मई 2014 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नरेन्द्र मोदी को भारत का प्रधानमंत्री चुना गया। दस वर्ष विपक्ष में रहने के बाद, भाजपा को संसद में महत्वपूर्ण बहुमत के साथ निर्णायक जनादेश प्राप्त हुआ। भाजपा ने विकास को फिर से बहाल करने, भ्रष्टाचार को समाप्त करने और विकास कार्यों को जारी रखने का वादा किया।
मोदी ने हिंसा और अन्य दुर्व्यवहारों से महिलाओं की सुरक्षा और स्वास्थ्य एवं स्वच्छता पर जोर दिया। उन्होंने सांसदों को ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर आधारभूत सुविधाओं और आधुनिक स्वच्छता सुविधाओं वाले आदर्श गाँवों की स्थापना करने के लिए प्रेरित किया, और अपने पहले सार्वजनिक भाषण में एक दशक लंबे सांप्रदायिक मतभेद और भेदभाव को समाप्त करने का आह्वान किया।
नई सरकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एक प्रतिबद्धता व्यक्त की है लेकिन राज्य की सेंसरशिप समाप्त नहीं की या उग्रवादियों और अन्य धार्मिक आतंकवादी समूहों के विरुद्ध कोई निर्णायक कदम नहीं उठाए जो यदि किसी विचारधारा को पसंद नहीं करते हैं तो हिंसा की धमकियों के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। 2014 में प्राधिकारियों ने गैर सरकारी संगठनों (NGO) पर प्रतिबंधो को सीमित कर दिया। इसका एक कारण नागरिक समाज के वे समूह थे जो बड़े विकास कार्यों के आलोचक थे और उनका कहना था कि पर्यावरण, और प्रभावित लोगों के स्वास्थ्य और जीवनयान पर खराब प्रभाव पड़ेगा.
हालांकि मोदी ने आर्थिक विकास और बेहतर प्रशासन का प्रबंध करने की प्रतिष्ठा के साथ कार्यभार सँभाला लेकिन 2002 के सांप्रदायिक दंगों में गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में गुजराती मुस्लिमों की सुरक्षा और अपराधियों पर तुरंत मुकदमा चलाने में उनकी अक्षमता चिंता का विषय थी। भाजपा नेताओं की कुछ उत्तेजक टिप्पणियों ने धार्मिक अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना भर दी।
जातिगत भेदभाव और आदिवासी समुदायों की अनदेखी भारत में वैसी ही एक सतत समस्या है जैसे कि यौन दुर्व्यवहार और महिलाओं बच्चों के साथ अन्य हिंसा। कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी को 2014 के नोबल पुरस्कार से सम्मानित किए जाने से यह बात उजागर हुई कि भारत में करोड़ों बच्चे अभी भी बद से बदतर किस्म की मजदूरी करने में लगे हैं। दुर्व्यवहार के दोषी सुरक्षा सैनिकों और सरकारी अधिकारियों की दंड से मुक्ति अन्य प्रकार के दुर्व्यहार को बढ़ावा देती है। सेना को अधिकारों के सम्मान करने और जवाबदेह बनाने के लिए पुलिस में सुधार की तत्काल आवश्यकता है।
अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार
राष्ट्रीय चुनावों के दौर में धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति 2013 में हिंसा की घटनाएं बढ़ गयीं, सरकारी स्रोत के अनुसार 823 घटनाओं में 133 लोग मारे गये और 2,269 घायल हुये।
सांप्रदायिक हिंसा में 60 से अधिक लोगों के मारे जाने की घटना को एक साल से ज्यादा दिन हो गए हैं, जिनमें अधिकांश मुस्लिम थे, और जिनमें उत्तर प्रदेश के मुजफ़्फ़रनगर और शामली जनपद मे दसियों हजार लोग विस्थापित हुए, लेकिन अभी भी केन्द्र और राज्य सरकारें दोनों ने ही उचित राहत या न्याय प्रदान नही किया। भाजपा ने दंगों के दौरान हिंसा भड़काने के आरोपी संजीव बल्यान को संसदीय चुनावों में अपना प्रत्याशी चुना उसे मंत्री भी नियुक्त कर दिया जिससे मुस्लिम असुरक्षा की भावना को और बल मिला। राज्य सरकार ने बलपूर्वक राहत शिविरों को बंद करा दिया और उचित राहत सेवाओं के अभाव, जिसके कारण 30 बच्चों की मृत्यु हुई, के आरोप पर कार्रवाई करने में असफल रही।
