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World Report 2012: भारत

Events of 2011

दुनिया की सबसे ज़्यादा आबादी वाले लोकतंत्र, भारत, में एक जीवंत मीडिया, एकसक्रिय नागरिक समाज, एकसम्मानित न्यायपालिका, और महत्वपूर्ण मानव अधिकारों की समस्याएँ हमेशा रही हैं।

यातना, और कमज़ोर समुदायों की रक्षा के लिए नीतियाँ लागू करने में विफलता सहित हिरासत में हत्या, और पुलिस के दुर्व्यवहार ने अतीत की तरह 2011में भी भारत का रिकॉर्ड खराब किया है। सुरक्षा बलों द्वारा किए जाने वाले दुर्व्यवहारों के लिए दंड से मुक्ति भी जारी है, ख़ासकर जम्मू और कश्मीर, पूर्वोत्तर, और माओवादी उग्रवाद का सामना करने वाले क्षेत्रों में। गैर-सरकारी संगठनों के विदेशी वित्त-पोषण पर राज्य के नए नियंत्रणों के कारण मानव अधिकारों की रक्षा की वैध कोशिशों पर प्रतिबंध लग गया है। फिर भी, भारत-बांग्लादेश सीमा पर सीमा सुरक्षा बल द्वारा होने वाली हत्याओं में नाटकीय रूप से कमी हुई है।

मध्य और पूर्वी भारत के संसाधन संपन्न क्षेत्रों में सामाजिक अशांति और विरोध गहरा गया है, जहाँ तीव्र आर्थिक विकास के साथ तेज़ी से बढ़ रही असमानता पैदा हुई है। खनन और ढाँचागत परियोजनाओं से जंगल में रहने वाले आदिवासी समुदायों के बड़े पैमाने पर विस्थापन का ख़तरा पैदा हुआ है। सरकार ने अभी तक विस्थापित लोगों की रक्षा, मुआवज़े, और उनके पुर्नवास के लिए व्यापक क़ानून नहीं बनाए हैं, हालाँकि एक नए भूमि अधिग्रहण क़ानून का मसौदा तैयार कर लिया गया है।

हालाँकि यह लिखे जाने तक, पुर्व वर्षों की तुलना में आतंकवादी हमलों से होने वाली मौतों में काफी कमी आई है, लेकिन 13जुलाई, 2011को मुम्बई में सिलसिलेवार बम विस्फोट हुए थे। 7सितंबर, 2011को दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर हुए एक बम विस्फोट में 15लोग मारे गए थे। इनके अपराधियों की अब तक पहचान नहीं हो सकी है। बम विस्फोट के बाद पुलिस को मुसलमानों की धार्मिक प्रोफ़ाइल तैयार करने से रोकने के मामले में तेजी आयी।

सरकार द्वारा दोहराये गए प्रगति के दावों के बावजूद, स्वास्थ्य-सेवा और शिक्षा की सुलभता में कोई महत्वपूर्ण सुधार नहीं हुआ।

अगस्त में सार्वजनिक तौर पर एक भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन भड़क उठा जिसमें कानूनी सुधारों और दंड की माँग करते हुए सड़कों पर बड़े पैमाने पर प्रदर्शन और धरने हुए, जिससे सरकार ठप हो गई थी। ग़रीबी और जवाबदेही के समाधान के दो प्रमुख प्रयासों - भारत की ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना और सूचना के अधिकार के नियम - के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं पर हमले बढ़ गए, उन्हें धमकियों, मारपीटऔरयहांतककिमृत्यु का भी सामना करना पड़ा।

जवाबदेही

अभी भी भारत द्वारा ऐसे क़ानून रद्द करना या नीतियां बदली जाना शेष है जो मानव अधिकारों के उल्लंघन के लिए दण्ड से विधि सम्मत और वास्तविक मुक्ति की अनुमति देते हैं, और जो गंभीर दुर्व्यवहारों के ज्ञात अपराधियों तक पर अभियोग चलाने में विफल रहे हैं।

भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान ने सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (AFSPA)रद्द करने या इसमें संशोधन के प्रयासों का प्रतिरोध किया है, यहएकऐसा क़ानून है जिसमें "अव्यवस्थित" क्षेत्रों में सैनिकों को बड़े पैमाने पर पुलिस शक्तियाँ मिल जाती हैं। सितंबर में गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने कहा कि AFSPA केसाथ पेश आने वाली समस्याओं के समाधान के लिए "सरकार के भीतर आम सहमति बनाने की" कोशिश चल रही थी, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। सरकार द्वारा नियुक्त विभिन्न आयोग लंबे समय से इसे रद्द किए जाने की माँग कर रहे हैं।

