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भारत

2018 की घटनाएँ

सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिक संबंधों को अपराध ठहराने वाले औपनिवेशिक कानून को निरस्त किए जाने के फैसले पर 6 सितंबर, 2018 को बेंगलुरु, भारत में जश्न मनाते लोग.

© 2018 एजाज राही/एपी फोटो

Keynote

Essays

 
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As China’s Grip Tightens, Global Institutions Gasp

Limiting Beijing’s Influence Over Accountability and Justice

 
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Caught in the Middle

Convincing “Middle Powers” to Fight Autocrats Despite High Costs

 
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Atrocities as the New Normal

Time to Re-Energize the “Never Again” Movement

 
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Breaking the Buzzword

Fighting the “Gender Ideology” Myth

 
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Can Algorithms Save Us from Human Error?

Human Judgment and Responsibility in the Age of Technology

 
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Living Longer, Locked Away

Helping Older People Stay Connected, and at Home

 
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Equatorial Guinea

Events of 2018

 
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Social Media’s Moral Reckoning

Changing the Terms of Engagement with Silicon Valley

साल 2018 में, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुआई वाली सरकार ने सत्ता की आलोचना करनेवाले एक्टिविस्टों, वकीलों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को हैरान-परेशान किया और कई बार उनके खिलाफ़ कानूनी कार्रवाई की. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने के लिए राजद्रोह और आतंकवादनिरोधी कानूनों का इस्तेमाल किया गया. सरकार के कार्यों या नीतियों की आलोचना करने वाले गैर सरकारी संगठनों को निशाना बनाने के लिए विदेशी अंशदान विनियमनों का इस्तेमाल किया गया.

सरकार धार्मिक अल्पसंख्यकों, हाशिए के समुदायों और सरकार के आलोचकों पर बढ़ते भीड़ के हमलों की रोकथाम या उनकी विश्वसनीय जांच करने में नाकाम रही. गौरतलब है कि ये हमले अक्सर सरकार का समर्थन करने का दावा करने वाले समूहों द्वारा किए गए हैं. साथ ही, कुछ वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने सार्वजनिक रूप से ऐसे अपराधों के दोषियों का समर्थन किया, अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिए और हिंदू प्रभुत्व और उग्र राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया, जिससे हिंसा को और बढ़ावा मिला.

जहां सुरक्षा बलों द्वारा पूर्व में किए गए उत्पीड़नों के लिए जवाबदेही तय करने में कोताही बरती जाती रही, वहीँ उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और हरियाणा सहित कई राज्यों में उत्पीड़न और गैर-न्यायिक हत्याओं के नए आरोप सामने आए.

सर्वोच्च न्यायालय ने औपनिवेशिक जमाने के कानून को रद्द करते हुए समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया. इसने लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर (एलजीबीटी) लोगों के पूर्ण संवैधानिक सुरक्षा का मार्ग प्रशस्त किया.

सुरक्षा बलों को अभयदान

जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा अभियानों के दौरान सरकारी बलों पर बार-बार कानून के उल्लंघन के आरोप लगाए गए. कई लोग, 2018 में आतंकवादी हिंसा में हुई वृद्धि के लिए उत्पीड़न के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने में राजनीतिक असफलताओं को ज़िम्मेदार मानते हैं. 2018 में आतंकवादियों के हाथों कम-से-कम 32 पुलिसकर्मी मारे गए. अगस्त में, अपने रिश्तेदारों की गिरफ्तारी के बदले की कार्रवाई करते हुए दक्षिण कश्मीर में आतंकवादियों ने कई पुलिसकर्मियों के 11 रिश्तेदारों का अपहरण कर लिया. सरकार द्वारा आतंकवादियों के परिवार के सदस्यों को रिहा करने के बाद उन्होंने पुलिसकर्मियों के सभी रिश्तेदारों को छोड़ दिया. नवंबर में, आतंकवादी समूह हिजबुल मुजाहिदीन ने पुलिस मुखबिर होने के शक पर कश्मीर में एक 17 वर्षीय लड़के की हत्या कर दी और चेतावनी देने के लिए हत्या का एक वीडियो जारी किया. पुलिस मुखबिर होने के शक पर आतंकवादियों ने 2018 में कई अन्य लोगों की भी हत्या की. जून में, अज्ञात बंदूकधारियों ने श्रीनगर में प्रख्यात पत्रकार और राइजिंग कश्मीर के संपादक शुजात बुखारी की हत्या अखबार के कार्यालय के बाहर कर दी.

