भारत ने वर्ष 2013 में महिलाओं और बच्चों को संरक्षण प्रदान करने वाले कानूनों को सुदृृढ़ बनाकर और अनेक महत्वपूर्ण मामलों में न्यायेतर हत्याओं के लिए सरकारी सुरक्षा बल कर्मियों पर अभियोजन चलाकर सकारात्मक कदम उठाए। इन घटनाओं का प्रभाव काफी हद तक केंद्रीय सरकार के प्राधिकारियों द्वारा कारगर तरीके से अनुवर्ती कार्रवार्इ करने पर निर्भर करेगा। वर्ष के दौरान इंटरनेट आजादी पर प्रतिबंधों में वृद्धि; दलितों, जनजातीय समूहों, धार्मिक अल्पसंख्यकों, यौनिक एवं लैंगिक अल्पसंख्यकों और नि:शक्त व्यकितयों को निरंतर हाशिए पर बनाए रखने; अक्सर बिना किसी समाधान के उपेक्षित किए जानें; तथा विशेषकर माओवाद से ग्रस्त क्षेत्रों, जम्मू और कश्मीर, मणिपुर तथा असम में उग्रवादी कार्यवाहियों में लिप्त व्यकितयों द्वारा बेरोक-टोक हिंसक कार्यवाहियों को अंजाम दिए जाने की वारदातें भी हुर्इ।
दिसम्बर, 2012 में नर्इ दिल्ली में एक छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार की और तत्पश्चात उसकी मृत्यु हो जाने के कारण देश भर में हुए व्यापक विरोध प्रदर्शनों ने एकबार फिर से भारत में मानवाधिकारों को संरक्षण प्रदान करना सुनिशिचत करने के लिए संस्थागत सुधार करने की आवश्यकता की ओर देश-विदेश का ध्यान आकर्षित किया। सरकार ने लिंग आधारित हिंसा से कारगर रूप में निपटने के लिए लंबे समय से की जाती रही मांग को पूरा करते हुए दांडिक कानूनों में संशोधन किया। किन्तु महिलाओं और बालिकाओं के साथ हिंसा की ताजा घटनाएं यह दर्शाती हैं कि बनाए गए कानूनों और उनके क्रियान्वयन के बीच अभी भी काफी गहरी खार्इ बनी हुर्इ है।
सरकार ने जनता के आक्रोष पर प्रतिक्रिया व्यक्त की, यह तथ्य भारत के इस दावे की पुषिट करता है कि हमारा समाज काफी सजग है। देश की स्वतंत्र न्यायपालिका और बिना किसी दबाव के अपना काम कर रहे मीडिया ने भी गलत व्यवहारों पर नियंत्रण स्थापित करने में अपनी भूमिका का निर्वहन किया। तथापि, अधिकारों का दुरूपयोग या कर्तव्यों की अवहेलना के लिए सरकारी अधिकारियों को दंडित न करने के कारण भ्रष्टाचार और निर्भय होकर भ्रष्ट आचरण में लिप्त होने की संस्कृति को बढ़ावा मिल रहा है।
न्यायेतर हत्या के मामलों की जांच
दिसम्बर, 2012 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि उसे गत पांच वर्षों के दौरान न्यायेतर हत्या से संबंधित 1671 शिकायतें प्राप्त हुर्इ हैं।वर्ष 2012 में भारत के दौरे पर आए, संयुक्त राष्ट्र संघ के न्यायेतर, बिना सोचे-विचारे या मनमाने ढंग से हत्या किए जाने संबंधी विषेेष प्रतिवेदक, क्रिस्टाफ हायन्सने सजा से मुकित दिलाने और अपराधियों पर यथाशीघ्र कानूनी कार्रवार्इ करने की आवश्यकता पर बल दिया।
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पीडि़त परिवारों के साहस और निरंतर प्रयासों का ही परिणाम है कि सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए अनेक निरपराध लोगों के मामलों में न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप किया गया तथा जांच शुरू की गर्इ। अनेक मामलों में प्राधिकारियों ने झूठा दावा किया कि वे मौतें दोनों पक्षों द्वारा शस्त्र प्रयोग किए जाने के कारण या सशस्त्र बल द्वारा आत्मरक्षा के प्रयास में हुर्इं।