जम्मू और कश्मीर

क्षेत्र में दो दशकों के संघर्ष के दौरान हज़ारों कश्मीरी कथित रूप से जबरन गायब हो गए हैं, जिनकी कोई जानकारी नहीं है। जम्मू और कश्मीर राज्य मानवाधिकार आयोग (SHRC)द्वारा 2011में एक पुलिस जाँच में यह पाया कि उत्तरी कश्मीर में 38स्थलों पर स्थित अचिन्हित क़ब्रों में 2,730 शव फेंक दिए गए। इनमें से कम-से-कम 574की स्थानीय कश्मीरियों के शव के रूप में पहचान की गई। सरकार ने पहले कहा था कि उन क़ब्रों में अज्ञात उग्रवादियों के शव हैं, जिनमें से ज्यादातर पाकिस्तानी थे जिनके शव गाँव के अधिकारियों को दफ़नाने के लिए सौंपे गए थे। अनेक कश्मीरियों का मानना ​​है कि कुछ क़ब्रों में जबरन गायब हुए पीड़ितों के शव हैं।

जम्मू और कश्मीर सरकार ने एक जाँच का वादा किया है, लेकिन अपराधियों की पहचान और अभियोग चलाने ने के लिए सेना और संघीय अर्द्धसैनिक बलों के सहयोग की ज़रूरत होगी। अतीत में इन बलों ने, सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (AFSPA)और दंड संहिता की धारा 197के अंतर्गत मुक्ति का दावा करते हुए निष्पक्ष जाँच और दंड का विरोध किया था।

माओवादी उग्रवाद

माओवादी विद्रोही, जिन्हें नक्सलवादी के रूप में भी जाना जाता है, 10राज्यों में सक्रिय हैं और हाशिए पर रह रहे आदिवासियों, दलितों और भूमिहीन समुदायों के अधिकारों के लिए लड़ने का दावा करते हैं। उन क्षेत्रों में शासन अक्सर कमज़ोर रहा है, जहाँ माओवादियों को जनता का समर्थन मिला है, आर्थिक-विकास से संबंधित भ्रष्टाचार और अवैध खनन ने अनेक क्षेत्रों में सार्वजनिक सेवाओं और बुनियादी सुविधाओं के लिए उपलब्ध राजस्व को गंभीर रुप से सीमित किया है। सरकार की असावधानी और खनन क्षेत्र के पूर्ण अप्रभावी विनियमन के चलते, गैर-ज़िम्मेदार खनन संचालक महत्वपूर्ण जल आपूर्ति दूषित करते हैं, खेत नष्ट करते हैं, सड़कें तथा दूसरी सार्वजनिक बुनियादी सुविधाएँ खराब करते हैं औरअन्यगंभीरस्वास्थ्य तथा पर्यावरण संबंधी ख़तरे पैदा करते हैं।

माओवादी ताक़तें निरन्तर हत्या और जबरन वसूली में लगी हैं, और हमलों तथा बम विस्फोट के लिए सरकारी स्कूलों और अस्पतालों को लक्ष्य बनाती हैं। यह लिखे जाने तक 2011में नक्सली लगभग 250नागरिकों सहित सुरक्षा बलों के 100से ज़्यादा सदस्यों को मार चुके हैं। सरकारी अधिकारियों का दावा है कि सुरक्षा बलों ने जनवरी और नवंबर 2011के बीच 180से ज़्यादा नक्सलियों को मार डाला है, यद्यपि स्थानीय कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इनमें से कुछ आम नागरिक थे।

अदालत के फ़ैसलों के बावजूद, सरकार द्वारा अब तक सुरक्षा बलों को उग्रवाद-विरोधी संचालनों के दौरान स्कूलों का इस्तेमाल रोकने के दिशा-निर्देश ठीक से लागू नहीं किए गए हैं। मनमाने ढंग से गिरफ़्तारी, अत्याचार तथा दूसरे ग़लत व्यवहारों, और हत्याओं जैसे दुर्व्यवहारों के संबंध में जवाबदारी तय करने की मांग करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को नक्सली बलों और सुरक्षा एजेंसियों दोनों की ओर से ख़तरा पैदा हुआ है।

एक स्वागत योग्य निर्णय में, भारतीय उच्चतम न्यायालय ने छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा माओवादियों के खिलाफ अभियान में विशेष पुलिस अधिकारियों - अपर्याप्त रुप से प्रशिक्षित सैनिकों - के इस्तेमाल को असंवैधानिक करार दिया है। SPOsको अनेक दुर्व्यवहारों में लिप्त पाया गया है।