जून में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त कार्यालय ने कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति पर अपनी पहली रिपोर्ट जारी की. यह रिपोर्ट जुलाई 2016 से शुरू हुए उत्पीड़न पर केंद्रित है, जब सैनिकों द्वारा एक आतंकवादी नेता की हत्या के विरोध में हिंसक प्रदर्शनों का दौर शुरू हुआ था. सरकार ने इस रिपोर्ट को “झूठा, पक्षपातपूर्ण और प्रायोजित” करार देते हुए खारिज़ कर दिया.

रिपोर्ट में मानवाधिकार उल्लंघन के लिए सुरक्षा बलों को मिले अभयदान और न्याय तक पहुंच के अभाव का जिक्र है. इसमें कहा गया है कि सशस्त्र बल (जम्मू और कश्मीर) विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्स्पा) और जम्मू और कश्मीर लोक सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए जिम्मेदारी तय करने में अड़चन पैदा करते हैं.

अफ्स्पा, जो पूर्वोत्तर भारत के कई राज्यों में भी लागू है, से मानवाधिकार उत्पीड़न के गंभीर मामलों में सैनिकों को अभियोजन से पूरी तरह अभयदान मिल जाता है. कई सरकारी आयोगों, संयुक्त राष्ट्र निकायों व् विशेषज्ञों और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय अधिकार समूहों द्वारा बार-बार  सिफारिशों के बावजूद सरकार ने न तो कानून की समीक्षा की और न ही इसे रद्द किया है.

मार्च में, सरकार ने पूर्वोत्तर राज्य मेघालय से और अरुणाचल प्रदेश के 16 में से 8 पुलिस स्टेशनों से अफ्स्पा हटा लिया. यह एक स्वागत योग्य कदम है.

मई में, पुलिस ने तमिलनाडु में एक कॉपर प्लांट का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाई, जिसमें 13 लोग मारे गए और 100 घायल हुए. पुलिस ने बताया कि प्रदर्शनकारियों द्वारा पुलिस पर पत्थरबाजी, सरकारी भवनों पर हमला और वाहनों में आगजनी के बाद गोली चलाना उनकी मजबूरी बन गई थी. एक्टिविस्टों और नागरिक समाज समूहों की एक फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट में कहा गया कि पुलिस भीड़ नियंत्रण की मानक परिचालन प्रक्रियाओं का पालन करने में विफल साबित हुई.

उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार के आने के बाद मार्च 2017 से अगस्त 2018 के बीच राज्य पुलिस द्वारा 63 लोगों की कथित गैर-न्यायिक हत्या हुई है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से जवाब मांगा है. उत्तर प्रदेश में हुई हत्याओं ने पुलिस उत्पीड़न में जवाबदेही तय करने के अभाव और पुलिस सुधारों की आवश्यकता की ओर ध्यान खीचा है.

दलित, आदिवासी समूह और धार्मिक अल्पसंख्यक

सत्तारूढ़ भाजपा से जुड़े कट्टरपंथी हिंदू समूहों ने पूरे साल अल्पसंख्यक समुदायों, विशेष रूप से मुस्लिमों को भीड़ की हिंसा का शिकार बनाया. उनके खिलाफ ये हमले गोमांस के लिए गायों के व्यापार या गौकशी की अफवाहों के आधार पर किए गए. इस साल नवंबर तक, 18 ऐसे हमले हो चुके थे और इसमें आठ लोग मारे गए.

जुलाई में, असम सरकार ने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का मसौदा प्रकाशित किया. इसका मकसद था - बांग्लादेश से होने वाले गैर कानूनी प्रवासन के मुद्दे पर बार-बार के विरोध प्रदर्शनों और हिंसा को देखते हुए भारतीय नागरिकों और वैध निवासियों की पहचान करना. चालीस लाख से अधिक लोगों, जिनमें से ज्यादातर मुस्लिम हैं, को रजिस्टर से निकाल बाहर कर दिए जाने की आशंका उन्हें मनमाने तरीके से हिरासत में रखने और राज्यविहीन करार देने की चिंताओं को दर्शाती है.

पूर्व में "अछूत" कहे जाने वाले दलितों के साथ शिक्षा और नौकरियों में भेदभाव जारी है. दलितों के खिलाफ हिंसा में वृद्धि हुई है. कुछ हद तक ऐसा सामाजिक प्रगति और ऐतिहासिक जातीय भेदभाव को कम करने के लिए दलितों की अधिक संगठित एवं मुखर मांगों की प्रतिक्रिया में हुआ है.

