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भारत: असम में नागरिक पहचान के कारण 40 लाख लोग निकाल बाहर किए जा सकते हैं

सभी निवासियों के लिए अधिकार और इंसाफ़ सुनिश्चित करें

नगांव जिले के एक गांव स्थित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर केंद्र में मसौदे सूची में अपने नामों की जांच का इंतजार करते लोग  © रॉयटर्स

(न्यू यॉर्क, 31 जुलाई, 2018) - ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने आज कहा कि भारत सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पूर्वोत्तर राज्य असम में नागरिकों की पहचान का दस्तावेजीकरण और नवीनीकरण पारदर्शी और निष्पक्ष तरीके से हो. 40 लाख से अधिक लोगों, जिनमें से ज्यादातर मुस्लिम हैं, के निकाल बाहर कर दिए जाने की आशंका पैदा हो गई है जो कि मनमाने तरीके से उन्हें हिरासत में रखने और बिना उचित प्रक्रिया के राज्यविहीन करार देने की चिंताओं को दर्शाती है.

30 जुलाई, 2018 को असम सरकार ने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का एक मसौदा प्रकाशित किया. इसका मकसद था - बांग्लादेश से होने वाले गैर कानूनी प्रवासन के मुद्दे पर बार-बार के विरोध प्रदर्शनों और हिंसा को देखते हुए भारतीय नागरिकों और वैध निवासियों की पहचान करना. इस रजिस्टर में केवल उन लोगों को नागरिकों के रूप में सूचीबद्ध किया जाता  है जो यह साबित कर सकें कि उन्होंने या उनके पूर्वजों ने बांग्लादेश के निर्माण के लिए होने वाले युद्ध की पूर्व संध्या 24 मार्च, 1971 की मध्यरात्रि से पहले भारत में प्रवेश किया था.  असम के विभिन्न राजनीतिक दलों और जातीय समूहों ने इस पंजीकरण नवीनीकरण की मांग की थी, और इस प्रक्रिया की निगरानी सर्वोच्च न्यायालय कर रहा है.

ह्यूमन राइट्स वॉच के दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “असम लंबे समय से अपनी जातीय पहचान को संरक्षित करने की मांग करता रहा है, लेकिन लाखों लोगों को राज्यविहीन करार देना इसका समाधान नहीं है. भारत सरकार को असम के मुसलमानों और अन्य कमजोर समुदायों के अधिकारों को सुनिश्चित करने और उन्हें राज्यविहीन होने से बचाने के लिए तत्काल कदम उठाना चाहिए.”

सरकार ने कहा है कि यह एक मसौदा सूची है और जिनके नाम रजिस्टर में दर्ज नहीं हैं वे 28 सितंबर तक इसमें सुधार का दावा कर सकते हैं. असम के वित्त और स्वास्थ्य मंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने कहा, “किसी को भी हिरासत शिविरों में नहीं भेजा जाएगा. उनके अधिकार या सुविधाएँ सिर्फ इस कारण वापस नहीं ले लिए जाएंगे कि एनआरसी के मसौदे में उनके नाम नहीं हैं.” केंद्र सरकार ने यह भी कहा है कि अंतिम सूची दिसंबर में प्रकाशित होने के बाद भी जिन आवेदकों के नाम छूट जाएंगे वे विदेशी नागरिक ट्रिब्यूनल में सुधार का दावा कर सकते हैं.

हालांकि, सरकार ने उन लोगों के लिए कोई आधिकारिक नीति तैयार नहीं की है जो एनआरसी से बाहर रह जाएँगे और जिन्हें ट्रिब्यूनल विदेशी घोषित कर देगी. दिसंबर 2017 में, शर्मा ने कहा था, “असम में रहने वाले अवैध बांग्लादेशियों की पहचान के लिए एनआरसी तैयार किया जा रहा है और जिनके नाम एनआरसी की सूची में नहीं आते हैं, उन्हें निर्वासित होना होगा.”

हालांकि, बांग्लादेश इस दावे पर सहमत नहीं है कि ये लोग अवैध प्रवासी हैं. इस कारण इनके बांग्लादेश निर्वासन की संभावना ख़त्म हो जाती है. निर्वासन के मसले पर भारत का बांग्लादेश के साथ पर कोई समझौता नहीं है.

असम में बांग्लादेश से अवैध प्रवास लंबे समय से विस्फोटक मुद्दा रहा है और हाल के वर्षों में मतदाता सूची में इन तथाकथित “अवैध आप्रवासियों” को शामिल करने पर चिंताएं बढ़ी हैं. असम में “मूल निवासी” नागरिकों के दावों की रक्षा के लिए सशस्त्र समूहों द्वारा बाहरी लोगों को निशाना बनाए जाने का लंबा इतिहास रहा है.

