वर्ष 2012 में भारत सरकार ने अपनी दूसर यूपीआर (व्यापक सामयिक समीक्षा) पेश करते हुए कहा था कि " संपूर्ण, समावेशी और बहु-आयामी प्रयास, मानवाधिकारों के संरक्षण और समर्थन के प्रति उसके दृष्टिकोण की विशेषता हैं .[1]" इसने मानवाधिकारों को "वास्तविक और अर्थपूर्ण" बनाने के लिए विभिन्न न्यायिक घोषणाओं, कानूनो और नीतियों को सूचीबद्ध किया था.[2]
भारत ने 2012 की समीक्षा के बाद कुछ अच्छे कदम उठाए हैं. दिल्ली में हुए एक क्रूर सामूहिक बलात्कार और हत्या से उपजे आक्रोश के बाद, सरकार ने यौन उत्पीड़न से निपटने के लिए आपराधिक न्याय अनुक्रिया को मजबूत करने के लिए अपने आपराधिक कानूनों में संशोधन किया.[3] भारत ने अधिकारों की रक्षा समेत बाल यौन उत्पीड़न मामलों पर मुकदमा चलाने और सर पर मैला ढोने की अपमानजनक और अमानवीय प्रथा को खत्म करने के लिए नए कानून बनाये हैं. इसने दलित और आदिवासी समुदायों की सुरक्षा के लिए कानूनों में संशोधन किया है. भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (एएफएसपीए), जिसका उपयोग आंतरिक संघर्ष को हल करने के लिए सेना तैनात करने में किया जाता है, जैसे कानूनों के तहत सुरक्षा बलों को मिली दण्ड मुक्ति(अभयदान) के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया. अदालत ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को तीसरे लिंग के रूप में भी मान्यता दी और अपने पहले के फैसले जिसमें समलैंगिकता को अपराध बताने वाले एक भेदभावपूर्ण औपनिवेशिक कानून को बरक़रार रखा गया था, की समीक्षा का आदेश दिया. राष्ट्रीय महिला आयोग ने सरकारी मानसिक आरोग्यशालाओं में मानसिक और बौद्धिक विकलांगता से ग्रस्त महिलाओं की स्थिति पर पहला अध्ययन किया.[4]
इसी प्रकार , भारत सरकार यूपीआर से जुडी कई महत्वपूर्ण सिफारिशों को लागू करने में विफल रही है जिनमें अत्याचार और इसके वैकल्पिक प्रोटोकॉल के खिलाफ कन्वेंशन, जबरन गुमशुदगी से सभी व्यक्तियों के संरक्षण के लिए कन्वेंशन, मौत की सजा खत्म करने के लिए नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर हुए अंतर्राष्ट्रीय मसौदे के दूसरे वैकल्पिक प्रोटोकॉल और घरेलू कार्य पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के सम्मलेन संख्या 189 का अनुमोदन शामिल है. मानवाधिकारों के गंभीर हनन के मामलों में सुरक्षा बलों और सरकारी अधिकारियों को पूरी दण्ड मुक्ति (अभयदान) हासिल है.
2014 में हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुआई में एक नई राष्ट्रीय सरकार के कार्यभार सँभालने के बाद दलित, मुस्लिम, आदिवासी और ईसाई समुदायों के खिलाफ हिंसा की बहुतेरी घटनाएं हुई हैं. सरकार ने अपनी नीतियों को लेकर आलोचनात्मक रुख रखने वाले नागरिक समाज संगठनों का भी दमन किया है. बोलने की आज़ादी के अधिकार पर लगातार हमले हो रहे हैं, जो अक्सर उन समूहों द्वारा उकसाए जाते हैं जो भाजपा समर्थक होने का दावा करते हैं.
मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघनों के मामले म दंड मुक्ति (अभयदान)
भारत सरकार ने अत्याचार और अन्य क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या सजा और इसके वैकल्पिक प्रोटोकॉल पर हुए कन्वेंशन की पुष्टि के लिए यूपीआर सिफारिश लागू नहीं की है. साथ ही, यह जबरन गुमशुदगी से सभी व्यक्तियों के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन की मंजूरी के लिए सिफारिश लागू करने में भी विफल रही है. 2008 में पहली यूपीआर में ये दोनों सिफारिशें की गई थीं. इसके आठ साल बाद, भारत का प्रस्तावित उत्पीड़न रोकथाम विधेयक संसद में अभी भी लंबित पड़ा हुआ ह
कई भारतीय कानूनों के कारण दुर्व्यवहारों में संलिप्त सरकारी अधिकारियों पर मुकदमा चलाना बेहद मुश्किल हो गया है, जिससे दण्ड मुक्ति की संस्कृति को बढ़ावा मिल रहा है. विशेष रूप से, सभी सरकारी अधिकारियों और सुरक्षा बलों के सदस्यों को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत संरक्षित किया जाता है, जिसमें यह प्रावधान है कि केंद्र या राज्य सरकार की मंजूरी के बिना कोई भी अदालत ऐसे किसी अपराध (यौन अपराधों को छोड़कर) का संज्ञान नहीं ले सकती जो किसी लोक सेवक ने कथित रूप से अपने शासकीय कर्तव्य निर्वहन के दौरान किया हो.