जुलार्इ, 2013 में मणिपुर राज्य के कुछ समूहों द्वारा 1979 और 2012 के बीच 1528 कथित न्यायेतर हत्याओं के मामलों में जांच की मांग करते हुए जनहित याचिका दायर करने पर उच्चतम न्यायालय ने एक सेवानिवृृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक स्वतंत्र पैनल गठित किया। पैनल ने कथित गैर-कानूनी हत्याओं के छह प्रतीकात्मक मामलों की जांच की और पाया कि सभी मामलों में कानून का उल्लंघन किया गया था। पैनल ने यह भी पाया कि सुरक्षा बलों को सशस्त्र बल विशेष शकितयां अधिनियम (ए एफ एस पी ए) की अनुचित ढाल मिली हुर्इ है जिनमेें यह प्रावधान किया गया है कि केंदीय्र सरकार की अनुमति के बगैर सैनिकों पर अभियोजन नहीं चलाया जा सकता। चूंकि अधिकारियों द्वारा इसके लिए अनुमति प्राय: नहीं दी जाती, अत: सशस्त्र बलों के लोग अक्सर अभियोजन से पूरी तरह बचे रहते हैं।
जनवरी, 2012 में उच्चतम न्यायालय ने 2002 और 2006 के बीच गुजरात राज्य में पुलिस कर्मियों द्वारा 22 कथित न्यायेतर हत्याओं की जांच करने के लिए एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक स्वतंत्र पैनल का गठन किया। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर वर्ष 2000 में जम्मू और कश्मीर के पथरीबल गांव के पांच ग्रामीणों की न्यायेतर हत्या करने के मामले में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा अभियुक्त करार दिए गए सैन्य अधिकारियों के विरूद्ध सितम्बर, 2012 में सेना न्यायालय द्वारा कार्यवाही शुरू की गर्इ किन्तु अधिकारियों को सशस्त्र बल विशेष शकितयां अधिनियम के अंतर्गत सिविल न्यायालय द्वारा अभियोजन चलाने के विरूद्ध संरक्षण प्रदान किया गया।
जुलार्इ, 2013 में केंद्र्रीय अन्वेषण ब्यूरो द्वारा 2004 में सशस्त्र बलों के साथ एक मनगढ़ंत मुुठभेड़ में एक छात्रा इशरतजहां और तीन अन्य व्यकितयों की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराए गए पुलिस कर्मियों के विरूद्ध आरोप पत्र दायर किया गया। न्यायेतर हत्या के इस मामले में कथित भूमिका के लिए गुजरात पुलिस के 31 अन्य कर्मियों सहित गिरफ्तार किए गए एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी डी जी बंजारा ने सितम्बर महीने में यह दावा करते हुए एक पत्र लिखा कि वे हत्याएं गुजरात सरकार द्वारा तय की गर्इ नीतियों को लागू करने के दौरान हुर्इं।
एएफएसपीए का निरसन पूर्वोत्तर राज्यों और जम्मू एवं कश्मीर, जिनमें इसे प्रयोग में लिया जा रहा है, द्वारा की जा रही एक प्रमुख मांग है। तथापि, न्यायिक जांच रिपोर्टों में बार-बार उल्लेख किए जाने तथा राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं द्वारा मांग किए जाने के बावजूद सरकार सेना के कड़े विरोध के कारण इस गलत कानून को निरसित करने के अपने वादे को पूरा करने में विफल रही है।
सांप्रदायिक हिंसा
सरकारी अनुमानों के अनुसार, वर्ष 2013 के पहले आठ महीनों के दौरान सांप्रदायिक हिंसा के 451 मामले दर्ज किए गए जबकि 2012 में कुल मिलाकर 410 मामले दर्ज किए गए थे। इन मामलों में अगस्त के महीने में जम्मू एवं कश्मीर के किश्तवाड़ शहर में हिंदू एवं मुसिलम समुदायों के बीच संघर्ष की घटना शामिल है जिसमें तीन व्यकित मारे गए और अनेक व्यकित घायल हुए थे। बिहार में अगस्त के महीने में ही सड़क किनारे एक ढाबे पर हुर्इ झड़प ने हिंदू-मुसिलम संघर्ष का रूप ले लिया जिसमें दो व्यकित मारे गए और लगभग एक दर्जन व्यकित घायल हुए। सितम्बर में पशिचमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हिंदू-मुसिलम समुदायों के बीच हुर्इ हिंसा में 50 से अधिक व्यकित मारे गए। 2014 में होने वाले आम चुनाव के दौरान और अधिक हिंसक घटनाएं होने की आशंका है क्योंकि राजनीतिक लाभ उठाने वाले समूह इन दोनों समुदायों के बीच तनाव पैदा करके उसका राजानीतिक लाभ उठाना चाहते हैं।
