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बर्माः सैन्य अत्याचारों की कहानी रोहिंग्या की जुबानी

'नस्ली संहार' की बानगी है सेना का 'अधूरा काम'

अकेले म्यानमार के खैमांग सईक गांव से भाग कर बांग्लादेश पहुंचीं साठ वर्षीय रोहिंग्या विधवा शमसुन नाहर (बाएं), जिनका 30 वर्षीय बेटा लापता है, कॉक्स बाजार स्थित कुटुपालांग अस्थाई शिविर में अपनी कहानी बताती हुईं, , 4 सितंबर, 2017, बांग्लादेश. © 2017 मोहम्मद पूनीर हुसैन/रायटर

(न्यू यॉर्क) - ह्यूमन राइट्स वॉच ने आज कहा,"बर्मा के रखाइन सूबे में बर्मा सुरक्षा बलों से बच कर भागने वाले नस्ली रोहिंग्या मुसलमानों ने अपने गांवों में हत्याओं, गोलीबारी और आगजनी का जो वर्णन किया है, वह पूरी तरह 'नस्ली संहार' की सैन्य कार्रवाई जैसी है."

आराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (एआरएसए) के लड़ाकों द्वारा 25 अगस्त, 2017 को करीब 30 पुलिस चौकियों और एक सैन्य छावनी पर किए गए हमलों के बाद बर्मा की सेना, पुलिस और नस्ली रखाइन हथियारबंद समूहों ने रोहिंग्या बहुल गांवों में सैन्य कार्रवाई की. बर्मा की सेना के कमांडर सीनियर जनरल मिन आंग ह्लाइंग ने मीडिया को बताया कि रखाइन राज्य में सरकार की मंज़ूरी से चल रही सैन्य कार्रवाई उस कार्रवाई का हिस्सा है जो दूसरे विश्व युद्ध के समय से ही "अधूरी" पड़ी थी.

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को आपात आम सभा बुलाकर बर्मा की सरकार को चेतावनी देनी चाहिए कि अगर वे रोहिंग्या आबादी के खिलाफ क्रूर सैन्य अभियान ख़त्म नहीं करते तो उन्हें कड़े प्रतिबंधों का सामना करना पड़ेगा.

 ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, "रोहिंग्या शरणार्थियों के पास बर्मा की सेना के हमलों से बचकर भागने और अपने गांवों को नष्ट किए जाने के भयावह दृश्यों के विवरण हैं. सशस्त्र समूहों के खिलाफ वैध कार्रवाइयों में स्थानीय आबादी को उनके घरों को जलाकर भगाना शामिल नहीं होता है."

सितंबर के शुरू में, ह्यूमन राइट्स वॉच ने सीमा पार कर बांग्लादेश चले आए 50 से अधिक रोहिंग्या शरणार्थियों का साक्षात्कार किया और लगभग एक दर्जन लोगों से विस्तृत जानकारी ली.  रोहिंग्या लोगों ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि बर्मा सरकार के सुरक्षा बलों ने ग्रामीणों पर हथियारों से हमला किया, उन्हें गोली और बमों से जख्मी किया और उनके घरों को जला दिया. उन्होंने बताया कि हमलों में सेना ने छोटे हथियारों, मोर्टारों और हथियारों से लैस हेलिकॉप्टरों का इस्तेमाल किया.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने उपग्रह से आंकड़े और तस्वीरें प्राप्त की हैं जो उत्तरी रखाइन राज्य की आगजनी की व्यापक घटनाओं से मेल खाती हैं, जिसमें रत्थेडांग, बूथिडांग और मोंगडॉ के शहर शामिल हैं. अब तक, ह्यूमन राइट्स वॉच को ऐसे 21 अलग-अलग स्थान मिले हैं जहां उपग्रहों की हीट सेंसिंग तकनीक ने खास और बड़ी आगजानी की घटनाओं का पता लगाया है. बांग्लादेश के जानकार सूत्रों ने ह्यूमन राइट्स वॉच को बताया कि उन्होंने बर्मा में सीमा के पास के गांवों में भारी और हल्की मशीन गन और मोर्टार से हुई गोलाबारी की अलग-अलग आवाजें सुनीं और इसके कुछ ही समय बाद इन गांवों से धुआं उठते देखा.

