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भारत

2020 की घटनाएँ

राष्ट्रव्यापी कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान बस की छत पर बैठ कर और एक्सप्रेसवे पर पैदल अपने गांव लौटते भारतीय प्रवासी मज़दूर, नई दिल्ली, भारत, 28 मार्च, 2020.

© 2020 अल्ताफ कादरी/एपी फोटो

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की नेतृत्ववाली सरकार ने मानवाधिकार रक्षकों, कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, छात्रों, शिक्षाविदों और सरकार या उसकी नीतियों की आलोचना करने वाले अन्य लोगों  का अधिकाधिक लगातार उत्पीड़न किया, उन्हें गिरफ्तार किया और उन पर मुकदमें चलाए.

अगस्त 2019 में जम्मू और कश्मीर राज्य की संवैधानिक स्थिति रद्द करने और इसे दो केन्द्रशासित प्रदेशों में विभाजित करने के बाद सरकार ने राज्य के मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों पर कठोर और भेदभावपूर्ण प्रतिबंध लगाना जारी रखा.

अल्पसंख्यकों के खिलाफ, खास तौर से मुसलमानों के खिलाफ हमले जारी रहे, यहां तक कि सरकार मुसलमानों को बदनाम करने वाले भाजपा नेताओं और हिंसा में मशगूल भाजपा समर्थकों के खिलाफ कार्रवाई करने में विफल रही.

कोविड-19 लॉकडाउन ने आजीविका की हानि और भोजन, आश्रय, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य बुनियादी जरूरतों की कमी के कारण हाशिए पर रहने वाले समुदायों को बेहिसाब तौर पर  नुकसान पहुंचाया.

जम्मू और कश्मीर

जम्मू और कश्मीर में सैकड़ों लोगों को बगैर किसी आरोप के जन सुरक्षा कानून के तहत हिरासत में रखा गया, जो बिना सुनवाई दो साल तक हिरासत में रखने की अनुमति देता है.

जून में, सरकार ने जम्मू और कश्मीर में एक नई मीडिया नीति घोषित की जो अधिकारियों को “फेक न्यूज़, साहित्यिक चोरी और अनैतिक या देश विरोधी गतिविधियां” तय करने और मीडिया संस्थानों, पत्रकारों और संपादकों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने का अधिकार देती है. इस नीति में अस्पष्ट और व्यापक प्रावधान शामिल हैं जिनका दुरुपयोग हो सकता है और कानूनी रूप से संरक्षित भाषण को अनावश्यक रूप से प्रतिबंधित किया जा सकता है और उसके लिए दंडित किया जा सकता है. सरकार ने आलोचकों, पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर भी दमनात्मक कार्रवाई की.

अगस्त 2019 के बाद संचार नेटवर्क तक पहुंच समेत अन्य चीजों पर प्रतिबंधों के कारण  आजीविका, विशेषकर पर्यटन उद्योग पर निर्भर कश्मीर घाटी पर प्रतिकूल असर पड़ा है. कश्मीर चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के अनुमान के मुताबिक अगस्त 2019 के बाद विरोध प्रदर्शनों की रोकथाम के लिए पहले तीन माह में लगाए गए प्रतिबंधों से अर्थव्यवस्था को 2.4 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक का नुकसान हुआ, जिसकी भरपाई के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया. मार्च में कोविड-19 के प्रसार को काबू करने के लिए सरकार द्वारा लागू किए गए नए प्रतिबंधों के बाद नुकसान लगभग दोगुना हो गया.

महामारी ने सूचना, संचार, शिक्षा और व्यापार के लिए इंटरनेट तक पहुंच को महत्वपूर्ण बना दिया है. हालांकि, इंटरनेट तक पहुंच को मौलिक अधिकार बताने वाले सुप्रीम कोर्ट द्वारा जनवरी में दिए गए आदेश के बाद भी सरकार ने केवल धीमी गति वाली 2G मोबाइल इंटरनेट सेवाओं की अनुमति दी. ऐसे में डॉक्टरों ने शिकायत की कि इंटरनेट की कमी कोविड-19 के इलाज़ में बाधा पहुंचा रही है.

सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (अफ्स्पा) के जरिए सुरक्षा बलों को, यहां तक कि मानवाधिकार के गंभीर उल्लंघनों के मामलों में भी, अभियोजन से प्रभावी सुरक्षा कवच प्रदान करना जारी है. जुलाई में, सुरक्षा बलों ने शोपियां जिला में तीनों लोगों की हत्या की और दावा किया कि मारे गए लोग उग्रवादी थे. लेकिन, अगस्त में, उनके परिवारों ने सोशल मीडिया पर जारी हत्याओं की तस्वीरों से मृतकों की पहचान करते हुए बताया कि वे मजदूर थे. सितंबर में, सेना ने अपनी जांच में प्रथम दृष्टया सबूत मिलने की बात बताई और कहा कि उसके सैनिकों ने अफ्स्पा के तहत मिली शक्तियों का अतिक्रमण किया है और वह इसके लिए “जिम्मेदार” लोगों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करेगी.

सुरक्षा बलों ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए धातु के पैलेट इस्तेमाल करने वाली शॉटगन का इस्तेमाल करना भी जारी रखा. ऐसा उन्होंने इस सबूत के बावजूद जारी रखा कि स्वाभाविक रूप से उनका निशाना सटीक नहीं होता है और वे आस-पास खड़े लोगों को भी अंधाधुंध चोटें पहुंचाती हैं, जो कि अंतर्राष्ट्रीय मानकों का उल्लंघन है.

सुरक्षा बलों को अभयदान

मार्च में कोविड-19 की रोकथाम के लिए घोषित राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के शुरुआती हफ्तों में, कई राज्यों में पुलिस ने आवश्यक सामान लेने का प्रयास कर रहे लोगों सहित लॉकडाउन का उल्लंघन करने वालों के साथ मारपीट की. पश्चिम बंगाल में, पुलिस ने एक 32 वर्षीय व्यक्ति की कथित तौर पर तब पीट-पीटकर हत्या कर दी, जब वह दूध लाने अपने घर से निकला था.  उत्तर प्रदेश से आए एक वीडियो में यह दिखा कि घर लौटने की कोशिश कर रहे प्रवासी कामगारों को अपमानित करने के लिए पुलिस उन्हें रेंगने के लिए मजबूर कर रही थी. कई राज्यों में पुलिस ने लोगों को मनमाने ढंग से सजा भी दी या लॉकडाउन तोड़ने के लिए उन्हें सरेआम बेइज्जत किया.

पुलिस हिरासत में अत्याचार और गैर-न्यायिक हत्याओं के नए मामलों ने पुलिस उत्पीड़न के लिए जवाबदेही की कमी और पुलिस सुधारों को लागू करने में विफलता को उजागर किया. अक्टूबर तक यानी कि पहले 10 महीनों के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक पुलिस हिरासत में 77 और न्यायिक हिरासत में 1,338 मौतें एवं कथित रूप से 62 गैर-न्यायिक हत्याएं दर्ज हुईं.

जून में, तमिलनाडु में कथित तौर पर कोविड-19 लॉकडाउन नियमों के उल्लंघन के लिए हिरासत में लिए गए पिता-पुत्र की पुलिस हिरासत में मौत हो गई. सितंबर में, केंद्रीय जांच ब्यूरो, जिसे राष्ट्रव्यापी आक्रोश के बाद मौतों की जांच करने के लिए कहा गया, ने नौ पुलिसकर्मियों पर हत्या और सबूत मिटाने का आरोप लगाया.