जून 2014 में उग्र हिंदू संगठनों ने हिंदू ऐतिहासिक और राजनीतिक हस्तियों के लिये सोशल मीडिया पर अपमानजनक प्रविष्टियों के विरोध में पुणे शहर के पश्चिम में हिंसक विरोध किया। समूह के कुछ सदस्यों ने दावा किया कि गुमनाम प्रविष्टि मुस्लिमों का काम थी, मोहसिन शेख को मनमानी करते हुये पीटा और मार डाला - जिसका उस प्रविष्टि से कोई सम्बन्ध नहीं था बस उसे उसकी नमाजी टोपी के कारण आसानी से मुस्लिम समझ लिया गया।
दलित (तथाकथित अछूत) और आदिवासी समूहों के साथ भेदभाव और हिंसा जारी रही। दलित समुदाय को न्याय प्राप्त करने में जो दिक्कतें आती हैं वो वर्तमान में बिहार के 4 और आंध्रप्रदेश राज्य के एक न्यायालय के निर्णय द्वारा प्रकाश में आई थीं। 1991 से 2000 के बीच दलितों की हत्या से संबद्ध, प्रत्येक मामलों में, साक्ष्यों के अभाव के कारण, सुर्खियों में रहने वाले मामलों में न्यायालय ने दोषसिद्धि को उलट दिया, जिसने अभियोजन प्राधिकारियों की असफलता को उजागर किया।
’हाथ से मैला ढोने’ की प्रथा को रोकने के लिए अनगिनत पहलों और कानूनों के बावजूद यह प्रथा आज भी प्रचलन में है — मानव मल को हाथ से साफ़ करने वाले समुदाय के सदस्यों को नीची जाति का माना जाता है। जो इस तरह के काम को छोड़ने का प्रयास करते हैं उन्हें कठोर दंड का सामना करना पड़ता है जिसमें हिंसा या विस्थापन की धमकी शामिल है। मार्च 2014 में माननीय उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भारत के संविधान में इस प्रथा को समाप्त करने के लिये राज्यों के हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
दंड से माफ़ी
भारत के सुरक्षा बल के सदस्यों को गंभीर मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए दंड से माफ़ी मिलना जारी है।
नवंबर 2014 में एक बेहद दुर्लभ मामले में, सेना ने सूचित किया कि सैनिक न्यायालय ने दो अधिकारियों सहित पांच सिपाहियों को 2010 में निर्दोष ग्रामीणों की गैरन्यायिक हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा दी है। सेना ने क्रूर आर्म्ड फ़ोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (AFSPA) के प्रयोग के पश्चात सिविल न्यायालय मे अभियोग से बचने के लिये सैनिक सुनवाई का आदेश दिया।
सेना ने मार्च 2000 में उत्तरी जम्मू काश्मीर के पाथरीबल में पांच नागरिकों की कथित हत्या के आरोपियों के लिये सैनिक सुनवाई का चयन किया। हालांकि, जनवरी में, सेना की जांच अदालत ने पांच अधिकारियों के खिलाफ लगे आरोपों को खारिज कर दिया। AFSPA ने जोकि जम्मू–काश्मीर और भारत के उत्तर पूर्व राज्यों में दशकों से लागू है, सुरक्षा बलों को नागरिकों को मारने और अन्य गंभीर मानवाधिकारों के हनन की खुली छूट दे रखी है। अनगिनत स्वतंत्र आयोगों ने क़ानून में सुधार या संशोधन करने का सुझाव दिया है लेकिन सरकार सेना के सख्त विरोध के सामने ऐसा करने में असफल रही।