अफ्स्पा (एएफएसपीए) के अंतर्गत आंतरिक संघर्ष के क्षेत्रों में तैनात सैन्य कर्मियों को अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान की जाती है. मुकदमा चलाने की अनुमति शायद ही कभी दी जाती है, भले ही जांच में मानवाधिकारों के उल्लंघन के पुख्ता सबूत पाए गए हों . संयुक्त राष्ट्र के विशेष संवाददाता ने मई 2015 में गैर- न्यायिक या निरंकुश हत्याओं पर रिपोर्ट पेश की थी. इसमें यह बताया गया है कि "दण्ड मुक्ति एक गंभीर समस्या बनी हुई है" और इस बात पर खेद व्यक्त किया गया है कि भारत ने अफ्स्पा (एएफएसपीए) को निरस्त नहीं किया या उसमें कम-से-कम में जरुरी संशोधन नहीं किया है.[5] जुलाई 2016 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मणिपुर राज्य में कथित गैर- न्यायिक हत्याओं के 1,528 मामलों की जांच के अपने आदेश में कहा कि सुरक्षा बल अफ्स्पा (एएफएसपीए) के तहत अत्यधिक या जवाबी बल का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं और सशस्त्र बलों पर गैर- न्यायिक हत्या के लगे हर आरोप की अच्छी तरह से जांच की जानी चाहिए.[6]
माओवाद प्रभावित भारत के मध्य में स्थित राज्य छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों पर यौन उत्पीड़न सहित मानवाधिकारों के गंभीर उल्लंघन के आरोप लगते रहे हैं . आदिवासी समुदायों के कई लोगों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें माओवादी समर्थकों के रूप में हिरासत में लिया गया. साथ ही साथ, इस राज्य में पत्रकारों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को उत्पीड़न और मनमानी गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा.[7]
इसके बावजूद कि कई नए मामलों में पुलिस पर अत्याचार और गैर- न्यायिक हत्याओं के आरोप लगाए गए , पुलिस सुधार नहीं किया गया . 2014 के बाद से, फर्जी सशस्त्र मुठभेड़ों के मामलों में आरोपित होने के बावजूद गुजरात में कई पुलिस अधिकारियों को दोबारा बहाल किया गया, इसने पुलिस जवाबदेही के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता के बारे में चिंता को बढ़ा दिया है.
दण्ड मुक्ति के मुद्दे पर भारत को चाहिए कि:
- सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम को निरस्त करे और उत्पीड़न एवं दुर्व्यवहार, जबरन गुमशुदगी और गैर- न्यायिक हत्याओं सहित मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन के मामले में आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत सुरक्षा बलों को दी गई प्रभावी सुरक्षा को समाप्त करे.
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुशंसित पुलिस सुधार लागू करे और पुलिस दुर्व्यवहार के मामलों से निपटने के लिए शिकायत तंत्र की स्थापना करे लंबित पड़े अत्याचार निवारण विधेयक को लागू करे लेकिन इसके पहले यह सुनिश्चित करे कि यह अत्याचार के खिलाफ कन्वेंशन के अनुरूप हो. कानून में कोई ऐसा प्रावधान नहीं शामिल किया जाना चाहिए जो अधिकारियों को अभियोजन से प्रभावी सुरक्षा प्रदान करे.
- उत्पीड़न, हिरासत में हत्या, फर्जी सशस्त्र मुठभेड़ में हत्या, और जबरन गुमशुदगी सहित मानवाधिकारों के उल्लंघन के आदेश देने, इसे अंजाम देने या इसे बर्दाश्त करने वाले अधिकारियों पर तत्काल और निष्पक्ष जांच बिठाये और उनपर उपयुक्त मुकदमा चलाए.
- उत्पीड़न और इसके वैकल्पिक प्रोटोकॉल के खिलाफ कन्वेंशन को अनुमोदित करे.
- जबरन गुमशुदगी से सभी व्यक्तियों के संरक्षण के लिए कन्वेंशन को मंजूरी दे.