माओवादी उग्रवाद
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के लोगों, जिन्हें नक्सली के नाम से जाना जाता है, के द्वारा मध्य तथा पूर्वी भारत के राज्यों में सशस्त्र अभियान के दौरान हिंसा के कारण 2013 में 384 व्यकितयों की मौत हुर्इ जिनमें 147 नागरिक शामिल हैं। मर्इ के महीने में माओवादियों ने छत्तीसगढ़ में एक काफिले पर आक्रमण कर दिया जिसमेंं कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं सहित कम-से-कम 20 व्यकित मारे गए।
माओवादियों और पुलिस दोनों के बीच फंसे आदिवासी ग्रामीण और सिविल सोसायटी के कार्यकर्ता भी सरकारी बलों द्वारा अकारण गिरफ्तार कर लिए जाने और यंत्रणा दिए जाने तथा माओवादियों द्वारा धन-संपत्ति की जबरन वसूली और हत्या किए जाने के खतरे से जूझते रहते हैं।
न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन करते हुए सरकारी सुरक्षा बल माओवादी हिंसा से प्रभावित क्षेत्रों में अपना आपरेशन चलाने के लिए स्कूल बिलिडंगों में शरण लेते रहते हैं और ऐसा करके वे छात्रों और अध्यापकों के लिए खतरा पैदा करते हैं तथा साथ ही भारत के कुछ सर्वाधिक वंचित सिथति में रह रहे बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने से भी वंचित करते है। माओवादी इन स्कूलों को अपने बम का निशाना भी बनाते रहते हैं।
2013 में, भारत सरकार के सख्त उग्रवाद-विरोधी कानून के अंतर्गत 2011 में आरोपित एक दलित सांस्कृतिक समूह के सदस्यों पर माओवादी उग्रवादियों को कथित सहायता उपलब्ध कराने के लिए अभियोजन जारी रखा गया। न्यायालय ने बार-बार यह कहा कि केवल वैचारिक सहानुभूति रखने के आधार पर ही आपराधिक मुकदमा चलाने का कोर्इ औचित्य नहीं है।
अभिव्यकित की आजादी
इंटरनेट की आजादी को बाधित करने के लिए पुलिस और अन्य सरकारी प्राधिकारियों द्वारा सूचना प्रौधोगिकी अधिनियम की धारा 66क के बार-बार दुरूपयोग के कारण केंद्र सरकार ने जनवरी, 2013 में एक सलाह जारी करके पुलिस के लिए इस कानून के अंतर्गत किसी को भी गिरफ्तार करने से पूर्व उच्चाधिकारियों से अनुमोदन प्राप्त करना अनिवार्य कर दिया। हालांकि यह एक सुधारवादी कदम है किन्तु इस कानून के उपबंधों का अभी भी दुरूपयोग किया जा रहा है तथा अभिव्यकित की आजादी पर रोक लगाने तथा इसके लिए दंडित करने की प्रक्रिया जारी है।
अप्रैल, 2013 में, भारत में सभी फोन और इंटरनेट संचार पर निगरानी रखने के लिए एक केंद्रीय निगरानी तंत्र की स्थापना की गर्इ जिससे एक अन्य प्रतिकूल परिसिथति उत्पन्न हो गर्इ है क्योंकि ऐसी संभावना है कि मौजूदा कानूनी ढांचे में निजता के अधिकार को पर्याप्त संरक्षण प्रदान नहीं किया जा सकेगा। हाल ही में गूगल और फेसबुक से प्राप्त पारदर्शिता रिपोर्टों में कहा गया है कि इन कंपनियों से प्रयोक्ताओं के बारे में निजी सूचना की मांग करने के मामले में संयुक्त राज्य अमरीका के बाद भारत दूसरा स्थान रखता है।
कर्इ अवसरों पर राज्य सरकारें पुस्तकों, वार्ताओं और फिल्मों की सामगि्रयों पर रोक लगाने के लिए हितबद्ध समूहों की मांग मानती रही है।
सिविल सोसायटी पर प्रतिबंध
