(न्यू यॉर्क, 8 नवंबर, 2017) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज जारी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत में बलात्कार की उत्तरजीवी महिलाएं और लड़कियाँ न्याय और जरूरी सहायता सेवाएं प्राप्त करने में भारी अवरोधों का सामना कर रही हैं. दिसंबर 2012 में दिल्ली में छात्रा ज्योति सिंह पांडे के सामूहिक बलात्कार और हत्या के बाद कानूनी और अन्य सुधार तो किए गए, लेकिन अभी तक वे पूरी तरह ज़मीन पर नहीं उतर पाए हैं.
82- पृष्ठों की रिपोर्ट, "सब मुझे दोष देते हैं": भारत में यौन हमलों की उत्तरजीवियों के समक्ष न्याय और सहायता सेवाएँ पाने में बाधाएं," यह बताती है कि बलात्कार और अन्य यौन हिंसा की उत्तरजीवी महिलाओं और लड़कियों को प्रायः पुलिस थानों और अस्पतालों में अपमान का शिकार होना पड़ता है. अक्सर पुलिस उनकी शिकायतें दर्ज करने में आना-कानी करती है, पीड़ितों और गवाहों को मामूली संरक्षण मिलता है और चिकित्सा पेशेवर अभी भी अपमानजनक "टू-फिंगर टेस्ट"(दो अँगुलियों द्वारा परीक्षण) के लिए दबाव डालते हैं. न्याय और गरिमा के रास्ते की ये बाधाएं पीड़ितों को मिलने वाली अपर्याप्त स्वास्थ्य सेवा, परामर्श, और कानूनी सहायता से जुड़ी हुई हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, "पांच साल पहले, दिल्ली में हुए एक सामूहिक बलात्कार की क्रूरता के सदमे से भरे भारतीयों ने यौन हिंसा पर चुप्पी तोड़ी और आपराधिक न्याय सुधारों की मांग की. आज अपेक्षाकृत मजबूत क़ानून और नीतियां हैं, लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है कि पुलिस, डॉक्टर और अदालतें उत्तरजीवियों के साथ सम्मान और संवेदनशीलता से पेश आएं."
ह्यूमन राइट्स वॉच ने चार भारतीय राज्यों- हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, और राजस्थान में फील्ड रिसर्च (जमीनी अनुसन्धान) और साक्षात्कार किया. इन राज्यों का चयन इसलिए किया गया क्योंकि यहाँ बड़ी संख्या में बलात्कार की घटनाएं हुईं थीं. साथ ही, नई दिल्ली और मुंबई में भी यह अध्ययन किया गया. रिपोर्ट में 21 मामलों का विस्तार से विवरण हैं जिनमें से 18 साल की कम उम्र की लड़कियों से जुड़े 10 मामले शामिल हैं. रिपोर्ट के निष्कर्ष पीड़िताओं, उनके परिजनों, वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, डॉक्टरों, फोरेंसिक विशेषज्ञों और सरकारी व पुलिस अधिकारियों के 65 से अधिक साक्षात्कारों, साथ ही, भारतीय संगठनों के अनुसंधान पर आधारित हैं.
भारतीय कानून के तहत, यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज नहीं करने वाले पुलिस अधिकारी को दो साल तक जेल की सजा का सामना करना पड़ता है. हालांकि, ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि पुलिस हमेशा प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज नहीं करती है, जबकि पुलिस जांच शुरू करने का यह पहला कदम है. पुलिस खासकर तब ऐसा करती है अगर पीड़िता आर्थिक या सामाजिक रूप से हाशिए के समुदाय से आती हो. कई मामलों में, पुलिस ने एफआईआर दाखिल करने में बाधा डाली या पीड़िता के परिवार पर "मामला निपटाने" या "समझौता" करने का दबाव डाला, विशेषकर अगर आरोपी शक्तिशाली परिवार या समुदाय के थे.
आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 में यौन उत्पीड़न, तांक-झांक और पीछा करने को यौन अपराधों की श्रेणी में शामिल कर इसकी परिभाषा का विस्तार किया गया है. लड़कियों के खिलाफ यौन उत्पीड़न के जिन चार मामलों का ह्यूमन राइट्स वॉच ने दस्तावेजीकरण किया है, पुलिस ने अपराधों की जांच और आरोप पत्र दाखिल करने में देरी की. लड़कियों के माता-पिता ने बताया कि शिकायत दर्ज कराने के बाद उन्हें अपनी बेटियों की सुरक्षा का डर हो गया क्योंकि आरोपियों को आसानी से जमानत मिल गई और फिर उन्होंने धमकी दी.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि भारत में गवाह संरक्षण कानून के अभाव के कारण बलात्कार उत्तरजीवी और गवाह दबाव में आने के लिए मजबूर हो जाते हैं जो अभियोजन को कमजोर करता है. उदाहरण के लिए, अनाधिकारिक ग्राम जातीय परिषद- खाप पंचायतें, यदि अभियुक्त प्रभावशाली जाति का हो, तो अक्सर दलित और अन्य तथाकथित "निम्न जाति" परिवारों पर आपराधिक मामले आगे नहीं बढ़ाने या गवाही बदलने का दबाव डालती हैं.
भारतीय कानून के मुताबिक डॉक्टरों को उन महिलाओं और लड़कियों को निःशुल्क प्राथमिक उपचार या चिकित्सीय इलाज़ मुहैया करना होता है, जो उनसे संपर्क करती हैं और बलात्कार की बात जाहिर करती हैं. मेडिकल जांच न केवल चिकित्सीय मकसद पूरा करती है, बल्कि संभावित फोरेंसिक साक्ष्य इकट्ठा करने में भी मदद करती है.
2014 में, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों द्वारा यौन उत्पीड़न उत्तरजीवियों की जांच और इलाज के मानकीकरण हेतु यौन हिंसा उत्तरजीवियों के लिए चिकित्सीय-कानूनी दिशानिर्देश जारी किए. ये दिशानिर्देश वैज्ञानिक चिकित्सीय जानकारी और प्रक्रियाएं मुहैया करते हैं जो प्रचलित मिथकों को तोड़ने में सहायता करती हैं. यह "चिकित्सीय रूप से निर्दिष्ट" पीड़िता की आन्तरिक योनि जाँच तक सीमित करने वाले "टू फिंगर टेस्ट" के प्रचलित तरीके को ख़त्म करता है और कहीं पीड़िता "सेक्स की आदी" तो नहीं, जैसे अवैज्ञानिक तथा अपमानजनक चरित्रहनन वाले चिकित्सीय निष्कर्ष के इस्तेमाल को ख़ारिज करता है.
भारत के संघीय ढांचे के तहत, स्वास्थ्य सेवा राज्य का विषय है, इसलिए राज्य सरकारें 2014 के दिशानिर्देशों को अपनाने के लिए कानूनी रूप से बाध्य नहीं हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच ने पाया कि चिकित्सीय पेशेवर, यहां तक कि दिशानिर्देश अपनाने वाले राज्यों में भी, हमेशा उनका पालन नहीं करते हैं. अन्य राज्यों के नियम अक्सर पुराने होते हैं और वे 2014 के केंद्र सरकार के दिशानिर्देशों जैसे विस्तृत और संवेदनशील नहीं होते हैं.
एक ओर जहाँ अधिकारियों ने फोरेंसिक साक्ष्यों के संग्रह को मानकीकृत करना शुरू कर दिया है, वहीँ स्वास्थ्य सेवा प्रणाली बलात्कार उत्तरजीवियों को चिकित्सीय देखभाल और परामर्श प्रदान करने के मामले में काफी हद तक विफल रही है. इसमें सुरक्षित गर्भपात और यौन संचारित बीमारियों के परीक्षण के लिए सलाह शामिल हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि यौन हिंसा पीड़ितों को, विशेषकर जो गरीब और हाशिए के समुदायों से आते हैं, पर्याप्त कानूनी सहायता भी नहीं मिलती है.1994 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में कहा गया कि पुलिस को यौन हमले की पीड़िताओं को कानूनी सहायता प्रदान करनी चाहिए और सभी पुलिस थानों को कानूनी सहायता विकल्पों की सूची रखनी चाहिए, लेकिन वे ज़्यादातर ऐसा नही करते हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जिन 21 मामलों का दस्तावेजीकरण किया गया है उनमें से किसी में भी पुलिस ने पीड़िता को कानूनी सहायता के उनके अधिकार के बारे में सूचित नहीं किया या कानूनी सहायता प्रदान नहीं की.
