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भारत: अधिकारों पर ख़तरा है पहचान परियोजना

आवश्यक सेवाओं तक पहुंच सुनिश्चित करें, आंकड़ों में सेंधमारी के दावों की जांच करें

22 फरवरी, 2013 को भारत के राज्य राजस्थान के मेड़ता जिले के एक नामांकन केंद्र पर विशिष्ट पहचान (यूआईडी) डाटाबेस सिस्टम के लिए फिंगरप्रिंट स्कैन करवाता एक ग्रामीण.  © 2013 मानसी थापलियाल/रायटर्स

(न्यू यॉर्क) - भारत सरकार की अनिवार्य बायोमेट्रिक पहचान परियोजना - आधार के कारण मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हुए लाखों लोगों को आवश्यक सेवाओं और सुविधाओं से वंचित किया जा सकता है. ये बातें आज एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया और ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहीं. व्यक्तिगत और बायोमेट्रिक डाटा का बड़े पैमाने पर संग्रह और कई सेवाओं से उन्हें जोड़ना, गोपनीयता के अधिकार के उल्लंघन संबंधी गंभीर चिंताएं भी सामने लाते हैं.

संगठनों ने कहा, "सरकार को चाहिए कि आधार के बारे में प्रकट की गई चिंताओं की स्वतंत्र जांच का आदेश दे और आंकड़ों की सुरक्षा, गोपनीयता और बचाव संबंधी जोख़िमों को सामने लाने वाले पत्रकारों और शोधकर्ताओं को निशाना बनाना बंद करे."

एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के कार्यकारी निदेशक आकार पटेल ने कहा, "आधार कार्ड को आवश्यक सेवाओं और सुविधाओं का उपयोग करने के लिए अनिवार्य बनाना भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा के अधिकारों सहित कई संवैधानिक अधिकारों तक पहुंच में बाधा डाल सकता है. सरकार का कानूनी और नैतिक दायित्व है कि यह सुनिश्चित करे कि किसी को भी सिर्फ आधार कार्ड नहीं होने के कारण उसके अधिकारों से वंचित नहीं किया जाए."

आधार परियोजना 2009 में स्थापित भारत सरकार के एक वैधानिक निकाय भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) द्वारा संचालित की जाती है. यह उंगलियों के निशान, चेहरे की तस्वीर और आँख की पुतली का स्कैन जैसे निजी और बायोमेट्रिक आंकड़े एकत्र करता है और 12 अंकों की विशिष्ट पहचान संख्या जारी करता है. शुरू में आधार स्वैच्छिक था, जिसका उद्देश्य सरकारी कल्याणकारी कार्यक्रमों में धोखाधड़ी दूर करना और लोगों को एक तरह की  पहचान प्रदान करना था.

हालांकि, 2016 के आधार अधिनियम और उसके बाद की अधिसूचनाओं और लाइसेंसिंग समझौतों ने नाटकीय रूप से इस परियोजना के दायरे में वृद्धि की; सरकारी सब्सिडी, पेंशन और छात्रवृत्ति सहित कई आवश्यक सेवाओं और सुविधाओं तक पहुंच के लिए लोगों द्वारा आधार नामांकन कराना अनिवार्य बना दिया गया. इसे बैंकिंग, बीमा, टेलीफोन और इंटरनेट जैसी सेवाओं से भी जोड़ दिया गया है.

गरीब लोगों को सरकार जन वितरण प्रणाली के ज़रिए सब्सिडी वाला अनाज उपलब्ध कराती है. इस योजना की दुकानों ने योग्य परिवारों को अनाज देने से मना कर दिया है क्योंकि या तो उनके पास आधार संख्या नहीं है या उन्होंने इसे अपने राशन कार्ड से जोड़ा नहीं है, जो उनकी पात्रता की पुष्टि करते हैं, या उंगलियों के निशान जैसे उनके बायोमेट्रिक्स का सत्यापन नहीं हो पाया है. स्थानीय मानवाधिकार समूहों और मीडिया ने ऐसे कुछ मामलों की खबर दी है, जिनमें इन सबके परिणामस्वरूप भूख से लोगों की मौत हुई है. ख़राब इंटरनेट कनेक्टिविटी, मशीन की खराबी और वृद्धों या श्रमिकों जैसे लाभुकों की उंगलियों के निशान घिस जाने की समस्या ने बायोमेट्रिक सत्यापन की समस्या को और बढ़ा दिया है.

राजस्थान के सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुसार, आधार सत्यापन अनिवार्य किए जाने के बाद सितंबर 2016 से जून 2017 के बीच कम-से-कम 25 लाख परिवारों को अनाज़ नहीं मिल पा रहा है. अक्टूबर 2017 में, केंद्र सरकार ने राज्यों को निर्देश दिया कि वे योग्य परिवारों को सब्सिडी वाले अनाज़ से केवल इस वजह से वंचित न करें कि उनके पास आधार संख्या नहीं है या उन्होंने राशन कार्ड को इससे नहीं जोड़ा है. इसके बावज़ूद, अनाज नहीं देने की ख़बरें लगातार सामने आ रही हैं.