बर्मा की सरकार ने सुरक्षा बल के उत्पीड़न से इनकार किया है. उसका दावा है कि सुरक्षा बल आतंकवाद निरोधक अभियान में लगे हुए हैं, जिसमें लगभग 400 लोग मारे गए हैं,  इनमें  अधिकांश संदिग्ध आतंकवादी हैं. अपने दावों को प्रमाणित किए बिना बर्मा के अधिकारियों ने जोर देकर कहा है कि आतंकवादियों और रोहिंग्या ग्रामीणों ने उत्तरी रखाइन राज्य के 60 गांवों के 6,845 घरों को जलाया है. शरणार्थियों के विवरण बर्मा के अधिकारियों के दावों का खंडन करते हैं.

उदाहरण के लिए, मोंगडॉ शहर की 32 वर्षीय रोहिंग्या महिला मोमीना ने बताया कि उनके गांव पर सुरक्षा बलों के हमले के एक दिन बाद 26 अगस्त को वह भाग कर बांग्लादेश चली आई.  उन्होंने बताया कि सैनिकों के घुसने के समय वह अपने बच्चों के साथ छिप गई थीं लेकिन गांव लौटने के बाद उन्होंने कुछ बच्चों और बुजुर्गों सहित 40 से 50 ग्रामीणों की लाशें देखी: "सभी पर चाकू या गोली के घाव के निशान थे. कुछ पर तो दोनों तरह के घाव थे. मेरे पिता की  लाश पड़ी हुई थी और उनकी गर्दन कटी हुई थी. मैं अपने पिता का अंतिम संस्कार करने में असमर्थ थी. मैं बस भाग खड़ी हुई."

कॉक्स बाजार अस्पताल में, ह्यूमन राइट वॉच ने ऐसे कई रोहिंग्या का साक्षात्कार किया जो गोलियों से घायल हुए थे. कुछ लोगों ने कहा कि उन्हें घर में गोली मारी गई जबकि दूसरों ने बताया कि उन्हें गोली तब लगी जब वे अपने गांवों से सुरक्षित निकलने के लिए भाग रहे थे या बर्मा के सैनिकों से बचने के लिए खेतों या पहाड़ियों में छुपे हुए थे.

25 से 28 अगस्त, 2017 के बीच उपग्रह सेंसरों द्वारा पता लगाए गए सक्रिय आग के स्थलों को दर्शाता  मानचित्र (बता दें कि बॉक्स का आकार पता लगाई गई आग की व्यापकता का प्रतिनिधित्व नहीं करता है.)   © ह्यूमन राइट्स वॉच, 2017.

बीस वर्षीय उस्मान गनी  ने बताया कि जब वह अपने पांच दोस्तों के साथ अपने गांव के बाहर  पहाड़ियों में मवेशी चरा रहे थे, उन पर हमला हुआ. उन्होंने अपने सर के ऊपर एक हेलीकाप्टर उड़ता देखा और फिर इससे कोई चीज नीचे गिरी. बाद में उन्हें एहसास हुआ कि हेलिकॉप्टर से जो भी चीज गिरायी गई, वे उसकी चपेट में आ गए. उनके चार दोस्त उसकी चोट से मर गए जबकि ग्रामीणों ने इलाज के लिए गनी को बांग्लादेश पहुंचा दिया. अस्पताल में ह्यूमन राइट्स वॉच ने जिस वक्त उनसे मुलाकात की, उनके शरीर में धंसे हुए टुकड़ों को हटाया नहीं गया था.

