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भारत: मणिपुर में पीड़ित परिवारों और कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न

सुरक्षा बलों द्वारा किए गए उत्पीड़न की जांच के लिए न्यायालय के आदेशों का पालन करें

25 जनवरी, 2008 को नई दिल्ली में, सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफ्सपा) के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करती मणिपुरी महिलाएं.  © 2008 रॉयटर्स

(न्यू यॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा कि भारत के मणिपुर राज्य की पुलिस ने सरकारी सुरक्षा बलों द्वारा की गई कथित ग़ैरक़ानूनी हत्याओं के लिए न्याय की मांग करने वाले कार्यकर्ताओं, वकीलों और परिवारों को धमकी दी है और उन्हें हैरान-परेशान किया है. जुलाई 2017 में, सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर के पीड़ित परिवारों और गैर-सरकारी समूहों द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को पुलिस, सेना और अर्धसैनिक बलों द्वारा की गई 98 हत्याओं की जांच का निर्देश दिया. याचिका में, साल 1979 से 2012 के बीच हुई 1528 मौतों की जांच की मांग की गई थी.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने मांग की है कि मणिपुर सरकार और पुलिस को उत्पीड़नकारी कार्रवाई बंद कर देनी चाहिए और सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हो रही जांच में पूरी तरह सहयोग करना चाहिए.

ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, "सुरक्षा बलों द्वारा की गई कथित ग़ैरक़ानूनी हत्याओं की सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से हो रही जांच ने मणिपुर के सैकड़ों पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के परिवारों के लिए न्याय और दंड-मुक्ति की संस्कृति के खात्मे की उम्मीद जगाई है. सुरक्षा बलों ने जांच बाधित करने के अपने अनगढ़ और चिरपरिचित अंदाज में कार्यकर्ताओं और पीड़ित परिवारों को धमकाने का प्रयास किया है. सरकार को इन हत्याओं की जांच में दोगुनी ताकत लगा देनी चाहिए और इसके लिए जिम्मेदार लोगों पर मुकदमा चलाना चाहिए."

सलीमा मेम्चा ने, जिनके पति की हत्या साल 2010 में कथित असम राइफल्स के सदस्यों ने कर दी गई थी, 7 अप्रैल, 2018 को मणिपुर के पुलिस महानिदेशक को पत्र लिखकर बताया कि पुलिस कमांडो ने उस दिन सुबह थौबल जिले स्थित उनके घर आकर धमकी दी और परेशान किया. एक्स्ट्राज्यूडिसिअल एक्जिक्यूशन विक्टिम फैमिली एसोसिएशन (ईईवीएफएएम) की सदस्य मेम्चा 2012 में सुप्रीम कोर्ट में दायर मामले में याचिकाकर्ता हैं. उन्होंने ने कहा कि पुलिस कार्रवाई "न्याय मांगने की मेरी कोशिश का सीधा प्रतिशोध है."

गंभीर उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार लोगों को बचाने के बजाय, सरकार को चाहिए कि वह जांच में सहयोग करे और अफ्सपा कानून को रद्द करे.
मीनाक्षी गांगुली

दक्षिण एशिया निदेशक

मेम्चा ने बताया कि पुलिस सुबह पांच बजे उनके घर आई, आधे घंटे तक घर की तलाशी ली, उनके निजी सामान को तितर-बितर कर दिया, उनकी तस्वीर ली और उन्हें "गंभीर नतीजे" भुगतने की धमकी दी. उन्होंने कहा कि पुलिस की तलाशी के कारण उस दिन वह राजधानी इम्फाल नहीं जा पाईं जिसके कारण वह अपनी पति की हत्या की जांच कर रहे राज्य के अपराध जांच विभाग (सीआईडी) के समक्ष गवाही नहीं दे सकीं. सीबीआई जांच के अलावा, मणिपुर राज्य की सीआईडी भी मेम्चा के पति का मामला समेत सुरक्षा बलों द्वारा कथित गैर-न्यायिक हत्याओं के कई मामलों की जांच कर रही है.