नवंबर में, किसानों ने कर्ज और ग्रामीण समुदायों के लिए राजकीय समर्थन की कमी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया. उन्होंने महिला किसानों के अधिकार को मान्यता देने और जबरन अधिग्रहण के खिलाफ दलितों और जनजातीय समुदायों के भूमि अधिकारों की रक्षा की मांग की.

अप्रैल में, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम में संशोधन के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ कई उत्तर भारतीय राज्यों में दलित समूहों के विरोध-प्रदर्शन के दौरान पुलिस के साथ झड़प में नौ लोगों की मौत हुई. कानून के कथित दुरुपयोग की शिकायत के मामले में, अदालत ने आदेश दिया था कि इस कानून के तहत मामला दर्ज करने से पहले वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को प्रारंभिक जांच करनी चाहिए. व्यापक विरोध के बाद, संसद ने अगस्त में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटते हुए कानून में संशोधन किया.

जुलाई में, अहमदाबाद शहर में पुलिस ने उस इलाके में छापेमारी की जहां कमजोर और पिछड़ी  छारा अनुसूचित जनजाति के बीस हजार लोग रहते हैं. वहां रहने वाले लोगों के मुताबिक, पुलिस ने कथित रूप से सैकड़ों लोगों की निर्ममतापूर्वक पिटाई की, कई लोगों के खिलाफ झूठे मामले दायर किए और संपत्ति को नुक़सान पहुंचाया.

आजादी के बाद वह अधिसूचना निरस्त कर दी गई थी जिसके द्वारा ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान कुछ जनजातियों को आपराधी जनजाति के रूप में चिन्हित किया गया था. अनुसूचित जनजातियों पर सरकार द्वारा नियुक्त समिति द्वारा जनवरी की एक रिपोर्ट में कहा गया कि वे "सामाजिक कलंक, अत्याचार और बहिष्करण" का सामना करने वाले सबसे निचले पायदान के समुदाय हैं.

खनन, बांध और अन्य बड़ी आधारभूत संरचना परियोजनाओं के कारण जनजातीय समुदायों पर विस्थापन का खतरा बना हुआ है.

सितंबर में, सुप्रीम कोर्ट ने बायोमैट्रिक पहचान परियोजना, आधार की संवैधानिकता को बरकरार रखा. कोर्ट ने कहा कि सरकार इसे सरकारी लाभों तक पहुंच और आयकर दाखिल करने के लिए  एक आवश्यक शर्त बना सकती है, लेकिन उसने इसे अन्य उद्देश्यों के लिए प्रतिबंधित कर दिया. अधिकार समूहों ने इन चिंताओं को सामने रखा था कि आधार पंजीकरण अनिवार्यता ने गरीब और हाशिए के लोगों को खाद्य सेवाओं और स्वास्थ्य देखभाल सहित संवैधानिक रूप से गारंटीप्राप्त आवश्यक सेवाएं प्राप्त करने पर रोक लगा दी थी.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

सरकार ने विरोध को दबाने के लिए राजद्रोह, मानहानि और आतंकवादनिरोधी कानूनों का इस्तेमाल जारी रखा.

अप्रैल में, तमिलनाडु में पुलिस ने एक लोक गायक को गिरफ्तार कर लिया क्योंकि उन्होंने एक विरोध प्रदर्शन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करने वाला गीत गाया था. अगस्त में, राज्य सरकार ने राजद्रोह के आरोप में एक एक्टिविस्ट को गिरफ्तार कर लिया. उन पर आरोप था कि उन्होंने कॉपर फैक्ट्री का विरोध करने वाले प्रदर्शनकारियों पर हुए पुलिस उत्पीड़न का मामला कथित रूप से संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में उठाया. जब मजिस्ट्रेट ने उन्हें पुलिस हिरासत में भेजने से इंकार कर दिया, तो पुलिस ने उन्हें एक पुराने मामले में गिरफ्तार कर लिया और उनके खिलाफ आरोपों में राजद्रोह भी जोड़ दिया. पुलिस ने उन पर आतंकवादनिरोधी कानून- गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत भी मामला दर्ज किया.