जुलाई में, उत्तर प्रदेश पुलिस ने एक संदिग्ध विकास दुबे की हत्या कर दी. पुलिस ने कहा कि वह पुलिस हिरासत से भागने की कोशिश कर रहा था. उत्तर प्रदेश में मार्च 2017 में अजय बिष्ट, जो योगी आदित्यनाथ उपनाम का इस्तेमाल करते हैं, के नेतृत्व में भाजपा सरकार के कार्यभार संभालने के बाद राज्य में हुई यह कथित रूप से 119वीं गैर-न्यायिक हत्या थी. सितंबर में, उत्तर प्रदेश सरकार ने घोषणा की कि वह एक विशेष पुलिस बल की स्थापना करेगी, जिसे बिना वारंट तलाशी और गिरफ्तारी का अधिकार होगा. इसने पुलिस उत्पीड़न संबंधी चिंताओं को और गहरा कर दिया.

दलित, आदिवासी समूह और धार्मिक अल्पसंख्यक

फरवरी माह में, दिल्ली में भड़की सांप्रदायिक हिंसा में कम-से-कम 53 लोग मारे गए. हिंदू भीड़ के सुनियोजित हमलों में दो सौ से अधिक लोग घायल हुए, संपत्तियों को नष्ट किया गया और जन समुदाय विस्थापित हुए. हालांकि एक पुलिसकर्मी और कुछ हिंदू भी मारे गए, मगर पीड़ितों में अधिकांश मुस्लिम थे. ये हमले भारत सरकार की भेदभावपूर्ण नागरिकता नीतियों के खिलाफ कई हफ़्तों से चले आ रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के बाद हुए.

भाजपा के एक स्थानीय नेता कपिल मिश्रा द्वारा पुलिस से प्रदर्शनकारियों को सड़क से हटाने की मांग के तुरंत बाद हिंसा शुरू हुई. भाजपा नेताओं द्वारा प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसा की खुलेआम वकालत करने और कुछ नेताओं द्वारा उन्हें “देशद्रोही” बताते हुए “गोली मारने” का आह्वान करने से हफ़्तों से तनाव पैदा हो रहा था. गवाहों के विवरणों और वीडियो सबूतों से हिंसा में पुलिस की मिलीभगत सामने आई. दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने जुलाई में जारी रिपोर्ट में कहा कि दिल्ली हिंसा “सुनियोजित और लक्षित” थी. आयोग ने यह भी पाया कि पुलिस ने हिंसा के लिए मुस्लिम पीड़ितों के खिलाफ मामले दर्ज किए, लेकिन इसे भड़काने वाले भाजपा नेताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं की.

उत्तर प्रदेश में, सरकार ने मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए गोहत्या के आरोपों का इस्तेमाल करना जारी रखा. अगस्त तक, उत्तर प्रदेश सरकार ने गोहत्या निषेध कानून के तहत गोहत्या के आरोप में 4,000 लोगों को गिरफ्तार किया और 76 आरोपितों के खिलाफ कठोर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का भी इस्तेमाल किया. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून आरोपपत्र दायर किए बिना एक साल तक हिरासत में रखने की अनुमति देता है.

कोविड-19 के प्रकोप के बाद मुस्लिम विरोधी बयानबाजी बढ़ी. मार्च में, भारतीय अधिकारियों ने बताया कि उन्हें ऐसे मुसलमानों के बीच बड़ी संख्या में कोविड-19 पॉजिटिव मामले मिले, जो दिल्ली में एक बड़ी धार्मिक सभा में शामिल हुए थे. इसके बाद कुछ भाजपा नेताओं ने बैठक को “तालिबानी जुर्म” और “कोरोना आतंकवाद” की संज्ञा दे दी. सरकार समर्थक कुछ मीडिया ने “कोरोना जिहाद” का शोर मचाया और सोशल मीडिया प्लेटफार्म मुसलमानों के सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार की मांग से पट गए. जानबूझकर वायरस फैलाने के झूठे आरोपों के बीच राहत सामग्री बांटने वाले स्वयंसेवक समेत मुसलमानों पर अनगिनत हमले भी हुए.