हिंसक विरोध और अन्य सुरक्षा सम्बन्धी चुनौतियां
अपनी दूसरी चक्रीय समीक्षा के दौरान, भारत ने धार्मिक और आदिवासी अल्पसंख्यकों, दलितों और अन्य जातियों के खिलाफ सभी हिंसक कृत्यों की रोकथाम और न्यायिक प्रक्रिया के जरिये इनसे निपटने की अनुशंसा की थी. न्याय सुनिश्चित करने में विफलता ने हिंसा को बढ़ावा दिया है. जुलाई 2016 से कश्मीर में सडकों पर हो रहे हिंसक विरोध के जवाब में सरकार ने पेलेट गन्स और घातक बल का इस्तेमाल किया जिनमें कई प्रदर्शनकारी मारे गए और सैकड़ों लोग घायल हुए. अर्द्धसैनिक बल केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल ने जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय को बताया कि उसने 32 दिनों में 13 लाख पेलेट्स का इस्तेमाल किया था. इस दौरान उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि "विरोध प्रदर्शनों के स्वरूप को देखते हुए मानक परिचालन प्रक्रिया का पालन करना मुश्किल था."
असम में, मूल निवासी बोडो जनजातियों और यहाँ रह रहे मुस्लिम प्रवासियों के बीच 2012 से जारी सांप्रदायिक हिंसा में लोग मारे गए हैं, घायल हुए हैं और आंतरिक विस्थापन हुआ है. मणिपुर के कुछ आदिवासी समुदायों ने जब नए कानूनों का इस आधार पर विरोध किया कि ये भूमि और संसाधनों पर उनके अधिकारों को कमजोर कर देंगे तो वहां हिंसा हुईं और मौतें भी हुईं.
देश के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक झड़पों की कई घटनाएं हुई हैं जिनमें सरकारें जिम्मेदार लोगों पर मुकदमा चलाने में विफल रही हैं. 2013 में, उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा में 60 से अधिक लोग मारे गए और हजारों विस्थापित हुए. मरने वालों में ज्यादातर मुसलमान थे.
सिविल सोसायटी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला
अपने सक्रिय सिविल सोसाइटी का दंभ भरने के बावजूद, भारत सरकार ने गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के विदेशी वित्त पोषण को प्रतिबंधित करने के लिए विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) के क्रियान्वयन को सख्त कर दिया है, विशेषकर वैसे एनजीओ को निशाना बनाया गया जो सरकार की नीतियों की आलोचना करते हैं. अप्रैल 2016 में, शांतिपूर्ण एकत्र होने और संगठन बनाने की आज़ादी के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष संवाददाता मायना किआई ने एफसीआरए का विश्लेषण किया और कहा कि कानून द्वारा लागू प्रतिबंध और इसके नियम "अंतरराष्ट्रीय कानून, सिद्धांतों और मानकों के अनुरूप नहीं हैं.[8]"
भारतीय सिविल सोसाइटी पर एफसीआरए के मामलें में सख्ती का बुरा प्रभाव रहा है. भारतीय गृह मंत्रालय एफसीआरए के तहत जांच करते समय अक्सर जांच से गुजर रहे एनजीओ के खातों से लेन-देन पर रोक लगा देता है, वित्तपोषण के स्रोत को काट देता है और इसप्रकार उन्हें अपनी गतिविधियों को रोकने के लिए मजबूर कर देता है. इस तरह की कारगुजारियों का अन्य समूहों के काम पर असर पड़ता है. पिछली यूपीआर में, भारत ने इन सिफारिशों को स्वीकार कर लिया था कि वह भारत की यूपीआर के फॉलो-अप में राष्ट्रीय सिविल सोसायटी को पूरी तरह शामिल रखना जारी रखेगा जैसा कि इसकी तैयारी में उन्हें शामिल किया गया था.
सरकार ने कथित राष्ट्र-विरोधी भाषण के लिए कार्यकर्ताओं और छात्रों सहित सरकार के आलोचकों के खिलाफ नियमित तौर पर देशद्रोह कानून का इस्तेमाल किया है. आपराधिक मानहानि और घृणास्पद भाषण कानून सम्बन्धी जैसे विस्तृत और अस्पष्ट रूप से वर्णित कानूनों का इस्तेमाल असहमति रखने वालों, आम धारणा से विपरीत राय रखने वालों या अल्पमत विचारों को व्यक्त करने वालों को परेशान करने और उन पर मुकदमा चलाने के लिए किया गया है. कई मामलों में, जब किताब, फिल्म या कलाकृति से आहत होने का दावा करने वाले निहित स्वार्थी समूहों ने सेंसरशिप की मांग की है या लेखकों को परेशान किया है, तब सरकार ने हमले का शिकार लोगों की रक्षा करने की बजाय उन्हें "हेकलर्स वीटो" के हवाले कर दिया.[9]
सिविल सोसायटी केलिए स्थान सुनिश्चित करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए भारत को चाहिए कि:
• मानवाधिकार रक्षकों के उत्पीड़न को रोके और एफसीआरए में संशोधन करे ताकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संगठन बनाने के अधिकारों में हस्तक्षेप न करे और सिविल सोसायटी संगठनों की संरक्षित शांतिपूर्ण गतिविधियों को दबाने में इसका दुरुपयोग न हो.
