके विपरीत, दिल्ली पुलिस ने 18 कार्यकर्ताओं, छात्रों, विपक्ष के नेताओं और स्थानीय निवासियों के खिलाफ आतंकवाद और राजद्रोह समेत राजनीति से प्रेरित मामले दर्ज किए हैं. इन 18 लोगों में 16 मुस्लिम हैं, जिनमें से कई नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन आयोजित करने में शामिल थे. पुलिस केस व्यापक रूप से संदिग्ध लग रहे एक जैसे उदभेदन (डिस्क्लोजर) बयानों पर आधारित हैं. इसमें शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों के आयोजन और घोषणा से जुड़े व्हाट्सएप चैट और सोशल मीडिया संदेशों को भारत सरकार को बदनाम करने की एक बड़ी साजिश में संलिप्तता के सबूत के तौर पर पेश किया गया है. सरकारी तंत्र ने कठोर आतंकवाद-निरोधी कानून, गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत मामले दर्ज किए हैं जो अवैध गतिविधि, आतंकवादियों के लिए धन मुहैया कराने और आतंकवाद की योजना बनाने एवं इसे अंजाम देने से संबंधित हैं.
कार्यकर्ताओं के खिलाफ मामलों के अलावा, जिन 1,153 लोगों के खिलाफ दंगा करने के आरोप अदालत में दायर किए गए, उनमें 571 हिंदू और 582 मुस्लिम हैं. हालांकि, कार्यकर्ताओं का कहना है कि पुलिस ने मुसलमानों के खिलाफ आरोपों की जांच करने और उन्हें गिरफ्तार करने पर अधिक जोर लगाया है. पीड़ित मुसलमानों और गवाहों ने बताया कि पुलिस ने शुरू में उनकी बिल्कुल नहीं सुनी, उनकी शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया, और जब पुलिस ने उनके बयानों के आधार पर मामले दर्ज भी किए, तो हमलों में कथित तौर पर शामिल भाजपा नेताओं या पुलिस अधिकारियों के नाम शिकायत में दर्ज नहीं किए. पुलिस ने इन मामलों में मुस्लिम पीड़ितों को फंसाया भी है. कुछ मामलों में, भाजपा नेताओं और पुलिस अधिकारियों की पहचान करने में सफल रहने वाले मुस्लिम परिवारों ने बताया कि उन्होंने जब शिकायतें दर्ज कराईं तो शिकायतें वापस लेने के लिए उन पर काफी दबाव डाला. दंगा पीड़ितों का मुकदमा लड़ने वाले वकीलों ने भी यह आरोप लगाया कि पुलिस ने उन्हें जांच के दायरे में रखा है.
हाल के कई मामलों में, दिल्ली की अदालतों ने जमानत देते हुए, "संदिग्ध सबूत और अस्पष्ट आरोपों," "गलत तहकीकात," "पूरी तरह से टालमटोल" और "ढीले-ढाले" रवैये के लिए पुलिस को लताड़ लगाई. तीन कार्यकर्ताओं के मामले में, अदालतों ने यह भी कहा कि पुलिस ने आतंकवाद-निरोधी कानून के तहत "यूँ ही" आरोप जोड़ दिए हैं. अदालतों द्वारा उन्हें सामान्य आपराधिक कानून के प्रावधानों के तहत जमानत पर रिहा किए जाने के बाद ही पुलिस ने इन आरोपों को जोड़ा है, जो कि मुकदमा लंबित रहने तक उन्हें हिरासत में रखने की खुली कोशिश है.
जम्मू और कश्मीर
सरकार जम्मू और कश्मीर में पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर शिकंजा कसना जारी रखे हुई है, गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत राजनीतिक रूप से प्रेरित आतंकवाद संबंधी आरोप मढ़ रही है और उन्हें हैरान-परेशान करने एवं डराने-धमकाने के लिए आतंकवाद निरोधी कार्रवाइयों का इस्तेमाल कर रही है. जून में, संयुक्त राष्ट्र के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर विशेष दूत और मनमाने हिरासत के मामलों के कार्य समूह ने भारत सरकार को पत्र लिखा जिसमें उन्होंने "जम्मू और कश्मीर की स्थिति का कवरेज करने वाले पत्रकारों को कथित तौर पर मनमाने तरीके से हिरासत में लेने और धमकी देने" पर चिंता व्यक्त की.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भी जम्मू और कश्मीर में यूएपीए के तहत दर्ज मामलों की बढ़ती संख्या को दर्शाते हैं: 2015 तक जहां सालाना ऐसे 60 से कम मामले दर्ज होते थे, वहीँ 2019 में यह संख्या बढ़कर 255 हो गई. सरकारी तंत्र ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के खिलाफ यूएपीए का इस्तेमाल किया है और यहां तक कि राज्य में इंटरनेट पर सबसे लंबे प्रतिबंधों के दौरान साल 2020 में सोशल मीडिया साइटों का इस्तेमाल करने के लिए वीपीएन या प्रॉक्सी सर्वर का उपयोग करने वालों पर भी यूएपीए के तहत मामले दर्ज किए हैं.