अदालतों में कुछ न्यायाधीशों और बचाव पक्ष के वकीलों द्वारा अब भी यौन हमले की उत्तरजीवियों के प्रति पक्षपाती और अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया जाता है. दिल्ली की वरिष्ठ आपराधिक वकील रेबेका ममैन जॉन ने कहा, "अभी भी अदालतों में पीड़िता को शर्मिंदा करने की कोशिशें खूब होती हैं."
ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा, "केंद्र और राज्य सरकारों ने यौन उत्पीड़न पीड़ितों की मदद करने के लिए कई पहल की हैं, लेकिन निगरानी और मूल्यांकन के ढांचे के बिना, वे काफी हद तक अपर्याप्त या अप्रभावी रहती हैं." उदाहरण के लिए, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों से निपटने के मामलों में तेजी लाने के लिए देश भर में 524 फास्ट-ट्रैक अदालतें हैं. हालांकि, जब तक कि पीड़ितों को इस व्यवस्था में मार्गदर्शन में मदद करने के लिए कानूनी सहायता जैसे अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं पर समान रूप से ध्यान नहीं दिया जाता तब तक कुछ ज्यादा हासिल नहीं होगा.
2015 में स्थापित केंद्रीय पीड़ित मुआवजा कोष के तहत बलात्कार पीड़ित को कम-से-कम 3 लाख रुपये दिए जाने हैं, लेकिन प्रत्येक राज्य अलग-अलग राशि प्रदान करते हैं. यह व्यवस्था अप्रभावी है और उत्तरजीवियों को लंबा इंतजार करना पड़ता है या वे इस योजना का उपयोग करने में असमर्थ रहती हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जिन 21 मामलों का दस्तावेजीकरण किया गया है उनमें से केवल तीन उत्तरजीवियों को मुआवजा प्राप्त हुआ था. वन स्टॉप सेंटर योजना, पुलिस सहायता, कानूनी मदद, चिकित्सा और परामर्श सेवाएं प्रदान करने वाली एक एकीकृत सेवा है जो कि व्यवहार में अप्रभावी है. सरकार के मुताबिक, उसने देश भर में 151 केंद्र स्थापित किए, लेकिन ह्यूमन राइट्स वॉच और अन्य समूहों द्वारा एकत्रित वास्तविक साक्ष्य विभिन्न संबंधित विभागों और मंत्रालयों के बीच समन्वय की कमी को दर्शाते हैं. इन केंद्रों के बारे में जागरूकता भी बहुत कम है.
गांगुली ने कहा, "पीड़िताओं के लिए बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज करना एक बुरा सपना नहीं बनना चाहिए. मनोदशा बदलने में समय लगता है, लेकिन भारत सरकार को पीड़ितों और उनके परिवारों को चिकित्सा, परामर्श और कानूनी सहायता सुनिश्चित करनी चाहिए, साथ ही,यौन हिंसा मामलों के उचित सार-संभाल के लिए पुलिस अधिकारियों, न्यायिक अधिकारियों और चिकित्सा पेशेवरों को संवेदनशील बनाने का प्रयास बढ़ा देना चाहिए."
रिपोर्ट से कुछ उदहारण
बरखा (बदला हुआ नाम), उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में 22 वर्षीय बरखा और उसके पति पर 30 जनवरी, 2016 को उसके घर पर तीन लोगों ने हमला किया. पुलिस ने बरखा का तीन लोगों द्वारा बलात्कार और अपहरण की शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया. बरखा ने कहा कि दो लोगों ने उसके पति को पीटा और उसे उठा कर ले गए और तीसरा, जो एक प्रभावशाली जाति से आता है, ने उसके साथ बलात्कार किया, उसे जातिसूचक गलियां दीं और पुलिस के पास जाने पर जान से मारने की धमकी दी. उसने बताया कि पुलिस कार्रवाई करने में अनिच्छुक रही क्योंकि मुख्य आरोपी तत्कालीन सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का स्थानीय नेता था. कोर्ट के आदेश बाद भी एफआईआर दर्ज करने के लिए पुलिस ने और आठ महीने का समय लिया. इस बीच, बरखा और उसके पति को आरोपी और गांव के अन्य लोगों से लगातार मिल रही धमकियों और उत्पीड़न के बाद गांव से पलायन कर सैकड़ों मील दूर चले जाना पड़ा.