आधार कार्ड के बिना बच्चों के सामने सरकारी स्कूलों में मुफ़्त भोजन से वंचित होने का ख़तरा पैदा हो रहा है, जबकि अन्य बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिला लेने से इंकार कर दिया गया इसके बावज़ूद कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी देता है. छात्रों के लिए भी आधार संख्या के बिना सरकारी छात्रवृत्ति प्राप्त करना मुश्किल होता जा रहा है. हरियाणा में अस्पताल जन्म प्रमाणपत्र देने से पहले नवजात शिशुओं के आधार नामांकन पर ज़ोर दे रहे हैं. मृत्यु प्रमाणपत्र जारी करने के लिए भी आधार संख्या की मांग की जा रही है. कुछ मामलों में, स्वास्थ्य सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए आधार संख्या जमा करने के लिए मजबूर किए जाने पर एचआईवी/एड्स से पीड़ित लोगों ने चिकित्सा उपचार या दवाएं लेना बंद कर दिया है क्योंकि उन्हें डर है कि उनकी पहचान उजागर न हो जाए. आधार संख्या प्राप्त करने में असमर्थ कई विकलांग व्यक्तियों को सुविधाओं से वंचित किया गया है.

सरकार द्वारा आधार परियोजना का विस्तार और आवश्यक सेवाओं के लिए इसे अनिवार्य बनाने के प्रयास सीधे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन करते हैं. अगस्त 2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अंतरिम आदेश में कहा था कि आधार नामांकन "अनिवार्य नहीं" है और यह बतौर नागरिक सुविधाएँ प्राप्त करने की शर्त नहीं हो सकता है, और साथ ही इसके उपयोग को कुछ सरकारी कार्यक्रमों तक सीमित कर दिया. पांच न्यायाधीशों की पीठ 17 जनवरी को आधार की वैधता पर अंतिम बहस की सुनवाई शुरू करेगी.

निजता का अधिकार

आधार संबंधी याचिकाओं के सन्दर्भ में सरकार के इस तर्क कि निजता मौलिक अधिकार नहीं है, के जवाब में अगस्त 2017 में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि निजता का अधिकार जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का हिस्सा है. निजता का अधिकार नागरिक और राजनीतिक अधिकारों (आईसीसीपीआर) पर अंतर्राष्ट्रीय समझौते के तहत भी सुरक्षित है, जिसमें भारत एक पक्ष है.

कई रिपोर्टों से पता चला है कि आंकड़ों में सेंधमारी और डाटा लीक के लिहाज से आधार प्रणाली कमज़ोर है. जनवरी 2018 में, ट्रिब्यून अखबार ने बताया कि आधार में नामांकित लोगों के व्यक्तिगत विवरण तक निर्बाध पहुंच10 डॉलर से भी कम में धंधेबाजों से खरीदी जा सकती है. यूआईडीएआई ने रिपोर्टर और अख़बार के खिलाफ आपराधिक शिकायत दर्ज कराई, जिसकी नागरिक समाज समूहों द्वारा व्यापक निंदा की गई.

2017 में, सरकारी वेबसाइट्स द्वारा बैंक खातों सहित लाखों लोगों की व्यक्तिगत जानकारी के साथ आधार संख्या प्रकाशित की गई. सरकार ने बार-बार ऐसी लीक की खबरों को यह कहते हुए ख़ारिज किया है कि "बायोमेट्रिक्स के बिना केवल जनसांख्यिकीय जानकारी जारी करने से इसका दुरुपयोग नहीं किया जा सकता है" और उसने बायोमेट्रिक सूचना सुरक्षित होने पर ज़ोर दिया है. हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि कंपनियां नामांकन या किसी लेनदेन के सत्यापन के समय बायोमेट्रिक आंकड़े का संग्रह कर सकती हैं और एक बार चोरी होने के बाद बायोमेट्रिक डाटा  हमेशा के लिए असुरक्षित हो जाता है.

ये आशंकाएं फरवरी 2017 में सही साबित हुईं, जब यूआईडीएआई ने संग्रहित बायोमेट्रिक डाटा के जरिए अवैध लेनदेन के आरोप में तीन कंपनियों के खिलाफ आपराधिक शिकायत दर्ज कराई. हालाँकि, एक महीने बाद, यूआईडीएआई ने इस सेंधमारी को मामूली घटना बताया और जब एक उद्यमी ने आधार के तहत संग्रहित बॉयोमीट्रिक जानकारी के दुरुपयोग के तरीके के बारे में लेख लिखा, तो यूआईडीएआई ने उनके खिलाफ आपराधिक शिकायत दर्ज कराई.