रखाइन राज्य की वर्तमान स्थिति के बारे में ह्यूमन राइट वॉच की प्रारंभिक जांच नस्ली नरसंहार की कार्रवाई का संकेत करती है. हालाँकि "नस्ली नरसंहार" औपचारिक रूप से अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत परिभाषित नहीं है, संयुक्त राष्ट्र आयोग के विशेषज्ञों ने इस शब्द  को "एक नस्ली या धार्मिक समूह द्वारा हिंसक और आतंक-पैदा करने के तरीकों से दूसरे नस्ली या धार्मिक समूह की नागरिक आबादी को कुछ खास भौगोलिक क्षेत्रों से निकालने की सोची-समझी नीति के रूप में परिभाषित किया है..... यह उद्देश्य वहिष्कृत समूह या समूहों को बाहर करने के लिए क्षेत्र पर कब्जा करना प्रतीत होता है."

गांगुली ने कहा, "इसके कोई संकेत नहीं है कि रखाइन राज्य में हमने और दूसरों ने जिस भयावहता को उजागर किया है, वह रुकने का नाम ले रही है. रोहिंग्या लोगों की घर वापसी की दिशा में पहले कदम के रूप में संयुक्त राष्ट्र और चिंतित सरकारों को म्यांमार पर इस बात के लिए दवाब बनाना चाहिए कि वह रोहिंग्या पर हो रहे इन भयावह उत्पीड़नों को तुरंत रोके."

रखाइन राज्य के मोंगडॉ बस्ती इलाके के गांवों पर हमला, 30 अगस्त से 5 सितंबर, 2017 के बीच, बांग्लादेश में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थियों के साक्षात्कारों पर आधारित

यासीन अली

25 साल के यासीन अली ने कहा कि बर्मा सुरक्षा बलों ने 27 अगस्त को उनके गांव रेखा पाड़ा पर हमला किया. इस हमले से पहले, रेखा पाड़ा और पड़ोस के रोहंगिया गांवों में तनाव पैदा हो गया था क्योंकि स्थानीय रखाइन लोग उन्हें कई महीनों से परेशान कर रहे थे. अली ने बताया, "वे हमारे पास आकर कहते कि यह तुम्हारी ज़मीन नहीं है. इस जमीन पर खेती करने और इस पर पैदा होने वाले अनाज को लेने की हिम्मत मत करो. अगर हम उनकी जमीन के पास जाते, तो वे हमें लाठी-डंडों से मारते थे."

27 अगस्त के हमले के दौरान सभी गांव वाले छिप गए. अली ने कहा कि महिलाओं और बच्चों को छिपने के लिए आगे भेजा गया, जबकि पुरुष पास रुक कर सैन्य कार्रवाई ख़त्म होने का इंतजार करते रहे कि सैनिकों की वापसी के बाद वे तुरंत गांव लौट सकेंगे.. उन्होंने बताया कि वह सैनिकों के दाखिल होने के रास्ते से करीब आधे किलोमीटर की दूरी पर सड़क के किनारे छिपे थे. उन्होंने जो सुना वह गाँव पर मोर्टार हमले की आवाज़ जैसा था: "मैंने धमाके की आवाज सुनी, और फिर देखा कि मकान गिरे हुए हैं." थोड़ी देर बाद उन्होंने देखा कि सैनिकों ने गांव की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया और आगे देखा कि उनके पास छोटे हथियार थे और जो हल्की मशीनगनों की तरह दिखते थे. उन्होंने यह भी कहा कि एक सैनिक के कंधे पर उन्होंने मोर्टार सिस्टम देखा और कुछ साफ़ तौर पर दिखाई दे रहे मोर्टार चकोतरा की तरह गोल थे.

अली ने कहा कि गांव में घुसते ही सैनिकों ने अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दी. इसके बाद उन्होंने अन्य ग्रामीणों के साथ छिपने के लिए पहाड़ियों में भागने का फैसला किया. पहाड़ियों से उन्होंने देखा कि जैतून हरे रंग के एक हेलिकॉप्टर ने उनके गांव का चार बार चक्कर लगाया. उन्होंने हेलीकॉप्टर से कुछ गिराए जाते हुए भी देखा जिसके बाद गांव के घरों में आग लग गई.