निगरानी समूहों को नई ताकत
सरकार की भेदभावपूर्ण नीतियों और कार्रवाइयों ने अपने हिंसक समर्थकों को बेख़ौफ़ होकर गैरकानूनी कार्य करने के लिए शह दिया है. भाजपा की नेतृत्व वाली राज्य सरकारों की गौरक्षा संबंधी नीतियों के साथ-साथ भाजपा नेताओं की सांप्रदायिक बयानबाजी से मुस्लिम पशुपालकों और पशु व्यापारियों के खिलाफ हमले हुए हैं. बहुतेरे हिंदू गाय को पवित्र मानते हैं. गोमांस के लिए गौ-हत्या के बारम्बार झूठे दावों से हिंसक गौ रक्षक समूह यत्र-तत्र पनप गए हैं, जिनमें से अनेक भाजपा के साथ संबद्धता का दावा कर रहे हैं. पुलिस ने अक्सर आक्रमणकारियों के खिलाफ अभियोजन को बाधित किया है, जबकि कई भाजपा नेताओं ने सार्वजनिक रूप से हमलों को सही ठहराया है. कई मामलों में, पुलिस ने गौहत्या निषेध कानूनों के तहत पीड़ितों के परिवार के सदस्यों और उनके सहयोगियों के खिलाफ शिकायतें दर्ज की हैं, जो गवाहों और परिवारों में न्याय पाने की कोशिश के प्रति डर पैदा करते हैं.
मजदूर वर्ग के मुसलमानों को अक्सर बेखौफ़ होकर पीटा और धमकाया जाता है एवं उन्हें हैरान-परेशान किया जाता है. अगस्त में, उत्तर प्रदेश के शहर कानपुर में हिंदू भीड़ ने एक मुस्लिम रिक्शा चालक की पिटाई कर दी और इस दौरान उसकी नन्हीं बेटी लोगों से अपने पिता को मारना बंद करने की मिन्नत कर रही थी. पिछले माह एक दूसरी घटना में, भाजपा शासित मध्य प्रदेश में हिंदू भीड़ ने एक मुस्लिम चूड़ी-विक्रेता की हिंदू इलाके में फेरी लगाने के लिए पिटाई कर दी. लेकिन अगले दिन, पुलिस ने पीड़ित को उसके एक कथित हमलावर की 13 वर्षीय बेटी द्वारा छेड़छाड़ का आरोप लगाने के बाद गिरफ्तार कर लिया. ये आरोप सोच-समझ कर लगाए गए, यह सुनिश्चित करने के लिए गढ़े गए ताकि वीडियो में कैद चूड़ी-विक्रेता के हमलावर को बचाया जा सके.
मार्च, 2020 में कोविड-19 के उभार के बाद कई हफ्तों तक भाजपा सरकार ने कोविड मामलों में उछाल के लिए दिल्ली में आयोजित एक सार्वजनिक धार्मिक सभा को ज़िम्मेदार ठहराया जिसका आयोजन अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक मिशनरी आंदोलन, तबलीगी जमात ने किया था. इस घटनाक्रम ने इस्लामोफोबिया बढ़ाने का काम किया. कुछ भाजपा नेताओं ने इस सभा को "तालिबानी अपराध" और "कोरोना आतंकवाद" बताया और सरकार परस्त टेलीविज़न चैनल्स और सोशल मीडिया ने इस सभा में शिरकत करने वालों और आम तौर पर भारतीय मुसलमानों को कोविड-19 फ़ैलने का जिम्मेदार ठहराया. सोशल मीडिया और व्हाट्सएप पर ऐसे फेक वीडियो वायरल हुए जिसमें दावा किया गया कि मुसलमानों ने जानबूझकर वायरस फैलाया. इससे हफ्तों तक मुस्लिमों के साथ दुर्व्यवहार का दौर जारी रहा, उनके व्यवसाय का और उनका व्यक्तिगत रूप से बहिष्कार किया गया और राहत सामग्री बांटने वाले स्वयंसेवकों समेत मुसलमानों पर अनगिनत हमले हुए.