2019 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, दलितों के खिलाफ अपराधों में 7 फीसदी की वृद्धि हुई है. दलित अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह कुछ हद तक दलितों के आगे बढ़ने की कोशिश के खिलाफ प्रभुत्वशाली जातियों का प्रतिघात है या शायद इसलिए कि वे इसे जाति पदानुक्रम को चुनौती समझते हों. अगस्त में, ओडिशा में एक 15 वर्षीय लड़की ने प्रभुत्वशाली जाति के एक परिवार के घर के पिछवाड़े से फूल तोड़ लिए तो 40 दलित परिवारों का सामाजिक बहिष्कार किया गया. जुलाई में, कर्नाटक में प्रभुत्वशाली जाति के पुरुष की मोटरसाइकिल कथित रूप से छूने पर एक दलित व्यक्ति को नंगा किया गया और परिवार के सदस्यों के साथ उसे  पीटा गया. फरवरी में, तमिलनाडु में प्रभुत्वशाली जाति के सदस्यों ने एक दलित पुरुष को पीट-पीटकर मार डाला क्योंकि उसने उनके खेत में शौच किया था. सितंबर में, ब्राह्मणवाद की आलोचना करने वाले सोशल मीडिया पोस्ट के कारण एक दलित वकील को मार डाला गया.

अगस्त में, संयुक्त राष्ट्र के कई विशेषज्ञों ने पर्यावरण प्रभाव आकलन प्रक्रिया संबंधी सरकार के प्रस्तावित संशोधन पर चिंता जताई, जो कई बड़े उद्योगों और परियोजनाओं को सार्वजनिक परामर्श से छूट देता है और आवश्यक अनुमति प्राप्त किए बिना शुरू हुई परियोजनाओं को पूर्व प्रभावी (पोस्ट-फैक्टो) मंजूरी देता है. पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने चिंता व्यक्त की है कि सार्वजनिक परामर्श के प्रावधानों को कमज़ोर करने और पूर्व प्रभावी मंजूरी से आदिवासी समुदायों के अधिकार कमजोर होंगे; वन संबंधी मंजूरियों में अवैधता के कारण पहले से ही उनके अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है.

नागरिक समाज और शांतिपूर्ण सभा करने का अधिकार

फरवरी में दिल्ली में सांप्रदायिक हिंसा और साथ ही जनवरी 2018 में महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में हुई जातीय हिंसा के लिए दोषी ठहराते हुए भारत सरकार ने मानवाधिकार रक्षकों, छात्र कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, विपक्षी नेताओं और आलोचकों के खिलाफ कठोर राजद्रोह और आतंकवाद-निरोधी कानून समेत अन्य कानूनों के तहत राजनीति से प्रेरित मामले दर्ज किए. दोनों मामलों में, भाजपा समर्थक हिंसा में संलिप्त थे. इन मामलों में पुलिस जांच पक्षपातपूर्ण थी और इसका उद्देश्य असहमति को दबाना और सरकारी नीतियों के खिलाफ भविष्य के विरोध प्रदर्शनों को डराकर रोकना था.

सितंबर में, संसद ने विदेशी सहायता विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) में संशोधन किया. इस विदेशी सहायता कानून का इस्तेमाल पहले से ही मुखर अधिकार समूहों को परेशान करने के लिए किया जा रहा था. संशोधनों में भारी-भरकम सरकारी चौकसी, अतिरिक्त नियमनों और प्रमाणन प्रक्रियाओं एवं परिचालन संबंधी आवश्यकताओं को जोड़ा गया है, जो नागरिक समाज समूहों पर प्रतिकूल असर डालेगा और विदेशी सहायता तक छोटे गैर सरकारी संगठनों की पहुंच को बुरी तरह सीमित कर देगा. सितंबर में, एमनेस्टी इंटरनेशनल ने सरकार द्वारा विदेशी सहायता से संबंधित कानूनों का उल्लंघन करने का आरोप लगाते हुए संगठन के बैंक खातों से लेन-देन पर रोक लगाए जाने के बाद भारत में अपने क्रियाकलाप स्थगित कर दिए. एमनेस्टी ने  कहा कि यह उसके कार्यों के लिए बदले की कार्रवाई है और यह “मानवाधिकार संगठनों को लगातार निशाना बनाने” की सरकार की नवीनतम कारस्तानी है.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निजता