अली और उनका परिवार बांग्लादेश की ओर चले गए और सीमा पर तैनात सैनिकों ने उन्हें प्रवेश करने की अनुमति दे दी. वे 31 अगस्त को पहुंचे और ह्यूमन राइट्स वॉच के साथ बात-चीत करते समय बाहर इंतजार करते हुए वे यह पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि उन्हें कहाँ शरण मिलेगी.

मोमीना

32 वर्षीय मोमीना 26 अगस्त को अपने गांव किरगारी पाड़ा से अपने तीन बच्चों में से दो के साथ भाग खड़ी हुई थीं. उन्होंने कहा कि पूर्व में सैनिकों ने 2016 के अंत में सैन्य अभियानों के दौरान गांव पर हमला किया था, लेकिन तब से उनके गांव की स्थिति शांत थी. उन्होंने भागने के लिए मजबूर करने वाली घटनाओं का वर्णन किया:

मैंने शुक्रवार (25 अगस्त) को शाम चार बजे के आसपास लड़ाई की आवाज सुनी. बहुत शोर था, जो कि पहले के मुकाबले ज्यादा परेशान करने वाला था. मैंने अपनी आँखों से उन्हें (सैनिकों को) अपने गांव में घुसते देखा. मुझे नहीं पता कि वे कितने थे, लेकिन मुझे उनकी तादाद बहुत ज्यादा लगी. मैं अन्य ग्रामीणों के साथ भाग गई और हम रात भर जंगल में छिपे रहे. अगली सुबह सैनिकों के लौटने के बाद जब मैं गांव लौटी तो मैंने कुछ बच्चों और बुजुर्गों सहित 40 से 50 ग्रामीणों की लाशें देंखी. सभी पर चाकू या गोली के घाव थे. कुछ पर तो दोनों तरह के घाव थे. मेरे पिता की भी लाश पड़ी हुई थी और उनकी गर्दन कटी हुई थी.. मैं अपने पिता का अंतिम संस्कार करने में असमर्थ थी. मैं बस भाग खड़ी हुई.

मोमीना ने कहा कि उन्हें अपने पति और 10 साल के बेटे को पीछे छोड़ना पड़ा. उसके बाद से उनके बारे में उन्हें कोई खबर नहीं मिली है. उनके पति के पास कोई मोबाइल फोन नहीं है और वह जिन ग्रामीणों के संपर्क में है, उनके पास भी उन दोनों के बारे में कोई भी खबर नहीं है. उन्होंने सुना है कि उनकी मां ज़िंदा है लेकिन यह पता नहीं है कि वह कहाँ और कैसी हैं.

मोमीना ने कहा कि जंगल में छिपने के दौरान एक सुरक्षित स्थान से रात में उन्होंने अपने गांव के कुछ घरों को जलते हुए देखा. उनका मानना है कि सैनिकों ने ग्रामीणों को चेतावनी देने के लिए घरों में आग लगा दी थी.

मोमीना ने बताया कि वह गांव में मौजूद किसी भी सशस्त्र रोहंगिया उग्रवादियों के बारे में नहीं जानती. उन्होंने गांव में कुछ युवाओं को विरोध करने की बात करते सुना था, लेकिन ऐसी केवल चर्चा ही थी. उन्होंने कभी किसी को इस सिलसिले में कोई कार्रवाई करते नहीं देखा. उन्होंने कहा कि हमले के बाद कई युवा रोहिंग्या जंगल में भाग गए.

मोमीना ने कहा कि अपने गांव में पाई गई लाशों के अलावा, बांग्लादेश में दाखिल होने वाली  नाफ नदी के एक घाट पर उन्होंने कई बच्चों के शव देखे.

