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भारत: कमजोर व असुरक्षित समुदायों को आहत करता इंटरनेट शटडाउन

मनमाने प्रतिबंधों का 'डिजिटल इंडिया' मिशन से कोई मेल नहीं

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा), जिसमें मजदूरी भुगतान के लिए इंटरनेट जरूरी है, के तहत राजस्थान के एक गांव में कार्यस्थल पर काम करती महिलाएं, सितंबर 2022. © 2022 जयश्री बाजोरिया/ह्यूमन राइट्स वॉच
  • भारत द्वारा इंटरनेट पर मनमानी पाबंदियों से भोजन और आजीविका के लिए सरकार की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर निर्भर गरीब समुदायों को बहुत ज्यादा नुकसान हुआ है.
  • "डिजिटल इंडिया" के युग में, जहां सरकार जीवन के हर पहलू के लिए इंटरनेट को बुनियादी ज़रूरत बनाने पर जोर दे रही है, वहीं सरकारी तंत्र ने इंटरनेट शटडाउन को पुलिस कार्यप्रणाली का स्थायी हिस्सा बना लिया है.
  • सरकारी तंत्र को चाहिए कि देश की प्रतिष्ठा और यहां के लोगों, दोनों को गंभीर रूप से आघात पहुंचाने वाले इंटरनेट शटडाउन के दमनकारी तौर-तरीकों का इस्तेमाल करना बंद करे.

(नई दिल्ली) - ह्यूमन राइट्स वॉच और इंटरनेट फ़्रीडम फ़ाउंडेशन ने आज जारी एक रिपोर्ट में कहा कि भारत द्वारा मनमाने ढंग से इंटरनेट पर पाबंदी से भोजन और आजीविका के लिए सरकार की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर निर्भर गरीब समुदायों को बहुत ज्यादा नुकसान हो रहा है. 2018 के बाद, भारत ने दुनिया के किसी भी अन्य देश के मुकाबले इंटरनेट पर सबसे अधिक पाबंदी लगाई है. इससे सरकार के प्रमुख कार्यक्रम "डिजिटल इंडिया" को धक्का लगा है क्योंकि इस कार्यक्रम के तहत मुख्य सार्वजनिक सेवाओं को लागू करने हेतु इंटरनेट की नियमित पहुंच आवश्यक बना दी गई है.

82 पन्नों की रिपोर्ट "'इंटरनेट नहीं तो कोई काम नहीं, आमदनी नहीं, अनाज नहीं': 'डिजिटल इंडिया' में लोगों को बुनियादी अधिकारों से वंचित करता इंटरनेट शटडाउन" के निष्कर्षों के मुताबिक इंटरनेट शटडाउन आवश्यक गतिविधियों को बाधित करता है और भारतीय और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के तहत प्राप्त आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर प्रतिकूल असर डालता है. भारत के सरकारी तंत्र ने सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर सुप्रीम कोर्ट के प्रक्रियात्मक सुरक्षा संबंधी आदेशों की अवहेलना की है. इन आदेशों में अदालत ने यह सुनिश्चित करने को कहा है कि इंटरनेट पर प्रतिबंध वैध, आवश्यक, आनुपातिक हों और उनका दायरा एवं क्षेत्र सीमित हो. केंद्र और राज्य सरकार द्वारा इंटरनेट पर पाबंदी के फैसलों का अक्सर कोई तयशुदा आधार नहीं होता है तथा ये गैरकानूनी होते हैं और विरोध प्रदर्शनों को प्रतिबंधित करने एवं परीक्षाओं में नकल रोकने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं.

ह्यूमन राइट्स वॉच की एसोसिएट एशिया निदेशक जयश्री बाजोरिया ने कहा, ""डिजिटल इंडिया" के युग में, जहां सरकार ने जीवन के हर पहलू के लिए इंटरनेट को बुनियादी ज़रूरत बनाने पर जोर दिया है, वहीं सरकारी तंत्र ने इंटरनेट शटडाउन को पुलिस कार्यप्रणाली का स्थायी हिस्सा बना लिया है. इंटरनेट पर पाबंदी एकदम आखिरी कदम होना चाहिए और ऐसा करते हुए सुरक्षा उपायों के जरिए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि लोग आजीविका और बुनियादी अधिकारों से वंचित न हों."

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"डिजिटल इंडिया" का सार है एक डिजिटली साक्षर भारत, एक समर्थ भारत, एक समृद्ध भारत ..."

"यह है कल्पना यह "डिजिटल इंडिया" की"

-    रविशंकर प्रसाद, तत्कालीन संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री

डिजिटल इंडिया" का उद्देश्य है टेक्नोलॉजी के जरिए सरकारी योजनाएं और सार्वजनिक सेवाएं को उपलब्ध कराना.