भारत में सरकार की आलोचना करने वाले गैर सरकारी संगठनों ;छळव्द्ध के लिए विदेश से धन प्राप्त करने पर रोक लगाकर उन संगठनों द्वारा की जा रही विरोध की कार्रवाइयों पर रोक लगाने के लिए विदेशी अभिदाय विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) का प्रयोग जारी रखा गया। सरकार ने नाभिकीय संयंत्रों और बड़ी अवसंरचना परियोजनाओं का विरोध करने वाले समूहों को लक्ष्य बनाया। विदेशों से धन प्राप्त करने की अनुमति जिन समूहों को नहीं दी गर्इ उनमें इंडियन सोशल एक्शन फोरम का नाम शामिल है जो देश भर के 700 से भी अधिक गैर-सरकारी संगठनों ;छळव्द्ध का एक नेटवर्क है।
बाल अधिकारों का संरक्षण
भारत में अनेक बच्चे अनुचित व्यवहार का शिकार होने के जोखिम से जूझते रहे और शिक्षा से वंचित बने रहे। 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी भी रोजगार पर नहीं लगाने के लिए प्रयास किए जाने के बावजूद लाखों बच्चे काम पर रखे जाते रहे और उनसे श्रम कार्य भी कराया गया। एक अनुमान के अनुसार, भारत में पांच वर्ष से कम आयु के लगभग आधे बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। हजारों बच्चे गायब कर दिए गए जिनमें से अनेक बच्चों को देश के भीतर और देश के बाहर बेच दिया गया।
2009 में नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के संबंध में बच्चों के अधिकार संबंधी अधिनियम के कारण स्कूलों में उनके नामांकन में तेजी आर्इ। तथापि, अत्यधिक वंचित समुदायों, विशेषकर दलित और आदिवासी समुदाय के बच्चों को विभिन्न प्रकार के भेदभाव का सामना करना पड़ा और उनमें से अनेक बच्चों को अपनी शिक्षा बीच में ही छोड़नी पड़ी तथा वे अंतत: बाल श्रमिक बन गए।
2012 में एक मजबूत कानून लागू करने के बावजूद सरकार बच्चों को यौन दुराचार से संरक्षण सुनिशिचत करने के लिए आवश्यक व्यवस्थागत सुधार ला पाने में विफल रही।
महिलाओं के अधिकार
दिसम्बर, 2012 में नर्इ दिल्ली में एक छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार किए जाने और बाद में उसकी मृत्यु हो जाने की घटना पर हंगामे के बाद सरकार ने लिंग आधारित हिंसा पर कारगर तरीके से रोक लगाने के लिए कानूनी सुधारों की सलाह देने हेतु तीन सदस्यीय एक समिति का गठन किया। इस समिति के निष्कर्षों के आधार पर संसद ने बलात्कार और यौन आक्रमण की नर्इ और विस्तृत परिभाषा लागू करने, तेजाब से हमले के लिए दंड का निर्धारण, चिकित्सीय उपचार प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करने, तथा यौन आक्रमण झेलने वाली नि:शक्तता की शिकार महिलाओं के अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने के दृषिटगत नर्इ प्रक्रियाओं को स्थापित करने के लिए संशोधनों को स्वीकार किया।
इन महत्वपूर्ण सुधारों के बावूद प्रमुख अंतराल अभी बना हुआ है। उदाहरण के लिए, भारतीय कानूनों में अभी भी ''सम्मान के नाम पर हत्या (आनर किलिंग) या पीडि़त और साक्षी को संरक्षण प्रदान करने के लिए पर्याप्त कानूनी उपचार उपलब्ध नहीं है। संसद ने दक्षिणपंथी समूहों के विरोध को नकारते हुए अप्रैल, 2013 में बलात्कार के मामलों में मृत्यु दंड तक देने को मंजूरी प्रदान की।
जून में, एक स्थानीय न्यायालय ने वर्ष 1991 में जम्मू एवं कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के कुनान और पोशपोरा गांवों में कथित व्यापक पैमाने पर बलात्कार की घटना की जांच के मामले को फिर से शुरू करने का आदेश दिया। इन गांवों के निवासियों ने आरोप लगाया है कि सिपाहियों द्वारा घेरा डालने एवं तलाशी अभियान चलाने के दौरान महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया था।