• देशद्रोह कानून को निरस्त करे, और अंतरिम व्यवस्था के रूप में राज्य सरकारों को यह निर्देश दे कि इस कानून लागू करते समय सुप्रीम कोर्ट के कड़े नियमों का पालन करें .
दलित, आदिवासी समुदायों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार
भारत की 2012 की समीक्षा के दौरान, भारतीय संविधान के मुताबिक प्रत्येक व्यक्ति के स्वतंत्र रूप से धर्म चुनने का अधिकार सुनिश्चित करने और धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसक कार्रवाइयों पर प्रभावी ढंग से त्वरित मुकदमा चलाने के लिए विधायी कार्रवाई सम्बन्धी नॉर्वे की सिफारिश को महज़ दर्ज किया गया. हालांकि, धार्मिक अल्पसंख्यक, विशेष रूप से मुसलमान और ईसाई, खुद को बहुत असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. कुछ भाजपा नेताओं ने अल्पसंख्यकों के खिलाफ भड़काऊ टिप्पणी की है, जबकि उग्र हिंदू समूहों, जो अक्सर भाजपा सरकार के समर्थक होने का दावा करते हैं, ने मुसलमानों और ईसाइयों को धमकी दी और उन्हें परेशान किया है, कुछ मामलों में वे उन पर सीधे हमला कर रहे हैं.
हिंदू निगरानी / विजिलेंट समूहों ने 2015 और 2016 के शुरू में देश भर में अलग-अलग घटनाओं में छह मुसलमानों की इस संदेह में हत्या कर दी कि वे गोमांस के लिए गायों का व्यापार कर रहे थे. यह हिंसा उस वक्त हुई जब कई बीजेपी नेताओं और उग्र हिंदू समूहों ने गोवंश , जिसे अनेक हिन्दू पवित्र मानते हैं, की रक्षा और बीफ़ के सेवन पर प्रतिबंध लगाने का आक्रामक अभियान छेड़ रखा था . हिंदू निगरानी समूहों ने देश के विभिन्न हिस्सों में दलितों को भी निशाना बनाया है. गुजरात राज्य में गौ-हत्या के शक में चार दलित पुरुषों को नंगा कर कार से बाँधने तथा लाठी और बेल्ट से उनकी सार्वजनिक रूप से पिटाई के बाद दलितों ने व्यापक विरोध प्रदर्शन किया.
2015 में कई राज्यों में गिरजाघरों पर भी हमला किया गया , जिससे भाजपा सरकार के शासनकाल में उग्र हिंदू राष्ट्रवाद बढ़ने का डर पैदा हो गया. सरकार ने अल्पसंख्यकों पर हिंसक हमलों के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए मजबूती से दबाव नहीं डाला, और हमलावरों की मिली दण्ड मुक्ति से यह भावना पैदा हो रही है कि बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता के प्रति सरकार उदासीन है.
2015 में, सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम लागू किया. इससे दलित और आदिवासी समुदायों की सुरक्षा को मजबूत मिली और उनके लिए न्याय पाने की कोशिश करना आसान हुआ लेकिन सरकार उन्हें भेदभाव और हिंसा से बचाने के लिए नीतियों को लागू करने में विफल रही है. अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के विशेष संवाददाता की जातिगत भेदभाव पर 2016 की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में जातीय भेदभाव से प्रभावित समूह कैसे बहिष्करण और अमानवीकरण के दौर से गुजर रहे हैं.[10]
सरकार ने अपनी दूसरी यूपीआर में, "समावेशी तरीके से जीवन की गुणवत्ता में व्यापक सुधार" के प्रति अपनी वचनबद्धता को दर्शाने के लिए 2009 के बच्चों के नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम का जिक्र किया था.[11] हालांकि, ह्यूमन राइट्स वॉच के रिसर्च में यह तथ्य सामने आया है कि दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदायों के बच्चों में उच्च छीजन दर का कारण उनके साथ बरते जानेवाला भेदभाव रहा है.[12] सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 64 प्रतिशत किशोर लड़कियां स्कूली पढाई पूरी नहीं कर पाती हैं. जिनका स्कूल छूट जाता है वो अक्सर सबसे बुरे प्रकार के बाल श्रम या कम उम्र में शादी का शिकार हो जाते हैं.