इन्हें साकार करने के लिए इंटरनेट बुनियादी साधन है.

लेकिन डिजिटल इंडिया के सामने एक बड़ी चुनौती है... इंटरनेट शटडाउन

2018 के बाद, दुनिया के किसी भी देश के मुक़ाबले भारत ने सबसे ज्यादा बार इंटरनेट पर पाबंदी लगायी है.

राज्य सरकारों ने बार-बार मोबाइल इंटरनेट बंद किया है.

ये शटडाउन प्रभावित क्षेत्र की अधिकांश आबादी को प्रभावित करते हैं क्योंकि भारत के 96% इंटरनेट ग्राहक अपने फोन के जरिए इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं.

इंटरनेट के बिना, लोग सरकारी खाद्यान्न और रोजगार कार्यक्रमों का फायदा नहीं उठा सकते या बैंकों से जुड़े कामकाज नहीं कर सकते.

"डिजिटल इंडिया खास तौर से गरीबों, हाशिये के लोगों और सरकार में कार्यरत लोगों  के लिए जीवन शैली बन गया है."

-    नरेंद्र मोदी. प्रधानमंत्री, भारत

लेकिन इंटरनेट बंदी के दौरान सबसे ज्यादा नुकसान गरीब और हाशिए के समुदायों को होता है. जब सरकारी सेवाएं बाधित हो जाती हैं और उनके  मानवाधिकारों पर असर होता है.

1.     खाद्य अधिकार

लोग सब्सिडी युक्त अनाज प्राप्त नहीं कर सकते अगर वे इंटरनेट का उपयोग कर अपनी बायोमेट्रिक आईडी प्रमाणित करने में असमर्थ हों.

 ग्रामीण इलाकों में इंटरनेट बंद होने से परिवारों को कई दिनों तक भूखे रहना पड़ सकता है.

2.     रोजगार और सामाजिक सुरक्षा अधिकार

सरकार के ग्रामीण आय सुरक्षा कार्यक्रम, नरेगा में श्रमिकों को अपनी उपस्थिति ऑनलाइन दर्ज करनी पड़ती है.

इन महिला मजदूरों को कार्यस्थल पर उपस्थिति साबित करने के लिए जियो-टैग्ड फोटो ऑनलाइन अपलोड करना होता है.

"पिछले महीने, हमने 15 दिन काम किया लेकिन हमें केवल 12 दिनों की मजदूरी मिली क्योंकि [इंटर] नेट काम नहीं कर रहा था." - सामुदायिक पर्यवेक्षक, नरेगा

भारत सरकार कहती है कि वह सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए इंटरनेट बंद करती है.

लेकिन हमने पाया कि सरकारी तंत्र शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शनों को दबाने और स्कूल परीक्षाओं में नकल की रोकथाम सहित कई अन्य कारणों से इंटरनेट बंद करते हैं.

सरकार ने जम्मू-कश्मीर सबसे लंबे समय तक इंटरनेट पर पाबंदी लगाए रखी जो 550 दिनों तक चली.

इस बात का कोई सबूत नहीं है कि इंटरनेट बंदी से कानून और व्यवस्था बनाए रखने में मदद मिलती है.

इसके बजाय, वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कमजोर करते हैं और सामूहिक दंड का तरीका अख़्तियार करते हैं जिसका हाशिए के समुदायों पर व्यापक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

भारत सरकार को इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाना समाप्त करना चाहिए.

उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इंटरनेट सेवा उपलब्ध न होने पर भी सार्वजनिक सेवाओं और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों तक सबों की समान पहुंच हो.

डिजिटल इंडिया को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि टेक्नोलॉजी लोगों की आजीविका और अधिकारों की सुरक्षा करे.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने जम्मू और कश्मीर, राजस्थान, हरियाणा, झारखंड, असम, मणिपुर और मेघालय के साथ-साथ कई स्थानों पर इंटरनेट शटडाउन से सीधे प्रभावित लोगों सहित 70 से अधिक लोगों का साक्षात्कार लिया. शटडाउन पर किसी भी तरह के आधिकारिक आंकडें मौजूद नहीं होने के कारण इंटरनेट शटडाउन के लिए जवाबदेही तय करना ज्यादा मुश्किल हो गया है.