सितंबर में, तमिलनाडु के अधिकारियों ने भाजपा सरकार को “फासीवादी” कहने पर एक महिला को गिरफ्तार कर लिया. उक्त महिला ने हवाई यात्रा के दौरान राज्य भाजपा अध्यक्ष के समक्ष ऐसा कहा था.

जून में, बिहार में पुलिस ने पांच नाबालिगों समेत आठ लोगों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया. इन पर “भारत विरोधी” गाना बजाने और उस पर नाचने का आरोप था.

कानूनी कार्रवाई, चरित्रहनन अभियान और सोशल मीडिया पर धमकी के खतरों और यहां तक कि शारीरिक हमलों के जोखिमों के कारण पत्रकारों को स्व-सेंसर के बढ़ते दबाव का सामना करना पड़ा. अगस्त में, सरकार ने सोशल मीडिया और ऑनलाइन सन्देश की निगरानी और व्यक्तिगत आंकड़े एकत्र करने के अपने विवादास्पद प्रस्ताव को सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद वापस ले लिया कि ऐसा करना भारत को “निगरानी करने वाले राज्य” में बदल देगा.

राज्य सरकारों ने हिंसा और सामाजिक अशांति रोकने या कानून व् व्यवस्था की जारी समस्या से निपटने के लिए व्यापक इंटरनेट बंदी का सहारा लिया. नवंबर तक, उन्होंने 121 बार इंटरनेट सेवाएं रोकीं, जिनमें से ऐसा 52 बार जम्मू-कश्मीर में और 30 बार राजस्थान में किया गया.

नागरिक समाज और संगठन बनाने की आज़ादी

सरकार ने नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं और मानवाधिकार रक्षकों को निशाना बनाने के लिए गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम का बड़े पैमाने पर उपयोग किया. महाराष्ट्र में पुलिस ने प्रतिबंधित माओवादी संगठन का सदस्य होने और 1 जनवरी, 2018 को हुई जातीय हिंसा के लिए आर्थिक मदद पहुंचाने और उसे भड़काने का ज़िम्मेदार ठहराते हुए 10 नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों और लेखकों को गिरफ्तार किया और हिरासत में लिया. रिपोर्ट लिखे जाने तक उनमें से आठ जेल में थे और एक को घर में नज़रबंद रखा गया था. पुणे शहर के डिप्टी मेयर की अध्यक्षता वाली एक फैक्ट-फाइंडिंग कमिटी ने पाया है कि एक जनवरी की हिंसा हिंदू चरमपंथी समूहों द्वारा पूर्व नियोजित थी, लेकिन अपराधियों को बचाने के सरकारी दबाव के कारण पुलिस एक्टिविस्टों को निशाना बना रही है.

मणिपुर में, सरकारी सुरक्षा बलों द्वारा की गई कथित गैरकानूनी हत्याओं के लिए न्याय की मांग करने वाले एक्टिविस्टों, वकीलों और परिवारों को पुलिस ने धमकी दी और उत्पीड़ित किया.

भारत सरकार ने सरकारी नीतियों की आलोचना करने या सरकार की बड़ी विकास परियोजनाओं का विरोध करने वाले गैर सरकारी संगठनों के विदेशी अंशदान को प्रतिबंधित करने के लिए विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) का भी इस्तेमाल जारी रखा. गैर सरकारी संगठनों द्वारा अपने एफसीआरए को निलंबित या रद्द करने के सरकारी फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाएं अदालत में लंबित पड़ी हुई हैं.

महिला अधिकार

देश भर में बलात्कार के अनगिनत मामलों ने एक बार फिर आपराधिक न्याय प्रणाली की विफलताओं को उजागर कर दिया. करीब छह साल पहले बलात्कार और यौन हिंसा उत्तरजीवियों को न्याय दिलाने के उद्देश्य से सरकार ने कानूनों में संशोधन और नए दिशानिर्देशों और नीतियों को लागू किया था. मगर ऐसे अपराधों की रिपोर्ट करने में लड़कियों और महिलाओं को अब भी बाधाओं का सामना करना पड़ता है. बड़े पैमाने पर पीड़िताओं को ही दोषी करार दिया जाना जारी है और गवाह एवं पीड़ित सुरक्षा कानूनों की कमी हाशिए के समुदायों की लड़कियों और महिलाओं को उत्पीड़न और खतरों के समक्ष और भी असुरक्षित बना देती है.