प्रस्तावित पुलिस सुधार भी कुंद हो गये हैं क्योंकि पुलिस ने दंडाभाव के प्रति मानवाधिकार उल्लंघन करना जारी रखा है। इसमें मनमानी गिरफ़्तारी और कारावास, उत्पीडन एवं असामान्य न्यायिक हत्याएं शामिल हैं। विभिन्न राज्यों में पुलिस असंतोषजनक ढंग से प्रशिक्षित है और उनके सिर पर कई मामलों का बहुत बड़ा बोझ है।
दो अलग-अलग रिपोर्टो में- एक बुद्धिजीवियों द्वारा और दूसरी तीन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों द्वारा- पुलिस और मुस्लिम समुदाय के बीच विश्वास की कमी को पाया गया। मुसलमान विशेष रूप से सांप्रदायिक तनाव के दौरान, कुछ पुलिस कर्मियों के दुराचार के कारण आंशिक तौर पर पुलिस को सांप्रदायिक, पक्षपाती और असंवेदनशील मान लेते हैं।
महिलाओं के अधिकार
नवंबर 2014 में, मध्य भारत के राज्य छत्तीसगढ़ में नसबंदी प्रक्रियाओं के बाद एक दर्जन से अधिक महिलाओं की मृत्यु हो गई और कई अन्य गंभीर रूप से बीमार पड़ गयीं। इससे परिवार नियोजन कार्यक्रमों के लिए लक्ष्य पर आधारित दृष्टिकोण के खिलाफ कड़े विरोध का सामना करना पड़ा।
2012 में दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार और हत्या की प्रतिक्रिया में क़ानून में सुधार करने का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन लेखन के समय भारत सरकार को उनके क्रियान्वयन पर नजर रखने के लिए निगरानी और रिपोर्टिंग तंत्र की स्थापना करने का काम बाकी रह गया था। दलित महिलाओं, विकलांग व्यक्तियों, और बच्चों सहित हर तरह के बलात्कार की ख़बरें 2014 में राष्ट्रीय खबरें बनती रही, और इसके लिए विरोध प्रदर्शन भी हुए।
2014 की शुरूआत में, सरकार ने बलात्कार की रिपोर्ट करने वाले बच्चों और महिलाओं के परीक्षण और चिकित्सा उपचार के लिए दिशानिर्देशों को प्रस्तावित किया था, लेकिन उनके कार्यान्वयन के लिए आवश्यक संसाधनों का आवंटन करने में असफल रही। लेखन के समय केवल दो राज्यों ने दिशानिर्देशों को अपनाया था।
भारत में मातृ मृत्यु दर में कमी आई है लेकिन देश के कई हिस्सों में चिकित्सा सहायता की खराब पहुंच और कमजोर रेफरल प्रणाली के चलते यह अभी भी चिंता का विषय बना हुआ है।
बच्चों के अधिकार
कैलाश सत्यार्थी को इसके लिए शांति पुरस्कार देकर नोबेल समिति ने बद से बदतर किस्म की मजदूरी कर रहे बच्चों की ओर ध्यान आकर्षित किया है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम और सरकारी योजनाओं से लगभग सब जगह प्रारंभिक कक्षाओं में बच्चों के नामांकन हुए हैं। लेकिन लाखों बच्चों, विशेष रूप से कमजोर दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय के बच्चों को सरकारी स्कूलों में अपर्याप्त समर्थन मिलता है और उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है, और उन पर पैसे कमाने का दबाव होता है, जिसके कारण वे जल्दी स्कूल छोड़कर काम करना शुरू कर देते हैं।
अगस्त 2014 में, सरकार ने किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन पेश किया है जो कि अगर अपनाया जाता है तो वयस्क अदालतों में अभियोजन पक्ष के लिए 16-18 वर्ष के बच्चों पर बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों के आरोप लगेंगे। बाल अधिकार कार्यकर्ताओं और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने इन संशोधनों का जोरदार विरोध किया।