भारत में सबसे लंबी अवधि तक इंटरनेट शटडाउन जम्मू-कश्मीर में रहा; सरकार ने अगस्त 2019 से फरवरी 2021 तक 550 दिनों के लिए 4जी मोबाइल इंटरनेट पर प्रतिबंध लगाए रखा. जनवरी 2020 में, अनुराधा भसीन बनाम भारत संघ और गुलाम नबी आज़ाद बनाम भारत संघ के मामलों में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया. इस फैसले में अदालत ने कहा कि इंटरनेट सेवाओं का निलंबन "कठोर उपाय”  है जिसे राज्य द्वारा केवल तभी इस्तेमाल किया जाना चाहिए जब यह “आवश्यक” और “अपरिहार्य” हो और ऐसा "कम हस्तक्षेपकारी चरित्र वाले विकल्पों की संभावना" का आकलन करने के बाद किया जाना चाहिए.

इंटरनेट शटडाउन का नियमन करने वाले भारत के कानून में व्यापक भाषा का इस्तेमाल होता है और इनमें पर्याप्त सुरक्षा उपायों का आभाव है.  ह्यूमन राइट्स वॉच और इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले और 31 दिसंबर, 2022 के बीच तीन वर्षों में भारत में लगाए गए 127 शटडाउन की पहचान की. 28 भारतीय राज्यों में से 18 राज्यों ने इन तीन वर्षों में कम-से-कम एक बार इंटरनेट पर पाबंदी लगाई. इस संख्या में केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में किए गए इंटरनेट शटडाउन शामिल नहीं हैं, जहां सरकार देश में किसी भी अन्य जगह की तुलना में इंटरनेट पर सबसे ज्यादा पाबंदी लगाती है.

राज्य सरकारों ने 54 मामलों में इंटरनेट शटडाउन का इस्तेमाल विरोध प्रदर्शनों को रोकने या जवाबी कार्रवाई के रूप में किया. इसके अलावा 37 मामलों में स्कूल परीक्षाओं या सरकारी नौकरियों की प्रतियोगिता परीक्षाओं में नकल रोकने, 18 मामलों में सांप्रदायिक हिंसा की रोकथाम और 18 अन्य तरह के कानून और व्यवस्था मामलों में इंटरनेट पर पाबंदी लगाई गई.

सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद भी 18 राज्यों में से 11 राज्यों ने निलंबन आदेश सार्वजनिक नहीं किए. यहां तक कि जिन मामलों में आदेश सार्वजनिक किए गए, राज्य  ज्यादातर मामलों में सार्वजनिक सुरक्षा के समक्ष उत्पन्न खतरों का औचित्य ठहराने में अक्सर विफल रहे.

भारत के कई राज्य सरकारों ने सामूहिक दंड देने के लिए भी इंटरनेट प्रतिबंध लगाए. मार्च 2023 में एक अलगाववादी नेता को खोज निकालने के लिए पूरे पंजाब में तीन दिनों तक मोबाइल इंटरनेट पर पाबंदी लगायी गई. मई में, हिंसक नृजातीय संघर्षों के बाद मणिपुर में मोबाइल और फिक्स्ड लाइन सेवाओं,  दोनों पर कई हफ्तों तक  इंटरनेट पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया.

अधिकांश शटडाउन में मोबाइल फोन के जरिए इंटरनेट इस्तेमाल पर पाबंदी लगायी जाती है.  लेकिन यह इस क्षेत्र की अधिकांश आबादी के लिए इंटरनेट पर लगभग संपूर्ण प्रतिबंध में बदल जाता है, क्योंकि भारत में 96 प्रतिशत इंटरनेट ग्राहक इसका उपयोग अपने मोबाइल फोन पर करते हैं, जबकि केवल 4 प्रतिशत लोगों की फिक्स्ड लाइन इंटरनेट तक पहुंच है.  ग्रामीण क्षेत्रों में मोबाइल कनेक्टिविटी और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि 94 प्रतिशत फिक्स्ड लाइन कनेक्शन शहरी क्षेत्रों में हैं.

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) ग्रामीण क्षेत्रों में 10 करोड़ से अधिक परिवारों को महत्वपूर्ण आय सुरक्षा प्रदान करता है. सरकार ने उपस्थिति जांच और मजदूरी भुगतान समेत पूरे कार्यक्रम को डिजिटल करने की ओर कदम बढाए हैं, जिसके लिए इंटरनेट तक पर्याप्त पहुंच जरूरी है. दूरदराज इलाकों में नेटवर्क कवरेज पहले से ही खराब है, लेकिन इंटरनेट पर पाबंदी हालात को सिर्फ और बदतर बनाती है.

राजस्थान के भीलवाड़ा जिला की 35 वर्षीय दलित महिला, जिसके पांच बच्चे हैं, ने बताया, "मैं नरेगा में दो साल से काम कर रही हूं. इंटरनेट शटडाउन होने से मुझे कोई काम नहीं मिलता, मजदूरी नहीं मिलती, मैं अपने खाते से पैसे नहीं निकाल पाती और राशन दुकान से अनाज भी नहीं ले पाती."