इनमें से अनेक मामलों में, हमले इसलिए जारी रहे क्योंकि प्रधानमंत्री समेत वरिष्ठ भाजपा नेतृत्व ने समय रहते इन्हें रोकने की पुरजोर मांग नहीं की. कुछ मामलों में, जब प्रधानमंत्री ने सांप्रदायिक हिंसा की आलोचना की, मिसाल के लिए जब उन्होंने महामारी के दौरान मुसलमानों को लांछित करना बंद करने को कहा, तब ऐसे हमले कम हो गए.
इन मुद्दों को उठाने के लिए नागरिक समाज पर कार्रवाई
भारतीय सरकारी तंत्र कमजोर समुदायों के अधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, शांतिप्रिय प्रदर्शनकारियों, शिक्षाविदों और अन्य आलोचकों को अधिकाधिक निशाना बना रहा है. वे उन्हें निशाना बनाने के लिए राजद्रोह, आतंकवाद-निरोधी और राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों एवं विदेशी अनुदान विनियमनों का तथा वित्तीय अनियमितताओं के आरोपों का भी इस्तेमाल कर रहे हैं.
भारत सरकार ने यूएपीए के तहत भारत के सबसे हाशिए के समुदायों के अधिकारों पर काम करने वाले 15 प्रमुख मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों और कवियों को जनवरी 2018 में महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव में दलित समुदाय की एक बैठक के दौरान हुई हिंसा को उकसाने के आरोप में गिरफ्तार किया है.
दिल्ली हिंसा में, दिल्ली पुलिस ने विरोध प्रदर्शन के आयोजकों और कार्यकर्ताओं पर अन्य कथित अपराधों के साथ राजद्रोह, हत्या, हत्या के प्रयास, धार्मिक वैमनस्य बढ़ाने और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप लगाए हैं. जिन लोगों पर आरोप लगाये गए, वे सभी भाजपा सरकार और नागरिकता कानून के आलोचक रहे हैं.
अनुशंसाएं
अमेरिकी कांग्रेस को धार्मिक अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों पर चिंता व्यक्त करनी चाहिए और भारत सरकार से सरकार के समर्थकों और पार्टी नेताओं सहित जिम्मेदार लोगों पर मुकदमा चलाने की मांग करनी चाहिए. अमेरिकी कांग्रेस के सदस्यों को सरकारी पदों पर आसीन लोगों द्वारा घृणा प्रचार की निजी और सार्वजनिक रूप से आलोचना भी करनी चाहिए और भारत सरकार से आग्रह करना चाहिए कि भाजपा नेताओं समेत हिंसा के लिए उकसाने वाले लोगों की जांच करे एवं उन पर समुचित तरीके से मुकदमा चलाए.
अमेरिकी कांग्रेस को भारत से लंबे समय से लंबित पुलिस सुधारों को बिना देरी लागू करने का आग्रह करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि पुलिस राजनीतिक प्रभाव से मुक्त हो और सांप्रदायिक हिंसा के दौरान प्रभावी कार्रवाई करने तथा अपराधियों पर मुकदमा चलाने के लिए निष्पक्ष जांच करने में सक्षम हो.
कांग्रेस के सदस्यों को भारत सरकार से राष्ट्रव्यापी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की योजना अमल में नहीं लाने और यह सुनिश्चित करने का आग्रह करना चाहिए कि नागरिकता कानूनों में संशोधन से अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत निषिद्ध मानदंडों के आधार पर भेदभाव नहीं हो. उन्हें भारत सरकार से ऐसे अन्य कानूनों को निरस्त या संशोधित करने की भी मांग करनी चाहिए जो अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव करते हैं या गैर-सरकारी संगठनों को अनुचित तरीके से निशाना बनाते हैं.
कांग्रेस के सदस्यों को भारत सरकार से अपील करनी चाहिए कि आरोपों को तुरंत वापस ले और राजनीतिक रूप से प्रेरित आरोपों में मनमाने ढंग से हिरासत में लिए गए मानवाधिकार रक्षकों, पत्रकारों और अन्य लोगों को रिहा करे.