काजल (बदला हुआ नाम), मध्य प्रदेश
23 वर्षीय काजल ने कहा कि 14 सितंबर, 2015 को मध्य प्रदेश के नीमच जिले में उसके द्वारा सामूहिक बलात्कार की शिकायत दर्ज करने के बाद उसके पिता को हिरासत में लिया गया, धमकी दी गई और पीटा गया. उसने कहा कि पुलिस ने उसके पिता को हिरासत में ले लिया और उसे मजिस्ट्रेट के सामने यह बयान देने के लिए कहा गया कि अपने पिता के कहने पर बलात्कार की झूठी शिकायत दायर की है. काजल ने कहा कि डर कर उसने अदालत में झूठा बयान दर्ज कराया. दिसंबर 2015 में पुलिस ने एक क्लोजर रिपोर्ट दायर की, जिसमें कहा गया कि काजल और उसके पिता ने मुख्य आरोपी के साथ जमीन विवाद के कारण झूठी शिकायत दर्ज की थी. हालांकि, मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी ने क्लोजर रिपोर्ट को खारिज कर दिया और जांच अधिकारी को अदालत में पेश होने के लिए कहा.
काजल द्वारा बलात्कार का मामला दर्ज कराने के बाद उसके पति और ससुराल वालों ने उसे घर से निकाल दिया और वह अपने माता-पिता के साथ पास लौट आई. अभियुक्तों की धमकी के बाद वह और उसके माता-पिता को अपना घर छोड़ना पड़ा. बलात्कार के बाद उसे तुरंत चिकित्सीय मदद और इसके बाद महीनों तक परामर्श की जरुरत थी लेकिन उसकी जांच करने वाले चिकित्सक ने उसे परामर्श मुहैया नहीं कराया. काजल ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया:
मैंने सब कुछ खो दिया है और सब मुझे दोष देते हैं. घटना के बाद एक महीने तक मैं घर के बाहर नही गयी. मैं पड़ोसियों के ताने सुन-सुन के थक गई थी. मैंने खाना-पीना छोड़ दिया, बस घर पर किसी पागल महिला की तरह पड़ी रहती थी. ऐसा लगता था जैसे मैंने अपना मानसिक संतुलन खो दिया हो.
कल्पना (बदला हुआ नाम), हरियाणा
हरियाणा के कैथल जिले की 30 वर्षीय दलित महिला कल्पना अनाधिकारिक ग्रामीण जातीय परिषद- खाप पंचायत की धमकी और उत्पीड़न के बाद अदालत में प्रतिपक्षी गवाह बन गई. उसने 10 मार्च, 2015 को जिंद जिले में प्रभावशाली जाट समुदाय के छह लोगों द्वारा सामूहिक बलात्कार किए जाने का मामला दर्ज कराया था. कल्पना का बलात्कार होते समय उसका नंदोई उसके साथ था, उन लोंगो ने उसे पीटा. पुलिस ने जांच के बाद सामूहिक बलात्कार, अपहरण और दलित संरक्षण कानूनों के तहत उत्पीड़न को शामिल करते हुए 28 मार्च को सभी छह लोगों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया.
हालांकि, सुनवाई में देरी हुई क्योंकि पुलिस को फोरेंसिक नतीजों की प्रतीक्षा थी और इस बीच खाप पंचायत ने परिवार को परेशान करना और धमकी देना शुरू कर दिया. कल्पना के वकील ने कहा कि उन पर भी दबाव डाला गया और उन्हें रिश्वत की पेशकश भी की गई, जिसे उन्होंने इनकार कर दिया. कल्पना ने अदालत में अपनी गवाही बदल दी, और सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया गया. वह और उसका परिवार गांव छोड़ कर चले गए.
कल्पना के नंदोई ने कहा: "यदि आप गांव में रहना चाहते हैं, तो आपको खाप की बात सुननी होगी. उनके [कल्पना और उसके परिवार] पास और कोई रास्ता नहीं था. खाप से झगड़ा मोल लेकर कोई जीत नहीं सकता."