मोमीना ने कहा कि जब वह और उनके साथ भाग रहे दूसरे लोग बांग्लादेश में दाखिल हो गए, तो बांग्लादेश सीमा रक्षक बलों ने उन्हें रोक दिया और कहा: "हमें आपको रोकना होगा, लेकिन अगर आप शोर मचाएं और प्रवेश करने पर जोर दें, तो हम आपको अंदर आने देंगे." उन्होंने ऐसा करने को यह समझा कि गार्ड बांग्लादेश में शरणार्थियों के प्रवेश से मना करने के आदेशों का पालन करने का नाटक कर रहे हैं, लेकिन हकीकत में वे शरणार्थियों को देश में प्रवेश करने में मदद करते हैं.

खातिजा खातून

विधवा खातिजा खातून, अशिखा मुशी गांव में अपने चार बच्चों के साथ रहती थी. उन्होंने कहा कि 25 अगस्त को नस्ली रखाइन युवकों का एक सशस्त्र समूह उनके घर आया और अस्पष्ट  रूप से धमकियां दी. उन्होंने पिछली मुठभेड़ों के आधार पर उन युवाओं को पहचान लिया क्योंकि उनमें से ज्यादातर अक्टूबर 2016 में उनके समुदाय के विरूद्ध हुई हिंसा में शामिल थे.

खातून ने कहा कि उन्होंने कभी भी पिछली धमकियों की रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई क्योंकि "हम पुलिस पर भरोसा नहीं करते, हम सिर्फ बच निकलते हैं, हमारे पास यही एकमात्र उपाय है."

युवा राइफल और स्लिंगशॉट्स से लैस थे. उन्होंने समय-समय पर गोलीबारी की आवाज सुनी है और अन्य ग्रामीणों ने कहा है कि सेना रखाइन युवाओं की मदद कर रही थी, लेकिन उन्होंने अपनी आँखों से ऐसा होते नहीं देखा.

सशस्त्र रखाइन समूह द्वारा 22 वर्षीय रोहिंग्या युवा रहीम की हत्या के बाद, उन्होंने शुक्रवार दोपहर की नमाज़ के बाद उस दिन अपना गांव छोड़ने का फैसला किया. उन्होंने कहा कि शुरू में गांव के रोहिंग्या युवाओं ने बांस के डंडों से रखाइन समूह के सशस्त्र प्रदर्शन और धमकियों का जवाब दिया, लेकिन रखाइन समूह उन पर गोलियां बरसाने लगा.

उस शुक्रवार जब रखाइन सशस्त्र समूह के लोग मस्जिद के पास पहुंचे तब जुमा की नमाज़ ख़त्म ही हुई थीं और मर्द और लड़के मस्जिद के बाहर थे. रहीम और अन्य लोगों के पास केवल बांस के खंभे ही थे. उन्होंने उसे ही उठा लिया लेकिन रखाइन लोगों ने जब गोली चलानी शुरू की तो रहीम डर गया. उसने भागना शुरू किया. मैंने उन्हें रहीम को गोली मारते देखा. गोली उसकी गाल की हड्डी के दाएं और आंखों के नीचे से उसके गाल से होते हुए पार कर गई. उस घाव से उसकी मौत हो गई.
 

गोलीबारी देखने के बाद, खातून डर गईं और अपनी 13, 15 और 18 साल की तीन किशोर बेटियों के साथ पहाड़ियों में भाग गईं.  बेटियों की सुरक्षा का उन्हें सबसे ज्यादा डर था. उन्होंने अपने 5 साल के बेटे को गाँव में ही छोड़ दिया, कई रोहिंग्या की सोच थी कि छोटे बच्चे हमले से सुरक्षित रह सकते हैं, लेकिन तब से बेटे के बारे में उन्हें कोई खबर नहीं है.

उन्हें जानकारी मिली कि सशस्त्र रखाइन समूह वापस 26 अगस्त की अहले सुबह उनके गांव पर हमला करने आए थे. खातून ने बताया कि पहाड़ों में छिपे होने के दौरान उन्होंने कई हेलीकॉप्टर देखे. उन्होंने अपने गांव और उसके आसपास बम गिराए जाने की आवाज़ सुनने की बात भी बताई: "बम धमाकों की आवाज़ लगातार आ रही थी." उन्होंने अपने गांव की मस्जिद और एक घर को जलते हुए देखा.