मई 2018 में, असम में नागरिकता संशोधन विधेयक पर विरोध प्रदर्शन हुए. इस विधेयक में  अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, पारसी और ईसाइयों को नागरिकता प्रदान की बात कही गई है. प्रस्तावित कानून में जानबूझकर मुसलमानों को नागरिकता से वंचित किया गया है, इसमें शिया और अहमदिया जैसे मुसलमान शामिल हैं, जिन्हें पाकिस्तान में उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है. असम में कई समूहों को डर है कि इससे राज्य में हिंदू बांग्लादेशी प्रवासियों का प्रवाह बढ़ जाएगा.

एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के कार्यकारी निदेशक आकार पटेल ने कहा, “एनआरसी को दशकों से भारत में रहने वाले और देश के साथ मजबूत संबंध स्थापित कर चुके लोगों को राज्यविहीन बनाने का राजनीतिक हथियार नहीं बनाया जाना चाहिए. दावों और अपील की प्रक्रिया के दौरान, राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि एनआरसी से बाहर किए गए लोगों को किसी भी सरकारी सुविधा से वंचित नहीं किया जाए, न ही उन्हें किसी अन्य तरीके से निशाना बनाया जाए या बदनाम किया जाए.”

 

पृष्ठभूमि

1951 के बाद पहली बार असम के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का नवीनीकरण किया जा रहा है, और अब तक आवेदन देने वाले 3 करोड़ 29 लाख लोगों में से 2 करोड़ 89 लाख लोगों को भारतीय नागरिक के रूप में सत्यापित किया जा चुका है. सत्यापन प्रक्रिया में राज्य के निवासियों से दो प्रकार के दस्तावेज एकत्र किए जाते हैं. सूची-ए में विरासत संबंधी आकड़ें होते हैं, जिसमें 1951 का एनआरसी और 1971 तक की मतदाता सूची शामिल हैं. ये दस्तावेज यह साबित करने के लिए मांगे जाते हैं कि आवेदक के पूर्वज 1971 से पहले असम में रहते थे. सूची-बी में आवेदक के जन्म प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेज होते हैं जो सूची-ए में दर्ज उनके माता-पिता या दादा-दादी से उनके संबंध स्थापित करते हैं. फिर एनआरसी इन दस्तावेजों की पुष्टि करता है और प्रत्येक आवेदक के लिए एक वंश-वृक्ष तैयार करता है.

नागरिक समाज समूहों और मीडिया की फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट्स यह बताती हैं कि एनआरसी प्रक्रिया त्रुटि रहित या पूर्वाग्रह मुक्त नहीं है. कई रिपोर्ट्स के मुताबिक, अपनी नागरिकता की स्थिति को साबित करने वाले वैध दस्तावेजों वाले लोग भी वर्तनी की गलतियों या विभिन्न दस्तावेजों में अलग-अलग नाम दर्ज होने जैसी तकनीकी वजहों से अपने नाम दर्ज नहीं करा पाए हैं. एनआरसी के अधिकारियों ने बताया कि कभी-कभी एक ही नाम वाले कई लोग पुराने रिकॉर्ड में साथ सामने आते हैं जो कि भ्रम पैदा करता है.

असम में लाखों भारतीय, जो अक्सर बुनियादी चीज़ों पर गुज़ारा करते हैं, के पास नागरिकता के दावों को स्थापित करने के लिए ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं हैं.

एनआरसी प्राधिकार द्वारा जरूरी दस्तावेजों और अधिसूचनाओं में बदलाव ने भी प्रक्रिया को प्रभावित किया है. उदाहरण के लिए, मार्च 2017 में, गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि पंचायत सचिव द्वारा जारी आवास प्रमाणपत्र का कोई वैधानिक आधार नहीं है और एक लिंक दस्तावेज़ के रूप में इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. यह पचास लाख से अधिक उन विवाहित महिलाओं के लिए काफी बड़ा झटका था, जिन्होंने अपने माता-पिता से संबंध सत्यापित करने के लिए इसका इस्तेमाल किया था. दिसंबर 2017 में, सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को बदलते हुए दस्तावेज के उपयोग की इजाजत दी, बशर्ते इसकी प्रमाणिकता सत्यापित हो.

एनआरसी “संदिग्ध” मतदाताओं को नागरिकता सूची में शामिल होने के लिए आवेदन देने की इजाजत देता है लेकिन उनके नाम तब तक शामिल नहीं करता है जब तक कि विदेशी नागरिक ट्रिब्यूनल उन्हें गैर-विदेशी के रूप में घोषित न कर दे. विदेशी नागरिक ट्रिब्यूनल एक वैधानिक प्राधिकार है जो असम में अवैध आप्रवासियों का पता लगाने के लिए स्थापित किया गया है.