कई पत्रकारों को कोविड-19 पर रिपोर्टिंग के लिए आपराधिक मामलों, गिरफ्तारी, धमकी या भीड़ या पुलिस के हमले का सामना करना पड़ा. अनेक मामलों में, ग्रामीण भारत में काम करने वाले स्वतंत्र पत्रकारों को महामारी से निपटने के सरकारी तौर-तरीकों की आलोचना के लिए निशाना बनाया गया.

इस बीच, सरकारी तंत्र ने पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित कानूनों का इस्तेमाल जारी रखा. सितंबर में, पत्रकार राजीव शर्मा को चीनी अधिकारियों को संवेदनशील जानकारी कथित तौर पर बेचने के लिए शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत गिरफ्तार किया गया. प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने इस कानून के तहत पुलिस द्वारा बिना आधार के पत्रकारों की संदिग्ध पिछली गिरफ्तारियों की ओर इशारा करते हुए गिरफ्तारी की निंदा की. अगस्त में, उत्तर प्रदेश सरकार ने पत्रकार प्रशांत कनौजिया को उनके एक ट्विट पर सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने का आरोप लगाते हुए गिरफ्तार कर लिया. कनौजिया को पिछले साल राज्य के मुख्यमंत्री की आलोचना वाले सोशल मीडिया पोस्ट के लिए भी गिरफ्तार किया गया था, लेकिन उन्हें जमानत मिल गई थी.

अगस्त में, सुप्रीम कोर्ट ने दो सोशल मीडिया पोस्ट के लिए प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण को न्यायालय की आपराधिक अवमानना का दोषी करार दिया. पूर्व न्यायाधीशों, सेवानिवृत्त नौकरशाहों और वकीलों ने इसकी व्यापक निंदा करते हुए कहा कि इस “असंगत कार्रवाई” का न्यायपालिका की आलोचना करने वालों पर खौफ़नाक असर पड़ सकता है.

इंटरनेट पर सबसे ज्यादा बार प्रतिबंध के मामले में भारत पूरी दुनिया में फिर अव्वल रहा क्योंकि सरकारी तंत्र ने सामाजिक अशांति की रोकथाम या फिर कानून और व्यवस्था की चली आ रही समस्या से निपटने के लिए व्यापक प्रतिबंधों का सहारा लिया. सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर के मुताबिक, नवंबर की शुरुआत तक भारत में कुल 71 बार ऐसे प्रतिबंध लगाए गए जिनमें 57 बार अकेले जम्मू और कश्मीर में लगाए गए.

महिला अधिकार

लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में बढ़ोतरी हुई, जैसा कि दुनिया के बहुत सारे अन्य देशों में भी देखा गया. मार्च में, सरकार ने 2012 में दिल्ली में ज्योति सिंह पांडे के सामूहिक बलात्कार और हत्या के दोषी चार लोगों को फांसी दे दी, जबकि पिछले वर्ष की तुलना में 2019 में बलात्कार के मामलों में 7.9 प्रतिशत वृद्धि हुई. मौत की सजा की मांग भी भारत में यौन हिंसा उत्तरजीवियों के न्याय पाने में प्रणालीगत बाधाओं को दूर करने में विफल रही, जिनमें लांछना, बदले की कार्रवाई का डर, पुलिस की प्रतिकूल या उपेक्षापूर्ण प्रतिक्रिया और पर्याप्त कानूनी एवं स्वास्थ्य सहायता सेवाओं तक पहुंच की कमी शामिल है.