सीमा सुरक्षा बलों द्वारा बांग्लादेश सीमा पर हत्याएँ

जब एक मानवाधिकार रिपोर्ट में पाया गया कि बांग्लादेश सीमा पर तैनात सीमा सुरक्षा बल (BSF)कर्मियों द्वारा पिछले 10 सालों में अंधाधुंध गोली चलाते हुए 900से ज़्यादा भारतीयों और बांग्लादेशियों को मार डाला, तबमार्च 2011 में सरकार ने संयम बरतने का आदेश दिया और BSFकर्मियों को रबर की गोलियाँ जारी कीं। नीति में परिवर्तन के बाद हत्याओं में नाटकीय रूप से गिरावट आई, लेकिन ये अभी भी जारी हैं। पशुओं और नशीले पदार्थों की तस्करी सहित अवैध गतिविधियों को रोकने की उनकी कोशिश में, कुछ BSFसैनिकों द्वारा सीमा के निवासियों को निरन्तर सताना और पीटना जारी है। कोई भी हत्याओं अथवा अन्य दुर्व्यवहारों के लिए किसी BSFसैनिक पर अभियोग नहीं चलाया गया है।

सूचना का अधिकार क़ानून

नागरिक और कार्यकर्ता सरकारी भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने और पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिए 2005में पारित, सूचना के अधिकार अधिनियम (RTI)का अधिकाधिक इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत में भ्रष्टाचार की बड़े पैमाने पर मौजूदगी का यह एक दुखद प्रमाण है कि एशियाई मानवाधिकार केंद्र के अनुसार पिछले दो सालों में कम-से-कम 12 RTIकार्यकर्ताओं की हत्या हुई है और अनेक दूसरे लोगों पर हमला हुआ है।

विस्फोट और अन्य हमले

13 जुलाई, 2011को मुंबई में हुए तीन बम विस्फोटों में 29लोग मारे गए और 130घायल हो गए। 7सितंबर, 2011को दिल्ली उच्च न्यायालय के बाहर हुए बम विस्फोट ने 15लोगों की जान ले ली और 50को घायल कर दिया। सुरक्षा और ख़ुफ़िया एजेंसियों ने इस बार थोड़े से सबूत के आधार पर संदिग्ध लोगों की बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियां नहीं की, जिसके कारण अतीत में संदिग्ध लोगों को जानकारी और इक़बालिया बयान हासिल करने के लिए यातना का सामना करना पड़ा था। तथापि, कथित अपराधियों की पहचान करने में अधिकारियों की विफलता के कारण एजेंसियों की व्यापक आलोचना हुई और पुलिस सुधार और प्रशिक्षण के लिए आह्वान किया गया।

मृत्यु-दंड

मृत्यु-दंड क़ानून की किताबों में बना हुआ है। हालाँकि, भारत में 2004के बाद से मृत्यु-दंड नहीं दिया गया, लेकिन मृत्यु-दंड की अनेक अपील लंबित है, जिनमें से कुछ तो दशकों से लंबित हैं। 2011 में राष्ट्रपति ने पाँच मामलों में क्षमादान याचिकाओं को ख़ारिज कर दिया, जिनमें से तीन, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की हत्या के लिए दोषी व्यक्तियों की ओर से थीं।

महिलाओं के अधिकार

2011के जनगणना आँकड़ों ने भारत में महिला/पुरुष अनुपात में और गिरावट का खुलासा किया है, जो लिंग के आधार पर गर्भपात कम करने पर लक्षित क़ानून की विफलता की ओर इशारा करते है। 2011में "हॉनर" किलिंग्स और बलात्कार की श्रृंखला ने देश को हिला दिया लेकिन ऐसी हिंसा को रोकने और प्रभावी अभियोजन के लिए कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं की गई। सरकार ने अभी तक यौन हमले के शिकार लोगों की स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार नहीं किया लेकिन मुआवज़ा देने के लिए कदम उठाए हैं। यह लिखे जाने तक सरकार बलात्कार के शिकार लोगों से सबूत जमा करने के संबंध में, अपमानजनक और अमानवीय "कौमार्य" परीक्षण को पृथक करते हुए अपने चिकित्सा-क़ानूनी प्रोटोकॉल में संशोधन कर रही थी, जो बलात्कार के शिकार अनेक लोगों को "संभोग के आदी" के रूप में वर्गीकृत करता है जिससे पीड़ितों को तिरस्कार का सामना करना पड़ता है और अनेक बार आपराधिक मुकदमों के परिणाम प्रभावित होते हैं। मातृत्व संबंधी स्वास्थ्य के क्षेत्र में काफी प्रगति होने के बाद भी, विशालअसमानताबनी हुई हैं और मध्य प्रदेश और राजस्थान राज्यों से मातृत्व संबंधी मौतों की सूचनाएं भारी मात्रा में निरन्तर आ रही है।

