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भारत: आलोचकों के साथ अपराधियों जैसा बर्ताव करना बंद करें

सरकार को अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खतरा बनने वाले सभी कानूनों को समाप्त या संशोधित करना चाहिए

 (नई दिल्ली, 24 मई 2016) – ह्यूमन राइट्स वाच द्वारा आज यहां जारी एक रिपोर्ट में कहा गया कि भारतीय अधिकारी नियमित आधार पर अस्पष्ट रूप से लिखे अत्यधिक विस्तृत कानूनों का राजनीतिक हथियार के रूप में प्रयोग करके आलोचकों को शांत करने और उनका उत्पीड़न करने के लिए प्रयोग करते हैं। सरकार को चाहिए कि शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति के अपराधीकरण के लिए प्रयोग किए जाने वाले कानूनों को या तो समाप्त कर दे या उनका संशोधन करे।

भारत का संविधान भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार की सुरक्षा करता है, लेकिन राजद्रोह और अपराधिक मानहानि जैसे हाल के और औपनिवेशिक कानून न केवल कानून की किताबों में हैं बल्कि उनका बार-बार आलोचकों का मुंह बंद करने के प्रयास में उपयोग किया जाता है।

ह्यूमन राइट्स वाच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली ने कहा, “भारत में दुरुपयोग किए जाने वाले कानून एक दमनकारी समाज का नमूना हैं, न कि एक जीवंत लोकतंत्र का।” “आलोचकों को कारगार में रखना या उन्हें लंबी और महंगी कानूनी कार्यवाही में अपनी रक्षा के लिए विवश करना, भाषण की आजादी और कानून के शासन के लिए कटिबद्ध इंटरनेट के समय में भारत को एक आधुनिक देश के रूप में प्रस्तुत करने के सरकार के प्रयास को कमजोर कर देता है।”

असहमति का गला घोंटना: भारत में शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति का अपराधीकरण” नामक 108-पेज की रिपोर्ट में विस्तार से बताया गया है कि भारत में किस प्रकार भाषण की आजादी को सीमित करने और शांत करने के लिए आपराधिक कानूनों का प्रयोग किया जाता है। यह अत्यधिक विस्तृत या अस्पष्ट कानूनों का दस्तावेजीकरण करती है जिनका उपयोग राजनीतिक मतभेद, पत्रकारों के उत्पीड़न, गैर सरकारी संगठनों की गतिविधियों को सीमित करने, मनचाहे तरीके से इंटरनेट साइटों को ब्लॉक करने या सामग्री को हटाने और सीमांत समुदायों, विशेष रूप से दलित एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों को लक्षित करने के लिए किया जाता है।

यह रिपोर्ट राजद्रोह, अपराधिक मानहानि, द्वेषपूर्ण भाषण और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने सहित भारतीय दंड विधान और सरकारी गोपनीयता अधिनियम, सूचना तकनीकी अधिनियम और न्यायालयों की अवमानना अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के गहन विश्लेषण पर आधारित है। यह प्रतिवादियों एवं लक्ष्यों, नगर समाज कार्यकर्ताओं, पत्रकारों एवं वकीलों के साक्षात्कारों पर आधारित है। इसमें सरकार, न्यायालय दस्तावेजों और शांतिपूर्ण भाषण गतिविधियों या शांतिपूर्ण एकत्रीकरण में सम्मिलित लोग जिनके विरुद्ध अपराधिक मामले चल रहे है की मीडिया में निकली कहानियां सम्मिलित हैं।

सबसे अधिक दुरुपयोग किए जाने वाला कानून है राजद्रोह का कानून जिसका उपयोग सभी सरकारों ने किया है। भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए सरकार के खिलाफ बोले गए या लिखे गए शब्दों या कोई भी चिन्ह या दृश्य निरूपण जो “घृणा या अवमानना उत्पन्न कर सके या वैमनस्य भड़का सके या भड़काने का प्रयास कर सके” को प्रतिबंधित करती है। हांलाकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह कानून के प्रयोग पर सीमाएं लगा रखी हैं, जिसमें हिंसा भड़काना एक आवश्यक तत्व है, पुलिस उन मामलों में भी राजद्रोह के आरोप लगाती रहती है, जिन मामलों में इसकी आवश्यकता स्पष्ट रूप से नहीं होती है।