2013 में देश भर में बलात्कार के सैंकड़ों मामलों से संबंधित रिपोर्टें प्राप्त हुर्इं। अगस्त के महीने में मुंबर्इ में एक महिला पत्रकार के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद विरोध प्रदर्शनों की एक बार फिर से शुरूआत हुर्इ तथा सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं के लिए अधिक सुरक्षा प्रबंध करने के लिए नए सिरे से मांग उठने लगी।
अप्रैल में भारत में कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 पारित किया गया जिसमें घरों में कार्य कर रही घरेलू महिला कर्मचारी शामिल की गर्इ हैं तथा काम के लिए एक सुरक्षित परिवेश उपलब्ध कराने के लिए शिकायत तंत्र स्थापित किया गया है तथा नियोजकों का दायित्व निर्धारित किया गया है।
प्रशामक उपाय
असाध्य रोगों से जूझ रहे हजारों लोगों के कष्ट को कम करने के लिए 2012 में किए गए श्रृृंखलाबद्ध सकारात्मक उपायों के बाद भारत में प्रशामक उपायों अर्थात रोग के लक्षण या कष्ट को कम करने के लिए किए जाने वाले उपायों को लागू करने की गति में 2013 में पर्याप्त कमी आर्इ। सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर प्रगामी प्रशामक सुविधा उपलब्ध कराने की कार्यनीति को लागू करने के लिए अभी तक निधि उपलब्ध नहीं करार्इ है तथा संसद स्वापक औषधि और मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम में पर्याप्त संशोधन पर विचार करने में विफल रही है जिससे असहनीय शारीरिक पीड़ा को दूर करने की दवा की उपलब्धता की सिथति में सुधार नहीं हो पाया है। भारत में 7 मिलियन से भी अधिक लोगों को प्रतिदिन प्रशामक औषधियों की आवश्यकता होती है।
शक्तता के शिकार व्यकितयों के अधिकार
हालांकि भारत राष्ट्रीय नि:शक्तता और मानसिक स्वास्थ्य कानूनों को लागू करने की एक सुधारवादी प्रक्रिया को अपना रहा है किन्तु मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को आशंका है कि ये कानून नि:शक्तता के शिकार व्यकितयों के अधिकारों से संबंधित अभिसमय, जिसका भारत ने 2007 में ही अनुसमर्थन किया था, के अनुरूप नहीं हैं।
मानसिक या बौद्धिक नि:शक्तता की शिकार महिलाओं और बालिकाओं के साथ हिंसा की घटनाएं जिनमें उन्हें जानबूझकर परिरुद्ध करने, शारीरिक और यौन दुराचार करने, अमानवीय या अनुचित व्यवहार करने तथा उपचार के नाम पर उन्हें बार-बार बिजली का झटका लगाने की घटनाएं विशेष रूप से सरकारी और निजी आवासीय स्थलों मेें घटित होती रही हैं जिनमें पर्याप्त देखभाल की व्यवस्था नहीं होती। परिवारों और समुदाय के भीतर भी नि:शक्तता से जूझ रही महिलाएं अनैचिछक बंध्यीकरण सहित हिंसा का शिकार बनती रही हैं।
मृृत्यु दंड
नवम्बर, 2008 की सुर्खियों की खबर जिसमें मुंबर्इ के भोग-विलासिता से परिपूर्ण महंगे होटलों और मुख्य रेलवे स्टेशन पर हमला करके अनेक लोगों को मौत के घाट उतार देने के दोषी पाकिस्तानी नागरिक मोहम्मद अजमल कसाब को नवम्बर, 2012 में फांसी पर लटकाने के साथ ही भारत में मृत्य दंड पर आठ वर्षों से जारी अनधिकृत रोक समाप्त हो गर्इ। फरवरी, 2013 में सरकार ने दिसम्बर,2001 में भारत के संसद पर हमला करने के दोषी मोहम्मद अफजल गुरू को फांसी दे दी। जुलार्इ 2012 में पद ग्रहण करने के बाद से माननीय राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने मृत्य दंड से संबंधित 11 दया याचिकाओं को रí करते हुए 17 लोगों को मृत्यु दंड देने का रास्ता साफ कर दिया है।