सुप्रीम कोर्ट में एक याचिकाकर्ता ह्यूमन राइट्स अलर्ट की कार्यकर्ता रंजीता सदोकपम ने बताया कि 27 फरवरी को आधी रात एक बजे पुलिस और सैन्यकर्मी एक नकाबपोशधारी आदमी के साथ उनके घर में घुस आए. पुलिस महानिदेशक से एक लिखित शिकायत में उन्होंने आरोप लगाया कि सुरक्षा कर्मियों ने उनके परिवार के सभी सदस्यों की पहचान से जुड़े दस्तावेजों को दिखाने को कहा और सभी से एक ऐसे दस्तावेज पर जबरन हस्ताक्षर करवाए जिसके मज़मून की जानकारी उन्होंने नहीं दी.

8 फरवरी की रात लगभग 3 बजे तीन पुलिस कमांडो ने गिरफ्तारी या सर्च वारंट के बिना कार्यकर्ता मनोज थोकचॉम के घर में कथित तौर पर प्रवेश किया, उन्हें हिरासत में लिया और उनसे पूछताछ की. मणिपुर स्थित ह्यूमन राइट्स इनिशटिव फॉर इंडिजेनस एडवांसमेंट एंड कनफ्लिक्ट रेजोल्यूशन के संस्थापक थोकचॉम ने 2012 में सुप्रीम कोर्ट में गैर-न्यायिक हत्या सम्बन्धी याचिका दायर करने में भी योगदान किया है. थोकचॉम ने आरोप लगाया कि उन्हें पंद्रह घंटे तक हिरासत में रखा गया. इस दौरान उनसे सशस्त्र समूहों के साथ संबंधों और सुप्रीम कोर्ट मामले में उनकी भागीदारी के बारे में सवालात किए गए.t

ईईवीएफएएम के एक अन्य सदस्य सगोलसेम मेनजोर सिंह, जिनके बेटे को 2009 में सुरक्षा बलों ने कथित रूप से मार डाला था, ने बताया कि 8 जनवरी की सुबह साढ़े छह बजे पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने उनके घर पहुंची. वह घर पर नहीं थे और उनकी पत्नी ने बताया कि पुलिस ने उन्हें वारंट दिखाने से इनकार कर दिया. सिंह ने 8 फरवरी को राज्य के मुख्यमंत्री को लिखे पत्र में, अपने खिलाफ जारी वारंट की एक प्रति मुहैया कराने या फिर सरकार से उत्पीड़न में शामिल पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की.

गैर-न्यायिक हत्याओं के पीड़ित परिवारों की सहायता करने वाले वकील ओकराम नुतांकुमार सिंह ने कहा कि उन्होंने 14 अक्टूबर 2017 को रात लगभग साढ़े आठ बजे अपने घर पर गोलीबारी की आवाज सुनी. अगले दिन, उन्होंने शिकायत दर्ज कराई लेकिन पुलिस ने अभी तक इस मामले की जांच नहीं की है.

मेम्चा मामले में, थौबल जिले के पुलिस अधीक्षक ने समाचार वेबसाइट स्क्रॉल.इन को बताया कि पुलिस "नियमित गश्त और तलाशी अभियान" के तहत उनके घर पर गई थी और अहले सुबह में ऐसी कार्रवाई मानक प्रक्रिया के तहत होती है.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा है, "मणिपुर सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पीड़ितों के परिवारों, गवाहों और वकीलों को सुरक्षा दी जाय और सीबीआई एवं राज्य सीआईडी दोनों  निष्पक्ष, पारदर्शी और समयबद्ध तरीके से जांच करें."