सितंबर में, उत्तर प्रदेश के एक गांव में प्रभुत्वशाली जाति के चार पुरुषों द्वारा कथित सामूहिक बलात्कार और यातना के बाद 19 वर्षीय दलित महिला की मृत्यु हो गई. सरकार की प्रतिक्रिया ने यह उजागर किया कि कैसे हाशिए के समुदायों की महिलाएं और अधिक संस्थागत बाधाओं का सामना करती हैं. राज्य सरकार ने परिवार की सहमति के बिना पीड़िता का अंतिम संस्कार कर दिया और इस बात से इंकार कर दिया कि महिला के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था  जबकि उसने मृत्यु पूर्व बयान दिया था. जाहिर तौर पर, ऐसा आरोपियों को बचाने के लिए किया गया जो कथित तौर पर प्रभुत्वशाली जाति के हैं. राज्य सरकार ने दावा किया कि बलात्कार और हत्या के खिलाफ विरोध प्रदर्शन “अंतर्राष्ट्रीय साजिश” का हिस्सा हैं और आतंकवाद और राजद्रोह कानून के तहत एक पत्रकार और तीन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया, और कुछ प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कथित आपराधिक साजिश के मामले भी दर्ज किए.

कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न एक गंभीर समस्या बना हुआ है. सरकार अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के लिए शिकायत समितियों का निर्माण और उनका समुचित कार्यान्वयन सुनिश्चित करने और साथ ही कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न अधिनियम, 2013 ठीक से लागू करने में विफल रही है.

कोविड-19 महामारी के दौरान बाल अधिकार

मार्च के बाद से स्कूल बंद हैं और रिपोर्ट लिखने जाने के समय देश के अधिकांश हिस्सों में अभी भी बंद थे. इससे 28 करोड़ से अधिक छात्र प्रभावित हुए हैं और इसने गरीबों, विशेषकर सरकारी स्कूलों में पढ़ने वालों के लिए शिक्षा तक पहुंच में हुई प्रगति को पीछे मोड़ने का खतरा पैदा कर दिया है. ज्यादातर राज्यों में, सरकारी स्कूलों में लॉकडाउन के दौरान पढाई नहीं हुई, इससे दलित, आदिवासी और मुस्लिम जैसे हाशिए के समुदायों के बच्चों के सामने स्कूल छोड़ने और बाल श्रम एवं बाल-विवाह के लिए धकेले जाने का खतरा बढ़ गया. लड़कियां के समक्ष यह खतरा कहीं ज्यादा है.

अगस्त में जारी यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक, हालांकि बहुत से निजी स्कूलों ने ऑनलाइन कक्षाओं की पेशकश की, लेकिन व्यापक शहरी-ग्रामीण और लैंगिक विभाजन के कारण केवल 24 प्रतिशत भारतीय परिवारों की ही इंटरनेट तक पहुंच है, यह स्थिति उच्च, मध्यम और निम्न-आय वाले परिवारों के बीच शिक्षा की खाई को और चौड़ा कर रही है.

भारत में करोड़ों बच्चों, विशेष रूप से दलित और आदिवासी समुदाय के बच्चों के समक्ष महामारी के दौरान कुपोषण और बीमारी का खतरा पैदा हो गया है क्योंकि सरकार भोजन, स्वास्थ्य देखभाल और टीकाकरण के प्रावधानों को पर्याप्त रूप से सुनिश्चित करने में विफल रही है. बड़ी संख्या में हाशिए पर रहने वाले बच्चे इन प्रावधानों के लिए सरकारी स्कूल और आंगनवाड़ी केन्द्रों पर निर्भर करते हैं जो कि कोविड-19 प्रसार की रोकथाम के लिए बंद कर दिए गए.