भारतीय कानून केवल ''अति असाधारण मामलों में ही मृत्यु दंड की अनुमति देता है, किंतु नवंबर 2012 में उच्चतम न्यायालय ने फैसला दिया कि इस मानक को वर्षों से सर्वव्यापी रूप से लागू नहीं किया गया था और मृत्यु दंड के मानकों पर ''नए सिरे से विचार करने की जरूरत थी।
प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय सक्रियक
2013 में भारत में महिलाओं के साथ यौन हिंसा की घटनाओं की अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा निंदा की गर्इ। दिसम्बर, 2012 में नर्इ दिल्ली में सामूहिक बलात्कार और हत्या की दिल दहला देने वाली घटना के बाद संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान-कि-मून ने भारत से ''ऐसे अपराधों पर रोक लगाने के लिए अतिरिक्त उपाय और सुधार करने तथा अपराधियों को दंडित करने के लिए कहा। विदेशी पर्यटकों पर हुए हमलों को देखते हुए संयुक्त राज्य अमरीका तथा यूनाइटेड किंगडम (यू.के.) जैसे कुछ देशों ने सलाह जारी करते हुए महिला पर्यटकों को यात्रा के दौरान विशेष रूप से सतर्क रहने के लिए कहा।
भारत में मानवाधिकार से जुड़ी अनेकानेक समस्याओं को देखते हुए विदेश के साथ अपने संबंधों में आमतौर पर मानवाधिकार विषयक मुíों को तरजीह देने वाले देशों ने दुनियां के इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश पर कोर्इ विशेष ध्यान नहीं दिया और अपना सामान्य नजरिया बनाए रखा।
भारत की विदेश नीति
भारत की विदेश नीति लोकतंत्र तथा मानवाधिकारों के प्रति आदर की भावना को बढ़ावा देने में आशा के अनुरूप नहीं रही। हालांकि हमारा देश विश्व मामलों में एक बड़ी भूमिका निभाने का इच्छुक है तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सीट की कामना करता है किन्तु 2013 में विश्व के सामने उत्पन्न हुर्इ कुछ सर्वाधिक कठिन समस्याओं जैसेकि सीरिया और मिस्र में उत्पन्न संकट की सिथति के समाधान में इसकी कोर्इ विशेष भूमिका नहीं रही।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में भारत ने प्राय: किसी देश से संबंधित मानवाधिकार संकल्पों या प्रस्तावों का समर्थन नहीं किया है। हालांकि भारत आमतौर पर दूसरे देशों के ''आंतरिक मामलों में अहस्तक्षेप की नीति अपनाता है किन्तु इसने श्रीलंका में कथित युद्ध अपराधों के लिए जबावदेही तय करने की मांग करने वाले संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद के 2012 और 2013 के प्रस्ताव का प्रमुखता से समर्थन किया है। इसने नेपाल में एक चुनी हुर्इ सरकार की बहाली का भी समर्थन किया है।
भारत ने 2013 में बर्मा के अराकान राज्य में रोहिन्ग्या मुसिलमों तथा मध्य बर्मा में रहने वाले मुसिलम समुदाय पर हमले की अनेक घटनाओं के बाद द्विपक्षीय संबंधों को ध्यान में रखते हुए बर्मा की सरकार से धार्मिक सहिष्णुता और पारस्परिक सदभाव को बढ़ावा देने का अनुरोध किया।
भारत ने अफगानिस्तान में पुनर्वास तथा पुनर्निर्माण कायोर्ं को करने के लिए लगभग 2 बिलियन अमरीकी डालर की सहायता देने का वचन देकर, बालिकाओं की शिक्षा का समर्थन करके, कुछ विशेष प्रकार का पुलिस प्रशिक्षण प्रदान करके तथा तालिबानी गुट से खतरों के कारण देश छोड़कर भाग रहे अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपने देश में शरण देकर अफगानिस्तान में सिथरता तथा मानवाधिकारों को बढ़ावा देने की दिशा में प्रयास जारी रखा।