प्रशामक देखभाल

असाध्य रोगों से पीडित करोड़ों लोग गंभीर दर्द से अनावश्यक रूप से पीड़ित रहते हैं क्योंकि भारत सरकार दर्द की सुरक्षित, कारगर और सस्ती दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने में विफल रही है। इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए, भारतीय चिकित्सा परिषद ने प्रशामक देखभाल को चिकित्सकीय विशेषज्ञता के रूप में मान्यता प्रदान की है। परन्तु सरकार द्वारा सहायता प्राप्त आधे से ज़्यादा क्षेत्रीय कैंसर केंद्र अभी तक भी प्रशामक देखभाल या दर्द प्रबंधन उपलब्ध नहीं करा रहे हैं, जबकि उनके 70प्रतिशत से भी ज़्यादा रोगियों को इसकी जरूरत है, जिसकानतीजायहहैकिहज़ारों लोगों को गंभीर किन्तु अनावश्यक पीड़ा से गुजरना पड़ता है।

अंतर्राष्ट्रीय भूमिका

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और मानवाधिकार परिषद (HRC)के एक सदस्य के रूप में, 2011में भारत के पास अपनी विदेश नीति उन आदर्शों के साथ संरेखित करने का अवसर था जिनका पालन करने का वह दावा करती है, लेकिन अधिकारी श्रीलंका, बर्मा, सीरिया, और सूडान जैसे देशों में प्रबल मानव अधिकारों के उल्लंघन पर चिंता जताने के लिए अपनी आवाज उठाने पर भी अनिच्छुक बने रहे।

लीबिया में अपने नागरिकों की सुरक्षा को लेकर अपनी चिंताओं के बावजूद, भारत ने लीबिया के लोगों के संरक्षण संबंधी लीबिया के आह्वान के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1970का समर्थन किया। भारत ने बाद में प्रस्ताव 1973पर मतदान में भाग नहीं लिया, जिसने सैन्य बलों को नागरिकों की रक्षा के लिए अधिकृत किया गया था। सुरक्षा परिषद में अपनी आवर्ती अध्यक्षता के दौरान, भारत सीरिया पर बहुत ज़्यादा विभाजित सदस्य राज्यों के बीच आम सहमति बनाने में सक्षम रहा, जिसके कारण हिंसा की निंदा पर परिषद का पहला वक्तव्य जारी हुआ। भारतनेअगस्त में सीरिया पर जाँच के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय आयोग के गठन संबंधी HRC संकल्पकासमर्थननहींकियाया उस सीरिया पाठ का समर्थन नहीं किया जिसमें एक मसौदा प्रस्ताव की माँग की गई थी जिसमें हिंसा समाप्त करने के लिए अक्तूबर में सुरक्षा परिषद में फ़्रांस और ब्रिटेन द्वारा प्रस्तावित संयुक्त राष्ट्र की जाँच में सहयोग करने का आह्वान किया गया था।

जबकि भारत का दावा है कि इसने निजी तौर पर संघर्ष से संबंधित दुर्व्यवहारों के लिए जवाबदेही पर श्रीलंका और बर्मा सरकारों पर दबाव डाला था, लेकिन इसने दोनों में से किसी भी देश में दुर्व्यवहारों पर स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय जाँच का समर्थन नहीं किया।

प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे

भारतीय घरेलू मानव अधिकारों के मुद्दे, जिनमें ऐसी कोशिशों को इसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप कहा गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ निजी तौर पर तो भारत से आग्रह करता है कि अपने मानवाधिकार रिकॉर्ड में सुधार करे, लेकिन सार्वजनिक रूप से ऐसा कम कहता है। तथापि, जुलाई 2011में, यूरोपीय संसद ने भारत में मृत्यु-दंड बनाए रखने के विषय पर प्रस्ताव पारित किया।

उपमहाद्वीप में बर्मा, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देशों में चीन के बढ़ते प्रभाव से उत्पन्न सामरिक और आर्थिक चिंताओं ने भारत की नीति को निरन्तर प्रभावित किया है।