विकलांग व्यक्तियों के अधिकार

विकलांग व्यक्तियों के समक्ष कोविड-19 लॉकडाउन ने खास तरह की चुनौतियां पेश कीं, जिनमें चिकित्सा देखभाल और आवश्यक आपूर्ति तक पहुंच एवं सामाजिक दूरी का पालन करना शामिल है, विशेष रूप से उन विकलांगों के लिए जो व्यक्तिगत मदद से दैनिक जीवन यापन करते हैं. 

मार्च में, केंद्र सरकार ने कोविड-19 के दौरान विकलांग व्यक्तियों के आश्रय और सुरक्षा के लिए दिशा-निर्देश जारी किए. इनमें ब्रेल, सांकेतिक भाषा, आसानी से पढ़े जाने वाले प्रारूप आदि में सूचनाओं तक पहुंच सुनिश्चित करना; लॉकडाउन प्रतिबंधों से व्यक्तिगत सहायकों को छूट देना; विशिष्ट विकलांगता वाले कर्मचारियों को आवश्यक सेवा कार्यों की जिम्मेदारी से छूट देना; और विकलांगों के अधिकारों और विकलांग व्यक्तियों के उपचार पर आपातकालीन सेवा प्रदाताओं को प्रशिक्षण देना शामिल है. हालांकि, कार्यकर्ताओं ने कहा कि दिशा-निर्देशों पर अधिकांश राज्य सरकारों ने अच्छी तरह से अमल नहीं किया, वे ज्यादातर कागज पर ही रहे.

यौन उन्मुखता और लैंगिक पहचान

सितंबर में, दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका में हिंदू विवाह अधिनियम के तहत समलैंगिक जोड़ों के लिए विवाह के अधिकार की मांग की गई. यह मामला रिपोर्ट लिखे जाने  तक लंबित था.

जुलाई में, सरकार ने ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) नियमावली, 2020 का मसौदा प्रकाशित किया और नागरिक समाज से टिप्पणियां मांगी. लेकिन अधिकार समूहों ने सरकार से पिछले साल पारित कानून की नियमावली को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया रोकने की मांग की. उनके अनुसार यह कानून ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को पूर्ण सुरक्षा और मान्यता प्रदान करने में विफल रहा है. यह कानून ट्रांसजेंडर व्यक्ति के आत्म-पहचान के अधिकार पर अस्पष्ट है, जिसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 2014 में एक ऐतिहासिक फैसले में मान्यता दी थी. इसके प्रावधान कानूनी लिंग मान्यता के अंतरराष्ट्रीय मानकों के भी विपरीत है.

प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय किरदार

संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार ने भारत के मानवाधिकार संबंधी रिकॉर्ड पर कुछ ख़ास नही कहा. ऐसा ही रुख राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की फरवरी की भारत यात्रा के दौरान भी कायम रहा. लेकिन अमेरिकी कांग्रेस के कई सदस्यों ने सार्वजनिक रूप से चिंता व्यक्त करना जारी रखा.

सितंबर में, संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर पर तुर्की के राष्ट्रपति की आलोचनात्मक टिप्पणी के बाद, भारत सरकार ने इसे भारत के आंतरिक मामलों में “भारी हस्तक्षेप” और “पूरी तरह से अस्वीकार्य” बताया.

यूरोपीय संघ, जो भारत के साथ संबंध मजबूत बनाने और द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते के लिए फिर से वार्ता शुरू करने हेतु प्रयत्नशील है, भारत में मानवाधिकार की बिगड़ती स्थिति पर सार्वजनिक रूप से चिंता जताने में विफल रहा. जुलाई में, यूरोपीय संघ और भारत ने मानवाधिकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई और अपने स्थानीय मानवाधिकार संवाद को बहाल करने का संकल्प लिया. फरवरी में, यूरोपीय संसद ने भारत के नागरिकता संशोधन अधिनियम पर चर्चा की और एक अत्यावश्यक प्रस्ताव पेश किया, लेकिन इसकी स्वीकृति को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया. मई और अक्टूबर में, मानवाधिकार पर यूरोपीय संसद की उपसमिति के अध्यक्ष ने भारत में मानवाधिकार रक्षकों, पत्रकारों और अमनपसंद आलोचकों की गिरफ्तारी समेत “कानून के शासन की बिगड़ती स्थिति” पर चिंता प्रकट की.