भारत ने 2013 में, सर पर मैला ढोने वालों के रोजगार पर रोक और उनके पुनर्वास अधिनियम को पारित किया और इसप्रकार मैला ढोने की प्रथा को ख़त्म करने की अपनी वचनबद्धता को प्रकट किया . . इसके सात महीने बाद, भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुसार सर पर मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने और इस काम में लगे सभी लोगों के "पुनर्वास" के लिए राजकीय हस्तक्षेप आवश्यक है. हालांकि, सर पर मैला ढोना, जो कि एक जातीय पेशा है और जिसे मुख्यतः दलित महिलाओं पर थोपा गया है, आज भी बदस्तूर जारी है. ह्यूमन राइट्स वॉच के रिसर्च में यह पाया गया है कि कुछ राज्य सरकारों ने स्थानीय शासकीय निकायों और नगरपालिकाओं में सर पर मैला ढोने वालों की बहाली कर इस काम को संस्थागत कर दिया है.[13]
दलितों, आदिवासी समुदायों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए भारत को चाहिए कि:
- दलितों, आदिवासी समूहों, धार्मिक अल्पसंख्यकों और अन्य बंचित समुदायों के खिलाफ दुर्व्यवहार को खत्म करने के लिए तत्काल कदम उठाए, उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानून और सरकारी नीतियों को लागू करने के लिए ठोस योजनाएं बनाये और वैसे विकास कार्यक्रमों की निगरानी करे, जिनके लाभ लक्षित समूहों तक नहीं पहुंच पाए हैं.
- दलितों, आदिवासी समूहों और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित सभी कमजोर समुदायों के विरुद्ध होने वाले अपराधों की सार्वजनिक रूप से निंदा करे और इस तरह के अपराधों के लिए जिम्मेदार लोगों पर मुस्तैदी से मुकदमा चलाए.
- सर पर मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने की अपनी वचनबद्धताओं को पूरा करे और यह सुनिश्चित करे कि स्वच्छता परियोजनाओं के लिए सभी तरह की पहल केलिए यह आवश्यक है कि वे तत्काल सर पर मैला ढोने की प्रथा को ख़त्म करने की ओर लक्षित हों और वह इस प्रथा को ख़त्म करने केलिए मौजूदा निगरानी तंत्र को चुस्त –दुरुस्त करे.
महिलाओं, बच्चों और निःशक्त व्यक्तियों के अधिकार
2012 में दिल्ली में एक युवा छात्रा के सामूहिक बलात्कार और हत्या के बाद, सरकार ने कानूनी सुधार किए, बलात्कार और यौन उत्पीड़न की नई और विस्तारित परिभाषाएं प्रस्तुत की, एसिड हमलों को अपराध घोषित किया, इसके शिकार लोगों को चिकित्सा का अधिकार प्रदान किया और आपराधिक न्याय प्रक्रिया में यौन उत्पीड़न से गुजरने वाली निःशक्त महिलाओं और लड़कियों की मदद करने के मकसद से नई कार्यप्रणाली स्थापित की है. इन कानूनों को लागू करने का ज़िम्मा राज्य सरकारों का है. लेकिन केंद्र सरकार अब तक ऐसा सुव्यवस्थित निगरानी तंत्र स्थापित नहीं कर सकी है जिसमें यह सुनिश्चित किया जा सके कि राज्य सरकारें क्षमता निर्माण सहित इन कानूनों के कार्यान्वयन के लिए पर्याप्त बजट आवंटन के लिए संघीय सरकार के साथ मिलकर काम करे. विशेष रूप से निःशक्त महिलाएं और लड़कियां ऐसे अपराधों के मामलों में न्याय पाने में बाधाओं का सामना करना रहीं हैं. .
ग्रामीण क्षेत्रों में, स्थानीय प्रशासन द्वारा भेदभाव और दुर्व्यवहार जारी है. कई भारतीय राज्यों में गैर-संवैधानिक ग्राम परिषदें हैं, जिसे खाप कहते हैं और जिनमें प्रभुत्वशाली जातियों के पुरुष इसके सदस्य होते हैं. इन्हें अक्सर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है, ये महिलाओं की आज़ादी और अधिकारों पर बंदिश लगाने वाले आदेश जारी करते हैं, और अपनी जाति या धर्म के बाहर शादी करने वाले जोड़ों की भर्त्सना करते हैं.