अभी हाल में ही राजद्रोह का दुरुपयोग तब राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गया, जब दिल्ली में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के एक छात्र नेता कन्हैया कुमार को राजद्रोह के मामले में 12 फरवरी 2016 को गिरफ्तार किया गया। सरकार ने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की छात्र शाखा के सदस्यों की शिकायतों पर कार्यवाही की, जिन्होंने आरोप लगाया कि कुमार कैंपस में आयोजित एक सभा के दौरान राष्ट्र-विरोधी भाषण दे रहे थे। भारत के गृह मंत्री ने चेतावनी दी कि इन सभाओं के दौरान जिन लोगों ने भारत विरोधी नारे लगाए और भारत की संप्रभुता और अखंडता को चुनौती दी “बर्दाश्त नहीं किये जाएँगे और बख्शे नहीं जाएँगे।” इसी मामले में दो और छात्रों को गिरफ्तार किया गया, जबकि तीन अन्य पर आरोप लगाए गए। जब पुलिस ने स्वीकार किया कि उनके पास कुमार के द्वारा राष्ट्र-विरोधी नारे लगाने का कोई प्रमाण नहीं है और निश्चित रूप से हिंसा भड़काने का कोई प्रमाण नहीं है, तो न्यायालय ने छः माह की अंतरिम जमानत दे दी। लेकिन सरकार यह स्वीकार करने में असफल रही कि गिरफ्तारियां गलत थीं।

अक्टूबर 2015 में तमिलनाडु राज्य में अधिकारियों ने लोक गायक एस. कोवन को दो गानों के लिए राजद्रोह में गिरफ्तार कर लिया क्योंकि वे गाने राज्य सरकार द्वारा निर्धनों के पैंसो से राज्य-संचालित शराब की दुकानों के लाभ कमाने की आलोचना करते थे।

मई 2016 में एक विवादपूर्ण और निराशाजनक फैसले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपराधिक मानहानि कानून की संवैधानिकता को यह कहते हुए बनाए रखा कि, “किसी व्यक्ति की वाणी की स्वतंत्रता को दूसरे व्यक्ति की ख्याति के अधिकार के साथ संतुलित रखना चाहिए।” लेकिन न्यायालय ने यह स्पष्ट नहीं किया कि किस प्रकार कानून उन अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार शर्तों का उल्लंघन नहीं करता है, जो आपराधिक मानहानि को हटाने की मांग करते या उसने कोई स्पष्ट या बाध्यकारी तर्क नहीं दिया कि किस प्रकार दीवानी उपचार एक कार्यशील कानूनी प्रणाली वाले लोकतंत्र में मानहानि के लिए अपर्याप्त हैं।

मुख्यमंत्री जयललिता के नेतृत्व वाली तमिलनाडु सरकार द्वारा पत्रकारों, मीडिया केन्द्रों और विरोधी राजनीतिज्ञों के खिलाफ अपराधिक मानहानि के आरोपों का बार-बार लगाना दर्शाता है कि किस प्रकार कानूनों का प्रयोग, सरकार के आलोचकों को शांत करने के लिए किया जा सकता है। वर्ष 2011 और 2016 के बीच तमिलनाडु सरकार ने लगभग 200 अपराधिक मानहानि के मामले दायर किए। उदहारण के लिए विकाटन समूह द्वारा प्रकाशित तमिल पत्रिकाएँ, आनंदा विकाटन और जूनियर विकाटन 34 अपराधिक मानहानि के मामलों का सामना कर रही हैं। इनमें वे लेख भी सम्मिलित हैं, जो हर कैबिनेट मंत्री के प्रदर्शन का आकलन कर रहे थे।

ह्यूमन राइट्स वाच का कहना है कि अपराधिक मानहानि को समाप्त कर दिया जाना चाहिए क्योंकि कारावास के साथ ही उनके काफी कठोर परिणाम हो सकते हैं और यह एक ऐसा विचार है, जिसका संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार समिति और मानव अधिकारों पर विभिन्न विशेष प्रतिवेदकों ने भी समर्थन किया है।

गांगुली ने कहा, “राजद्रोह और अपराधिक मानहानि के कानूनों का नियमित रूप से शक्तिशाली आलोचना से बचाव करने और यह संदेश भेजने के लिए किया जाता है कि असहमति की कीमत बहुत अधिक होती है ।”

