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भारत: बलात्कार के लिए फांसी संबंधी अध्यादेश रद्द हो

फांसी की सज़ा एक क्रूर लोकलुभावन फैसला है; इसकी जगह न्याय प्रणाली में सुधार हो और सुरक्षा की गारंटी हो

कठुआ में 8 वर्षीय लड़की और उन्नाव में एक किशोरी के बलात्कार के विरोध में भारत के बेंगलुरू में लोगों का कैंडल जुलूस, 13 अप्रैल, 2018 © 2018 रॉयटर्स

(न्यू यॉर्क)- ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत की संसद को 12 साल से कम उम्र की लड़की से बलात्कार के दोषी पाए जाने पर फांसी की सज़ा का प्रावधान करने वाले अध्यादेश को क़ानूनी रूप नहीं देना चाहिए. इसकी जगह, भारत को फांसी की सज़ा समाप्त करने की दिशा में काम करना चाहिए जो कि स्वभाविक रूप से क्रूर और अपरिवर्तनीय है. बहुत कम सबूत हैं कि यह एक निवारक (डेटेररेंट) के रूप में काम करता है.

जम्मू और कश्मीर में हिन्दू अपराधियों ने आठ साल की एक मुसलमान लड़की के अपहरण के बाद उसके साथ बलात्कार किया और फिर उसकी हत्या कर दी. सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं और समर्थकों ने अपराधियों का बचाव करने की कोशिश की. वहीं उत्तर प्रदेश में, 17 साल की एक लड़की के साथ बलात्कार के आरोपी भाजपा विधायक को सरकार न केवल गिरफ्तार करने में असफल रही, बल्कि उसके पिता को कथित रूप से हिरासत में पीट-पीट कर मार डाला गया. इन घटनाओं का बड़े पैमाने पर विरोध हुआ जिसके दबाव में आकर सरकार ने 21 अप्रैल को यह अध्यादेश लाया है.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, "फांसी के इस लोकलुभावन फैसले से सरकार इस हकीकत पर पर्दा डालना चाहती है कि उसके समर्थक घृणा अपराधों में लिप्त हो सकते हैं. अगर सरकार महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा से निपटने को लेकर वाकई गंभीर है तो उसे आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार के लिए कठोर काम करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राजनीतिक संरक्षण के कारण अपराधियों को अभियोजन से बचाया नहीं जाए."

जम्मू और कश्मीर में हुई इस बर्बर घटना के अभियुक्तों की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए राज्य सरकार में शामिल भाजपा के दो मंत्री सम्बद्ध संगठन हिन्दू एकता मंच में शामिल हुए. उल्लेखनीय है कि इन अभियुक्तों में एक पूर्व सरकारी कर्मचारी और चार पुलिसकर्मी शामिल हैं. इस घटना के बाद मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया.

साल 2012 में मेडिकल छात्रा ज्योति सिंह पांडे की सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी. इसके बाद भारत सरकार ने यौन हिंसा और बलात्कार से निपटने के लिए कानूनी सुधार किए. आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा में अपराध की नई श्रेणियों को जोड़ा गया. सज़ा को ज्यादा कठोर बनाया गया जिनमें बार-बार ऐसे अपराध करने वालों के लिए फांसी की सज़ा का प्रावधान शामिल है. इसी तरह, यौन हिंसा से बाल संरक्षण अधिनियम, 2012 में पुलिस और अदालत के लिए दिशा-निर्देश तय किए गए जिससे कि पीड़ित को संवेदनशीलता के साथ मदद की जाए. साथ ही, इसमें विशेष बाल न्यायालयों की स्थापाना का प्रावधान किया गया.

गांगुली ने कहा, "उम्मीद यह थी कि ये उपाय पीड़ितों और उनके परिवारों को और ज्यादा तादाद में सामने आने के लिए प्रोत्साहित करेंगे तथा ज्यादा संख्या में सफल अभियोजन के तौर पर इसके नतीजे निकलेंगे."

तथ्य यह है कि 2012 के मुकाबले 2016 में बलात्कार के दर्ज मामलों की संख्या में 56 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन न्याय प्रणाली पीड़ितों के लिए जिस तरीके से काम करती है, उसे बदलने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने नवंबर 2017 की अपनी रिपोर्ट, "सब मुझे दोष देते हैं" में पाया कि उत्तरजीवी, विशेष रूप से हाशिए के समुदायों के उत्तरजीवी, अभी भी पुलिस में शिकायत दर्ज कराने में मुश्किलों का सामना करते हैं. वे अक्सर पुलिस स्टेशनों और अस्पतालों में अपमानित होते हैं, अभी भी चिकित्सा पेशेवरों द्वारा उनका अपमानजनक परीक्षण किया जाता है और जब मामला अदालतों तक पहुंचता है तो वे धमकी और डर का सामना करते हैं. स्वास्थ्य देखभाल, परामर्श और कानूनी सहायता जैसे महत्वपूर्ण सहायता सेवाएं प्राप्त करने में उन्हें बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ता है.