निःशक्त और बुजुर्ग व्यक्तियों की बेहतर सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए दूसरे चक्र की सिफारिशें स्वीकार करने के बावजूद, विशेष रूप से निःशक्त व्यक्तियों के साथ भेदभाव और हिंसा का खतरा मौजूद है. कई लोग क्षमता से ज्यादा रोगियों वाले और अस्वास्थ्यकर राजकीय मानसिक आरोग्यशालाओं और आवासीय संस्थानों में बंद हैं. यहाँ मौजूदा कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया जाता, हालाँकि इन प्रकियाओं के आधार पर वे ऐसे संस्थानों को चुनौती दे सकते हैं . ऐसा इसलिए है क्योंकि कुछ हद तक तो उन्हें कलंक माना जाता है और पर्याप्त समुदाय-आधारित समर्थन और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का भी अभाव है.[14] अगस्त 2016 में भारतीय संसद के उच्च सदन ने एक नया मानसिक स्वास्थ्य विधेयक पारित किया. हालांकि, यह निःशक्त व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मलेन के पूरी तरह अनुरूप नहीं है. इस विधेयक में यह शामिल नहीं है कि अपनी कानूनी शक्ति का प्रयोग करने में जरुरी मदद के लिए निःशक्त व्यक्तियों को समुचित मानदंडो के साथ जीवन के सभी क्षेत्रों में दूसरों की तरह ही समान कानूनी हैसियत प्राप्त है.
सरकार ने बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों में आरोपित 16 और 17 वर्ष के बच्चों के अभियोजन की अनुमति देने के लिए किशोर न्याय अधिनियम को संशोधित भी किया. हालाँकि यह संशोधन बाल अधिकार सुरक्षा के प्रति भारत की प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन है. सरकार ने 2016 में, बाल श्रम के खिलाफ एक नया कानून लागू किया जो 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों के किसी भी तरह के नियोजन पर प्रतिबंध लगाता है, लेकिन यह बच्चों को पारिवारिक उद्यमों में काम करने की अनुमति देता है. भारत के एक्टिविस्ट्स ने कानून का विरोध करते हुए कहा कि यह गरीब और हाशिए वाले समुदायों के बच्चों को सबसे बुरे प्रकार के शोषण के सामने खुला छोड़ देता है क्योंकि अधिकांश बाल श्रम अदृश्य रूप से परिवारों के अन्दर होता है.
महिलाओं, बच्चों और निःशक्त व्यक्तियों के अधिकारों के मामले में भारत को चाहिए कि :
- एक प्रभावी निगरानी तंत्र स्थापित करे जो पुलिस जवाबदेही में असफलता सहित महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा से संबंधित कानूनों के कार्यान्वयन की देखरेख करे . संघीय सरकार को समुचित सहायता सेवाओं के लिए राज्य सरकारों के प्रावधानों का समर्थन करना चाहिए और उन पर निगरानी भी रखनी चाहिए, इनमें मनोवैज्ञानिक-सामाजिक परामर्श, कानूनी सहायता, आपातकालीन चिकित्सा देखभाल, यौन हिंसा के प्रभावों के प्रति संवेदनशील प्रजनन और यौन स्वास्थ्य सेवाएं और कानून प्रवर्तन अधिकारियों और न्यायपालिका के लिए प्रशिक्षण शामिल है.
- भारत की अंतर्राष्ट्रीय कानूनी प्रतिबद्धताओं के अनुरूप, 16 और 17 वर्ष के बच्चों के अभियोजन को अनुमति देने वाले कानूनों को रद्द करें और इस बीच यह सुनिश्चित करे कि जो 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चे कानून के साथ टकराव में है उन्हें दंडित नहीं किया जाय बल्कि उनके लिए पुनर्वास और सुधारात्मक उपाय किए जायें .
- नए निःशक्तता अधिकार कानून, जो सभी निःशक्त व्यक्तियों को कानूनी क्षमता के अधिकार की गारंटी देता है, को सुनिश्चित करके निःशक्त व्यक्तियों के अधिकारों पर कन्वेंशन के तहत अपने अंतरराष्ट्रीय दायित्वों का सम्मान करे.
- यह सुनिश्चित करने के लिए दिशा-निर्देशों को तुरंत लागू करें. कि मानसिक रूप से निःशक्त लोगों को चिकित्सीय उपचार की ज्ञात सहमति प्रक्रियाओं में प्रभावी रूप से भाग लेने का अवसर हो. .
