(जेनेवा) – ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों को भारत से अपील करनी चाहिए कि वह सरकार या उसकी नीतियों की आलोचना करने वाले गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) और अन्य लोगों को निशाना बनाना बंद करे. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद 4 मई, 2017 को जेनेवा में यूपीआर (व्यापक सामयिक समीक्षा) की प्रक्रिया के तहत भारत के मानवाधिकार रिकॉर्ड की तीसरी समीक्षा करेगी.
ह्यूमन राइट वॉच द्वारा भारत पर संयुक्त राष्ट्र को प्रस्तुत प्रतिवेदन में गैर सरकारी संगठनों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर अंकुश लगाने के लिए सरकार द्वारा विस्तृत कानूनों के दुरुपयोग को उजागर किया गया है. इस प्रतिवेदन में अल्पसंख्यकों पर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के समर्थक समूहों के हमलों को रोकने एवं दोषियों पर मुकदमा चलाने और राजकीय सुरक्षा बलों द्वारा की गई हत्याओं, उत्पीड़न और अन्य गंभीर मानवाधिकार उल्लंघनों की जवाबदेही तय करने में भारत की विफलता का विवरण भी शामिल है.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा कि, "संयुक्त राष्ट्र की समीक्षा ऐसे समय में हो रही है जब भारत में लंबे समय से संजोए गए आज़ादी के अधिकारों को गंभीर चुनौती दी जा रही है और विरोध करने वालों पर हमले बढ़ रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों को इस खतरे के प्रति आगाह करना चाहिए कि गरीबों और कमजोरों की सुरक्षा के लिए जरुरी शांतिपूर्ण असहमति के प्रति सम्मान का भारत का गौरवपूर्ण इतिहास वास्तव में खतरे में है."
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि 2012 की पिछली समीक्षा के बाद , भारत सरकार ने कुछ सकारात्मक कदम उठाए हैं. 2013 में सरकार ने महिलाओं के खिलाफ यौन हमलों के प्रति कानूनी प्रतिक्रिया को मजबूत करने के लिए आपराधिक कानूनों में संशोधन किया. इसने अधिकारों की रक्षा, साथ ही बाल यौन उत्पीड़न पर अभियोजन चलाने हेतु और हाथों से मानव मल की सफाई के अपमानजनक और अमानवीय पेशे को समाप्त के लिए नए कानून बनाए हैं. इसने दलित और आदिवासी समुदायों की रक्षा के लिए कानूनों में संशोधन किया है.
सरकार ने नियोजन हेतु न्यूनतम उम्र और बाल श्रम के निकृष्ट रूपों पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन सम्मेलन संख्या 138 और 182 को मंजूरी देने का निर्णय लिया है. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (अफ्स्पा) जैसे कानूनों के तहत सुरक्षा बल को मिली दण्ड मुक्ति का विरोध किया है. अदालत ने तीसरे लिंग के रूप में ट्रांसजेंडर लोगों को मान्यता भी दी है और अपने पहले के उस फैसले की समीक्षा का आदेश दिया है जिसमें समलैंगिकता को अपराध ठहराने वाले भेदभावपूर्ण औपनिवेशिक कानून को बरक़रार रखा गया था.
सबसे पहले, संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों को गैर-सरकारी संगठनों के विदेशी वित्त पोषण को प्रतिबंधित करने के लिए विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) के मनमाने इस्तेमाल पर चिंता जतानी चाहिए, गौरतलब है कि संयुक्त राष्ट्र के विशेष संवाददाता ने इसे "अंतरराष्ट्रीय कानून, सिद्धांतों और मानकों के अनुरूप नहीं" पाया है. अक्टूबर 2016 में, सरकार ने कम-से-कम 25 गैर-सरकारी संगठनों को विदेशी राशि प्राप्त करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया, इसमें कई मानवाधिकार समूह और हाशिए पर रह रहे लोगों के अधिकारों की रक्षा करने वाले संगठन शामिल हैं.