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बहुधा कहा है कि वह और उनकी सरकार भाषण की स्वतंत्रता के अधिकार को बनाए रखने के लिए कटिबद्ध हैं। उन्होंने जून 2014 में कहा था, “यदि हम भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं दे सकेंगे, तो हमारा प्रजातंत्र नहीं बचेगा”। इसके बावजूद मोदी सरकार न केवल उन कानूनों पर चर्चा करने में असफल रही, जिनका उपयोग इन अधिकारों को बार-बार कुचलने के लिए किया जाता है, बल्कि पिछली सरकारों की तरह उनका उपयोग आलोचना का अपराध की तरह बर्ताव करने के लिए किया। उनकी सरकार ने इसकी कोई एक बाध्यकारी व्याख्या दिये बिना कि दीवानी मुकदमों के माध्यम से आर्थिक मुआवजा, किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा के नुकसान का पर्याप्त उपाय नहीं है, आपराधिक मानहानि कानून को बनाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट में दलील दी।

उत्तरोत्तर भारतीय सरकारें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा करने में असफल रही हैं, बावजूद इसके कि न्यायालयों ने उन्हें बार-बार याद दिलाया है कि कानून और व्यवस्था बनाए रखना राज्य की जिम्मेदारी है और सार्वजनिक व्यवस्था को खतरा, भाषण पर रोक का आधार नहीं हो सकता है।

हांलाकि, रिपोर्ट में दस्तावेजीकरण किए गए राजद्रोह, अपराधिक मानहानि और अन्य कानूनों के कुछ मुकदमों को बाद में बर्खास्त या परित्यक्त कर दिया गया, कई ऐसे लोगों को गिरफ्तार किया गया, मुकदमे से पूर्व बंदी बनाए गए और उन पर महंगे अपराधिक मुकदमे चलाए गए, जो शांतिपूर्ण भाषण के अलावा कुछ नहीं कर रहे थे। ऐसी कार्रवाइयों के डर और अनिश्चितता से एक डरावना वातावरण बनता है और आत्म-अभिवेचन होता है कि पता नहीं किस प्रकार के कानूनों को लागू किया जाएगा।

ह्यूमन राइट्स वाच ने कहा कि भारत सरकार को इन सभी कानूनों की समीक्षा करनी चाहिए और उन्हें अंतर्राष्ट्रीय कानून और भारत की संधि वचनबद्धताओं के अनुरूप समाप्त करना चाहिए या संशोधित करना चाहिए। क्षेत्र में कई देशों में अराजकतावादी ब्रिटिश कानून अभी भी बने हुए हैं और भारत को सुधार प्रयासों में नेतृत्व करना चाहिए।

गांगुली ने कहा, “भारत के न्यायालयों ने किसी हद तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा की है लेकिन जब तक आपकी कानून की किताबों में खराब कानून रहेंगे, भाषण की आजादी खतरे में रहेगी।” “यह एक बड़ा विरोधाभास है कि भारत अपने आपको विश्व भर में तकनीक और अन्वेषण को अपनाने वाली सरकार के रूप में प्रस्तुत करता है और दूसरी ओर यह आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए सदियों पुराने कानून पर निर्भर है। भारत के सामने सुधार प्रारंभ करने का अवसर और उत्तरदायित्व दोनों है, जो कि क्षेत्र के अन्य देशों के लिए सकारात्मक उदाहरण बन सकता है, जो कि पुराने कानूनों के बोझ से दबे हैं।”

भारत के लिए अनुशंसाएँ:

  • शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति का अपराधीकरण करने वाले कानूनों के उन्मूलन या संशोधन के लिए एक स्पष्ट योजना और समयसारिणी बनाएं;
  • अभिव्यक्ति और सभा की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग करने के लिए मुकदमा झेल रहे लोगों के खिलाफ सभी आरोप और जांच समाप्त करें; और
  • पुलिस को प्रशिक्षण दें, ताकि अनुचित मामले न्यायालय में दाखिल न किये जाएँ। न्यायाधीशों को शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति मानकों पर प्रशिक्षित करें, ताकि वे उन मामलों को खारिज कर सकें, जो संरक्षित भाषण का उल्लंघन करते हैं। 

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