इंटरनेट शटडाउन लक्षित जन वितरण प्रणाली के माध्यम से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत सब्सिडी प्राप्त अनाज उपलब्ध कराने संबंधी महत्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा नीति को भी प्रभावित करता है. 2017 में, सरकार की सामाजिक सुरक्षा प्रणाली को डिजिटल करने के लिए सब्सिडी वाला अनाज प्राप्त करने के पात्र सभी लोगों के लिए अपने राशन कार्ड को देश की बायोमेट्रिक पहचान प्रणाली- आधार से जोड़ना अनिवार्य कर दिया गया. नतीजतन, राशन दुकानों को आधार प्रमाणीकरण के लिए इंटरनेट की ज़रूरत होती है.

इंटरनेट शटडाउन के कारण ग्रामीण समुदायों के लिए बुनियादी बैंकिंग सेवाएं प्राप्त करना, विभिन्न सुविधाओं के बिल का भुगतान और आधिकारिक दस्तावेजों के लिए आवेदन करना और उन्हें प्राप्त करना भी बहुत कठिन हो गया है.

भारत के सरकारी तंत्र का दावा है कि सोशल मीडिया के जरिए फैलने वाली अफवाहों से भड़कने वाली हिंसा और भीड़ की गोलबंदी की रोकथाम के लिए शटडाउन जरूरी हैं. लेकिन, संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार विशेषज्ञों ने 2015 में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संघर्ष की स्थितियों में जवाबी कार्रवाई पर संयुक्त घोषणापत्र में कहा था, संघर्ष के समय में भी, "मानवाधिकार कानून के तहत कम्युनिकेशन 'किल स्विच' (यानी संचार प्रणालियों को पूरी तरह बंद करना) का इस्तेमाल कतई सही नहीं ठहराया जा सकता.”

दो समूहों ने कहा कि इसका कोई प्रमाण नहीं है कि इंटरनेट शटडाउन कानून और व्यवस्था बनाए रखने में प्रभावी रहा है. 2021 में, इस तरह के साक्ष्य प्रस्तुत करने में भारत सरकार की विफलता के बाद, संचार और सूचना प्रौद्योगिकी पर संसदीय स्थायी समिति ने अपने निष्कर्ष में कहा, "अभी तक, इसका कोई साक्ष्य नहीं है कि सार्वजनिक आपातकाल से निपटने और सार्वजनिक सुरक्षा सुनिश्चित करने में इंटरनेट शटडाउन प्रभावी रहा है."

इंटरनेट तक पहुंच को व्यापक रूप से विभिन्न प्रकार के मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने वाला अनिवार्य साधन माना जाता है. ये अधिकार नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय समझौता(आईसीसीपीआर) और अन्य मानवाधिकार मंचों, जिनमें भारत शामिल है, द्वारा गारंटीशुदा हैं. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने 2016 में प्रस्ताव पारित कर इंटरनेट शटडाउन की साफ तौर पर  निंदा की और सभी राज्यों से "ऐसे उपायों से बचने और इन्हें समाप्त करने" की मांग की. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने कहा है कि व्यापक इंटरनेट शटडाउन अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कानून का उल्लंघन करते हैं. 2021 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने जोर देकर कहा कि इंटरनेट की सार्वभौमिक पहुंच को 2030 तक मानवाधिकार के रूप में सुनिश्चित किया जाना चाहिए.

इंटरनेट शटडाउन भारत सरकार की डिजिटल स्वतंत्रता संबंधी प्रतिबद्धताओं के भी खिलाफ  है. जून 2022 में, भारत ने जी7 देशों और चार अन्य देशों के साथ एक बयान पर हस्ताक्षर किया जिसमें " मुक्त, निःशुल्क, वैश्विक, सूचनाओं के विनिमय और उपयोग में सक्षम, विश्वसनीय और सुरक्षित इंटरनेट" सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता जताई गई.

इंटरनेट फ़्रीडम फ़ाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक अपार गुप्ता ने कहा, “भारत सरकार को सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के बारे में आधारहीन तर्क देना बंद करना चाहिए. इसके बजाय यह ध्यान देना चाहिए कि कैसे इन प्रतिबंधों ने लोगों के जीवन को पूरी तरह ठप कर दिया है, कुछ मामलों में तो ऐसे नुकसान हुए हैं जिनकी भरपाई नहीं की जा सकती. सरकारी तंत्र को चाहिए कि देश की प्रतिष्ठा और यहां के लोगों, दोनों को गंभीर रूप से आघात पहुंचाने वाले इंटरनेट शटडाउन के दमनकारी तौर-तरीके का इस्तेमाल बंद करे."

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