जनवरी 2018 में ट्रिब्यून अखबार की रिपोर्ट के बाद, सरकार ने कहा कि वह आधार धारकों को उनकी आधार संख्या का खुलासा किए बिना कुछ स्थितियों में उपयोग करने के लिए अस्थायी "आभासी आईडी" जारी कर निजता अधिकारों के उल्लंघन सम्बन्धी चिंताओं को दूर करेगी. हालांकि, यह रणनीति आंकड़ों के संरक्षण सम्बन्धी चिंताओं का प्रभावी रूप से समाधान नहीं करती है.

सरकार का दावा है कि उसने भारत के निवासियों के लिए 1.1 अरब आधार संख्या जारी की हैं, यह केवल नागरिकों तक ही सीमित नहीं हैं, यह दुनिया के सबसे बड़े बायोमेट्रिक डाटाबेस में से एक है. अनिवार्य आधार नामांकन के लिए सरकार का दवाब और आधार संख्या को सेवाओं की एक विस्तृत श्रृंखला से जोड़ने के उसके प्रयासों ने इस गंभीर चिंता को सामने रखा है कि यह लाखों लोगों के गोपनीयता के अधिकार में मनमाने हस्तक्षेप कर सकता है. इसके साथ ही इसने सरकार की निगरानी का डर भी बढ़ाया है, विभिन्न डाटाबेसों के सम्मिलन के साथ ही सरकार के लिए निर्दिष्ट व्यक्तियों के बारे में सभी जानकारी पता लगाना और असंतोष को निशाना बनाना आसान हो गया है. भारत में गोपनीयता और आंकड़ा संरक्षण की सुरक्षा के लिए कानूनों की अनुपस्थिति और खुफिया एजेंसियों की गतिविधियों पर पर्याप्त न्यायिक या संसदीय निगरानी की कमी से ये आशंकाएं बढ़ जाती हैं.

पारदर्शिता और जवाबदेही

आधार अधिनियम और उसके बाद के नियमों के कुछ प्रावधानों ने पारदर्शिता और जवाबदेही के बारे में भी चिंताओं को बढ़ाया है. यह कानून किसी सेंधमारी या कानून के उल्लंघन के मामले में यूआईडीएआई को छोड़कर किसी को भी अदालत जाने से रोकता है. यह एक पर्याप्त या प्रभावी शिकायत निवारण प्रणाली स्थापित करने में भी विफल है. आईसीसीपीआर के तहत देशों को यह सुनिश्चित करना होता है कि जिस किसी के अधिकार या स्वतंत्रता का उल्लंघन किया गया, उसके पास प्रभावी उपचारात्मक उपाय हों.

आधार नियम सरकार को विभिन्न कारणों से आधार संख्या को निष्क्रिय करने की अनुमति देता है, जिसके तहत यूआईडीएआई द्वारा "किसी भी मामले को उचित समझे जाने पर निष्क्रिय करना जरूरी है" जैसे प्रावधान भी शामिल हैं. लिहाजा, इसके व्यापक दुरुपयोग का मौक़ा खुला रह जाता है. साथ ही, आधार संख्या को निष्क्रिय करने से पहले सरकार को कोई पूर्व सूचना देना की आवश्यकता नहीं है, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन कर सकता है और आवश्यक सेवाओं तक पहुंच को खतरे में डाल सकता है. 2010 से 2016 के बीच, सरकार ने यह कहते हुए 85 लाख आधार संख्या को निष्क्रिय कर दिया कि ऐसा इस कानून के प्रयोजनों के लिए किया गया है.

आधार अपने तहत नामांकित किसी व्यक्ति को भी बाहर निकलने या हट जाने की अनुमति नहीं देता है. यदि किसी आधार संख्या धारक की जानकारी साझा की गई हो या बिना उसकी जानकारी या सहमति के इस्तेमाल की गई हो तो आधार नियमों के तहत प्राधिकरण को धारक को यह सूचित करने की आवश्यकता नहीं होती है.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, "यह विडंबनापूर्ण है कि 12 अंकों की जिस संख्या का लक्ष्य भ्रष्टाचार खत्म करना और गरीबों की मदद करना है, वही कई लोगों को मौलिक अधिकारों से वंचित करने का कारण बन गया है. निजता, निगरानी या व्यक्तिगत जानकारी के दुरुपयोग सम्बन्धी बाजिव चिंताएं हैं. सरकार को इन समस्याओं का हल करना चाहिए न कि लोगों को आधार में नामांकित करने एवं मौजूदा सेवाओं को उससे जोड़ने के लिए ज़बर्दस्ती करनी चाहिए."

Correction

The original news release stated that children had been denied free meals in government schools because they didn’t have Aadhar. While there was a government notification in February 2017 saying Aadhar was mandatory for children to get free meals in schools, authorities have denied that any child has been deprived of the benefits. The news release was revised on January 14, 2018 to reflect this. 

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