खातून और उनकी बेटियों को बांग्लादेश प्रवेश करने में कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन वह अपनी बेटियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहती हैं और पीछे छोड़ आए अपने छोटे बेटे की अनिश्चितता और अपराध बोध से परेशान रहती हैं.

नुरुस सफा

करीब 40 वर्षीया नुरुस सफा  29 अगस्त को खामॉंगसिक इलाके के फहिरा बाजार गांव से भागीं. उनके बांग्लादेश पहुंचने के 24 घंटे से भी कम समय में जब ह्यूमन राइट्स वॉच ने उनसे मुलाकात कि तब वह सदमे में लग रही थीं. उन्होंने बताया,"बहुत से लोग चाकू से मार डाले गए, मकानों को जला दिया गया. हमें धमकी दी गई, लोग घायल थे, इसलिए मैं बस निकल भागी."

सफा ने कहा कि उनके गांव पर 25 अगस्त को वर्दीधारी लोगों ने हमला किया गया था. उनका अनुमान है कि वे बर्मा सेना के जवान थे. वह और उनके गांव के दूसरे लोग गांव से भाग खड़े हुए और पास की पहाड़ियों में कुछ दिनों तक छिपे रहे. उन्होंने अफवाहें सुनी थीं कि उनके गांव के कुछ रोहिंग्या युवा खुद को हथियारों से लैस कर रहे हैं और विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन उन्हें प्रत्यक्ष तौर पर इसकी जानकारी नहीं थी और उन्होंने इसके कोई संकेत नहीं देखे.

 

निकल भागने की आपा-धापी में सफा ने अपने छह बच्चों में से 7, 8 और 15 साल की उम्र के तीन बड़े बच्चों को वहीँ छोड़ दिया. उन बच्चों और अपने पति शफीक अहमद के बारे में उन्हें कोई समाचार नहीं मिला है. सफा ने बताया कि जब उन्होंने नाफ नदी पार किया तो मानसून की भारी बारिश के कारण पानी का स्तर उनकी गर्दन तक था. उन्होंने कहा कि कई घायल लोगों को उन्होंने नदी पार कर बांग्लादेश में प्रवेश करते देखा, लेकिन उन्हें पता नहीं कि वे कौन लोग थे या वे कैसे घायल हुए.
सफा कहती हैं कि बांग्लादेश में प्रवेश करते समय उनको और उनके छोटे बच्चों को बांग्लादेशी सीमा रक्षकों से कोई परेशानी नहीं हुई.

मोहम्मद यूनुस

26 वर्षीय मोहम्मद यूनुस ने कहा कि उनका गांव सिकादिर पाड़ा बांग्लादेश की सीमा के करीब तात यू चौंग इलाके में है. उनके गांव पर 26 अगस्त को हमला हुआ. हालांकि ग्रामीणों को इस हमले की कोई पूर्व चेतावनी नहीं थी, वे परेशान थे क्योंकि देश के भीतरी हिस्सों के गांवों के लोग अपने गांवों पर हुए हमलों से भाग निकल कर उनके गाँव पहुँच चुके थे. उन्होंने पड़ोसी गांव फलिंगा जिरी पर हमले का वर्णन किया:

मुझे चारों ओर उड़ रहे जैतून हरे रंग के सेना के हेलीकाप्टर याद आते हैं. मैं एक नहर के दूसरी ओर खड़ा था, यह सब सीधे अपने सामने होता देख रहा था. मैं बहुत करीब था और यह सब मैंने खुद से देखा. सैनिक ऐसी बंदूकों का इस्तेमाल कर रहे थे जिससे या तो गोली निकलती थी या फिर कुछ ऐसी चीज जो धमाका करती और आग लग जाती.