जून 2014 में, संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समिति ने ऐसे कई क्षेत्रों की पहचान की, जिनमें भारत सरकार, भेदभाव, हानिकारक प्रथाओं, यौन शोषण और बाल श्रम से बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में विफल रही थी। यह मुद्दा भी उठाया गया कि माओवादी बच्चों की भर्ती कर रहे हैं और स्कूलों पर हमला कर रहे हैं और अभ्यास पर रोक लगाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद भी माओवादी प्रभावित इलाकों में स्कूलों को सरकारी सशस्त्र बलों के द्वारा स्कूलों को घेरने के बारे में भी चिंता को व्यक्त किया गया।
एलजीबीटी अधिकारों का संरक्षण
लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर (एलजीबीटी) लोगों के अधिकारों को दिसम्बर 2013 में उस समय करारा झटका लगा, जब सुप्रीम कोर्ट ने 2009 में दिल्ली उच्च उदालत के ऐतिहासिक फैसले के विपरीत, आम सहमति से भी समान सेक्स संबंधों को आपराधिक श्रेणी में शामिल कर दिया। लेखन के समय, निर्णय की समीक्षा के लिए एक याचिका, सुप्रीम कोर्ट में लंबित थी।
अप्रैल 2014 में, सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को एक तीसरे लिंग का दर्जा दिया और सरकार को नौकरी और शिक्षा में कोटा के लिए योग्य एक अल्पसंख्यक के रूप में उन्हें गिने जाने के लिए कहा।
प्रशामक देखभाल
फरवरी 2014 में, भारतीय संसद ने मॉर्फिन सहित अन्य दर्दनाशक दवाओं के बेहतर उपयोग के लिए अनुमति देने हेतु देश की दवा कानूनों में संशोधन किया। नशीली औषधियां और मनोप्रभावी पदार्थ अधिनियम के लिए महत्वपूर्ण संशोधन ने पुराने नियमों को हटा दिया ताकि अस्पतालों और फार्मेसियों को हर बार तेज दर्द निवारकों को खरीदने के लिए, विभिन्न सरकारी एजेंसियों में से प्रत्येक से, चार या पांच लाईसेंस लेने के लिए बाध्य ना होना पड़े। भारत में 7 लाख से अधिक लोगों को हर साल दर्द कम करने वाले उपचार की जरूरत पड़ती है और कानून का नया संशोधन, उन्हें गंभीर दर्द से पीडि़त होने से छुटकारा दिलाने में मदद करेगा।
मानसिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के अधिकार
भारत में मानसिक स्वास्थ्य और सहायता सेवाओं की बहुत कमी है। 20 प्रतिशत से कम लोग ही, जिन्हें मानसिक स्वास्थ्य देखभाल की जरूरत है, उपचार के लिए पहुँच पाते हैं। कलंक और सरकारी समुदाय-आधारित सेवाओं की कमी के कारण, परिवारों को तालमेल बैठाने में बहुत दिक्कतें होती हैं और अंत में उन्हें अक्सर, बौद्धिक या मनोसामाजिक अक्षमता के साथ रिश्तेदारों को बलपूवर्क संस्थागत या त्याग करना पड़ता है।
स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध
अस्पष्ट कानून जो मुक्त भाषण को अपराध की श्रेणी में ले आते हैं, उनका लगातार दुरूपयोग किया जाता है। विभिन्न राज्यों में पुलिस, प्रधानमंत्री सहित, महत्वपूर्ण राजनीतिक हस्तियों के ऑनलाइन आलोचना टिप्पणियों के लिए सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम या भारतीय दंड संहिता के तहत आरोप दर्ज करती है। एक घटना में, पांच जवानों से फोन पर मोदी विरोधी टिप्पणियों को साझा करने के लिए पुलिस के द्वारा पूछताछ की गई थी। पुलिस ने मोदी सहित कुछ राजनीतिक हस्तियों पर आलोचनात्मक टिप्पणियों के लिए दो घटनाओं में छात्र पत्रिकाओं को भी निशाना बनाया।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने की प्रतिबद्धताओं के बावजूद, सरकार उन आतंकवादी गुटोंके खिलाफ निर्णायक कार्रवाई नहीं कर पा रही है जो उन्हें पसंद न आने वाले विचार रखने वाले लोगों पर हमला करते हैं और मार डालते हैं। कमजोर सरकारी प्रतिक्रियाओं और हिंदू अतिवादी राष्ट्रवादी समूहों से मुकदमों के खतरों का सामना करने में कुछ प्रकाशक, प्रकाशन के लिए तैयार होने वाली किताबों को रद्द कर देते हैं या वापस ले लेते हैं।