सितंबर की शुरुआत में, भारत के मीडिया और मनोरंजन उद्योग की कई महिलाओं ने #MeToo आंदोलन की कड़ी के रूप में कार्यस्थल पर हुए यौन उत्पीड़न और हमले के अपने अनुभवों को सोशल मीडिया पर साझा किया. इनमें आरोपियों का नाम भी सार्वजनिक किया गया. इन अनुभवों ने तयशुदा प्रक्रिया की विफलताओं और उत्तरजीवियों के लिए सहायता और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की कमी को सामने रखा. साथ ही, इसने 2013 में बने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न अधिनियम को पूरी तरह कार्यान्वित करने की तत्काल आवश्यकता को सामने लाया. यह अधिनियम कार्यस्थल पर शिकायतों की जांच और उनके निवारण के लिए एक प्रणाली निर्धारित करता है.

सितंबर में, सरकार ने यौन अपराधियों का राष्ट्रीय पंजीकरण शुरू किया, जिसमें यौन उत्पीड़न के सभी गिरफ्तार, आरोपित और दोषी व्यक्तियों के नाम, पता, फोटो, फिंगरप्रिंट और व्यक्तिगत विवरण इकट्ठा किए जाएंगे. यह डेटाबेस केवल कानून प्रवर्तन एजेंसियों के लिए उपलब्ध है, लेकिन इसके डेटा और गोपनीयता सुरक्षा में सेंधमारी के खतरे की बात सामने आई है, यहांतक कि ऐसे व्यक्तियों के भी, जो यौन अपराध के कभी दोषी नहीं ठहराए गए हैं.

सितंबर में, सुप्रीम कोर्ट ने 10 से 50 साल तक उम्रवाली रजस्वला महिलाओं के दक्षिणी भारत के एक मंदिर में प्रवेश पर प्रतिबंध को भेदभाव-निषेध, समानता और धर्म पर आचरण करने के महिलाओं के अधिकार के आधार पर समाप्त कर दिया. इसके खिलाफ महिलाओं सहित भक्तों के विरोध प्रदर्शन हुए, जिन्होंने लड़कियों और युवा महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकने की कोशिश की. इसी महीने, शीर्ष अदालत ने एक बहुत पुराने कानून को भी रद्द कर दिया जो गैर स्त्रियों से संबंध को अपराध ठहराता था.

बाल अधिकार

अप्रैल में, सरकार ने 12 साल से कम उम्र की लड़की से बलात्कार करने के दोषी लोगों के लिए फांसी की सज़ा का प्रावधान करने वाला अध्यादेश पारित किया. नए अध्यादेश में लड़कियों और महिलाओं से बलात्कार के लिए न्यूनतम सजा भी बढ़ा दी गई.

दो प्रमुख मामलों की व्यापक आलोचना और विरोध प्रदर्शनों के दवाब में यह अध्यादेश लाया गया. एक मामले में, सत्तारूढ़ भाजपा के कुछ नेताओं और समर्थकों ने जम्मू-कश्मीर में आठ  वर्षीय मुस्लिम बच्ची के अपहरण, उत्पीड़न, बलात्कार और हत्या के कथित हिंदू अपराधियों का बचाव किया था. दूसरा मामला उत्तर प्रदेश का था, जहां पुलिस न केवल एक 17 वर्षीय लड़की से बलात्कार के आरोपी भाजपा विधायक को गिरफ्तार करने में नाकाम रही बल्कि पुलिस हिरासत में पीड़िता के पिता को कथित रूप से पीट-पीट कर मार डाला गया.

अधिकार समूहों ने अध्यादेश की व्यापक आलोचना की. फिर भी, अगस्त में संसद की मंजूरी के साथ ही यह अध्यादेश कानून बन गया.

बाल श्रम, बाल तस्करी और सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए के समुदायों के बच्चों तक शिक्षा की अपर्याप्त पहुंच पूरे भारत में अभी भी गंभीर चिंता के विषय बने हुए हैं.

यौन उन्मुखीकरण और लैंगिक पहचान

सितंबर में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने वयस्कों के बीच सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर निकालते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को निरस्त कर किया. एक्टिविस्टों, वकीलों और एलजीबीटी समुदायों के सदस्यों के दशकों के संघर्ष के बाद यह फैसला आया. अदालत के फैसले का अंतरराष्ट्रीय महत्व भी है, क्योंकि यह भारतीय कानून पूर्ववर्ती ब्रिटिश साम्राज्य के ज्यादातर हिस्सों में इसी तरह के कानूनों का आदर्श बना था.