2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार बनने के बाद, उग्र हिंदू समूहों ने "हिंदू राष्ट्रवाद" लागू करने के लिए पूरे देश में भीड़ के हमलों का नेतृत्व किया है. सरकार का शांतिपूर्ण विरोध करने वालों पर देशद्रोह जैसे गंभीर अपराधों के आरोप लगाए गए हैं. दलित, मुस्लिम, आदिवासी और ईसाई समुदाय के सदस्यों के खिलाफ हिंसा की अनेकानेक घटनाएं हुई हैं. 2015 से अब तक देश भर में अलग-अलग घटनाओं में हिन्दू विजिलेंट समूहों ने बीफ के लिए गायों को मारने, बेचने या खरीदने के संदेह में कम-से-कम 10 मुस्लिमों को मार डाला. 2015 में कई राज्यों में चर्चों पर हमले किये गए थे.
अधिकारियों ने हिंसा के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाने की सख्ती नहीं दिखाई , और हमलावरों को मिली दण्ड मुक्ति से इस धारणा को बल मिला है कि धार्मिक असहिष्णुता और बहुमत द्वारा अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाने के प्रति सरकार उदासीन है.
मानवाधिकारों के गंभीर हनन के लिए सुरक्षा बलों और सरकारी अधिकारियों को आम तौर पर उत्तरदायी नहीं ठहराया जाता है. मई 2015 में गैर-न्यायिक हत्याओं पर संयुक्त राष्ट्र विशेष संवाददाता की रिपोर्ट के अनुसार "दण्ड मुक्ति एक गंभीर समस्या बनी हुई है" और यह खेद व्यक्त किया गया कि भारत ने अफ्स्पा को न तो निरस्त किया है और न ही इसमें कोई महत्वपूर्ण संशोधन किया है.
विद्रोह ग्रस्त और अफ्स्पा के तहत आने वाले इलाकों में सुरक्षा बलों द्वारा किए गए अपराधों के मामलों में न्याय सुनिश्चित करने में सरकार की विफलता ने सुरक्षा बलों और सार्वजनिक संपत्ति पर हमलों सहित हिंसा को और बढ़ा दिया है. जुलाई 2016 से जम्मू और कश्मीर में हो रहे हिंसक विरोध प्रदर्शनों पर सरकारी कार्रवाई में करीब 100 लोगों की मौत हुई है और हजारों घायल हुए हैं, जिसमें प्रदर्शनकारी, तमाशबीन और सुरक्षा बलों के जवान शामिल हैं.
पूरे देश में संदिग्ध माओवादी समर्थकों के नाम पर आदिवासी समुदायों के कई सदस्यों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार किया गया और हिरासत में लिया गया है और साथ ही छत्तीसगढ़ में पत्रकारों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को हैरान-परेशान किया गया और मनमाने ढंग से उनकी गिरफ्तारी की गई है. कई नए मामलों में पुलिस पर अत्याचार और गैर-न्यायिक हत्याओं के आरोप लगाए जा चुके हैं, फिर भी पुलिस सुधारों को रोके रखा गया है.
भारत सरकार प्रमुख मानवाधिकार संधियों की पुष्टि के लिए पिछली यूपीआर समीक्षाओं की सिफारिशें लागू करने में भी विफल रही है. इन सिफारिशों में शामिल हैं--अत्याचार और इसके वैकल्पिक प्रोटोकॉल के खिलाफ कन्वेंशन, जबरन गुमशुदगी से सभी व्यक्तियों के संरक्षण के लिए कन्वेंशन, मौत की सजा खत्म करने के लिए नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर हुए अंतर्राष्ट्रीय मसौदे का वैकल्पिक प्रोटोकॉल और घरेलू कार्य पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का सम्मलेन संख्या 189.
गांगुली ने कहा कि, "भारत अपने न्यायालयों को देश में मानवाधिकारों के सर्वश्रेष्ठ रक्षक के रूप में पेश करना पसंद करता है, लेकिन सरकार न अक्सर पुलिस सुधार या सुरक्षा बल के जवाबदेही के लिए न्यायिक आदेशों को नजरअंदाज किया है. अतः संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों को भारत पर यह दवाब बनाना चाहिए कि वह संयुक्त राष्ट्र की समीक्षा को ईमानदारी से एक मौके के रूप में ले और इस दिशा में आगे कदम बढ़ाए."