सुप्रीम कोर्ट का 2017 का आदेश जुलाई 2016 के उसके अपने ही ऐतिहासिक निर्णय की निरंतरता में था जिसमें वर्दीधारियों द्वारा अत्यधिक या जवाबी बल के इस्तेमाल से मौत के किसी भी आरोप में ऐसी घटना की पूरी जांच की बात कही गई है. अदालत ने यह भी कहा है कि "आतंकवादियों, विद्रोहियों और दहशतगर्दों के खिलाफ" भी ऐसी शक्ति के इस्तेमाल की अनुमति नहीं है.

जवाबदेही की कमी

अदालत ने यह भी कहा कि राज्य पुलिस न केवल इन कथित गैर-न्यायिक हत्याओं के मामले में किसी भी पुलिस अधिकारी या अन्य सुरक्षा बल कर्मियों के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) दर्ज करने में नाकाम रही, बल्कि इसकी बजाय उसने उग्रवादी होने के आरोप में मृतक के खिलाफ ही एफआईआर दर्ज कर दी. सरकार और सेना ने हत्याओं की किसी भी जांच का विरोध किया, इस बात पर जोर देते हुए कि मारे गए सभी लोग आतंकवादी थे जो जवाबी कार्रवाई के दौरान मारे गए. सेना ने कहा कि जम्मू, कश्मीर और मणिपुर जैसे हिंसक क्षेत्रों में उनके द्वारा की गई जवाबी कार्रवाई की जांच नहीं की जा सकती.

जवाबदेही सुनिश्चित करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निष्प्रभावी करने का स्पष्ट प्रयास करते हुए, सीबीआई ने अपने द्वारा दाख़िल ज्यादातर एफआईआर से सुरक्षा कर्मियों के नाम हटा दिए हैं.

1958 के आपातकालीन कानून सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफस्पा) की वजह से मणिपुर में गंभीर उत्पीड़न के मामलों में जवाबदेही का अभाव गहरा गया है. इस क़ानून के अंतर्गत सशस्त्र बलों को आंतरिक संघर्षों में तैनात किया जाता है और उन्हें गिरफ्तारी, जांच और जान से मारने के लिए गोली चलाने के व्यापक अधिकार मिले हुए हैं. यह कानून उत्पीड़न करने वाले सैनिकों को अभियोजन से प्रभावी प्रतिरक्षा प्रदान करता है. इसका इस्तेमाल भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के अन्य हिस्सों और जम्मू और कश्मीर राज्य में भी किया जाता है. ह्यूमन राइट्स वॉच ने कहा कि अफस्पा ने हिंसा की संस्कृति को बढ़ावा दिया है. इसने मणिपुर राज्य पुलिस को इसी तरह के दुरुपयोग के लिए प्रोत्साहित किया है. 2004 में, मणिपुर की माताओं  ने गैर-न्यायिक हत्याओं के विरोध में असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने नग्न प्रदर्शन किया था और अफस्पा को निरस्त करने की मांग की थी. कई सरकारी आयोगों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने भी बर्बर अफस्पा को निरस्त करने की सिफारिश की है.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने सितंबर 2008 में एक रिपोर्ट "दीज फेलोज मस्ट बी एलिमिनेटेड" जारी की थी. इसमें मणिपुर, जहां 1950 के दशक में विद्रोह शुरू होने के बाद से करीब बीस हज़ार लोग मारे जा चुके हैं, में सभी पक्षों द्वारा किए गए मानवाधिकार हनन का दस्तावेजीकरण किया गया है.

गांगुली ने कहा, "मणिपुर में कई लोगों ने मानवाधिकार उल्लंघनों को समाप्त करने के लिए लंबे समय से अभियान चलाया है और सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हो रही जांच से न्याय और जवाबदेही तय होने की उम्मीद बंधी है. गंभीर उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार लोगों को बचाने की कोशिश करने के बजाय  सरकार को जांच में सहयोग करना चाहिए और अफस्पा कानून को रद्द कर देना चाहिए." 

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