दिसंबर में, लोकसभा ने ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकार संरक्षण) विधेयक, 2018 पारित किया. अधिकार समूहों और संसदीय समिति ने इस विधेयक के पहले प्रारूप की आलोचना की थी कि इसमें 2016 के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कई प्रावधानों को उलट दिया गया था. हालांकि सरकार ने संशोधित विधेयक में कई संशोधनों को शामिल किया, फिर भी यह ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के आत्म-पहचान के अधिकार की रक्षा करने और साथ ही इस समुदाय को पर्याप्त सुरक्षा देने में विफल है.

विकलांग व्यक्तियों के अधिकार

विकलांग महिलाओं और लड़कियों के उत्पीड़न का अभी भी बड़ा जोखिम बना हुआ है. हालांकि यौन हिंसा कानूनों में विकलांग महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों की रक्षा के कई प्रावधान शामिल हैं और ये जांच और न्यायिक प्रक्रियाओं में उनकी भागीदारी को बढ़ावा देते हैं, फिर भी उन्हें न्याय प्रणाली में गंभीर बाधाओं का सामना करना पड़ता है.

विदेश नीति

भारत सरकार ने यह जानते हुए भी मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यमीन द्वारा विपक्षी नेताओं के खिलाफ दमनात्मक कार्रवाई और आपातकाल घोषणा की आलोचना की, कि ऐसा करने से  यह देश चीन के और करीब चला जाएगा. इससे दोनों देशों के बीच के संबंध तनावपूर्ण हो गए. सितंबर 2018 में हुए चुनावों में यमीन की हार के बाद भारत ने मालदीव के साथ संबंध सुधारने की कोशिश की.

जून में, भारत ने 119 अन्य देशों के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया, जिसमें इजरायल द्वारा गाजा में फिलिस्तीनी नागरिकों के खिलाफ “अत्यधिक, असमान और अंधाधुंध” बलप्रयोग की भर्त्सना की गई थी. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक ऐसे ही प्रस्ताव को संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा वीटो किए जाने के बाद ऐसा किया गया.

मई में, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने म्यांमार का दौरा किया और कहा कि 2017 के अंत में सुरक्षा बलों द्वारा नस्ली संहार अभियान के दौरान बांग्लादेश भागने वाले लाखों रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों की “सुरक्षित, तीव्र और टिकाऊ” वापसी सुनिश्चित करने में भारत मदद करेगा. स्वराज ने म्यांमार के रखाइन राज्य की सामाजिक-आर्थिक विकास परियोजनाओं के प्रति भारत की प्रतिबद्धता दोहराई, लेकिन म्यांमार सरकार से सुरक्षा बलों के उत्पीड़न को रोकने या  भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून, जो असल में रोहिंग्या को राज्यविहीन बनाए रखता है, में संशोधन की मांग नहीं की. अक्टूबर में, भारत सरकार ने सात रोहिंग्याओं को म्यांमार वापस भेज दिया, जहां उनके उत्पीड़न का गंभीर खतरा बना हुआ है. देश-विदेश में, अधिकार समूहों ने भारत सरकार के इस कदम की निंदा की है.

अधिकारों की रक्षा की सार्वजनिक अपील बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और अफगानिस्तान समेत अन्य पड़ोसियों के साथ हुए द्विपक्षीय समझौतों का हिस्सा नहीं बन पाई. हिंसक समूहों को प्रायोजित करने के नाराज़गी भरे आरोप और जवाबी आरोप पाकिस्तान के साथ संबंधों में छाए रहे.

प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय किरदार

सितंबर में, अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ और रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस ने दोनों देशों के बीच व्यापार, आर्थिक और रक्षा सहयोग मजबूत करने के लिए अपने समकक्षों के साथ बातचीत करने भारत आए, लेकिन किसी भी देश में मानवाधिकार की स्थिति पर कोई सार्वजनिक चर्चा नहीं की गई.

पूरे साल, संयुक्त राष्ट्र विशेष कार्यविधि ने यौन हिंसा, धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव, एक्टिविस्टों पर हमले और सुरक्षा बलों में जवाबदेही की कमी सहित भारत के कई मुद्दों पर चिंता जताते हुए कई बयान जारी किए.

नस्लवाद पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत ने सात रोहिंग्या को म्यांमार वापस भेजने के निर्णय को “उनकी सुरक्षा के अधिकार की गंभीर अवहेलना” बताया.