- सामुदायिक-आधारित मानसिक स्वास्थ्य और सहायता सेवाओं का समर्थन करें, और नए या नवीनीकृत मानसिक स्वास्थ्य या आवासीय देखभाल संस्थानों की स्थापना के बजाय समुदाय-आधारित मॉडल को मजबूत करने की कोशिश करे. समानता, स्वतंत्रता के मूल्यों पर और निःशक्त लोगों के समावेशन पर आधारित गैर - संस्थानीकरण की नीति का विकास और कार्यान्वयन करे और गैर - संस्थानीकरण के लिए समयबद्ध कार्य योजना तैयार करे.
- घरेलू कार्य पर आईएलओ कन्वेंशन संख्या 189 को मंजूरी दें.
मौत की सजा
2012 में, भारत ने मृत्युदंड पर अपने आठ साल के अनाधिकारिक स्थगन को हटा लिया और 2016 तक तीन लोगों को फांसी पर चढ़ा दिया; . भारत ने यूपीआर के दूसरे चक्र के दौरान, मौत की सजा को ख़त्म करने से संबंधित सभी सिफारिशों का उल्लेख किया था. भारतीय अदालतों ने स्वीकार किया है कि भारत में अभिवंचित समूहों के खिलाफ असंगत और भेदभावपूर्ण तरीके से मौत की सजा लागू की गई है.
मृत्यु दंड के मामले में भारत को चाहिए कि:
- मृत्युदंड पर रोक को तत्काल फिर से बहाल करे और मौत की सज़ा पूरी तरह खत्म करने की दिशा में काम करे.
- मौत की सजा को खत्म करने के लिए नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध के दूसरे वैकल्पिक प्रोटोकॉल को अनुमोदित करे.
लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकार
लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, और ट्रांसजेंडर (एलजीबीटी) व्यक्तियों के अधिकारों के मुतलिक भारत का मिला-जुला इतिहास रहा है. अपनी दूसरी यूपीआर में, भारत सरकार ने सकारात्मक कदम के रूप में 2009 के उच्च न्यायालय के उस फैसले का उल्लेख किया था जिसमें समलैंगिक संबंधों को अपराध बताने वाले कानून को समाप्त कर दिया गया था.[15] हालांकि, 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने पुराने कानून को बहाल कर दिया था. वर्तमान में, सुप्रीम कोर्ट ने कई क्यूरेटिव याचिकाओं के आधार पर 2013 के फैसले की समीक्षा करने का आदेश दे रखा है.
अप्रैल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने तीसरे लिंग के रूप में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को मान्यता दी और उन्हें नौकरी और शिक्षा में आरक्षण के योग्य पाया. हालांकि, 2016 में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए प्रस्तुत विधेयक में ऐसे कई प्रावधान शामिल थे जो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुरूप नहीं थे.
एलजीबीटी व्यक्तियों के अधिकारों के लिए भारत को चाहिए कि:
- भारतीय दंड संहिता की धारा 377, जोकि वयस्कों के बीच सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को अपराध मानती है, को ख़त्म करे,
- ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2016 को ट्रांसजेंडर समुदायों के साथ परामर्श के बाद इसे अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून और भारत के सर्वोच्च न्यायलय के निर्देशों के अनुरूप बनाने के लिए संशोधित करे.
[1] ह्यूमन राइट्स काउंसिल, “नेशनल रिपोर्ट सब्मिटेड इन एकॉर्डेंस विथ पैराग्राफ 5 ऑफ़ द एनेक्स टू ह्यूमन राइट्स काउंसिल रेज़लूशन 16/21;इंडिया,” UN Doc. A/HRC/WG.6/13/IND/1, March 2012, https://documents-dds-ny.un.org/doc/UNDOC/GEN/G12/116/85/PDF/G1211685.pdf?OpenElement (21 अगस्त, 2016 को देखा गया).
[2] वही.
[3]आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013, http://indiacode.nic.in/acts-in-pdf/132013.pdf (30 अगस्त, 2016 को देखा गया).
[4] “ एड्रेसिंग कांसर्न्स ऑफ़ वीमेन एडमिटेड टू साइकियाट्रिक इन्स्टिटूशंस इन इंडिया: एन इन-डेप्थ एनालिसिस,” राष्ट्रीय मानसिक जाँच एवं स्नायु विज्ञान संस्थान, बंगलुरु और राष्ट्रीय महिला आयोग, नई दिल्ली, 2016, http://ncw.nic.in/pdfReports/Addressing_concerns_of_women_admitted_to_psychiatric_institutions_in_INDIA_An_in-depth_analysis.pdf (01 सितम्बर, 2016 को देखा गया).
[5] गैर- न्यायिक या निरंकुश हत्याओं पर विशेष संवाददाता की रिपोर्ट, क्रिस्टोफ हेंस, देश की अनुशंसाओं का फॉलो-अप: भारत, UN Doc. A/HRC/29/37/Add.3, May 2015, https://documents-dds-ny.un.org/doc/UNDOC/GEN/G15/089/34/PDF/G1508934.pdf?OpenElement (23 अगस्त, 2016 को देखा गया).