हालांकि, मई 2018 में एनआरसी के राज्य समन्वयक ने सभी जिलों को यह नोटिस भेजी कि “घोषित विदेशियों” के सहोदर भाई-बहनों और परिवार के अन्य सदस्यों की नागरिकता भी स्थगित रखी जाएगी और उन्हें एनआरसी में तब तक शामिल नहीं किया जाएगा जब तक कि ट्रिब्यूनल उनके बारे में फैसला न करे. राज्य समन्वयक ने सीमा पुलिस के अधिकारियों को भेजे एक आदेश में “घोषित विदेशियों” के परिवार के सदस्यों को ट्रिब्यूनल के समक्ष प्रस्तुत करने को कहा. इस आदेश में किसी को ट्रिब्यूनल के समक्ष प्रस्तुत करने से पहले पुलिस द्वारा पूर्व जांच करने का जिक्र नहीं किया गया. एक बार किसी व्यक्ति के मामले को ट्रिब्यूनल के समक्ष प्रस्तुत कर देने के बाद, उन्हें तब तक एनआरसी में शामिल नहीं किया जा सकता है जब तक कि उनकी नागरिकता निर्धारित नहीं हो जाती.

जून 2018 में, चार संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने भारत सरकार को एक पत्र लिखा. इसमें “बंगाली मूल के मुस्लिमों के साथ बतौर जातीय, धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक और कथित विदेशी होने के कारण भेदभाव और हिंसा के इतिहास की पृष्ठभूमि में” एनआरसी प्रक्रिया के भेदभावपूर्ण होने की बात कही गई है. पत्र में विदेशी नागरिक ट्रिब्यूनल द्वारा बंगाली मुस्लिमों को असंगत रूप से प्रभावित करने और निशाना बनाए जाने को भी उठाया गया है. इस पत्र में इन आरोपों की ओर इशारा किया कि भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली नई सरकार के सत्ता में आने के परिणामस्वरूप ट्रिब्यूनल द्वारा लोगों को विदेशी ठहराने के मामले में उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है. इसके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में बंगाली मुसलमानों के राज्यविहीन हो जाने या हिरासत में लिए जाने का खतरा उत्पन्न हो गया है.

वर्तमान में, असम में छह जेल हिरासत केंद्रों के रूप में तब्दील कर दिए गए हैं जहाँ एक हज़ार से ज्यादा लोग हिरासत में रखे गए हैं. राज्य प्रशासन को तीन हज़ार बंदियों के लिए एक नया हिरासत केंद्र खोलने की अनुमति मिली है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अल्पसंख्यकों के विशेष निरीक्षक की एक फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट में पाया गया है कि इन केंद्रों में बंदी रिहाई की आशा के बगैर, अपर्याप्त कानूनी नुमाइंदगी के साथ ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं जो कि घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कानूनों की अवहेलना है. राज्य में इन बंदियों के अधिकारों के दिशानिर्देशों की अनुपस्थिति में, इन केंद्रों को जेलों के रूप में चलाया जाता है और बंदियों के साथ सज़ायाफ्ता कैदी जैसा व्यवहार किया जाता है. इसके अलावा, उन्हें पैरोल पर छोड़े जाने और मजदूरी करने  जैसे कैदियों के अधिकार नहीं हैं और उन्हें दिन में भी अपने बैरकों से बाहर जाने की इजाज़त  नहीं है.

रिपोर्ट में पाया गया कि हिरासत केंद्रों में बच्चों को उनके माता-पिता से भी अलग कर दिया गया है. इस रिपोर्ट में ऐसे मामले का जिक्र है जिनमें एक बच्चे को भारतीय और उसके माता-पिता दोनों को विदेशी घोषित कर दिया गया. छह साल से कम उम्र के बच्चे को हिरासत केंद्र में मां के साथ रहने की इजाजत दी गई है, लेकिन छह साल से बड़े बच्चों की कानूनी देखरेख का मामला अस्पष्ट है.

मनमाने तरीके से हिरासत पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह ने कहा है कि शरण मांगने वालों या आप्रवासियों को विशेष रूप से इस उद्देश्य के लिए बने केन्द्रों में हिरासत में रखा जाना चाहिए. या जब व्यावहारिक कारणों से, यह मामला नहीं है तो उन्हें निश्चय ही आपराधिक कानून के तहत कैद व्यक्तियों से अलग परिसर में रखा जाना चाहिए.

ह्यूमन राइट्स वॉच और एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया लंबे समय से आप्रवासियों के हिरासत, खासकर जिन परिवारों के साथ बच्चे होते हैं, उनके हिरासत के अनावश्यक उपयोग के खिलाफ वकालत करता आ रहा है.

सभी के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और नस्ल, रंग, जन्म या राष्ट्रीय या जातीय पहचान के आधार पर नागरिकता से वंचित होने से रोकने के लिए भारत पर नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध और नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों को खत्म करने के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के तहत अंतर्राष्ट्रीय बाध्यता भी है.

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