हालांकि भारतीय कानून पुलिस अधिकारियों के लिए बलात्कार की शिकायतें दर्ज करना अनिवार्य बनाता है, ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि पुलिस कभी-कभी पीड़ित परिवारों पर "समझौता" के लिए दवाब बनाती है.

बच्चों के मामलों में, सरकार न केवल बाल यौन शोषण रोकने में मददगार हो सकने वाला प्रभावी निरीक्षण तंत्र स्थापित करने में नाकाम रही है, बल्कि मौजूदा उपायों को भी असंतोषजनक ढंग से लागू किया गया है.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया है कि यौन हिंसा के उच्च जोखिमों का सामना करने वाली विकलांग महिलाओं और लड़कियों के लिए चुनौतियां कहीं बड़ी हैं.

हालांकि, इन संरचनात्मक बाधाओं को ठीक करने के बजाय, भारत सरकार ने बलात्कार के लिए मौत की सजा का दायरा बढ़ा दिया है. अब संसद को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह अध्यादेश स्थायी कानून का हिस्सा न बन पाए.

उच्च स्तरीय सरकारी समिति और भारत के न्याय आयोग दोनों द्वारा मौत की सजा के खिलाफ राय देने के बावजूद सरकार ने इस अध्यादेश को लाया है. ह्यूमन राइट्स वॉच सभी मामलों में मृत्युदंड का विरोध करता है.

नए अध्यादेश में लड़कियों और महिलाओं के बलात्कार के लिए न्यूनतम सजा भी बढ़ा दी गई है. जबकि यौन हिंसा से बाल संरक्षण अधिनियम में लड़कियों और लड़कों दोनों के खिलाफ होने वाले यौन शोषण शामिल हैं, अध्यादेश में लड़कों के बलात्कार को शामिल नहीं किया गया है:

  • 16 वर्ष से ज्यादा उम्र की महिलाओं के बलात्कार के लिए, कैद की न्यूनतम सजा 7 साल से बढ़ाकर 10 साल कर दी गई है;
  • 12 से 16 वर्ष उम्र की लड़कियों के बलात्कार के लिए, न्यूनतम सजा अब 20 साल की कैद है जो उम्रकैद तक बढाई जा सकती है;
  • 12 से 16 वर्ष उम्र की लड़कियों के सामूहिक बलात्कार के लिए न्यूनतम सजा उम्रकैद है;
  • 12 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के बलात्कार के लिए, न्यूनतम सजा 20 साल की कैद है जो उम्रकैद या मृत्युदंड तक बढाई जा सकती है;
  • 12 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के सामूहिक बलात्कार के लिए न्यूनतम सजा उम्रकैद या मृत्युदंड है.

भारत में, 2016 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बच्चों और महिलाओं के खिलाफ बलात्कार के 38,947 मामलों में से 94.6 प्रतिशत मामलों में अभियुक्त पीड़ित के परिचित थे. 630 मामलों में अभियुक्त पीड़ित के पिता, भाई, दादा/नाना या बेटे थे; 1,087 मामलों में अभियुक्त परिवार का करीबी सदस्य था; 2,174 मामलों में अभियुक्त रिश्तेदार था और 10,520 मामलों में अभियुक्त पड़ोसी था.

मुख्यतः सामाजिक कलंक, पीड़ित को ही दोषी ठहराने और आपराधिक न्याय प्रणाली के असंतोषजनक क्रियान्वयन के कारण पहले से ही भारत में बलात्कार के मामले कम दर्ज किए जाते हैं. किसी राष्ट्रीय पीड़ित और गवाह संरक्षण कानून की कमी के कारण उनके अभियुक्त के साथ-साथ पुलिस से दबाव का शिकार होने का खतरा बहुत बढ़ जाता है. परिवार और समाज के दबाव के कारण बच्चे और ज्यादा असुरक्षित होते हैं.

ऐसे में, मृत्युदंड सहित सज़ा में वृद्धि के कारण हकीकत में ऐसे अपराधों के मामले दर्ज होने में कमी आ सकती है.

गांगुली ने कहा, "भारत सरकार ने बार-बार कहा है कि वह महिलाओं और बच्चों के खिलाफ हिंसा से निपटने के लिए प्रतिबद्ध है. लेकिन बातों से ज्यादा काम बोलता है. नए संशोधन व्यर्थ की क़वायद हैं और ऐसा जल्दबाजी में किया गया है. बच्चों की सुरक्षा के लिए कहीं ज्यादा सुचिंतित नजरिए चाहिए और इसके लिए जरूरी है कि राजनेता अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति जगाएं."

 

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