[6] एक्स्ट्रा जुडिशल एक्सक्यूशन विक्टिम फैमिलीज़ एसोसिएशन (ईईवीएफएएम) और एएनआर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और एएनआर, सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया, W.P. (Crl). No. 129/2012, July 8, 2016, http://supremecourtofindia.nic.in/FileServer/2016-07-08_1467967629.pdf https://documents-dds-ny.un.org/doc/UNDOC/GEN/G15/089/34/PDF/G1508934.pdf?OpenElement (23 अगस्त, 2016 को देखा गया).
[7] “भारत: छत्तीसगढ़ में रिपोर्टिंग की भारी कीमत,” ह्यूमन राइट्स वाच का न्यूज़ रिलीज़, 18 अप्रैल, 2016. https://www.hrw.org/news/2016/04/18/india-high-cost-reporting-chhattisgarh (23 अगस्त, 2016 को देखा गया).
[8] शांतिपूर्ण एकत्र होने और संगठन बनाने की आज़ादी के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष संवाददाता द्वारा विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम 2010 और विदेशी अंशदान नियमन नियम 2011 के लिए लागू अंतरराष्ट्रीय कानून, मानकों और सिद्धांतों का विश्लेषण, मायना किआई, 20 अप्रैल, 2016, http://freeassembly.net/wp-content/uploads/2016/04/UNSR-FOAAinfo-note-India.pdf (25 अगस्त, 2016 को देखा गया).
[9] ह्यूमन राइट्स वाच, असहमति का दम घोंटना: भारत में शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति का अपराधीकरण, (न्यूयॉर्क: ह्यूमन राइट्स वाच, 2016), https://www.hrw.org/report/2016/05/24/stifling-dissent/criminalization-peaceful-expression-india.
[10] यूएन ह्यूमन राइट्स काउंसिल, अल्पसंख्यक मुद्दों पर विशेष संवाददाता की रिपोर्ट, रीता इज्साक, UN Doc. A/HRC/31/56, January 2016, http://idsn.org/wp-content/uploads/2016/03/Special-Rapporteur-on-minority-issues-report-on-caste.pdf (24 अगस्त, 2016 को देखा गया).
[11] ह्यूमन राइट्स काउंसिल, “नेशनल रिपोर्ट सब्मिटेड इन एकॉर्डेंस विथ पैराग्राफ 5 ऑफ़ द एनेक्स टू ह्यूमन राइट्स काउंसिल रेज़लूशन 16/21;इंडिया,” UN Doc. A/HRC/WG.6/13/IND/1, 8 March 2012, https://documents-dds-ny.un.org/doc/UNDOC/GEN/G12/116/85/PDF/G1211685.pdf?OpenElement (21 अगस्त, 2016 को देखा गया).
[12] ह्यूमन राइट्स वाच, “वे हमें नीच कहते हैं: भारत के वंचितों का शिक्षा मरहूम करना , (न्यू यॉर्क: ह्यूमन राइट्स वाच, 2014), https://www.hrw.org/report/2014/04/22/they-say-were-dirty/denying-education-indias-marginalized.
[13] ह्यूमन राइट्स वाच, मानव मल की सफाई: "सर पर मैला ढोना," भारत में जाति और भेदभाव, (न्यूयॉर्क: ह्यूमन राइट्स वाच, 2014), https://www.hrw.org/report/2014/08/25/cleaning-human-waste/manual-scavenging-caste-anddiscrimination-india.
[14] ह्यूमन राइट्स वाच, , "जिनके साथ जानवरों से भी बदतर सलूक किया गया :" भारत के संस्थानों में मानसिक या बौद्धिक निःशक्तता से पीड़ित महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ अत्याचार (न्यू यॉर्क: ह्यूमन राइट्स वाच, 2014), https://www.hrw.org/report/2014/12/03/treated-worse-animals/abuses-against-women-and-girls-psychosocial-or-intellectual.
[15] ह्यूमन राइट्स काउंसिल, “नेशनल रिपोर्ट सब्मिटेड इन एकॉर्डेंस विथ पैराग्राफ 5 ऑफ़ द एनेक्स टू ह्यूमन राइट्स काउंसिल रेज़लूशन 16/21;इंडिया,” UN Doc. A/HRC/WG.6/13/IND/1, March 2012, https://documents-dds-ny.un.org/doc/UNDOC/GEN/G12/116/85/PDF/G1211685.pdf?OpenElement (21 अगस्त, 2016 को देखा गया).