यूनुस  को पूरा अंदाजा  नहीं कि ऑपरेशन में कितने सैनिक शामिल थे, लेकिन उनका अनुमान है कि उनकी संख्या 250 से ज्यादा रही होगी. उन्होंने बताया कि सुरक्षित स्थान से उन्होंने देखा कि फलिंगा जिरी में लगभग 25 से 30 घरों को आग लगा दी गई. उन्होंने बताया कि हमले के समय उनके मुताबिक कोई ग्रामीण गांव में नहीं था, वे सब पहले ही भाग गए थे.

यूनुस और उसके साथी ग्रामीणों ने भी अपने गांव से जल्द भागने का फैसला कर लिया. अगले दिन, 27 अगस्त को जब वे पड़ोस की पहाड़ियों की ओर छिपने के लिए बढ़ रहे थे, तो उन्होंने सैनिकों और पुलिस को भाग रहे ग्रामीणों पर गोलियां बरसाते देखा. उन्हें बाद में जानकारी मिली कि एक महिला की हत्या कर दी गई.

यूनुस ने कहा कि उन्हें ऐसे रोहिंग्या पुरुषों के बारे में कोई जानकारी नहीं जो खुद को प्रशिक्षित या हथियारों से लैस कर रहे थे या जो किसी आतंकवादी गतिविधि में शामिल थे.

बेगम बेहार

बेगम बेहार ने कहा कि सैनिकों ने 25 अगस्त को उनके गांव कुन ते पाइन पर हमला किया. वे जैतून हरे रंग की वर्दी पहने हुए थे और उनका मानना है कि वे बर्मा की सेना के जवान थे. जब उन्होंने सैनिकों को देखा और गोलीबारी की आवाज़ सुनी तो डर कर अपने सात बच्चों और अन्य ग्रामीणों के साथ भाग गईं. सुरक्षा के लिए दो घंटे पैदल चलने के बाद वे जंगलों से गुजरते हुए सीमा पार कर बांग्लादेश पहुंचे.

बेहार ने कहा कि सीमा पार भागने के दौरान उन्होंने कम-से-कम तीन शव देखे. एक की गर्दन के पीछे कटे का निशान था और दो को गोली लगी थी. 26 और 27 अगस्त को जब वह नाफ नदी पार बांग्लादेश जाने का प्रयास कर रही थीं तब पूरे दिन उन्होंने बड़े हथियारों की गोलीबारी की "बूम बूमबूम" की आवाज़ सुनी. नदी पार करने के दौरान 12 वर्षीय बेटे से उनका संपर्क टूट गया और उन्हें पता नहीं कि वह जिन्दा है या नहीं.

बेगम बेहार ने कहा कि उन्हें  रोहिंग्या उग्रवादी प्रशिक्षण या सरकार विरोधी गतिविधियों की कोई जानकारी नहीं. उन्होंने बताया कि अधिकारियों ने सभी रोहिंग्या गांवों को स्थानीय नेताओं के पास अपने तेज हथियार जमा करने का आदेश दिया जिससे कि इन्हें पुलिस को सौंपा जा सके और किसी भी तरह का प्रतिरोध मुश्किल हो. उन्होंने बताया कि उनके 22 वर्षीय बेटे ने उनके गाँव छोड़ के जाने के फैसले का विरोध किया था और अपने अन्य बच्चों के साथ उनके गाँव छोड़ने के बाद भी वह वहीं रह गया.

तबारक हुसैन

19 वर्षीय हुसैन ने कहा कि 27 अगस्त को सुबह करीब 9 बजे बर्मा सुरक्षा बल के लगभग 200 से 300 वर्दीधारी सैनिक स्थानीय रखाइन लोगों के साथ उनके गांव कुन थी प्योन (रोहनिया में कवाशोंग) पहुंचे. उन्होंने कहा कि सभी हथियारों से लैस थे, लेकिन बहुत डरे हुए होने के कारण उन्होंने हथियारों को अच्छे से देखा तक नहीं. उन्होंने गांव में अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी.