नागरिक समाज और समिति बनाने की स्वतन्त्रता
अधिकारियों ने नागरिक सामाजिक संगठनों पर लगे प्रतिबंधों को और कड़ा कर दिया है। विदेशी अंशदान नियमन अधिनियम (एफसीआरए) का अधिकारिक उपयोग, संगठनों को परेशान करने के लिए, विदेशी दाताओं से प्राप्त अनुदान पर नजर रखने के लिए होता है जो उनकी गतिविधियों में बाधाओं को डालने के लिए, सरकारी नीतियों की आलोचना या सवालों और विदेशों से फंड को हटाने के लिए होता है।
भारतीय नागरिक समाज पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ा है। जब भारतीय गृह मंत्रालय, एफसीआरए के अनुसार एक जांच का आयोजन करती है, तो यह अक्सर, जांच होने पर गैर सरकारी संगठनों के खातों को बंद कर देती है, दान देने के सभी स्त्रोतों को बंद कर देती है और इसकी गतिविधियों को भी बंद करने के लिए मजबूर करती है। ऐसी रणनीतियां, अन्य समूहों के कार्य पर एक व्यापक प्रभाव डालती हैं।
2014 में, मोदी सरकार ने ग्रीनपीस भारत के खाते में से विदेशी धन जाने से पहले पूर्व अनुमति मांगने के लिए देश के केन्द्रीय बैंक से पूछा था, चिंता का विषय यह था कि सरकार, संगठनों के लिए कम सहनशील होगी जो सरकार के विकास और बुनियादी परियोजनाओं पर सवाल उठाती है।
मृत्यु-दंड
हालांकि, 2014 में कोई फांसी नहीं हुई थी, मृत्यु दंड लगातार सुनाए जा रहे थे। यह नवंबर 2012 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद था जिसमें कहा गया था कि ''दुर्लभ से दुर्लभ' केस स्टैंडर्ड को समीक्षा की आवश्यकता होती है इसलिए उन्हें कई सालों तक समान रूप से लागू नहीं किया जाना चाहिए।
जनवरी 2014 में हुए एक ऐतिहासिक फैसले में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 15 कैदियों के मृत्यु दंड को बदल दिया। ऐसा नियम है कि मृत्यु दंड को बदला जा सकता है, जहां बचाव पक्ष, मानसिक रूप से बीमार हों या जहां, दया याचिका को तय करने में सरकार अव्याख्येय रूप से देरी कर रही हो। यह मृत्यु की सजा सुनाएं जाने वाले कैदियों और उनके परिवारों के अधिकारों की रक्षा के लिए भी शुरूआती दिशानिर्देश है।
विदेश नीति
नई सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए और निवेश व व्यापार को बढ़ावा देने के लिए विश्व के नेताओं के साथ तेजी से सक्रिय हो रही है। मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तान सहित सभी पड़ोसी देशों के प्रमुखों को क्षेत्र में मजबूत संबंधों का निर्माण करने के लिए प्रतिबद्ध तरीके से आमंत्रित किया था।