अप्रैल में, इस्लामिक सहयोग संगठन ने “कोविड-19 के प्रसार के लिए मुसलमानों को बदनाम करने के भारत में निरंतर चल रहे दुर्भावनापूर्ण इस्लामोफोबिक अभियान” की आलोचना की. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी कोविड-19 मामलों के “नस्लीय, धार्मिक और नृजातीय आधार पर वर्गीकरण” के खिलाफ आगाह किया.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बेशलेट ने जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर चिंता व्यक्त की. जून में, संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञों ने भारत सरकार से नागरिकता नीतियों के विरोध के लिए गिरफ्तार मानवाधिकार रक्षकों को तुरंत रिहा करने का आग्रह करते हुए कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि ये गिरफ्तारियां “भारत के जीवंत नागरिक समाज में खौफ़ पैदा करने वाला यह संदेश भेजने के लिए की गईं कि सरकारी नीतियों की आलोचना बर्दाश्त नहीं की जाएगी.” अक्टूबर में, बेशलेट ने कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी और “मानवाधिकारों की रिपोर्टिंग और वकालत, जिसे सरकार आलोचनात्मक कार्य मानती है, के लिए गैर-सरकारी संगठनों को दंडित करने के लिए” अस्पष्ट रूप से परिभाषित कानूनों के इस्तेमाल पर भी चिंता जताई.

विदेश नीति

मई महीने से लद्दाख सीमा पर हजारों भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच गतिरोध से चीन के साथ शत्रुता बढ़ गई. जून में, भारतीय सेना के अधिकारियों ने झड़पों में 20 मौतें होने की सूचना दी. सितंबर में, वास्तविक नियंत्रण रेखा के पास हवा में गोलियां चलीं, जो 40 वर्षों में दोनों सेनाओं के बीच आग्नेयास्त्रों का पहला स्वीकार्य इस्तेमाल था. दोनों देशों ने एक-दूसरे के सैनिकों को ज़िम्मेदार ठहराया. बढ़ते तनाव के जवाब में, भारत सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं का हवाला देते हुए चीन से जुड़े 200 से अधिक मोबाइल एप्लीकेशंस पर प्रतिबंध लगा दिया.

अगस्त में, चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर पर चर्चा की मांग की. भारत और पाकिस्तान ने सितंबर में संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर और धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के सवाल पर आरोप-प्रत्यारोप लगाया.

भारत ने बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और अफगानिस्तान सहित अन्य पड़ोसियों के साथ द्विपक्षीय वार्ताओं के दौरान सार्वजनिक रूप से अधिकारों की रक्षा का मुद्दा नहीं उठाया. नेपाल के साथ भारत के संबंध पूरे साल तनावपूर्ण रहे. जून में, नेपाल की संसद ने भारत के साथ विवादित तीन क्षेत्रों को शामिल करते हुए देश के संशोधित नक्शे को मंजूरी दी. भारत द्वारा एक विवादित क्षेत्र में सड़क बनाने और नवंबर 2019 में संशोधित मानचित्र में विवादित क्षेत्रों को भारत का हिस्सा दिखाने के जवाब में नेपाल का यह कदम सामने आया था. सितंबर में, प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे के पद संभालने के बाद भारत और श्रीलंका के बीच पहला वर्चुअल  द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन हुआ. भारत सरकार ने “सुलह-समझौते की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने समेत एकीकृत श्रीलंका में समानता, न्याय, शांति और सम्मान संबंधी तमिल लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए” श्रीलंका सरकार पर दबाव डाला.

भारत जनवरी 2021 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक गैर-स्थायी सदस्य के रूप में शामिल होगा.