हुसैन ने कहा कि हमले से पहले तनाव बढ़ रहा था:

इस घटना से पहले स्थानीय पुलिस बीते कम-से-कम छह महीने से हमें परेशान कर रही थी, हमारे साथ दुर्व्यवहार कर रही थी. उदहारण के लिए, वे हमारी गायों को ले गए. इन बातों को लेकर हम गुस्से में थे, लेकिन हमने विरोध नहीं किया; हमें पता था कि विरोध से कुछ नहीं होगा. फिर हमले से पहले शुक्रवार (25 अगस्त) को मेरे गांव में चार लोग (पुलिस द्वारा) मारे गए. मुझे ठीक-ठीक नहीं पता कि यह कैसे हुआ. वे सभी रोहिंग्या पुरुष थे. हमने उस दिन गांव छोड़ दिया और पहाड़ियों में छिप गए, लेकिन फिर वापस लौट आए क्योंकि लगा कि पुलिस गाँव से लौट चुकी है. हमने सोचा कि पुलिस की कार्रवाई खत्म हो गई, लेकिन ऐसा नहीं था.

हुसैन ने कहा कि जब 27 अगस्त का हमला शुरू हुआ, वह और अन्य ग्रामीण पहाड़ियों में भाग गए. एक पहाड़ी के ऊपर से, उन्होंने कुन थी प्योन गांव के ऊपर उड़ान भरते एक हेलीकॉप्टर देखा और उसके तुरंत बाद ही देखा कि गांव के घरों में आग लग गई. वह नहीं जानते कि घरों में आग कैसे लगी.

उन्होंने कहा कि 27 अगस्त के हमले में उनके गांव का कोई भी ग्रामीण न तो मारा गया और न ही घायल हुआ. वह दो दिनों तक चलते रहे और 29 अगस्त को बांग्लादेश की सीमा पर पहुंचे. उन्होंने कहा कि बांग्लादेश सीमा सुरक्षा गार्ड्स ने थोड़ी देर के लिए सीमा पर उनके समूह को रोका और फिर उन्हें बांग्लादेश में प्रवेश करने के लिए दूसरे रास्ते से जाने को कहा. समूह ने ऐसा ही किया और उन्हें प्रवेश करने की इजाजत मिल गई.

अनवर शाह

17 वर्षीय अनवर शाह ने कहा कि 27 अगस्त की सुबह बर्मा के वर्दीधारी सुरक्षा बलों ने उनके  गांव लेत हां चुंग में भीड़ पर गोलियां बरसाईं, जिसमें तीन रोहिंग्या पुरुष और एक लड़के की मौत हो गई और 18 अन्य घायल हो गए. उन्होंने कहा कि वे यह नहीं जानते कि गोलीबारी किन परिस्थितियों में हुई, लेकिन बीते कुछ समय से अधिकारियों और स्थानीय रखाइन और रोहिंग्या ग्रामीणों के बीच तनाव चल रहा था. उन्हें ऐसा नहीं लगता है कि मारे गए चारों के पास हथियार थे या उन्होंने सुरक्षा के लिए कोई खतरा पैदा कर दिया था. मृतकों में शाह के 22 वर्षीय भाई अब्दु सत्तार, करीब 50 वर्षीय अब्दु शुकुर, लगभग 15 साल के नूर आलम और करीब 25 वर्षीय हारून शामिल थे. उनके परिवारों ने उन्हें पड़ोसी गांव कुम पाड़ा में दफन किया क्योंकि वे उन्हें अपने गाँव में दफनाने को लेकर बहुत डरे हुए थे.

शाह ने कहा कि हमले के बाद उन्होंने देखा कि स्थानीय गांव की मस्जिद में आग लग गई. उन्होंने सुना है कि स्थानीय पुलिस ने आग लगाई लेकिन उन्होंने पुलिस को ऐसा करते नहीं देखा. 

शाह ने बताया कि अपने भाई की मौत के बाद वे बांग्लादेश भाग गए. उन्हें पता चला है कि अगले दिन 28 अगस्त को उनके गांव पर एक बड़ा हमला हुआ और सभी घरों को आग लगा दी गई.

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