हेरात में वाणिज्य दूतावास पर मई 2014 में हुए हमले सहित, भारतीय परिसंपत्तियों पर दोहराए जाने वाले आंतकवादी हमलों के बावजूद, भारत लगातार अफगान सुरक्षा कर्मियों के लिए कुछ प्रशिक्षण कार्यक्रम और अफगानिस्तान में पुनर्निर्माण प्रयासों के लिए महत्वपूर्ण सहायता प्रदान कर रहा है। भारत ने श्रीलंका में पुनर्निर्माण के प्रयासों के लिए भी सहायता प्रदान की है।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अब मोदी सरकार, दोनों ने कई क्षेत्रीय और वैश्विक मानव अधिकारों के मुद्दे पर कम बोला है जहां उनकी आवाज, असर ला सकती थी। मोदी सरकार ने व्यापार और निवेश को पुनर्जीवित करने के लिए विदेशी नीति पर ध्यान दिया है और आतंकवाद के खतरों और काले धन से मुकाबला करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग का आह्वान किया है। हालांकि, इसने बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका या बर्मा; जहां भी इसका महत्वपूर्ण प्रभाव हों, जैसे देशों में मानवाधिकारों की रक्षा के लिए अधिक से अधिक प्रतिबद्धता का सुझाव देने के लिए किसी महत्वपूर्ण घोषणा नहीं की है। इसने, नवबंर 2014 में उत्तर कोरिया सहित, संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख प्रस्तावों से दूरी बनाए रखी है।
2012 और 2013 में श्रीलंका पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में दो प्रस्तावों का समर्थन करने के बाद, मार्च 2014 में, भारत ने मई 2009 में समाप्त हुए, तमिल ईलम लिबरेशन टाइगर्स और श्री लंका सरकार के बीच के संघर्ष के दौरान गंभीर उल्लंघन की जांच करने के लिए मानवाधिकार हेतू उच्च आयुक्त के कार्यालय के अनुरोध प्रस्ताव से दूरी बनाए रखी। भारत का कहना है कि इसके बजाय पूरी तरह से घरेलू प्रयासों के माध्यम से इन चिंताओं के समाधान में श्रीलंका का समर्थन करना चाहिए।
जब भारतीय नेता, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, चीन और जापान से समकक्षों के साथ मिलते हैं तो सार्वजनिक बयानों में मानवाधिकार को बहुत मजबूती से नहीं वर्णित नहीं किया जाता है हालांकि वे, क्षेत्रीय मुद्दों पर सहयोग करने के लिए सहमत होते हैं।
यद्यपि, यह संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलनों की पुष्टि नहीं करता है, भारत ने तिब्बत, बर्मा से और हाल ही में अफगानिस्तान से आने वाले शरणार्थियों को भी स्वीकार करना जारी रखा है।
हालांकि, भारत यातना के जोखिम का पर्याप्त मूल्यांकन किए बिना श्रीलंकाई शरणार्थियों को वापस भेजने के लिए ऑस्ट्रेलिया के द्वारा किए गए प्रयासों की निंदा करने में विफल रहा है। भारत ने बर्मा में जातीय रोहिंग्या मुसलमानों की सुरक्षा के लिए आवाज़ नहीं उठाई।
प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे
अन्य देशों में से, अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, चीन और ऑस्ट्रेलिया ने भारत के साथ व्यापारिक सम्बंधों को मजबूत करने के लिए मोदी के चुनाव को एक अवसर के रूप में देखा। निवेश और व्यापार पर ध्यान देते हुए, और इसके घरेलू मामलों में कथित हस्तक्षेप के लिए लम्बे समय तक चलने वाली भारतीय संवेदनशीलता पर ध्यान देते हुए, ये देश मानवाधिकारों के लिए कम महत्वपूर्ण दृष्टिकोण रखते हैं, और धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के बारे में चिंताओं को नजरअंदाज कर रहे हैं।
2014 में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र समिति और बच्चों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र समिति द्वारा बच्चों के अधिकारों और महिलाओं के अधिकारों पर भारत के रिकॉर्ड की समीक्षा गई। दोनों समितियों ने, गैर-भेदभाव सुनिश्चित करने के लिए और नीतियों और प्रासंगिक कानूनों को लागू करने के लिए भारत की विफलताओं के बारे में चिंता व्यक्त की है।